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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
धार्मिक समाज के बारे में ऐसा कहा जाता है कि 'हमने इतिहास से केवल एक बात सीखी है और वह है इतिहास से कुछ भी नहीं सीखना'। इस बात मे तथ्य है ऐसा वर्तमान धार्मिक  समाज के अध्ययन से भी समझ में आता है । कुछ लोग दंभ से कहते है कि हम इतिहास सीखते नहीं, हम इतिहास निर्माण करते है। ऐसे घमंडी लोगोंं की ओर ध्यान नहीं देना ही ठीक है। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे लोग भविष्य में बार बार अपमानित होते रहते है। इतिहास से समाजमन तैयार होता है। हर समाज में साहित्य, लेखन, लोककथाएँं, बालगीत, लोकवांग्मय, लोरीगीत आदि के माध्यम से इतिहास के उदात्त प्रसंगों द्वारा समाज मन तैयार करने की सहज प्रक्रिया हुआ करती थी। सामान्य लोग इसे भलीभाँति समझते है। इसलिये वर्तमान विद्यालयीन शिक्षा में यद्यपि विदेशी शासकों की भूमिका से लिखा इतिहास पढाया जाता है, फिर भी लोकसाहित्य, लोकगीत, बालगीत, लोरियाँ आदि अब भी भारत के गौरवपूर्ण इतिहास की गाथा ही गाते है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २९, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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धार्मिक समाज के बारे में ऐसा कहा जाता है कि 'हमने इतिहास से केवल एक बात सीखी है और वह है इतिहास से कुछ भी नहीं सीखना'। इस बात मे तथ्य है ऐसा वर्तमान धार्मिक  समाज के अध्ययन से भी समझ में आता है । कुछ लोग दंभ से कहते है कि हम इतिहास सीखते नहीं, हम इतिहास निर्माण करते है। ऐसे घमंडी लोगोंं की ओर ध्यान नहीं देना ही ठीक है। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा था कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते वे लोग भविष्य में बार बार अपमानित होते रहते है। इतिहास से समाजमन तैयार होता है। हर समाज में साहित्य, लेखन, लोककथाएँं, बालगीत, लोकवांग्मय, लोरीगीत आदि के माध्यम से इतिहास के उदात्त प्रसंगों द्वारा समाज मन तैयार करने की सहज प्रक्रिया हुआ करती थी। सामान्य लोग इसे भलीभाँति समझते है। इसलिये वर्तमान विद्यालयीन शिक्षा में यद्यपि विदेशी शासकों की भूमिका से लिखा इतिहास पढाया जाता है, तथापि लोकसाहित्य, लोकगीत, बालगीत, लोरियाँ आदि अब भी भारत के गौरवपूर्ण इतिहास की गाथा ही गाते है।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २९, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== शत्रुओं द्वारा लिखित धार्मिक  इतिहास की पार्श्वभूमि ==
 
== शत्रुओं द्वारा लिखित धार्मिक  इतिहास की पार्श्वभूमि ==
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राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पद्दति थी। इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था। १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम रोबर्टसन द्वारा लिखे और १७९२ में प्रकाशित 'हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधार पर भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी। भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी धार्मिक  सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था। उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी। धार्मिक  साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था<ref>ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक, पृष्ठ ३</ref>। १७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पादरियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया। इन पादरियों द्वारा भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया। जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था। इसी इतिहास के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया।
 
राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे नीति और रणनीति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर हर २० वर्ष के बाद गहराई से संसद मे चर्चा करने की ब्रिटेन में पद्दति थी। इसे चार्टर्ड डिबेट कहा जाता था। १७९२ से पूर्व भारत में अध्ययन के लिये आये, प्रसिध्द अंग्रेजी इतिहासकार विलियम रोबर्टसन द्वारा लिखे और १७९२ में प्रकाशित 'हिस्टॉरिकल डिस्क्विझिशन्स् ऑन ईंडिया' पुस्तक में दी गयी जानकारी के आधार पर भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। विलियम रॉबर्टसन की यह पुस्तक उस के ही जैसे भारत अध्ययन करने आये कुछ इतिहास संशोधकों द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंधोंपर आधारित थी। भारत का गव्हर्नर जनरल वॉरेन हेस्टींग्ज ( १७७२-१७८५) भी धार्मिक  सस्कृति, संस्कृत भाषा आदि का प्रशंसक था। उस ने इन के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना भी की थी। धार्मिक  साहित्य का अध्ययन पाश्चात्य राष्ट्रों के लिये हितकारी होगा ऐसा लॉर्ड मिन्टो (१८०६-१८१३) भी मानता था<ref>ए स्टुडंण्ट्स् हिस्टरी ऑफ ईंडिया - लेखक सय्यद नुरूला और जे. पी नायक, पृष्ठ ३</ref>। १७९२ में प्रस्ताव के ठुकराए जाने के बाद भी चार्ल्स् ग्रँट निराश नहीं हुआ। वह १७९३ में कुछ पादरियों को अवैध रूप से भारत भेजने में सफल हो गया। इन पादरियों द्वारा भेजी विकृत और अतिरंजित जानकारी के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ने हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया ग्रंथ दो खण्डों में प्रकाशित किया। जेम्स् स्टुअर्ट मिल भारत में कभी नहीं आया था। इसी इतिहास के आधार पर जेम्स् स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश सरकार का भारत से संबंधित सभी मामलों में सलाहकार बन गया।
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इसी के मध्य चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाडने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण आरम्भ हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
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इसी के मध्य चार्ल्स् ग्रँट ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स् का चेयरमन बन गया था । आगामी चार्टर्ड डीबेट से पूर्व उसने जेम्स् मिल द्वारा लिखे इतिहास के आधार पर इंग्लैंड में भारत की प्रतिमा बिगाड़ने के लिये अभियान चलाया था । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में इसी इतिहास में लिखी विकृत और अतिरंजित जानकारी को ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया । १८१२ की चार्टर्ड डीबेट में प्रस्तुत इस गलत भूमिका के लिये लॉर्ड हेस्ंटिग्ज ने विरोध भी जताया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की अधिकृत भूमिका के रूप में प्रस्तुत होने से और भारत की प्रतिमा-हनन के प्रयासों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रचार और प्रसार के लिये भारत में पादरी भेजने का प्रस्ताव पारित हो गया । भारत का ईसाईकरण आरम्भ हो गया । सन १८५७ तक यह निर्बाध रूप से चलता रहा । १८५७ की लडाई के बाद इस नीति को बदला गया था। इस की जानकारी १८५७ के स्वातंत्र्य समर का इतिहास जाननेवाले सभी को है।
    
सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है। मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था। उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया। मॅकलिफ सिंग बन गया। जीते हुए समाज का और वह भी गोरी चमडी वाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।<blockquote>सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।</blockquote><blockquote>जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥</blockquote>सिक्खों के दसवें गुरू गोविद सिंह जी ने खालसा (सिख) पंथ की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है। किन्तु सिखों (केशधारी हिन्दू) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला। १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है। कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया।  किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है कि अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है। इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखने पर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है।
 
सिखों के इतिहास लेखन की कथा तो इस से भी अधिक गहरे षडयंत्र की कथा है। मॅकलिफ नाम का एक अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी बनकर पंजाब में आया था। उस ने सिख पंथ का स्वीकार किया। मॅकलिफ सिंग बन गया। जीते हुए समाज का और वह भी गोरी चमडी वाला अंग्रेज सिख बन जाता है, यह बात सिखों के लिये अत्यंत आनंद देनेवाली और अत्यंत गौरवपूर्ण थी । इस के परिणामस्वरूप मॅकलिफसिंग सिखों का सिरमौर बन गया । पूरा सिख समाज मॅकलिफसिंग जिसे पूर्व कहे उसे पूर्व कहने लग गया ।<blockquote>सकल जगत में खालसा पंथ गाजे ।</blockquote><blockquote>जगे धर्म हिंन्दू सकल भंड भाजे ॥</blockquote>सिक्खों के दसवें गुरू गोविद सिंह जी ने खालसा (सिख) पंथ की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये की थी यह बात उन के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट है। किन्तु सिखों (केशधारी हिन्दू) में और हिन्दुओं में फूट डालने के लिये मॅकलिफसिंग ने सिखों का झूठा इतिहास लिख डाला। १९९० के दशक में पंजाब में चले खलिस्तान की अलगाववादी मांग के बीज मॅकलिफसिंग के लिखे सिखों के इतिहास में ही है। कंपनी की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही मॅकलिफसिंग दाढी-मूंछें मुंडवाकर फिर ईसाई बनकर इंग्लैंड चला गया।  किन्तु हमारी गुलामी की मानसिकता इतनी गहरी है कि अब भी हम अंग्रेजों के षडयंत्र को समझ नहीं रहे । मॅकलिफसिंग का लिखा सिखों का इतिहास आज भी सिखों का प्रामाणिक संदर्भ इतिहास माना जाता है। इस इतिहास से भिन्न कुछ लिखने पर हमारी तथाकथित इतिहासज्ञों की फौज लिखा हुआ सत्य है या नहीं इस को जाँचे बगैर ही उस के विरोध में खडी हो जाती है।
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निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा:
 
