Differences between Dharma and Religion (धर्म एवं पंथ (सम्प्रदाय) में अंतर)

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कई विद्वान ऐसा कहते हैं कि धर्म अफीम की गोली है। धर्म के कारण विश्वभर में खून की नदियाँ बहीं हैं। भीषण कत्लेआम हुए हैं।

वास्तव में ऐसा जिन विद्वानों ने कहा है उन्हे धर्म का अर्थ ही समझ मे नहीं आया था और नहीं आया है । रिलिजन, मजहब के स्थान पर धर्म शब्द का और धर्म के स्थान पर रिलिजन, मजहब इन शब्दों का प्रयोग अज्ञानवश लोग करते रहते हैं। इसलिये धर्म और रिलिजन, मजहब और संप्रदाय इन तीनो शब्दों के अर्थ समझना भी आवश्यक है। इस दृष्टि से हमने "धर्म:धार्मिक जीवन दृष्टि", इस लेख में धर्म शब्द के अर्थों को समझा है।

अब हम धर्म और रिलिजन या मजहब इन शब्दों के वास्तविक अर्थ जानने का प्रयास करेंगे।

हिन्दुस्तान को किराने की दूकान की उपमा दी जाती है। किराने की दुकान में चीनी, दाल, आटा, तेल, मसाले ऐसे भिन्न भिन्न सैंकड़ों पदार्थ होते हैं लेकिन किराना नाम का कोई पदार्थ नहीं होता है। इसी तरह से हिन्दुस्तान में शैव हैं, बौद्ध हैं, वैष्णव हैं, गाणपत्य हैं, लिंगायत हैं, जैन हैं, सिख हैं, ईसाई हैं, मुस्लिम हैं लेकिन हिन्दू नहीं है। जब संविधान बन रहा था, तब हिन्दू कोड बिल की चर्चा के समय कई पंथों, सम्प्रदायों के लोगोंं ने माँग की थी कि वे हिन्दू नहीं हैं। उन पर हिन्दू कोड बिल लागू न किया जाए। इसपर काफी बहस हुई थी। अंत में हिन्दू कौन है इसकी स्पष्टता की गयी थी। इस के अनुसार जो पारसी, यहूदी, ईसाई या मुसलमान नहीं है वे सब हिन्दू हैं ऐसा स्पष्ट किया गया था। और सब मान गए थे। इस के लिए हिन्दू में कौन कौन से मत, पंथ या सम्प्रदायों का समावेश होता है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी थी।

इससे प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू क्या है? पारसी, यहूदी, ईसाई या मुसलमान जिनके नाम लेकर कहा गया था कि इन्हें छोड़कर जो भी हैं वे सब हिन्दू हैं, वे क्या हैं? और शैव, बौद्ध, वैष्णव, गाणपत्य, लिंगायत, जैन, सिख आदि जिन के नाम न लेकर भी जिनका समावेश हिन्दू समाज में किया गया वे क्या हैं?[1]

सम्प्रदाय

सम्प्रदाय में ‘दा’ का अर्थ है देना। ‘प्र’ का अर्थ है व्यवस्था से देना और ‘सं’ का अर्थ है अच्छी व्यवस्था से देना। किसी विद्वान के मन में श्रेष्ठ जीवन के विषय में कोई श्रेष्ठ विचार आता है, जो सामान्य विचारों से भिन्न होता है। वह उसे किसी को बताता है। विचार अच्छा लगाने से दूसरा मनुष्य उस विचार को ग्रहण करता है। वह भी उस विचार को अन्यों को देता है। इस प्रकार से उस विचार का प्रारम्भ करनेवाले मनुष्य के कई अनुयायी बन जाते हैं। ये सब मिलकर एक संप्रदाय बन जाता है।

मजहब या रिलिजन

मजहब और रिलिजन ये दोनों ही एक ही अर्थ के दो शब्द हैं। दोनों ही अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। ऊपर बताए सम्प्रदाय के अर्थ के अनुसार ये भी सम्प्रदाय ही की तरह होते हैं। लेकिन ये रिलिजन या मजहब भिन्न होते हैं। रिलिजन शब्द अंग्रेजी भाषा से याने ईसाईयों से और मजहब शब्द अरबी भाषा से याने इस्लाम से जुडा हुआ है। ये दो मजहब आज विश्व में जनसंख्या के मामले में क्रमश: पहले और दूसरे क्रमांक पर हैं। पूरी दुनिया को बहुत प्रभावित करते हैं।

प्रमुख रिलिजन या मजहब

ईसाईयत का प्रारम्भ लगभग २००० वर्ष पूर्व और इस्लाम का प्रारंभ लगभग १४०० वर्ष पूर्व हुआ था।

