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ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का राज्य भारत में दृढता की ओर बढ रहा था। अँगरेज़ समझ गए थे कि भारतीय समाज के प्रति गौरव का भाव लेकर भारतीयों पर शासन नहीं किया जा सकता। वे जानते थे कि भारतीयों की संस्कृति, रहनसहन और मानसिकता जब तक अंग्रेजों की अनुगामिनी नहीं बनेगी भारतवर्ष पर राज करना असंभव होगा। ऐसा विचार यहाँ के अंग्रेजी शासक कर रहे थे। चार्ल्स् ग्रँट उन में से ही एक था। भारत को ईसाई बनाना भारत में चिरंतन कालतक अंग्रेजी राज्य के लिये अनिवार्य है ऐसा यह शासक सोचते थे। सन १७९० में अपना २३ वर्षों का ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी का कार्यकाल पूरा कर वह इंग्लैंड लौटा था। भारत का ईसाईकरण करने की आकांक्षा रखनेवाले ईसाई आंदोलन (इव्हेंजेलिकल सोसायटी) के कार्यकर्ता विल्बरफोर्स, जेम्स् स्टुअर्ट मिल आदि लोग भी ऐसा ही सोचते थे। चार्ल्स् ग्रँट द्वारा निरंतर चलाए अभियान के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों ने भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव १७९२ की इंग्लैंड की चार्टर्ड डिबेट में प्रस्तुत किया।
 
ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का राज्य भारत में दृढता की ओर बढ रहा था। अँगरेज़ समझ गए थे कि भारतीय समाज के प्रति गौरव का भाव लेकर भारतीयों पर शासन नहीं किया जा सकता। वे जानते थे कि भारतीयों की संस्कृति, रहनसहन और मानसिकता जब तक अंग्रेजों की अनुगामिनी नहीं बनेगी भारतवर्ष पर राज करना असंभव होगा। ऐसा विचार यहाँ के अंग्रेजी शासक कर रहे थे। चार्ल्स् ग्रँट उन में से ही एक था। भारत को ईसाई बनाना भारत में चिरंतन कालतक अंग्रेजी राज्य के लिये अनिवार्य है ऐसा यह शासक सोचते थे। सन १७९० में अपना २३ वर्षों का ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी का कार्यकाल पूरा कर वह इंग्लैंड लौटा था। भारत का ईसाईकरण करने की आकांक्षा रखनेवाले ईसाई आंदोलन (इव्हेंजेलिकल सोसायटी) के कार्यकर्ता विल्बरफोर्स, जेम्स् स्टुअर्ट मिल आदि लोग भी ऐसा ही सोचते थे। चार्ल्स् ग्रँट द्वारा निरंतर चलाए अभियान के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों ने भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव १७९२ की इंग्लैंड की चार्टर्ड डिबेट में प्रस्तुत किया।
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राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पध्दति थी। इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था। १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम रोबर्टसन द्वारा लिखे और १७९२ में प्रकाशित 'हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधार पर भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी। भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी भारतीय सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था। उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी। भारतीय साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था<ref>ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक, पृष्ठ ३</ref>। १७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पादरियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया। इन पादरियों द्वारा भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया। जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था। इसी इतिहास के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया।
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राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पद्दति थी। इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था। १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम रोबर्टसन द्वारा लिखे और १७९२ में प्रकाशित 'हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधार पर भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी। भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी भारतीय सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था। उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी। भारतीय साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था<ref>ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक, पृष्ठ ३</ref>। १७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पादरियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया। इन पादरियों द्वारा भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया। जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था। इसी इतिहास के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया।
    