निम्न बिन्दुओं का विचार भी लाभदायी होगा:
 
* धार्मिक समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। अतः इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
 
* धार्मिक समाज अत्यंत प्राचीन समाज है। अतः इसके इतिहास का कालखंड भी बहुत दीर्घ है।
* धार्मिक समाज उत्थान और पतन के कई दौरों से गुजरा है। फिर भी हमने अपना स्वत्त्व नहीं खोया है। हम में कुछ है जिसने हमें कालजयी बनाया है।
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* धार्मिक समाज उत्थान और पतन के कई दौरों से गुजरा है। तथापि हमने अपना स्वत्त्व नहीं खोया है। हम में कुछ है जिसने हमें कालजयी बनाया है।
 
* जब समाज के घटकों को हम एक समाज है, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है, तब इतिहास प्रस्तुति की औपचारिक आवश्यकता निर्माण होती है।
 
* जब समाज के घटकों को हम एक समाज है, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है, तब इतिहास प्रस्तुति की औपचारिक आवश्यकता निर्माण होती है।
 
* डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित हैं और जो अधिक बलवान हैं, उनका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
 
* डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित हैं और जो अधिक बलवान हैं, उनका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
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== धार्मिक समाज की प्राचीनता ==
 
== धार्मिक समाज की प्राचीनता ==
धार्मिक समाज और इसलिये धार्मिक  इतिहास की प्राचीनता के बारे में भिन्न भिन्न विचार प्रस्तुत किये गये है । इन के कारण संभ्रम निर्माण हुआ है। योरप के वर्तमान समाजों का इतिहास अरस्तू (अरिस्टॉटल), अफलातून (प्लेटो) आदि से पहले का नहीं है । अर्थात् मुश्किल से २.५-३ हजार वर्ष पुराना ही है । विजयी जातियाँ विकसित होती हैं, ऐसा भ्रम योरपीय देशों ने विकासवाद के नामपर फैलाया है। इस कारण योरप से पुराना भारत का इतिहास नहीं हो सकता। ऐसा अंग्रेजों ने मान लिया। उस के आधार पर उन्होंने भारत के प्रदीर्घ इतिहास को ठूंसठूंसकर इस काल में बिठाने का प्रयास किया। भारत का इतिहास गुप्तकाल से प्रारंभ हुआ ऐसा मान लिया गया। आगे जाकर मोहेंन्जोदरो, हरप्पा के अवशेष मिले। तब यह ध्यान में आया कि ऐसा विकसित समाज इस से अधिक पुराना होगा। तब वेदकाल को ईसा से ३००० वर्ष पूर्व का कह दिया गया। अब तो भीमबेटका जैसे स्थानों पर विकसित संस्कृति के चिन्ह मिलने से यह काल १०–१२ हजार वर्ष तक पीछे गया है। किन्तु फिर भी धार्मिक  इतिहास इस से कितना पुराना है, इस बारे में अभी भी संभ्रम ही है। यह संभ्रम प्रमुखता से पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता हमारी मान्यता को स्वीकृति देंगे या नहीं इस आशंका के कारण है। इस विषय में निम्न कुछ बातें विचारणीय है:
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धार्मिक समाज और इसलिये धार्मिक  इतिहास की प्राचीनता के बारे में भिन्न भिन्न विचार प्रस्तुत किये गये है । इन के कारण संभ्रम निर्माण हुआ है। योरप के वर्तमान समाजों का इतिहास अरस्तू (अरिस्टॉटल), अफलातून (प्लेटो) आदि से पहले का नहीं है । अर्थात् मुश्किल से २.५-३ हजार वर्ष पुराना ही है । विजयी जातियाँ विकसित होती हैं, ऐसा भ्रम योरपीय देशों ने विकासवाद के नामपर फैलाया है। इस कारण योरप से पुराना भारत का इतिहास नहीं हो सकता। ऐसा अंग्रेजों ने मान लिया। उस के आधार पर उन्होंने भारत के प्रदीर्घ इतिहास को ठूंसठूंसकर इस काल में बिठाने का प्रयास किया। भारत का इतिहास गुप्तकाल से प्रारंभ हुआ ऐसा मान लिया गया। आगे जाकर मोहेंन्जोदरो, हरप्पा के अवशेष मिले। तब यह ध्यान में आया कि ऐसा विकसित समाज इस से अधिक पुराना होगा। तब वेदकाल को ईसा से ३००० वर्ष पूर्व का कह दिया गया। अब तो भीमबेटका जैसे स्थानों पर विकसित संस्कृति के चिन्ह मिलने से यह काल १०–१२ हजार वर्ष तक पीछे गया है। किन्तु तथापि धार्मिक  इतिहास इस से कितना पुराना है, इस बारे में अभी भी संभ्रम ही है। यह संभ्रम प्रमुखता से पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता हमारी मान्यता को स्वीकृति देंगे या नहीं इस आशंका के कारण है। इस विषय में निम्न कुछ बातें विचारणीय है:
 