एक और भी नया रिलिजन या मजहब है। वह है कम्युनिज्म। कम्युनिज्म के इस तत्व को कि मनुष्य मेहनत करे, संपत्ति निर्माण करे और सम्पत्ति सरकार की या अन्य किसी की हो, कोई स्वीकार नहीं कर सकता। अतः कम्युनिज्म अपने ही आत्मविरोध के कारण नष्ट होने की दिशा में बढ़ रहा है। हाँ ! इसका नया रूप धीरे धीरे फिर पनपने लगा है। नव-सोशलिज्म के नाम से यह चल रहा है। इसका उद्देश्य वर्तमान में जो भी व्यवस्थाएँ हैं उन्हें तोड़ना है। नया कोई विकल्प निर्माण करने का कोई विचार इसमें नहीं है।

वर्तमान में जो सबसे प्रभावी रिलिजन या मजहब हैं ईसाई और इस्लाम हैं उन पर कुछ विचार:

वैसे तो ये दोनों मजहब एक ही माला के मणि हैं। सेमेटिक मजहब माने जाते हैं। सृष्टि निर्माण की समान कल्पनाएँ लेकर बने हैं। इसलिये इन की जीवन दृष्टि भी लगभग समान है। तथापि दोनों ने एक दूसरे को मिटाने के लिए बहुत प्रयास किये हैं। इन दोनों मजहबों का जन्म जिस अरब भूमि में हुआ है वहाँ की परिस्थिति इन के स्वभाव का कारण है। प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक मुजफ्फर हुसैन कहा करते थे कि अरब भूमि की भौगोलिक स्थिति अभावग्रस्त जीवन की थी। जब तक दूसरों को लूटोगे नहीं तबतक अपना जीवन नहीं चला सकते।

डॉ. राधाकृष्णन अपनी पुस्तक रिलिजन एंड कल्चर में पृष्ठ १७ पर लिखते हैं – प्रारम्भिक ईसाईयत सत्ताकांक्षी (अथोरिटेरियन) नहीं थी। लेकिन जैसे ही रोम के राजा ने ईसाईयत को अपनाया वह अधिक सत्ताकांक्षी बन गयी। इसका अर्थ है कि मूलत: भी ईसाईयत में सत्ताकांक्षा तो थी ही। यही बात इस्लाम के विषय में भी सत्य है। मक्का काल में इस्लाम के अनुयायीयों की संख्या बहुत कम थी। तब उसमें याने उस काल की कुरआन की आयतों में इस्लाम न मानने वालों के साथ मिलजुलकर रहना, भाईचारा आदि शब्द थे। लेकिन जैसे ही मदीना पहुंचकर इस्लाम के अनुयायीयों की संख्या बढी इस्लाम की भाषा बदल गयी। वह सत्ताकांक्षी हो गयी।

धर्म, रिलिजन, मजहब तथा संप्रदाय - एक विवेचना

धर्म और रिलिजन, मजहब तथा संप्रदाय इन शब्दों के अर्थ समझना आवश्यक है। धर्म बुद्धि पर आधारित श्रद्धा है। जबकि रिलिजन, मजहब, मत, पंथ या सम्प्रदाय की सभी अनिवार्य बातें बुद्धियुक्त ही हों यह आवश्यक नहीं होता। धर्म यह पूरी मानवता के हित की संकल्पना है। धर्म मानवता व्यापी है। रिलिजन, मजहब, मत, पन्थ या संप्रदाय उस रिलिजन, मजहब, मत, पंथ या संप्रदाय के लोगोंं को अन्य मानव समाज से अलग करने वाली संकल्पनाएँ हैं।

रिलिजन, मजहब या संप्रदायों का एक प्रेषित होता है। यह प्रेषित भी बुद्धिमान और दूरगामी तथा लोगोंं की नस जाननेवाला होता है। किन्तु वह भी मनुष्य ही होता है। उस की बुद्धि की सीमाएँ होतीं हैं। धर्म तो विश्व व्यवस्था के नियमों का ही नाम है। धर्म का कोई एक प्रेषित नहीं होता। धर्म यह प्रेषितों जैसे ही, लेकिन जिन्हे आत्मबोध हुवा है ऐसे कई श्रेष्ठ विद्वानों की सामुहिक अनुभव और अनुभूति की उपज होता है।

रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होते हैं। इन की एक पुस्तक होती है। जैसे पारसियों की झेंद अवेस्ता, यहुदियों की ओल्ड टेस्टामेंट, ईसाईयों की बायबल, मुसलमानों का कुरआन और कम्यूनिस्टों का जर्मन भाषा में ‘दास कॅपिटल’ (अन्ग्रेजी में द कॅपिटल) आदि । रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होने के कारण अपरिवर्तनीय होते हैं। इन में लचीलापन नहीं होता। आग्रह से आगे दुराग्रह की सीमा तक यह जाते हैं।

एक और बात भी यहाँ विचारणीय है। मजहबों या रिलिजन समूचे विश्व को चल, बल, कपट जिस भी तरीके से हो अपने मजहब का बनाना यह उनका लक्ष्य होता है।