इसी के बीच चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण शुरू हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
 
इसी के बीच चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण शुरू हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
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इसलिये इतिहास की भारतीय व्याख्या कही गई{{Citation needed}} <blockquote>धर्मार्थकाममोक्षाणाम् उपदेश समन्वितम् ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूपं इतिहासं प्रचक्षते ॥</blockquote><blockquote>भावार्थ : अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने के लिये जो प्रत्यक्ष में हो गये है ऐसे प्रसंगों के आधारपर रोचक रंजक अर्थात् कथा के रूप में की गई प्रस्तुति ही इतिहास है।</blockquote>इस का अर्थ है कि इतिहास की प्रस्तुति समाज को चराचर के साथ एकात्मता की भावना और व्यवहार की दृष्टि से अग्रेसर करने के लिये ही करनी होगी। जिस इतिहास की प्रस्तुति से समाज के घटक के साथ एकात्मता की भावना को हानि होती हो, चराचर के साथ आत्मीयता को ठेस पहुंचती हो ऐसे इतिहास की प्रस्तुति वर्जित होगी। यह है अत्यंत संक्षेप में भारतीय इतिहास दृष्टि ।
 
इसलिये इतिहास की भारतीय व्याख्या कही गई{{Citation needed}} <blockquote>धर्मार्थकाममोक्षाणाम् उपदेश समन्वितम् ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूपं इतिहासं प्रचक्षते ॥</blockquote><blockquote>भावार्थ : अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने के लिये जो प्रत्यक्ष में हो गये है ऐसे प्रसंगों के आधारपर रोचक रंजक अर्थात् कथा के रूप में की गई प्रस्तुति ही इतिहास है।</blockquote>इस का अर्थ है कि इतिहास की प्रस्तुति समाज को चराचर के साथ एकात्मता की भावना और व्यवहार की दृष्टि से अग्रेसर करने के लिये ही करनी होगी। जिस इतिहास की प्रस्तुति से समाज के घटक के साथ एकात्मता की भावना को हानि होती हो, चराचर के साथ आत्मीयता को ठेस पहुंचती हो ऐसे इतिहास की प्रस्तुति वर्जित होगी। यह है अत्यंत संक्षेप में भारतीय इतिहास दृष्टि ।
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भारतीय विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। शिक्षा का उद्देश्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है। इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है। किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुणसंपदायुक्त संतान की इच्छा करना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और  उद्योग से धन कमाना, चतुराई से लोगों के मन नहीं जीतना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और  व्यवहार से लोगों के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुए मोक्ष की ओर बढना।  
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भारतीय विचारों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। शिक्षा का उद्देश्य भी इसीलिये ' सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् मोक्ष ही है ऐसा कहा गया है। इच्छाओं को और इच्छापूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखते हुए मोक्ष की ओर बढने की प्रक्रिया का इस हेतु विकास किया गया। पुत्रेषणा (संतानप्राप्ति), वित्तेषणा (धनप्राप्ति) और लोकेषणा (समाज में प्रतिष्ठा) यह तीन इच्छाएं तो सभी को होती ही है। किन्तु श्रेष्ठ दैवी गुण संपदायुक्त संतान की इच्छा करना, उस हेतु अपना जीवन ढालना, मन को संयम में रखना, प्रामाणिक व्यवहार और  उद्योग से धन कमाना, चतुराई से लोगों के मन नहीं जीतना, अपने सच्चे सर्वहितकारी स्वभाव और  व्यवहार से लोगों के मन जीतने का अर्थ है धर्मानुकूल अर्थ और काम रखते हुए मोक्ष की ओर बढना।
इस दृष्टिपर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे। निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा।
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- भारतीय समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। इसलिए इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
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इस दृष्टि पर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे।  
- भारतीय समाज उत्थान और पतन के कई दौरों से गुजरा है। फिर भी हमने अपना स्वत्त्व नहीं खोया है। हम में कुछ है जिसने हमें कालजयी बनाया है।
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- जब समाज के घटकों को हम एक समाज है, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है, तब इतिहास प्रस्तुति की औपचारिक आवश्यकता निर्माण होती है।  
