Dik Desh and Kala Nirnaya in Jyotisha (ज्योतिष में दिग् देश और काल निर्णय)

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ज्योतिषशास्त्रमें देश की अवधारणा और उसके भेदों का वर्णन है। इसमें देश और भूमि का विश्लेषण। ग्रामवास में नराकृति, नाम राशि के अनुसार ग्रामवास का शुभ विचार, विधि तथा निषेध, अक्षांश, देशान्तर आदि का परिचय प्राप्त होगा। एवं दिक् परिचय, दिक् साधन की प्राचीन विधियाँ, दिक् साधन की आधुनिक विधियाँ और इन दोनों विधियों के अन्तर का ज्ञान यहाँ प्राप्त करेंगे। ज्योतिष शास्त्रमें काल की अवधारणा और इसके भेदों का वर्णन भी किया गया है।

दिक् परिचय

ज्योतिषशास्त्र के किसी भी स्कन्ध के मुख्य रूप से तीन आधार स्तम्भ हैं - दिक् , देश एवं काल। इन्हीं तीनों के आधार पर ज्योतिषीय गणित, फलित एवं संहिता आदि स्कन्ध अपना-अपना कार्य करती है।अतः उनमें यहाँ दिक् साधन से सम्बन्धित विषयों को प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ हम दिक् साधन के गणितीय एवं उसका सैद्धान्तिक पक्ष के स्वरूप को समझते हैं।

दिक् साधन ज्योतिषशास्त्र के मूलाधार पक्षों में से एक है। ऋषियों ने किसी भी वस्तु के परिज्ञान के लिये दिक् साधन की व्यवस्था प्रतिपादित किया है। ज्योतिष में प्रयोग के तीन पक्ष हैं- दिक् , देश एवं काल। इनके ज्ञानाभाव में ज्योतिषशास्त्र द्वारा सम्यक् रूप से किसी भी तथ्य को जानपाना सर्वथा दुष्कर है।

ज्योतिष के त्रिप्रश्नों (दिक् देश एवं काल) में से एक है- दिक् । सामान्यतया दिक् शब्द का अर्थ होता है- दिशा। दिग् व्यवस्था द्वारा ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत एवं इस पृथ्वी पर किसी की स्थिति का निर्धारण किया जा सकता है। सामान्यतया दिक् या दिशा के बारे में आम लोग केवल इतना जानते हैं कि दिशायें केवल चार होती हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण, परन्तु ऐसा नहीं है।

ज्योतिष शास्त्र में दिशाओं की संख्या १० कही गयी है। पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण, नैरृत्य कोण, पश्चिम, वायव्य कोण, उत्तर, ऐशान्य कोण, ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओं को विदिशा के नाम से भी जाना जाता है।

दिक् की अवधारणा

विदिशा निर्णय

आग्नेयी पूर्वदिग्ज्ञेया दक्षिणादिक् च नैरृती। वायवी पश्चिम दिक् स्यादैशानी च तथोत्तरा॥

अर्थात् अग्निकोण की गणना पूर्वदिशा में, वायव्य कोण की पश्चिम दिशा में, नैरृत्य कोण की दक्षिण दिशा में तथा ईशान कोण की गणना उत्तर दिशा में जानना चाहिये।

दिशा विचार

यत्रोदेत्यस्ततां गच्छेदर्कस्ते पूर्वपश्चिमे। ध्रुवो यत्रोत्तरादिक् सा तद्विरुद्धा च दक्षिणा॥

अर्थात् जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है, वह पूर्व दिशा है, जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है, उसे पश्चिम दिशा कहते है। जिस दिशा में ध्रुव तारा दिखलाई दें उसे उत्तर दिशा और उससे विरुद्ध भाग में दक्षिण दिशा समझना चाहिये।

स्पष्टदिक् साधन

सायानार्काजसंक्रान्तौ काले सूर्योदये नरैः। भास्कराभिमुखैर्ज्ञेया दिशोsथ विदिशः स्फुटाः॥ संमुखे पूर्वदिग् ज्ञेया पश्चाद् ज्ञेया च पश्चिमा। उत्तरा वामभागे या दक्षिणे सा च दक्षिणा॥

सायन मेष के संक्रान्ति में सूर्योदय काल में सूर्याभिमुख होकर स्पष्ट दिशा और विदिशाओं का ज्ञान करना चाहिये। सम्मुख जो दिखे वह पूर्व, पीछे पश्चिम, बायें उत्तर और दाहिनें भाग की दक्षिण दिशा होती है। प्रधानतया आठ दिशाओं के स्वामी इस प्रकार कहे गये हैं-

प्राच्यादिशा रविसितकुजराहुयमेन्दुसौम्यवाक्पतयः। क्षीणेन्द्वर्कयमाराः पापास्तैः संयुतः सौम्यः॥

पूर्वादि आठ दिशाओं के स्वामी क्रमशः सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चन्द्र, बुध और गुरु होते हैं।

स्पष्टार्थ चक्र
दिशा पूर्व अग्निकोण दक्षिण नैरृत्यकोण पश्चिम वायव्यकोण उत्तर ईशानकोण
स्वामी सूर्य शुक्र मंगल राहु शनि चन्द्र बुध गुरु

दिक् साधन की विधि

अभी तक हमने दिशाओं को पूर्वादि भेद से दश प्रकार की होती हैं। जिनका उपयोग किसी भी एक स्थान से दूसरे स्थान का निर्धारण करने में किया जाता है। वर्तमान समाज वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से अति उन्नत हो गया है अतः आजकल सभी लोग कम्पास नामक या अन्य किसी आधुनिक यन्त्र से पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु पुरातन काल में जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था तथा इससे सम्बन्धित सुविधाएँ सबके लिए सुलभ नहीं थी तब भी हमारे ऋषि-महर्षि एवं आचार्यगण ग्रह-नक्षत्रादि के वेध के द्वारा अथवा सूर्य की छाया के द्वारा पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान करते थे। अतः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिग् ज्ञान की जो विधियाँ महत्त्वपूर्ण बतलायी गई हैं उनका हम उपस्थापन यहाँ कर रहे हैं-

विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।

ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः।

पुण्याहं कूर्मशेषो क्षितिमपि कुसुमाद्यैः समाराध्य शुद्धे, वारे व्यतिथ्यां च कुर्मात् सुरपतिककुभः साधनं मण्डपार्थम् ॥(बृ०वा०मा०अ०दि०सा०श्लो०सं०३)

स्थूल दिक् साधन

यत्रोदितोsर्कः किल तत्र पूर्वा तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम् । तन्मत्स्यतोsन्ये च ततोsखिलानामुदकस्थितो मेरुरितिप्रसिद्धम् ॥

भास्कराचार्य के इस वचन के अनुसार सभी स्थानों पर जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह उस स्थान की पूर्व दिशा तथा जिस दिशा में सूर्य का अस्त होता है वह पश्चिम दिशा होती है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा का सूर्योदय एवं सूर्यास्त देखकर निर्धारण करने के बाद पुनः पूर्व और पश्चिम बिन्दुओं की सहायता से पूर्वाभिमुख खडे होकर वाम भाग द्वारा उत्तर और दक्षिण भाग द्वारा दक्षिण दिशा का निर्धारण किया जाता है।

इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं।

दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां

ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना

दिक्साधन की आधुनिक विधि

वर्तमान में दिक् साधन हेतु प्राचीन विधियों के साथ-साथ कुछ आधुनिक विधियां भी प्रयोग में हैं। वस्तुतः सर्वविदित है कि वर्तमान काल यंत्रप्रधान काल है अतः लगभग हर कार्य यन्त्रों के द्वारा करने का प्रयास हो रहा है।

प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर

ध्रुवतारे से दिक्साधन विधि

वास्तुराजवल्लभ में ध्रुवतारे द्वारा दिक्साधन की विधि को बताया गया है कि ध्रुव तारे के ऊपर मार्कटिका नाम की दो तारिकाएँ जब भ्रमण के दौरान तारे के साथ सीधी रेखा में आ जाए, तो उस ओर ही उत्तर दिशा रहती है, मार्कटिका की दोनों तारिकाओं तथा अवलम्ब के एक सूत्र में होने पर अवलम्ब के पीछे घडे पर दीप रखने पर दोनों तारिकाएँ एक सूत्र में आ जाए तब दीपक की तरफ वाली दिशा दक्षिण होगी और तारिकाओं के तरफ वाली दिशा उत्तर होगी। इसको समझने के लिये ३२ अंगुल का वृत्त बनाएं फिर उसमें १२ अंगुल का शंकु केन्द्र में रखें जहां इसकी छाया वृत्त में प्रवेश करे वहां पश्चिम दिशा तथा जिधर से छाया निर्गत हो वह पूर्व दिशा होगी। इस प्रकार चारों दिशाओं का ज्ञान हो जाता है। जैसा कि कहा भी है कि-

तारे मार्कटिके ध्रुवस्य समतां नीतेऽवलम्बे नते दीपाग्रेण तदैक्यतश्च कथिता सूत्रेण सौम्या ककुद्। शङ्कोर्नेत्रगुणे तु मण्डलवरे छायाद्वयान्मत्स्ययोर्जाता यत्र युतिस्तु शड़्कुतलयो याम्योत्तरे स्तः स्फुटे॥(वास्तुरत्नावली दिग्ज्ञानाध्याय- श्लोक ८)

दिक् साधन का महत्व

विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।[1]

प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥(वास्तुरत्नावली-३/१)

वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।

देश का विचार

देश-स्थान-क्षेत्र ये सब समानार्थक शब्द हैं। वस्तुतः देश अथवा स्थान के निर्धारण हेतु अक्षांश एवं देशान्तर का साधन किया जाता है। अब अक्षांश और देशान्तर क्या हैं ये समझने के लिए पृथ्वी के गोलत्व को समझना पडेगा।

जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी गोल है। इस प्रकार गोल पृथ्वी को दो आधे-आधे भागों में बांटा जा सकता है। यहाँ हम पहले प्रकार से गोल को पृथ्वी के दोनों उपरीभाग अर्थात् पृष्ठीय ध्रुवों से ९० अंश की दूरी पर स्थित भूमध्य रेखा से दो भागों में विभाजन किया जाता है। इन दोनों गोलार्द्धों को बीच से विभाजित वाली रेखा को ही भू मध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा अथवा निरक्षवृत्त अर्थात् शून्य अक्षांश रेखा भी कहा जाता है।

इसको अगर हम दूसरे शब्दों में समझे तो इसी भूमध्य से उत्तरी ध्रुव तक के नब्बे अंश के क्षेत्र को उत्तरी गोलार्द्ध तथा इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव तक के ९० अंशों तक के विस्तार को दक्षिणी गोलार्द्ध के नाम से जाना जाता है। हम अपने स्थान का निर्धारण भी इसी विषुवद्वृत्त के आधार पर अक्षांशों द्वारा करते हैं।

द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।

अक्षांश विचार

देशान्तर विचार

काल की अवधारणा

यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है।

परिचय

काल

दिन

पक्ष

मास

वर्ष

अयन

गोल

उद्धरण

  1. योगेंद्र कुमार शर्मा, दिक् की अवधारणा एवं भेद, सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।