Dharmik View on History (धार्मिक इतिहास दृष्टि)

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प्रस्तावना

धार्मिक समाज के बारे में ऐसा कहा जाता है कि 'हमने इतिहास से केवल एक बात सीखी है और वह है इतिहास से कुछ भी नहीं सीखना'। इस बात मे तथ्य है ऐसा वर्तमान धार्मिक समाज के अध्ययन से भी समझ में आता है । कुछ लोग दंभ से कहते है कि हम इतिहास सीखते नहीं, हम इतिहास निर्माण करते है। ऐसे घमंडी लोगोंं की ओर ध्यान नहीं देना ही ठीक है। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे लोग भविष्य में बार बार अपमानित होते रहते है। इतिहास से समाजमन तैयार होता है। हर समाज में साहित्य, लेखन, लोककथाएँं, बालगीत, लोकवांग्मय, लोरीगीत आदि के माध्यम से इतिहास के उदात्त प्रसंगों द्वारा समाज मन तैयार करने की सहज प्रक्रिया हुआ करती थी। सामान्य लोग इसे भलीभाँति समझते है। इसलिये वर्तमान विद्यालयीन शिक्षा में यद्यपि विदेशी शासकों की भूमिका से लिखा इतिहास पढाया जाता है, तथापि लोकसाहित्य, लोकगीत, बालगीत, लोरियाँ आदि अब भी भारत के गौरवपूर्ण इतिहास की गाथा ही गाते है।[1]

शत्रुओं द्वारा लिखित धार्मिक इतिहास की पार्श्वभूमि

सामान्यत: अपने विद्यालयों में पढाए जानेवाले इतिहास की पार्श्वभूमि हमारे इतिहास शिक्षकों को विदित नहीं होती। यह जानकारी केवल आँखें खोलने वाली ही नहीं तो अपने वास्तविक इतिहास के लेखन की अनिवार्यता की प्रेरणा देनेवाली भी है।

अंग्रेजी राज भारत में आने से कुछ समय पहले १८ वीं सदी के उत्तरार्ध तक केवल इंग्लैंड ही नहीं तो योरप के सभी देशों में भारत के प्रति, आर्य संस्कृति के प्रति, धार्मिक परंपराओं के प्रति, सामान्य धार्मिक मनुष्य की नीतिमत्ता के प्रति अपार आदर था। भिन्न भिन्न ढंग से अपनी संस्कृति को आर्यों से जोडने की होड़ योरप के फ्रांस, जर्मनी जैसे सभी देशों में लगी थी। इंग्लैण्ड भी पीछे नहीं था। १७५४ में व्हॉल्टेयर ने लिखा है कि मानव जाति को प्रगति के लिये भारत से मार्गदर्शन लेना चाहिये ।

फ्रांस के बादशाह नेपोलियन का भारतप्रेम तो सर्वश्रुत ही था। हेगेल ने तो संस्कृत भाषा के योरपीय देशों को हुए परिचय की तुलना एक नये द्वीपकल्प की खोज से की थी। जर्मनी ने जर्मन भाषा के व्याकरण में सुधार कर उसे संस्कृत भाषा के व्याकरण जैसा बनाने का प्रयास किया।

ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का राज्य भारत में दृढता की ओर बढ रहा था। अँगरेज़ समझ गए थे कि धार्मिक समाज के प्रति गौरव का भाव लेकर धार्मिकों पर शासन नहीं किया जा सकता। वे जानते थे कि धार्मिकों की संस्कृति, रहनसहन और मानसिकता जब तक अंग्रेजों की अनुगामिनी नहीं बनेगी भारतवर्ष पर राज करना असंभव होगा। ऐसा विचार यहाँ के अंग्रेजी शासक कर रहे थे। चार्ल्स् ग्रँट उन में से ही एक था। भारत को ईसाई बनाना भारत में चिरंतन कालतक अंग्रेजी राज्य के लिये अनिवार्य है ऐसा यह शासक सोचते थे। सन १७९० में अपना २३ वर्षों का ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी का कार्यकाल पूरा कर वह इंग्लैंड लौटा था। भारत का ईसाईकरण करने की आकांक्षा रखनेवाले ईसाई आंदोलन (इव्हेंजेलिकल सोसायटी) के कार्यकर्ता विल्बरफोर्स, जेम्स् स्टुअर्ट मिल आदि लोग भी ऐसा ही सोचते थे। चार्ल्स् ग्रँट द्वारा निरंतर चलाए अभियान के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों ने भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव १७९२ की इंग्लैंड की चार्टर्ड डिबेट में प्रस्तुत किया।

राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पद्दति थी। इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था। १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम रोबर्टसन द्वारा लिखे और १७९२ में प्रकाशित 'हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधार पर भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी। भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी धार्मिक सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था। उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी। धार्मिक साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था[2]। १७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पादरियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया। इन पादरियों द्वारा भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया। जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था। इसी इतिहास के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया।

इसी के मध्य चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाड़ने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण आरम्भ हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।

सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है। मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था। उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया। मॅकलिफ सिंग बन गया। जीते हुए समाज का और वह भी गोरी चमडी वाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।

जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥

सिक्खों के दसवें गुरू गोविद सिंह जी ने खालसा (सिख) पंथ की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है। किन्तु सिखों (केशधारी हिन्दू) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला। १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है। कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया। किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है कि अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है। इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखने पर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है।

स्वाधीनता के बाद इस में परिवर्तन होगा ऐसी आशा थी। किन्तु जवाहरलाल नेहरूजी का नेतृत्व हमें मिला। वह योरपीय सोच से अत्यधिक प्रभावित थे। धार्मिकता के संबंध में उन की समझ बहुत कम और गलत थी। इसीलिये भारत के राष्ट्रपुरूष शिवाजी को उन्होंने 'राह भटका देशभक्त (मिसगायडेड पॅट्रियट)' कहा। गांधीजी की धार्मिकता के नेहरूजी कट्टर विरोधी थे। काँग्रेस में घुसे कम्युनिस्टों के कारनामों को वह समझ नहीं सकते थे। इतिहास लेखन की जिम्मेदारी स्वाधीन भारत में नेहरूजी ने जिन्हें सौंपी वे सब छद्म किन्तु कट्टर कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्टों का इतिहास भारत के साथ गद्दारी का ही रहा है। उन्हें देश के सत्य इतिहास के लेखन में और धार्मिक आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा में कोई रस नहीं था, न आज है। इस कम्युनिस्ट गुट ने जितना भी इतिहास लेखन में योगदान दिया है, उस के कारण हमारे बच्चोंं की इतिहास पढने में रुचि खतम हो गई है। पूरा इतिहास हिन्दू समाज के बच्चोंं के मन में हीनताबोध निर्माण करनेवाला लिखा गया है। इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन की इन की दृष्टि तो जेम्स् स्टुअर्ट मिल की ही रही है।

जबतक शेर अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, शिकारी की भूमिका से ही इतिहास लिखे जाएंगे। यही हमारे इतिहास के बारे में हो रहा है। भारत का स्वर्णयुग, गुप्त काल जिस का वर्णन चीनी प्रवासियों ने कर रखा है, उसे अंग्रेज भी नकार नहीं सके थे। किन्तु हमारे इतिहास विभाग ने एक चक्रक (सर्क्युलर) निकालकर आदेश दिया कि 'गुप्त काल को स्वर्णयुग कहकर उस का गौरव नहीं करें'। तथाकथित इतिहासज्ञों (छद्म कम्युनिस्टों) ने इंडियन काउन्सिल फॉर हिस्टॉरिकल रिसर्च इस सर्वोच्च संस्था पर लगभग ५० वर्षों तक कब्जा जमाए रखा था। १९९८ में इन्हे बर्खास्त किया गया।