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निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा:
- डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित हैं और जो अधिक बलवान हैं, उनका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
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* भारतीय समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। इसलिए इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
- योरप के इतिहास से नहीं हमें अपने इतिहास से मार्गदर्शन लेना चाहिये। तब जाकर वर्तमान में चल रहा योरप का अंधानुकरण रुकेगा।  
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* भारतीय समाज उत्थान और पतन के कई दौरों से गुजरा है। फिर भी हमने अपना स्वत्त्व नहीं खोया है। हम में कुछ है जिसने हमें कालजयी बनाया है।
इस दृष्टि पर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे ।
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* जब समाज के घटकों को हम एक समाज है, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है, तब इतिहास प्रस्तुति की औपचारिक आवश्यकता निर्माण होती है।
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* डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित हैं और जो अधिक बलवान हैं, उनका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
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* योरप के इतिहास से नहीं हमें अपने इतिहास से मार्गदर्शन लेना चाहिये। तब जाकर वर्तमान में चल रहा योरप का अंधानुकरण रुकेगा।
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* इस दृष्टि पर आधारित इतिहास के चिंतन, मनन, विश्लेषण को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अब प्रस्तुत करने का हम प्रयास करेंगे ।
    
== भारतीय समाज की प्राचीनता ==
 
== भारतीय समाज की प्राचीनता ==
भारतीय समाज और इसलिये भारतीय इतिहास की प्राचीनता के बारे में भिन्न भिन्न विचार प्रस्तुत किये गये है । इन के कारण संभ्रम निर्माण हुआ है । योरप के वर्तमान समाजों का इतिहास अरस्तू ( अरिस्टॉटल ), अफलातून ( प्लेटो ) आदि से पहले का नहीं है । अर्थात् मुष्किल से २.५ - ३ हजार वर्ष पुराना ही है । विजयी जातियाँ विकसित होती हैं ऐसा भ्रम योरपीय देशों ने विकासवाद के नामपर फैलाया है । इस कारण योरप से पुराना भारत का इतिहास नहीं हो सकता । ऐसा अंग्रेजों ने मान लिया । उस के आधारपर उन्हों ने भारत के प्रदीर्घ इतिहास को ठूंसठूंसकर इस काल में बिठाने का प्रयास किया । भारत का इतिहास गुप्तकाल से प्रारंभ हुआ ऐसा मान लिया गया । आगे जाकर मोहेंन्जो दरो, हरप्पा के अवशेष मिले । तब यह ध्यान में आया की ऐसा विकसित समाज इस से अधिक पुराना होगा । तब वेदकाल को ईसा से ३००० वर्षपूर्व का कह दिया गया । अब तो भीमबेटका जैसे स्थानोंपर विकसित संस्कृति के चिन्ह मिलने से यह काल १० – १२ हजार वर्षतक पीछे गया है । किन्तु फिर भी भारतीय इतिहास इस से कितना पुराना है, इस बारे में अभी भी संभ्रम ही है । यह संभ्रम प्रमुखता से पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता हमारी मान्यता को स्वीकृति देंगे या नहीं इस आशंका के कारण है । इस विषय में निम्न कुछ बातें विचारणीय है
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भारतीय समाज और इसलिये भारतीय इतिहास की प्राचीनता के बारे में भिन्न भिन्न विचार प्रस्तुत किये गये है । इन के कारण संभ्रम निर्माण हुआ है। योरप के वर्तमान समाजों का इतिहास अरस्तू (अरिस्टॉटल), अफलातून (प्लेटो) आदि से पहले का नहीं है । अर्थात् मुश्किल से २.५-३ हजार वर्ष पुराना ही है । विजयी जातियाँ विकसित होती हैं, ऐसा भ्रम योरपीय देशों ने विकासवाद के नामपर फैलाया है। इस कारण योरप से पुराना भारत का इतिहास नहीं हो सकता। ऐसा अंग्रेजों ने मान लिया। उस के आधार पर उन्होंने भारत के प्रदीर्घ इतिहास को ठूंसठूंसकर इस काल में बिठाने का प्रयास किया। भारत का इतिहास गुप्तकाल से प्रारंभ हुआ ऐसा मान लिया गया। आगे जाकर मोहेंन्जोदरो, हरप्पा के अवशेष मिले। तब यह ध्यान में आया कि ऐसा विकसित समाज इस से अधिक पुराना होगा। तब वेदकाल को ईसा से ३००० वर्ष पूर्व का कह दिया गया। अब तो भीमबेटका जैसे स्थानों पर विकसित संस्कृति के चिन्ह मिलने से यह काल १०–१२ हजार वर्ष तक पीछे गया है। किन्तु फिर भी भारतीय इतिहास इस से कितना पुराना है, इस बारे में अभी भी संभ्रम ही है। यह संभ्रम प्रमुखता से पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता हमारी मान्यता को स्वीकृति देंगे या नहीं इस आशंका के कारण है। इस विषय में निम्न कुछ बातें विचारणीय है:
