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# सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि ।  लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें।  
 
# सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि ।  लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें।  
 
# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुद्धि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक  ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
 
# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुद्धि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक  ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
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# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । तथापि अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
 
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
 
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
 
# परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ ही बनाया है ।  सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की सामर्थ्य भी होती है ।  इस सामर्थ्य की एक मर्यादा होती है ।  इस मर्यादा को लाँघने से प्रकृति के प्रकोप होते हैं ।   
 
# परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ ही बनाया है ।  सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की सामर्थ्य भी होती है ।  इस सामर्थ्य की एक मर्यादा होती है ।  इस मर्यादा को लाँघने से प्रकृति के प्रकोप होते हैं ।   

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