अरूण शौरी की पुस्तक 'एमिनंट हिस्टॉरियन्स् - देयर टेक्नॉलॉजी, देयर लाईन ऍंड देयर फ्रॉड्स्' में सबूतों के साथ इरफान हबीब, रोमिला थापर, जगदीशचन्द्र आदि ४०-५० तथाकथित इतिहासज्ञों के कारनामों की जानकारी मिलती है। इन तथाकथित इतिहासकारों ने सरकारी तिजोरी को लाखों रुपयों का चूना कैसे लगाया इस के ऑंकडे भी इस पुस्तक में दिये है। इस तरह स्वाधीनता से पहले अंग्रेजी और स्वाधीनता के उपरांत कम्युनिस्ट ऐसी पाश्चात्य भूमिकाओं से ही हमारे इतिहास की प्रस्तुति हुई है।

हम अपने बच्चोंं को कैसा बनाना चाहते है यह हमें सोचना होगा । और इस सोच के अनुसार इतिहास का पुनर्लेखन हमें करना होगा । इस का अर्थ यह नहीं की हम झूठा इतिहास लिखें। इतिहास के विषय में धार्मिक मान्यता है, 'ना मूलम् लिख्यते किंचित्'। इसलिये जो वास्तव में घटित हुआ है उस की धार्मिक दृष्टिकोण से मीमांसा करते हुए हमें अपना इतिहास फिर से लिखना होगा।

इतिहास दृष्टि और जीवन दृष्टि

किसी भी समाज का जीने का एक तरीका होता है। इस तरीके को उस समाज की जीवनशैली कहा जाता है। यह जीवनशैली उस समाज की विविध मान्यताओं के आधार पर बनती है। इन मान्यताओं को उस समाज की जीवन दृष्टि कहा जाता है। इस जीवनदृष्टि के आधार पर ही वह समाज अपनी भाषा, कला, साहित्य, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विविध सामाजिक शास्त्रों की और भौतिक, रसायन, वनस्पति आदि भौतिक शास्त्रों का और राज्यव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, आदि विभिन्न व्यवस्थाओं का निर्माण करता है। इस दृष्टि से साहित्य भी निर्माण करता है। किसी भी समाज का इतिहास उस समाज के साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। हम धार्मिक हैं। हमारी जीवनदृष्टि अंग्रेजों से भिन्न है और श्रेष्ठ भी है। इसीलिये अपनी भूमिका से हमारे इतिहास के पुनर्लेखन का काम कुशलता से और प्रचंड गति से करने की आवश्यकता है।

धार्मिक इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य

धार्मिक विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। शिक्षा का उद्देश्य भी इसीलिये 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है । इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है । किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुणसंपदायुक्त संतान को जन्म देना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और उद्योग से धन कमाना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और व्यवहार से लोगोंं के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुए मोक्ष की ओर बढना ही वास्तविक मानव जीवन का धार्मिक आदर्श है।

शिक्षा के उद्देश्य से इतिहास लेखन, अध्ययन और अध्यापन का उद्देश्य भिन्न नहीं हो सकता।

इसलिये इतिहास की धार्मिक व्याख्या कही गई[citation needed]

धर्मार्थकाममोक्षाणाम् उपदेश समन्वितम् ।

पुरावृत्तं कथारूपं इतिहासं प्रचक्षते ॥

भावार्थ : अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने के लिये जो प्रत्यक्ष में हो गये है ऐसे प्रसंगों के आधारपर रोचक रंजक अर्थात् कथा के रूप में की गई प्रस्तुति ही इतिहास है।

इस का अर्थ है कि इतिहास की प्रस्तुति समाज को चराचर के साथ एकात्मता की भावना और व्यवहार की दृष्टि से अग्रेसर करने के लिये ही करनी होगी। जिस इतिहास की प्रस्तुति से समाज के घटक के साथ एकात्मता की भावना को हानि होती हो, चराचर के साथ आत्मीयता को ठेस पहुंचती हो ऐसे इतिहास की प्रस्तुति वर्जित होगी। यह है अत्यंत संक्षेप में धार्मिक इतिहास दृष्टि ।

धार्मिक विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। शिक्षा का उद्देश्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है। इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है। किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुण संपदायुक्त संतान की इच्छा करना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और उद्योग से धन कमाना, चतुराई से लोगोंं के मन नहीं जीतना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और व्यवहार से लोगोंं के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुए मोक्ष की ओर बढना।

इस दृष्टि पर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे।

निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा:

  • धार्मिक समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। अतः इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
  • धार्मिक समाज उत्थान और पतन के कई दौरों से गुजरा है। तथापि हमने अपना स्वत्त्व नहीं खोया है। हम में कुछ है जिसने हमें कालजयी बनाया है।
  • जब समाज के घटकों को हम एक समाज है, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है, तब इतिहास प्रस्तुति की औपचारिक आवश्यकता निर्माण होती है।
  • डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित हैं और जो अधिक बलवान हैं, उनका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
  • योरप के इतिहास से नहीं हमें अपने इतिहास से मार्गदर्शन लेना चाहिये। तब जाकर वर्तमान में चल रहा योरप का अंधानुकरण रुकेगा।
  • इस दृष्टि पर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे ।

धार्मिक समाज की प्राचीनता

धार्मिक समाज और इसलिये धार्मिक इतिहास की प्राचीनता के बारे में भिन्न भिन्न विचार प्रस्तुत किये गये है । इन के कारण संभ्रम निर्माण हुआ है। योरप के वर्तमान समाजों का इतिहास अरस्तू (अरिस्टॉटल), अफलातून (प्लेटो) आदि से पहले का नहीं है । अर्थात् मुश्किल से २.५-३ हजार वर्ष पुराना ही है । विजयी जातियाँ विकसित होती हैं, ऐसा भ्रम योरपीय देशों ने विकासवाद के नामपर फैलाया है। इस कारण योरप से पुराना भारत का इतिहास नहीं हो सकता। ऐसा अंग्रेजों ने मान लिया। उस के आधार पर उन्होंने भारत के प्रदीर्घ इतिहास को ठूंसठूंसकर इस काल में बिठाने का प्रयास किया। भारत का इतिहास गुप्तकाल से प्रारंभ हुआ ऐसा मान लिया गया। आगे जाकर मोहेंन्जोदरो, हरप्पा के अवशेष मिले। तब यह ध्यान में आया कि ऐसा विकसित समाज इस से अधिक पुराना होगा। तब वेदकाल को ईसा से ३००० वर्ष पूर्व का कह दिया गया। अब तो भीमबेटका जैसे स्थानों पर विकसित संस्कृति के चिन्ह मिलने से यह काल १०–१२ हजार वर्ष तक पीछे गया है। किन्तु तथापि धार्मिक इतिहास इस से कितना पुराना है, इस बारे में अभी भी संभ्रम ही है। यह संभ्रम प्रमुखता से पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता हमारी मान्यता को स्वीकृति देंगे या नहीं इस आशंका के कारण है। इस विषय में निम्न कुछ बातें विचारणीय है:

  • समाज के घटकों को हम एक समाज हैं, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है तब इतिहास की आवश्यकता निर्माण होती है और इतिहास के निर्माण का प्रारंभ होता है।
  • डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित है और जो अधिक बलवान है, विजेता है उसका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
  • यूरोप के इतिहास से अधिक हमें अपने इतिहास से मार्गदर्शन लेना चाहिये। तब जाकर वर्तमान में चल रहा यूरोप का अंधानुकरण रुकेगा।
  • तथ्य तो वही रहते हैं। लेकिन उनसे लेने की प्रेरणा और सीखने के पाठ भिन्न हो सकते हैं।
  • धार्मिक समाज याने राष्ट्र अत्यंत प्राचीन है। जिस समाज का इतिहास मुश्किल से २.५-३ हजार वर्ष पुराना है उसके ऐतिहासिकता के मापदंड जिस राष्ट्र का इतिहास लाखों वर्षों का है उस से भिन्न होंगे।

धार्मिक समाज का कालजयी सातत्य

पृथ्वी की तीन गतियाँ है। सामान्य तौर पर दो गतियों की जानकारी सब को होती है। अपने अक्ष को केन्द्र में रखकर घूमने की एक गति के कारण पृथ्वी पर दिन और रात होते है। सूर्य को परिक्रमा करने की दूसरी गति के कारण ॠतु और वर्ष का चक्र चलता है । किन्तु पृथ्वी की एक और गति भी है ।

पृथ्वी का अक्ष सूर्य की दिशा से लंबरूप नहीं है। वह थोडा झुका हुआ है। इस अक्ष की उलटे शंकू के आकार में घूमने की पृथ्वी की तीसरी गति है। इस में दक्षिण ध्रुव तो स्थिर रहता है । उत्तर ध्रुव शंकू के आधार के वृत्त के उपर घूमता है । इस से २६२५० वर्षों का चक्र है। इस में उत्तर ध्रुव एक बार सूर्य के पास आता है और लगभग १३१२५ वर्षों के बाद वह सूर्य से अधिकतम दूरी पर चला जाता है । जब उत्तर ध्रुव सूर्य के पास जाता है तो उत्तर ध्रुव का सब बर्फ पिघल जाती है । और पृथ्वी जलमय हो जाती है। इसे हमारे पूर्वजों ने जलप्रलय कहा है। और जब उत्तर ध्रुव सूर्य से अधिकतम दूरी पर जाता है तो उत्तर ध्रुव पर ठंड का प्रमाण पराकोटी का हो जाता है । इसे हिमप्रलय कहा जाता है । इन दोनों ही प्रलयों की स्थिति में हिमालय धार्मिक जीवन का संरक्षण करता है । जलप्रलय के काल में हिमालय की ऊंचाई के कारण और हिमप्रलय के समय उत्तर की ओर से आने वाले बर्फीली हवाओं को रोककर। इन दोनों प्रसंगों में हिमालय की तराई वाला भारत का हिस्सा छोड अन्य सभी स्थानों पर मानव जीवन नष्ट हो जाता है। किन्तु धार्मिक सामाज का सातत्य खण्डित नहीं होता। इसलिये हम जब कहते हैं की हमारा समाज जीवन लाखों वर्ष पुराना है, तो हम कोई अतिशयोक्ति नहीं करते। हमारी मान्यता है कि सत्य युग का प्रारंभ ४३,२०,००० वर्ष पहले हुआ था। धार्मिक समाज का सातत्य अति प्राचीन होने की पुष्टि ही पृथ्वी की तीसरी गति के विश्लेषण से होती है ।

ऐतिहासिकता के मापदण्ड, लेखन की पद्दति और धार्मिक दृष्टि

इंग्लैण्ड का इतिहास मुश्किल से ८००-१००० वर्षों का है। इस से पहले वहाँ गिरोहों की संस्कृति थी। सामाजिक परंपराओं का सातत्य नहीं था। इसलिये इतिहास लेखन की आवश्यकता भी नहीं थी । इंग्लैण्ड के इस मुश्किल से ८०० – १००० वर्षों के इतिहासपर अबतक १०,००० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । इन पुस्तकों में भी कई स्थानों पर विवाद है। कोई घटना हेनरी २ के काल में घटी थी या हेनरी ३ के काल में, ऐसा संभ्रम है। यह स्वाभाविक भी है।

पाश्चात्य ऐतिहासिकता के मापदण्ड और उन की इतिहास लेखन की पद्दति उन के इतिहास के कालखण्ड की दृष्टि से संभवतः योग्य भी होगी किन्तु धार्मिक इतिहास जो इंग्लैण्ड के इतिहास से कई गुना अधिक है, उस के लिये योग्य नहीं हो सकती । इंग्लैण्ड से १० गुना बडा भूभाग, १० गुना अधिक जनसंख्या और एक ही समय एक ही नाम के कई राजा हो सकते हैं ऐसे भारत का इतिहास इंग्लैण्ड के इतिहास की पद्दति से अर्थात कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है । और धार्मिक इतिहास दृष्टि के अनुसार आवश्यक भी नहीं है।

धार्मिक इतिहास लेखन की पद्दति का स्वरूप निम्न कुछ बिन्दुओं के माध्यम से हम समझ सकेंगे:

  • धर्मानुकूल अर्थ और काम को रख मोक्ष की ओर बढने के लिये मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है । कालानुक्रम नहीं।
  • औरंगजेब के इतिहास में औरंगजेब के नहाने का कोई वर्णन नहीं लिखा मिलता। इस का अर्थ यह नहीं कि औरंगजेब नहाता नहीं था। अन्य बातों की तुलना में नहाना यह इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं थी, कि इतिहास में लिखी जाए। इसी तरह धार्मिक इतिहास इतने लम्बे कालखण्ड का इतिहास है कि उसे अंग्रेजी पद्दति से कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । प्रदीर्घ काल के कारण इतिहास लिखने की धार्मिक पद्दति में समाज जीवन को मोड देनेवाली महत्वपूर्ण घटनाओं का ही समावेष हो सकता है। जो महत्वपूर्ण नहीं है उसे लिखने से तो कागज और समय ही बिगडेगा।
  • भारत की जनसंख्या, भारत का भौगोलिक विस्तार और भारत में रहे छोटे छोटे राज्यों का अंग्रेजी पद्दति से इतिहास लिखना तो अंग्रेजों को भी संभव नहीं होगा। एक ही समय एक ही नाम के राजा संभवतः २ -३ राज्यों में राज करते हों तो उन के इतिहास लेखन में कितना संभ्रम निर्माण होगा कोई भी कल्पना कर सकता है। जैसे महाभारत में वासुदेव कृष्ण दो थे। नकली वासुदेव कृष्ण का असली कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सिर काटा था।
  • निचैर्गच्छ्त्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण का मथित अर्थ है प्रकृति की तरह ही इतिहास भी चक्रिय पद्दति से घटता रहता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है। हर युग में चतुर्युग हुआ करते है। कलियुग में भी जो श्रेष्ठ समय होगा उसे कलियुग का सत्ययुग कहा जाएगा। समाज के उत्थान और पतन में किस घटना चक्र से प्रेरणा या सबक मिलता है वह महत्वपूर्ण है । वह घटना किस समय चक्र की है यह नहीं। इतिहास यह कथारूप में पढाने का विषय है।
  • घरों के लिए अच्छे माता-पिता, समाज के लिये अच्छे समाजघटक, देश के लिये देशभक्त और विश्व के लिये अच्छे मानव बनाने की दृष्टि से इतिहास की प्रस्तुति और अध्यापन करना होगा।
  • शिशू और बाल अवस्थाएं संस्कारक्षम आयु की होती है। शिक्षा शास्त्र के अनुसार छोटी आयु में पूरी तरह से रोचक, रंजक कथाओं के माध्यम से इतिहास पढाना चाहिये। शिशू अवस्था तक तो लोरियाँ बालगीतों का उपयोग करना चाहिये। बाल आयु के बच्चोंं के लिये शौर्य की, विजय की, त्याग की, तपस्या की कथाएँं ही बतानी चाहिये। बढती आयु के साथ आगे धीरेधीरे गंभीर कथाएँं बतानी चाहिये।
  • अविचार का उदात्तीकरण करनेवाली कथाएँं कच्ची आयु में नहीं बतानी चाहिये। जैसे पृथ्वीराज चौहानद्वारा गौरी को बारबार क्षमा करने की कथा। या छत्रपति शिवाजी के सरसेनापति प्रतापराव गुर्जर द्वारा अविचार से अपने सात सरदारों के साथ किया अविचारी बलिदान। आदि
  • पाश्चात्य समाज जीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। धार्मिक इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। धार्मिक जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। अतः धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
  • इतिहास की प्रस्तुति स्वाधीनता और स्वतन्त्रता के अर्थों का अन्तर ध्यान में रखकर करनी होगी । वर्तमान सभी व्यवस्थाएं (तंत्र) भारत में अंग्रेजों की देन है । हमें अपना समाज, अपनी संस्कृति, अपने संसाधन, अपनी शक्तियाँ, अपनी श्रेष्ठ परंपराएं, अपना जीवनलक्ष्य आदि विभिन्न बातों को ध्यान में रखकर अपने समाज के और चराचर के हिते में व्यवस्थाएं निर्माण करने की प्रेरणा इतिहास से मिलनी चाहिये ।
  • भारत की सीमाओं का आकुंचन क्यों हुआ और होता ही जा रहा है ? देश के जिस हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य हुए, असंगठित हुए, दुर्बल हुए वह देश का हिस्सा हमरे भूगोल मे नहीं रहा। इसलिये आगे देश के किसी भी हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य नहीं रहें, असंगठित नहीं रहें और दुर्बल नहीं रहे यह सबक सीखाने वाला इतिहास हमें लिखना होगा।
  • हिन्दुस्थान १९४७ से नहीं वेदकाल से भी पहले से एक राष्ट्र रहा है।
  • सामान्य आदमी की गलतियों का नुकसान उस के घरवालों को या थोडे से लोगोंं को होता है। किन्तु देश का नेता जब गलती करता है तो देश और समाज का तात्कालिक ही नहीं कई पीढ़ियों का नुकसान होता है। जैसे पृथ्वीराज चौहान, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि। इसलिये नेता का चुनाव बहुत सावधानी से करना चाहिये। ऐसा चुनाव करने के उपरांत भी सदैव चौकन्ने रहना चाहिये।
  • स्वाधीनता की लडाई में अहिंसक आंदोलन का लक्षणीय योगदान है। किन्तु साथ ही में क्रांतिकारकों के प्रयास, आझाद हिंद सेना का पराक्रम, धार्मिक सेना का अंग्रेजों को किया हुआ विरोध आदि बातें भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। धार्मिक सेना अंग्रेजों के प्रति एकनिष्ठ नहीं रही थी इसलिये अंग्रेजों को भारत छोडना पडा, यह वास्तविकता है। इसे हम समझें। अहिंसा के आंदोलन तो स्वाधीन भारत में भी अक्सर निष्प्रभ होते हम आज भी देख रहे है।
  • इतिहास के कालखंड की दीर्घता के कारण हमारे इतिहास लेखन में वही घटनाएँ प्रस्तुत की जाएँगी जिन के कारण समाज जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ आया होगा। इसीलिये अंग्रेज पूर्व भारत में प्राथमिक स्तर पर इतिहास के रूप में रामायण और महाभारत ही मुख्यत: सिखाए जाते थे।
  • ना मूलम् लिख्यते किंचित यही हमारे इतिहास लेखन का आधार रहना चाहिये।
  • इतिहास केवल राजाओं का नहीं होता। इतिहास जीवन का होता है। जीवन के हर पहलू का होता है। जीवन के प्रत्येक पहलू के इतिहास के अध्ययन अध्यापन और लेखन से मनुष्य मोक्षगामी बने ऐसी इतिहास की प्रस्तुति होनी चाहिए।
  • अरुण-तरूण अवस्था के बच्चोंं को इतिहास पढाने के लिये लोककथा, लोकनाटय, स्फूर्तिगीत, समूहगीत, ग्रंथ, ललित कथाएँं, शौर्यगीत आदि माध्यमों का भी उपयोग किया जा सकता है।
  • गौरवशाली घटनाओं से प्रेरणा का इतिहास तो सभी आयु के बच्चोंं के लिए आवश्यक है। लेकिन पराभव का दीनता का इतिहास छोटी आयु में नहीं पढ़ाना चाहिए। जब बच्चा थोड़ा समझदार बन जाए तब ही उसे पराभव का, घराभेदियों का इतिहास भी सिखाना चाहिए। किसी भी प्रस्तुति से बच्चे में हीनता बोध नहीं होना चाहिए।
  • पाश्चात्य समाजजीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। धार्मिक इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। धार्मिक जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। अतः धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।

समारोप

इतिहास का ऐसा पुनर्लेखन करने के लिये हिम्मत चाहिये । लोकक्षोभ निर्माण करने के प्रयास देशद्रोही, विदेशी शक्तियों और देश के हित से अपने या अपनी पार्टी के हित को बडा माननेवाले राजनयिक आदि लोगोंं द्वारा किये जाएंगे। उन के विरोध पर विजय पाकर और विरोध की चिंता किये बिना निर्भयता से तथ्यों के आधार पर हमें भारत के इतिहास का अपनी भूमिका से पुनर्लेखन करना होगा।

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे लोग भविष्य में बारबार अपमानित होते रहते है।

हमारे इतिहास के पुनर्लेखन का काम कुशलता से, शीघ्रता से और प्रचंड गति से करने की आवश्यकता है।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २९, लेखक - दिलीप केलकर
  2. ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक, पृष्ठ ३