- समाज के घटकों को हम एक समाज हैं, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है तब इतिहास की आवश्यकता निर्माण होती है और इतिहास के निर्माण का प्रारंभ होता है ।
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* समाज के घटकों को हम एक समाज हैं, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है तब इतिहास की आवश्यकता निर्माण होती है और इतिहास के निर्माण का प्रारंभ होता है।
- डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित है और जो अधिक बलवान है, विजेता है उसका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
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* डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित है और जो अधिक बलवान है, विजेता है उसका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
- यूरोप के इतिहास से अधिक हमें अपने इतिहास से मार्गदर्शन लेना चाहिये । तब जाकर वर्तमान में चल रहा यूरोप का अंधानुकरण रुकेगा ।
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* यूरोप के इतिहास से अधिक हमें अपने इतिहास से मार्गदर्शन लेना चाहिये। तब जाकर वर्तमान में चल रहा यूरोप का अंधानुकरण रुकेगा।
- तथ्य तो वही रहते हैं। लेकिन उनसे लेने की प्रेरणा और सीखने के पाठ भिन्न हो सकते हैं।
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* तथ्य तो वही रहते हैं। लेकिन उनसे लेने की प्रेरणा और सीखने के पाठ भिन्न हो सकते हैं।
- भारतीय समाज याने राष्ट्र अत्यंत प्राचीन है। जिस समाज का इतिहास मुश्किल से २.५ - ३ हजार वर्ष पुराना है उसके ऐतिहासिकता के मापदंड जिस राष्ट्र का इतिहास लाखों वर्षों का है उस से भिन्न होंगे।
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* भारतीय समाज याने राष्ट्र अत्यंत प्राचीन है। जिस समाज का इतिहास मुश्किल से २.५-३ हजार वर्ष पुराना है उसके ऐतिहासिकता के मापदंड जिस राष्ट्र का इतिहास लाखों वर्षों का है उस से भिन्न होंगे।
    
== भारतीय समाज का कालजयी सातत्य ==
 
== भारतीय समाज का कालजयी सातत्य ==
पृथिवि की तीन गतियाँ है । सामान्य ताप्ररपर दो गतियों की जानकारी सब को होती है । अपने अक्ष को केन्द्र में रखकर घूमने की एक गति के कारण पृथ्वीपर दिन और रात होते है । सूर्य को परिक्रमा करने की दूसरी गति के कारण ॠतु और वर्ष का चक्र चलता है । किन्तु पृथ्वि की एक और गति भी है ।  
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पृथ्वी की तीन गतियाँ है। सामान्य तौर पर दो गतियों की जानकारी सब को होती है। अपने अक्ष को केन्द्र में रखकर घूमने की एक गति के कारण पृथ्वी पर दिन और रात होते है। सूर्य को परिक्रमा करने की दूसरी गति के कारण ॠतु और वर्ष का चक्र चलता है । किन्तु पृथ्वी की एक और गति भी है ।  
पृथ्वि का अक्ष सूर्य की दिशा से लंबरूप नहीं है । वह थोडा झुका हुआ है । इस अक्ष की उलटे शंकू के आकार में घूमने की पृथ्वि की तीसरी गति हे ।  इस में दक्षिण धृव तो स्थिर रहता है । उत्तर धृव शंकू के आधार के वृत्त के उपर घूमता है । इस से २६२५० वर्षों का चक्र है। इस में उत्तर धृव एक बार सूर्य के पास आता है और लगभग १३१२५ वर्षों के बाद वह सूर्य से अधिकतम दूरीपर चला जाता है । जब उत्तर धृव सूर्य के पास जाता है तो उत्तर धृव का सब बर्फ पिघल जाती है । और पृथ्वि जलमय हो जाती है । इसे हमारे पूर्वजों ने जलप्रलय कहा है । और जब उत्तर धृव सूर्य से अधिकतम दूरीपर जाता है तो उत्तर धृवपर ठंड का प्रमाण पराकोटी का हो जाता है । इसे हिमप्रलय कहा जाता है । इन दोनों ही प्रलयों की स्थिति में हिमालय भारतीय जीवन का संरक्षण करता है । जलप्रलय के काल में हिमालय की ऊंचाई के कारण और हिमप्रलय के समय उत्तर की ओर से आनेवाले बर्फीली हवाओं को रोककर । इन दोनों प्रसंगों में हिमालय की तराईवाला भारत का हिस्सा छोड अन्य सभी स्थानोंपर मानव जीवन नष्ट हो जाता है । किन्तु भारतीय सामाज का सातत्य खण्डित नहीं होता । इसलिये हम जब कहते हैं की हमारा समाज जीवन लाखों वर्ष पुराना है, तो हम कोई अतिशयोक्ति नहीं करते । हमारी मान्यता है की सत्य युग का प्रारंभ ४३,२०,००० वर्ष पहले हुआ था। भारतीय समाज का सातत्य अति प्राचीन होने की पुष्टि ही पृथिवि की तीसरी गति के विश्लेषण से होती है ।
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पृथ्वी का अक्ष सूर्य की दिशा से लंबरूप नहीं है। वह थोडा झुका हुआ है। इस अक्ष की उलटे शंकू के आकार में घूमने की पृथ्वी की तीसरी गति है। इस में दक्षिण ध्रुव तो स्थिर रहता है । उत्तर ध्रुव शंकू के आधार के वृत्त के उपर घूमता है । इस से २६२५० वर्षों का चक्र है। इस में उत्तर ध्रुव एक बार सूर्य के पास आता है और लगभग १३१२५ वर्षों के बाद वह सूर्य से अधिकतम दूरी पर चला जाता है । जब उत्तर ध्रुव सूर्य के पास जाता है तो उत्तर ध्रुव का सब बर्फ पिघल जाती है । और पृथ्वी जलमय हो जाती है। इसे हमारे पूर्वजों ने जलप्रलय कहा है। और जब उत्तर ध्रुव सूर्य से अधिकतम दूरी पर जाता है तो उत्तर ध्रुव पर ठंड का प्रमाण पराकोटी का हो जाता है । इसे हिमप्रलय कहा जाता है । इन दोनों ही प्रलयों की स्थिति में हिमालय भारतीय जीवन का संरक्षण करता है । जलप्रलय के काल में हिमालय की ऊंचाई के कारण और हिमप्रलय के समय उत्तर की ओर से आने वाले बर्फीली हवाओं को रोककर। इन दोनों प्रसंगों में हिमालय की तराई वाला भारत का हिस्सा छोड अन्य सभी स्थानों पर मानव जीवन नष्ट हो जाता है। किन्तु भारतीय सामाज का सातत्य खण्डित नहीं होता। इसलिये हम जब कहते हैं की हमारा समाज जीवन लाखों वर्ष पुराना है, तो हम कोई अतिशयोक्ति नहीं करते। हमारी मान्यता है कि सत्य युग का प्रारंभ ४३,२०,००० वर्ष पहले हुआ था। भारतीय समाज का सातत्य अति प्राचीन होने की पुष्टि ही पृथ्वी की तीसरी गति के विश्लेषण से होती है ।
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== ऐतिहासिकता के मापदण्ड, लेखन की पद्दति और भारतीय दृष्टि ==
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इंग्लैण्ड का इतिहास मुश्किल से ८००-१००० वर्षों का है। इस से पहले वहाँ गिरोहों की संस्कृति थी। सामाजिक परंपराओं का सातत्य नहीं था। इसलिये इतिहास लेखन की आवश्यकता भी नहीं थी । इंग्लैण्ड के इस मुश्किल से ८०० – १००० वर्षों के इतिहासपर अबतक १०,००० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । इन पुस्तकों में भी कई स्थानों पर विवाद है। कोई घटना हेनरी २ के काल में घटी थी या हेनरी ३ के काल में, ऐसा संभ्रम है। यह स्वाभाविक भी है।
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पाश्चात्य ऐतिहासिकता के मापदण्ड और उन की इतिहास लेखन की पद्दति उन के इतिहास के कालखण्ड की दृष्टि से शायद योग्य भी होगी किन्तु भारतीय इतिहास जो इंग्लैण्ड के इतिहास से कई गुना अधिक है, उस के लिये योग्य नहीं हो सकती । इंग्लैण्ड से १० गुना बडा भूभाग, १० गुना अधिक जनसंख्या और एक ही समय एक ही नाम के कई राजा हो सकते हैं ऐसे भारत का इतिहास इंग्लैण्ड के इतिहास की पद्दति से अर्थात कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है । और भारतीय इतिहास दृष्टि के अनुसार आवश्यक भी नहीं है।
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== ऐतिहासिकता के मापदण्ड, लेखन की पध्दति और भारतीय दृष्टि ==
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भारतीय इतिहास लेखन की पद्दति का स्वरूप निम्न कुछ बिन्दुओं के माध्यम से हम समझ सकेंगे:
इंग्लैण्ड का इतिहास मुष्किल से ८००-१००० वर्षों का है। इस से पहले वहाँ गिरोहों की संस्कृति थी। सामाजिक परंपराओं का सातत्य नहीं था । इसलिये इतिहास लेखन की आवश्यकता भी नहीं थी । इंग्लैण्ड के इस मुष्किल से ८०० – १००० वर्षों के इतिहासपर अबतक १०,००० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । इन पुस्तकों में भी कई स्थानोंपर विवाद है । कोई घटना हेन्री २ के काल में घटी थी या ३रे हेन्री के काल में ऐसा संभ्रम है । यह स्वाभाविक भी है ।
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* धर्मानुकूल अर्थ और काम को रख मोक्ष की ओर बढने के लिये मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है । कालानुक्रम नहीं।
पाश्चात्य ऐतिहासिकता के मापदण्ड और उन की इतिहास लेखन की पध्दति उन के इतिहास के कालखण्ड की दृष्टि से शायद योग्य भी होगी किन्तु भारतीय इतिहास जो इंग्लैण्ड के इतिहास से कई गुना अधिक है, उस के लिये योग्य नहीं हो सकती । इंग्लैण्ड से १० गुना बडा भूभाग, १० गुना अधिक जनसंख्या और एक ही समय एक ही नाम के कई राजा हो सकते हैं ऐसे भारत का इतिहास इंग्लैण्ड के इतिहास की पध्दति से अर्थात कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है । और भारतीय इतिहास दृष्टि के अनुसार आवश्यक भी नहीं है।
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* औरंगजेब के इतिहास में औरंगजेब के नहाने का कोई वर्णन नहीं लिखा मिलता। इस का अर्थ यह नहीं कि औरंगजेब नहाता नहीं था। अन्य बातों की तुलना में नहाना यह इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं थी, कि इतिहास में लिखी जाए। इसी तरह भारतीय इतिहास इतने लम्बे कालखण्ड का इतिहास है कि उसे अंग्रेजी पद्दति से कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । प्रदीर्घ काल के कारण इतिहास लिखने की भारतीय पद्दति में समाज जीवन को मोड देनेवाली महत्वपूर्ण घटनाओं का ही समावेष हो सकता है। जो महत्वपूर्ण नहीं है उसे लिखने से तो कागज और समय ही बिगडेगा।
भारतीय इतिहास लेखन की पध्दति का स्वरूप निम्न कुछ बिन्दुओं के माध्यम से हम समझ सकेंगे