भारत में धर्म तथा संप्रदाय

हिन्दू एवं धार्मिक” तथा ‘धर्म’ के अध्याय में हमने हिन्दू और धर्म के विषय में जाना है। अब हम हिन्दू धर्म और संप्रदाय के विषय में विचार करेंगे।

धार्मिक सम्प्रदाय सामान्यत: वेद को माननेवाले ही हैं। भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में कई ऐसे राजा थे जो किसी सम्प्रदाय को मानते थे। किन्तु एक बौद्ध मत को माननेवाले सम्राट अशोक को छोड़ दें तो उन्होंने कभी भी अपनी प्रजा में सम्प्रदाय के आधार पर किसी को प्रताड़ित नहीं किया। उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया। हिन्दूओं की मान्यता है – एकं सत् विप्र: बहुधा वदन्ति ।

सम्प्रदायों के विस्तार का प्रारम्भ बौद्ध मत से आरम्भ हुआ। बौध सम्प्रदाय यह भारत का पहला प्रचारक सम्प्रदाय था। भिन्न विचार तो लोगोंं के हुआ करते थे। कम अधिक संख्या में उनके अनुयायी भी हुआ करते थे। लेकिन प्रचार के माध्यम से अपने सम्प्रदाय को माननेवालों की संख्या बढाने के प्रयास नहीं होते थे।

भारत में भी कई मत, पंथ या संप्रदाय हैं। किन्तु सामान्यत: वे असहिष्णू नहीं हैं। इन संप्रदायों ने अपने संप्रदायों के प्रचार प्रसार के लिये सामान्यत: हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया। हिन्दू समाज ने कभी भी छल, बल, कपट का उपयोग संख्या बढाने के लिए नहीं किया है। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ याने पूरे विश्व को आर्य बनाने की अभिलाषा तो हिन्दुओं की भी है। आर्य का सरल अर्थ है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ (चराचर - सब सुखी हों) में विश्वास रखने वाला और वैसा व्यवहार करनेवाला। लेकिन इस के तरीके के रूप में हिन्दुओं का विश्वास छल, बल, कपट पर नहीं है।

उनका विश्वास है ‘स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्’ पर। स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन् का अर्थ है अपने श्रेष्ठ व्यवहार से लोगोंं को इतना प्रभावित करना कि उन्हें लगने लगे कि हिन्दू बनाना गौरव की बात है। हिन्दुओं की समूचे विश्व को आर्य बनाने की आकांक्षा बुद्धियुक्त भी है। यदि केवल हम ही सर्वे भवन्तु सुखिन: में विश्वास रखेंगे और विश्व के अन्य समाज बर्बर और आक्रामक बने रहेंगे तो वे हमें भी सुख से जीने नहीं देंगे। इतिहास बताता है कि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् की आकांक्षा हिन्दू समाज में जब तक रही, उस दृष्टि से आर्यत्व के विस्तार के प्रयास होते रहे तब तक भारतभूमि पर कोई आक्रमण नहीं हुए। लेकिन यह आकांक्षा जैसे ही कम हुई या नष्ट हुई भारतभूमि पर बर्बर समाजों ने आक्रमण आरम्भ कर दिए।

हमारे राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने एक बार युवकों से प्रश्न पूछा था कि विचार करिए कि हमारे पूर्वजों ने (हिन्दुओं ने) कभी अन्य समाजों पर आक्रमण क्यों नहीं किये? यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि विश्व में जो भी समाज बलवान बने उन्होंने अन्यों पर आक्रमण किये। केवल हिन्दू ही इसके लिए अपवाद है। अब्दुल कलामजी के कहने का तात्पर्य संभवतः इस सत्य को स्पष्ट करने से रहा होगा कि जो बर्बर, दुष्ट, स्वार्थी, पापी होते हैं वही अन्यों पर आक्रमण करते हैं। सदाचारी एकात्मतावादी कभी किसीपर आक्रमण नहीं करते। यही हमारी परम्परा है। तथापि यदि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् यह हमारा प्रकृति प्रदत्त कर्तव्य है तो यह हम कैसे निभा सकेंगे। इन में तो विरोधाभास दिखाई देता है। इसका उत्तर हमें हमारे पूर्वजों के व्यवहार और भारत के इतिहास में मिलता है।

कहा है[2]:

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मना: ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्व मानवा: ।।

अर्थ : इस देश के सपूत ऐसे होंगे जो अपने श्रेष्ठतम व्यवहार से विश्व के लोगोंं के दिल जीत लेंगे। सम्पूर्ण मानव जाति के सामने अपने त्याग-तपोमय, पौरुषमय श्रेष्ठ जीवन से ऐसे आदर्श निर्माण करेंगे कि लोग सहज ही उनका अनुसरण करेंगे।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ४, लेखक - दिलीप केलकर
  2. मनुस्मृति

अन्य स्रोत: