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# संसार में कोई भी वस्तु अपने आप निर्माण नहीं होती। उसे निर्माण करनेवाला होता है। इसी प्रकार किसी के किये बगैर  ‘कुछ’ भी नहीं होता। कोई न कोई करनेवाला होता है। और करने वाले का उस ‘कुछ’ को करने के पीछे एक निश्चित प्रयोजन या उद्देश्य होता है। उसे निर्माण करने का विशेष प्रयोजन भी होता है। इस प्रयोजन के अनुसार ही उस वस्तु में विशेष गुण होते हैं। किसी वस्तु के निर्माण में जो प्रयोजन है इस प्रयोजन को समझने से उस वस्तु का उचित उपयोग किया जा सकता है। प्रयोजन का ज्ञान नहीं होने से उस वस्तु का अनुचित प्रयोग हो सकता है। जब प्रयोजन से भिन्न उपयोग होता है तब उसे अनुचित माना जाता है। जैसे हाथ और मुँह पोंछने के कपडे का प्रयोजन भिन्न है और जमीन साफ करने के कपडे का प्रयोजन भिन्न है। इसी तरह स्त्री और पुरूष में कुछ साम्य हैं तो कुछ भिन्नता भी होती है। इसलिये दोनों के प्रयोजन में कुछ साम्य और कुछ भिन्नता होगी। जैसे कुर्सी का और चौकी का दोनों का निर्माण बैठने के लिये किया जाता है। लेकिन कुर्सी का निर्माण आराम से बैठने के लिये किया जाता है जब कि चौकी पर बैठने में कुर्सी जैसी आराम की अपेक्षा नहीं है।  
 
# संसार में कोई भी वस्तु अपने आप निर्माण नहीं होती। उसे निर्माण करनेवाला होता है। इसी प्रकार किसी के किये बगैर  ‘कुछ’ भी नहीं होता। कोई न कोई करनेवाला होता है। और करने वाले का उस ‘कुछ’ को करने के पीछे एक निश्चित प्रयोजन या उद्देश्य होता है। उसे निर्माण करने का विशेष प्रयोजन भी होता है। इस प्रयोजन के अनुसार ही उस वस्तु में विशेष गुण होते हैं। किसी वस्तु के निर्माण में जो प्रयोजन है इस प्रयोजन को समझने से उस वस्तु का उचित उपयोग किया जा सकता है। प्रयोजन का ज्ञान नहीं होने से उस वस्तु का अनुचित प्रयोग हो सकता है। जब प्रयोजन से भिन्न उपयोग होता है तब उसे अनुचित माना जाता है। जैसे हाथ और मुँह पोंछने के कपडे का प्रयोजन भिन्न है और जमीन साफ करने के कपडे का प्रयोजन भिन्न है। इसी तरह स्त्री और पुरूष में कुछ साम्य हैं तो कुछ भिन्नता भी होती है। इसलिये दोनों के प्रयोजन में कुछ साम्य और कुछ भिन्नता होगी। जैसे कुर्सी का और चौकी का दोनों का निर्माण बैठने के लिये किया जाता है। लेकिन कुर्सी का निर्माण आराम से बैठने के लिये किया जाता है जब कि चौकी पर बैठने में कुर्सी जैसी आराम की अपेक्षा नहीं है।  
 
# सृष्टि की रचना चक्रीयता की है। जैसे सृष्टि निर्माण, विकास और लय, प्राणवायू-कर्बवायू-प्राणवायू, जल-बाष्प-बादल-बरसात, बीज-वृक्ष, फूल-फल-बीज, यज्ञचक्र, प्राणियों के शरीर की रक्ताभिसरण की प्रक्रिया आदि। इन चक्रों को व्यवस्थित करने की, सुधार की सृष्टि की स्वाभाविक व्यवस्था है। लेकिन इस व्यवस्था की सुधार की क्षमता की मर्यादा है। सुधार की इस मर्यादा के अंदर रहकर ही मनुष्य उपभोग कर सकता है। मर्यादा लाँघना पाप होता है। इसी को वर्तमान में प्रकृति का प्रदूषण कहा जाता है। और जब पाप सार्वत्रिक हो जाता है तो कर्म सिध्दांत के अनुसार व्यापक प्राकृतिक संकट निर्माण होते हैं।  
 
# सृष्टि की रचना चक्रीयता की है। जैसे सृष्टि निर्माण, विकास और लय, प्राणवायू-कर्बवायू-प्राणवायू, जल-बाष्प-बादल-बरसात, बीज-वृक्ष, फूल-फल-बीज, यज्ञचक्र, प्राणियों के शरीर की रक्ताभिसरण की प्रक्रिया आदि। इन चक्रों को व्यवस्थित करने की, सुधार की सृष्टि की स्वाभाविक व्यवस्था है। लेकिन इस व्यवस्था की सुधार की क्षमता की मर्यादा है। सुधार की इस मर्यादा के अंदर रहकर ही मनुष्य उपभोग कर सकता है। मर्यादा लाँघना पाप होता है। इसी को वर्तमान में प्रकृति का प्रदूषण कहा जाता है। और जब पाप सार्वत्रिक हो जाता है तो कर्म सिध्दांत के अनुसार व्यापक प्राकृतिक संकट निर्माण होते हैं।  
# सजीव उन्हें कहते हैं जिन्हें जीने के लिये अन्न की आवश्यकता होती है और जो अपने जैसे जीव निर्माण कर सकते हैं। सभी सजीव जैव शृंखला की कडियाँ होते हैं। इन में से एक कडी के नष्ट होने के परिणाम और प्रभाव पूरी सजीव सृष्टिपर होते हैं। सजीवों में बढ़ना और घटना तो प्राकृतिक होता है ।  लेकिन सजीवों में विकास की संभावनाएं भी होतीं हैं ।  निर्जीवों में तो केवल भौतिक रूप परिवर्तन ही संभव होते हैं। ये परिवर्तन भी अन्य किसी चेतन या सजीव की मदद के बिना नहीं होते हैं ।  सजीवों को अपने विकास के लिये आप ही प्रयास करने होते हैं। सजीव जीवात्मा के कारण होते हैं ।  जीवात्मा चेतन पदार्थ है ।  चेतन के लक्षण हैं -  इच्छाद्वेषप्रयत्नासुखदुःख ज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति  ।  (न्याय दर्शन १-१-१०) अर्थ है –इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयत्न करना सुख तथा दु:ख को अनुभव करना अपने में चेतना रखना ।  ब्रह्मसूत्रों में चेतना का एक लक्षण ईक्षण (डीस्क्रीशन) भी बताया है ।  इन लक्षणों का जिसमें अभाव है वह जड़ है ।   
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# सजीव उन्हें कहते हैं जिन्हें जीने के लिये अन्न की आवश्यकता होती है और जो अपने जैसे जीव निर्माण कर सकते हैं। सभी सजीव जैव शृंखला की कडियाँ होते हैं। इन में से एक कडी के नष्ट होने के परिणाम और प्रभाव पूरी सजीव सृष्टिपर होते हैं। सजीवों में बढ़ना और घटना तो प्राकृतिक होता है ।  लेकिन सजीवों में विकास की संभावनाएं भी होतीं हैं ।  निर्जीवों में तो केवल भौतिक रूप परिवर्तन ही संभव होते हैं। ये परिवर्तन भी अन्य किसी चेतन या सजीव की सहायता के बिना नहीं होते हैं ।  सजीवों को अपने विकास के लिये आप ही प्रयास करने होते हैं। सजीव जीवात्मा के कारण होते हैं ।  जीवात्मा चेतन पदार्थ है ।  चेतन के लक्षण हैं -  इच्छाद्वेषप्रयत्नासुखदुःख ज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति  ।  (न्याय दर्शन १-१-१०) अर्थ है –इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयत्न करना सुख तथा दु:ख को अनुभव करना अपने में चेतना रखना ।  ब्रह्मसूत्रों में चेतना का एक लक्षण ईक्षण (डीस्क्रीशन) भी बताया है ।  इन लक्षणों का जिसमें अभाव है वह जड़ है ।   
 
# सृष्टि परिवर्तनशील है। निरंतर बदलती रहती है। बदलने की प्रक्रिया धीमी होती है। इसलिये इसे उत्क्रांति कहते हैं। सृष्टि गतिमान है। इसीलिये इसे जगत (जो गति करता है) भी कहते हैं। लेकिन इस परिवर्तन की प्रक्रिया में कुछ बातें परिवर्तनीय और कुछ बातें अपरिवर्तनीय होतीं हैं। सृष्टि विश्व नियमों से चलाती है ।  इन्हें ही पहले ऋत के नाम से जाना जाता था और वर्तमान में धर्म के नाम से जाना जाता है। धर्म के तत्व चिरंतन होते हैं ।  लेकिन कुछ स्थल, काल और परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से परिवर्तनीय होते हैं। इन परिवर्तनीय बातों को आपद्धर्म कहा जाता है ।  धर्म का सैध्दांतिक पक्ष अपरिवर्तनीय होता है। जब कि व्यावहारिक पक्ष स्थल, काल और परिस्थिती के अनुसार आपद्धर्म (परिवर्तनीय) हो सकता है। आपद्धर्म केवल आपात स्थिति या काल के लिए ही आचरणीय होता है ।  अन्यथा नहीं ।   
 