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* भारत की जनसंख्या, भारत का भौगोलिक विस्तार और भारत में रहे छोटे छोटे राज्यों का अंग्रेजी पद्दति से इतिहास लिखना तो अंग्रेजों को भी संभव नहीं होगा। एक ही समय एक ही नाम के राजा शायद २ -३ राज्यों में राज करते हों तो उन के इतिहास लेखन में कितना संभ्रम निर्माण होगा कोई भी कल्पना कर सकता है। जैसे महाभारत में वासुदेव कृष्ण दो थे। नकली वासुदेव कृष्ण का असली कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सिर काटा था।
- धर्मानुकूल अर्थ और काम को रख मोक्ष की ओर बढने के लिये मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है । कालानुक्रम नहीं।  
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* निचैर्गच्छ्त्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण का मथित अर्थ है प्रकृति की तरह ही इतिहास भी चक्रिय पद्दति से घटता रहता  है। उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है। हर युग में चतुर्युग हुआ करते है। कलियुग में भी जो श्रेष्ठ समय होगा उसे कलियुग का सत्ययुग कहा जाएगा। समाज के उत्थान और पतन में किस घटना चक्र से प्रेरणा या सबक मिलता है वह महत्वपूर्ण है । वह घटना किस समय चक्र की है यह नहीं। इतिहास यह कथारूप में पढाने का विषय है।
- औरंगजेब के इतिहास में औरंगजेब के नहाने का कोई वर्णन नहीं लिखा मिलता । इस का अर्थ यह नहीं की औरंगजेब नहाता नहीं था । अन्य बातों की तुलना में नहाना यह इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं थी, की इतिहास में लिखी जाए। इसी तरह भारतीय इतिहास इतने लम्बे कालखण्ड का इतिहास है की उसे अंग्रेजी पध्दति से कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । प्रदीर्घ काल के कारण इतिहास लिखने की भारतीय पध्दति में समाज जीवन को मोड देनेवाली महत्वपूर्ण घटनाओं का ही समावेष हो सकता है । जो महत्वपूर्ण नहीं है उसे लिखने से तो कागज और समय ही बिगडेगा ।
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* घरों के लिए अच्छे माता-पिता, समाज के लिये अच्छे समाजघटक, देश के लिये देशभक्त और विश्व के लिये अच्छे मानव बनाने की दृष्टि से इतिहास की प्रस्तुति और अध्यापन करना होगा।
- भारत की जनसंख्या, भारत का भौगोलिक विस्तार और भारत में रहे छोटेछोटे राज्यों का अंग्रेजी पध्दति से इतिहास लिखना तो अंग्रेजों को भी संभव नहीं होगा। एक ही समय एक ही नाम के राजा शायद २ -३ राज्यों में राज करते हों तो उन के इतिहास लेखन में कितना संभ्रम निर्माण होगा कोई भी कल्पना कर सकता है। जैसे महाभारत में वासुदेव कृष्ण दो थे। नकली वासुदेव कृष्ण का असली कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सिर काटा था।  
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* शिशू और बाल अवस्थाएं संस्कारक्षम आयु की होती है। शिक्षा शास्त्र के अनुसार छोटी आयु में पूरी तरह से रोचक, रंजक कथाओं के माध्यम से इतिहास पढाना चाहिये। शिशू अवस्था तक तो लोरियाँ बालगीतों का उपयोग करना चाहिये। बाल आयु के बच्चों के लिये शौर्य की, विजय की, त्याग की, तपस्या की कथाएं ही बतानी चाहिये। बढती आयु के साथ आगे धीरेधीरे गंभीर कथाएं बतानी चाहिये।
- निचैर्गच्छ्त्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण का मथित अर्थ है प्रकृति की तरह ही इतिहास भी चक्रिय पध्दति से घटता रहता  है । उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है । हर युग में चतुर्युग हुआ करते है । कलियुग में भी जो श्रेष्ठ समय होगा उसे कलियुग का सत्ययुग कहा जाएगा । समाज के उत्थान और पतन में किस घटना चक्र से प्रेरणा या सबक मिलता है वह महत्वपूर्ण है । वह घटना किस समय चक्र की है यह नहीं।  
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* अविचार का उदात्तीकरण करनेवाली कथाएं कच्ची आयु में नहीं बतानी चाहिये। जैसे पृथ्वीराज चौहानद्वारा गौरी को बारबार क्षमा करने की कथा। या छत्रपति शिवाजी के सरसेनापति प्रतापराव गुर्जर द्वारा अविचार से अपने सात सरदारों के साथ किया अविचारी बलिदान। आदि
- इतिहास यह कथारूप में पढाने का विषय है। खडू-फलक से नहीं।
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* पाश्चात्य समाज जीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। भारतीय इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। भारतीय जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। इसलिए धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
- बच्चों के लिंगभेद की दृष्टि से लडके और लडकियों को पढाने के इतिहास में और लडकों को पढाने के इतिहास में कुछ अन्तर होगा ही। लडकियाँ अच्छी बहनें, अच्छी माताएं, अच्छी पत्नियाँ बने इस ढंग से लडकियों के लिए इतिहास पढाया जाएगा। जब की अच्छे बेटे, अच्छे भाई, अच्छे पिता बनने के लिये लडकों के लिए इतिहास की प्रस्तुति की जाएगी।
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* इतिहास की प्रस्तुति स्वाधीनता और स्वतन्त्रता के अर्थों का अन्तर ध्यान में रखकर करनी होगी । वर्तमान सभी व्यवस्थाएं (तंत्र) भारत में अंग्रेजों की देन है । हमें अपना समाज, अपनी संस्कृति, अपने संसाधन, अपनी शक्तियाँ, अपनी श्रेष्ठ परंपराएं, अपना जीवनलक्ष्य आदि विभिन्न बातों को ध्यान में रखकर अपने समाज के और चराचर के हिते में व्यवस्थाएं निर्माण करने की प्रेरणा इतिहास से मिलनी चाहिये ।
- घरों के लिए अच्छे माता-पिता, समाज के लिये अच्छे समाजघटक, देश के लिये देशभक्त और विश्व के लिये अच्छे मानव बनाने की दृष्टि से इतिहास की प्रस्तुति और अध्यापन करना होगा । 
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* भारत की सीमाओं का आकुंचन क्यों हुआ और होता ही जा रहा है ? देश के जिस हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य हुए, असंगठित हुए, दुर्बल हुए वह देश का हिस्सा हमरे भूगोल मे नहीं रहा। इसलिये आगे देश के किसी भी हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य नहीं रहें, असंगठित नहीं रहें और दुर्बल नहीं रहे यह सबक सीखाने वाला इतिहास हमें लिखना होगा।
- शिशू और बाल अवस्थाएं संस्कारक्षम आयु की होती है । शिक्षा शास्त्र के अनुसार छोटी आयु में पूरी तरह से रोचक, रंजक कथाओं के माध्यम से इतिहास पढाना चाहिये । शिशू अवस्था तक तो लोरियाँ बालगीतों का उपयोग करना चाहिये । बाल आयु के बच्चों के लिये शौर्य की, विजय की, त्याग की, तपस्या की कथाएं ही बतानी चाहिये । बढती आयु के साथ आगे धीरेधीरे गंभीर कथाएं बतानी चाहिये । 
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* हिन्दुस्थान १९४७ से नहीं वेदकाल से भी पहले से एक राष्ट्र रहा है।
- अविचार का उदात्तीकरण करनेवाली कथाएं कच्ची आयु में नहीं बतानी चाहिये। जैसे पृथ्विराज चौहानद्वारा गौरी को बारबार क्षमा करने की कथा। या छत्रपति शिवाजी के सरसेनापति प्रतापराव गुर्जरद्वारा अविचार से अपने सात सरदारों के साथ किया अविचारी बलिदान। आदि
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* सामान्य आदमी की गलतियों का नुकसान उस के घरवालों को या थोडे से लोगों को होता है। किन्तु देश का नेता जब गलती करता है तो देश और समाज का तात्कालिक ही नहीं कई पीढ़ियों का नुकसान होता है। जैसे पृथ्वीराज चौहान, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि। इसलिये नेता का चुनाव बहुत सावधानी से करना चाहिये। ऐसा चुनाव करने के उपरांत भी सदैव चौकन्ने रहना चाहिये।
- पाश्चात्य समाजजीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। भारतीय इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। भारतीय जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। इसलिए धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
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* स्वाधीनता की लडाई में अहिंसक आंदोलन का लक्षणीय योगदान है। किन्तु साथ ही में क्रांतिकारकों के प्रयास, आझाद हिंद सेना का पराक्रम, भारतीय सेना का अंग्रेजों को किया हुआ विरोध आदि बातें भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय सेना अंग्रेजों के प्रति एकनिष्ठ नहीं रही थी इसलिये अंग्रेजों को भारत छोडना पडा, यह वास्तविकता है। इसे हम समझें। अहिंसा के आंदोलन तो स्वाधीन भारत में भी अक्सर निष्प्रभ होते हम आज भी देख रहे है।
- इतिहास की प्रस्तुति स्वाधीनता और स्वतन्त्रता के अर्थों का अन्तर ध्यान में रखकर करनी होगी । वर्तमान सभी व्यवस्थाएं (तंत्र) भारत में अंग्रेजों की देन है । हमें अपना समाज, अपनी संस्कृति, अपने संसाधन, अपनी शक्तियाँ, अपनी श्रेष्ठ परंपराएं, अपना जीवनलक्ष्य आदि विभिन्न बातों को ध्यान में रखकर अपने समाज के और चराचर के हिते में व्यवस्थाएं निर्माण करने की प्रेरणा इतिहास से मिलनी चाहिये ।
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* इतिहास के कालखंड की दीर्घता के कारण हमारे इतिहास लेखन में वही घटनाएँ प्रस्तुत की जाएँगी जिन के कारण समाज जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ आया होगा। इसीलिये अंग्रेज पूर्व भारत में प्राथमिक स्तर पर इतिहास के रूप में रामायण और महाभारत ही मुख्यत: सिखाए जाते थे।
- भारत की सीमाओं का आकुंचन क्यों हुआ और होता ही जा रहा है ? देश के जिस हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य हुए, असंगठित हुए, दुर्बल हुए वह देश का हिस्सा हमरे भूगोल मे नहीं रहा । इसलिये आगे देश के किसी भी हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्य नहीं रहें, असंगठित नहीं रहें और दुर्बल नहीं रहे यह सबक सीखानेवाला इतिहास हमें लिखना होगा । 