# सृष्टि परिवर्तनशील है। निरंतर बदलती रहती है। बदलने की प्रक्रिया धीमी होती है। इसलिये इसे उत्क्रांति कहते हैं। सृष्टि गतिमान है। इसीलिये इसे जगत (जो गति करता है) भी कहते हैं। लेकिन इस परिवर्तन की प्रक्रिया में कुछ बातें परिवर्तनीय और कुछ बातें अपरिवर्तनीय होतीं हैं। सृष्टि विश्व नियमों से चलाती है ।  इन्हें ही पहले ऋत के नाम से जाना जाता था और वर्तमान में धर्म के नाम से जाना जाता है। धर्म के तत्व चिरंतन होते हैं ।  लेकिन कुछ स्थल, काल और परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से परिवर्तनीय होते हैं। इन परिवर्तनीय बातों को आपद्धर्म कहा जाता है ।  धर्म का सैध्दांतिक पक्ष अपरिवर्तनीय होता है। जब कि व्यावहारिक पक्ष स्थल, काल और परिस्थिती के अनुसार आपद्धर्म (परिवर्तनीय) हो सकता है। आपद्धर्म केवल आपात स्थिति या काल के लिए ही आचरणीय होता है ।  अन्यथा नहीं ।   
 
# जीवन स्थल के संदर्भ में अखण्ड और काल के संदर्भ में एक है। स्थल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है हमारे सामने के एक सामान्य धूलिकण के हिलने से सारी सृष्टि प्रभावित होती है, हिलती है। वर्तमान आधुनिक विज्ञान में बेल की परिकल्पना (थ्योरम), ने भी अब यह मान्य किया है कि ‘द होल युनिव्हर्स् इज व्हेरी क्लोजली इंटरकनेक्टेड’ यानी सृष्टि के सभी घटक एक दूसरे से बहुत निकटता से और सघनता से जुडे हुए हैं। काल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है प्रकृति के सभी पदार्थों का सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अंततक अस्तित्व होना। और जीवों के सन्दर्भ में भी जीवात्मा का सृष्टि निर्माण के क्रम में जब से जीवन प्रारंभ हुआ तब से सृष्टि विलय के क्रम में जब तक जीवन है तब तक एक होना है।  प्रकृति के पदार्थों में रूप परिवर्तन हो सकता है लेकिन तत्व ही नष्ट हो गया ऐसा नहीं होता। जीवों के सन्दर्भ में केवल शरीर परिवर्तन होता है । इस शरीर परिवर्तन को पुनर्जन्म कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को कहते हैं बहुनि मे व्यतितानि जन्मानि तवचार्जुन। अर्थ : सृष्टि के प्रारंभ से तुम्हारे और मेरे अनेकों जन्म हुए हैं।  
 
# जीवन स्थल के संदर्भ में अखण्ड और काल के संदर्भ में एक है। स्थल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है हमारे सामने के एक सामान्य धूलिकण के हिलने से सारी सृष्टि प्रभावित होती है, हिलती है। वर्तमान आधुनिक विज्ञान में बेल की परिकल्पना (थ्योरम), ने भी अब यह मान्य किया है कि ‘द होल युनिव्हर्स् इज व्हेरी क्लोजली इंटरकनेक्टेड’ यानी सृष्टि के सभी घटक एक दूसरे से बहुत निकटता से और सघनता से जुडे हुए हैं। काल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है प्रकृति के सभी पदार्थों का सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अंततक अस्तित्व होना। और जीवों के सन्दर्भ में भी जीवात्मा का सृष्टि निर्माण के क्रम में जब से जीवन प्रारंभ हुआ तब से सृष्टि विलय के क्रम में जब तक जीवन है तब तक एक होना है।  प्रकृति के पदार्थों में रूप परिवर्तन हो सकता है लेकिन तत्व ही नष्ट हो गया ऐसा नहीं होता। जीवों के सन्दर्भ में केवल शरीर परिवर्तन होता है । इस शरीर परिवर्तन को पुनर्जन्म कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को कहते हैं बहुनि मे व्यतितानि जन्मानि तवचार्जुन। अर्थ : सृष्टि के प्रारंभ से तुम्हारे और मेरे अनेकों जन्म हुए हैं।  

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