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* ना मूलम् लिख्यते किंचित यही हमारे इतिहास लेखन का आधार रहना चाहिये।
- हिन्दुस्थान १९४७ से नहीं वेदकाल से भी पहले से एक राष्ट्र रहा है । (संदर्भ यजुर्वेद २२\२२)
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* इतिहास केवल राजाओं का नहीं होता। इतिहास जीवन का होता है। जीवन के हर पहलू का होता है। जीवन के प्रत्येक पहलू के इतिहास के अध्ययन अध्यापन और लेखन से मनुष्य मोक्षगामी बने ऐसी इतिहास की प्रस्तुति होनी चाहिए।
- सामान्य आदमी की गलतियों का नुकसान उस के घरवालों को या थोडेसे लोगों को होता है। किन्तु देश का नेता जब गलती करता है तो देश और समाज का तात्कालिक ही नहीं कई पीढीयों का नुकसान होता है। जैसे पृथ्विराज चौहान, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि। इसलिये नेता का चुनाव बहुत सावधानी से करना चाहिये। ऐसा चुनाव करने के उपरांत भी सदैव चौकन्ने रहना चाहिये।  
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* अरुण-तरूण अवस्था के बच्चों को इतिहास पढाने के लिये लोककथा, लोकनाटय, स्फूर्तिगीत, समूहगीत, ग्रंथ, ललित कथाएं, शौर्यगीत आदि माध्यमों का भी उपयोग किया जा सकता है।
- स्वाधीनता की लडाई में अहिंसक आंदोलन का लक्षणीय योगदान है। किन्तु साथ ही में क्रांतिकारकों के प्रयास, आझाद हिंद सेना का पराक्रम, भारतीय सेना का अंग्रेजों को किया हुआ विरोध आदि बातें भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय सेना अंग्रेजों के प्रति एकनिष्ठ नहीं रही थी इसलिये अंग्रेजों को भारत छोडना पडा, यह वास्तविकता है। इसे हम समझें। अहिंसा के आंदोलन तो स्वाधीन भारत में भी अक्सर निष्प्रभ होते हम आज भी देख रहे है।
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* गौरवशाली घटनाओं से प्रेरणा का इतिहास तो सभी आयु के बच्चों के लिए आवश्यक है। लेकिन पराभव का दीनता का इतिहास छोटी आयु में नहीं पढ़ाना चाहिए। जब बच्चा थोड़ा समझदार बन जाए तब ही उसे पराभव का, घराभेदियों का इतिहास भी सिखाना चाहिए। किसी भी प्रस्तुति से बच्चे में हीनता बोध नहीं होना चाहिए।
- इतिहास के कालखंड की दीर्घता के कारण हमारे इतिहास लेखन में वही घटनाएँ प्रस्तुत की जाएँगी जिन के कारण समाज जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ आया होगा। इसीलिये अन्ग्रेजपूर्व भारत में प्राथमिक स्तरपर इतिहास के रूप में रामायण और महाभारत ही मुख्यत: सिखाए जाते थे।  
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* पाश्चात्य समाजजीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। भारतीय इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। भारतीय जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। इसलिए धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
- ना मूलम् लिख्यते किंचित यही हमारे इतिहास लेखन का आधार रहना चाहिये।  
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- इतिहास केवल राजाओं का नहीं होता। इतिहास जीवन का होता है। जीवन के हर पहलू का होता है। जीवन के प्रत्येक पहलू के इतिहास के अध्ययन अध्यापन और लेखन से मनुष्य मोक्षगामी बने ऐसी इतिहास की प्रस्तुति होनी चाहिए।
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- अरुण-तरूण अवस्था के बच्चों को इतिहास पढाने के लिये लोककथा, लोकनाटय, स्फूर्तिगीत, समूहगीत, ग्रंथ, ललित कथाएं, शौर्यगीत आदि माध्यमों का भी उपयोग किया जा सकता है।
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- गौरवशाली घटनाओं से प्रेरणा का इतिहास तो सभी आयु के बच्चों के लिए आवश्यक है। लेकिन पराभव का दीनता का इतिहास छोटी आयु में नहीं पढ़ाना चाहिए। जब बच्चा थोड़ा समझदार बन जाए तब ही उसे पराभव का, घराभेदियों का इतिहास भी सिखाना चाहिए। किसी भी प्रस्तुति से बच्चे में हीनता बोध नहीं होना चाहिए।
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- पाश्चात्य समाजजीवनपर शासन का बहुत गहरा प्रभाव होता है। इसलिये वर्तमान में हमें इतिहास पढाया जाता है वह भारत का राजकीय इतिहास होता है। भूगोल पढाया जाता है वह भारत का राजकीय भूगोल होता है। अर्थशास्त्र पढाया जाता है वह राजकीय अर्थशास्त्र (पोलिटिकल ईकॉनॉमी) होता है। भारतीय इतिहास लेखन में समाज जीवन के सब ही पहलुओं के इतिहास का समावेश होगा। राजकीय, कला, संस्कार, साहित्य, सामाजिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि सभी का समावेश हमारे इतिहास में होगा। भारतीय जीवन में धर्म सर्वोपरि होता है। इसलिए धर्माचरण सिखानेवाला इतिहास हो।
      
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