* समाज के घटकों को हम एक समाज हैं, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है तब इतिहास की आवश्यकता निर्माण होती है और इतिहास के निर्माण का प्रारंभ होता है।
 
* समाज के घटकों को हम एक समाज हैं, हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली को टिकाए रखना आवश्यक है, ऐसा लगने लगता है तब इतिहास की आवश्यकता निर्माण होती है और इतिहास के निर्माण का प्रारंभ होता है।
 
* डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित है और जो अधिक बलवान है, विजेता है उसका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
 
* डार्विन के विकासवाद की कल्पना अभी भी कोरी कल्पना ही है। जो विजयी है, वह अधिक विकसित है और जो अधिक बलवान है, विजेता है उसका इतिहास अधिक पुराना होगा, यह सोचना भी ठीक नहीं है।
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इंग्लैण्ड का इतिहास मुश्किल से ८००-१००० वर्षों का है। इस से पहले वहाँ गिरोहों की संस्कृति थी। सामाजिक परंपराओं का सातत्य नहीं था। इसलिये इतिहास लेखन की आवश्यकता भी नहीं थी । इंग्लैण्ड के इस मुश्किल से ८०० – १००० वर्षों के इतिहासपर अबतक १०,००० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । इन पुस्तकों में भी कई स्थानों पर विवाद है। कोई घटना हेनरी २ के काल में घटी थी या हेनरी ३ के काल में, ऐसा संभ्रम है। यह स्वाभाविक भी है।
 
इंग्लैण्ड का इतिहास मुश्किल से ८००-१००० वर्षों का है। इस से पहले वहाँ गिरोहों की संस्कृति थी। सामाजिक परंपराओं का सातत्य नहीं था। इसलिये इतिहास लेखन की आवश्यकता भी नहीं थी । इंग्लैण्ड के इस मुश्किल से ८०० – १००० वर्षों के इतिहासपर अबतक १०,००० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । इन पुस्तकों में भी कई स्थानों पर विवाद है। कोई घटना हेनरी २ के काल में घटी थी या हेनरी ३ के काल में, ऐसा संभ्रम है। यह स्वाभाविक भी है।
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पाश्चात्य ऐतिहासिकता के मापदण्ड और उन की इतिहास लेखन की पद्दति उन के इतिहास के कालखण्ड की दृष्टि से शायद योग्य भी होगी किन्तु धार्मिक  इतिहास जो इंग्लैण्ड के इतिहास से कई गुना अधिक है, उस के लिये योग्य नहीं हो सकती । इंग्लैण्ड से १० गुना बडा भूभाग, १० गुना अधिक जनसंख्या और एक ही समय एक ही नाम के कई राजा हो सकते हैं ऐसे भारत का इतिहास इंग्लैण्ड के इतिहास की पद्दति से अर्थात कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है । और धार्मिक  इतिहास दृष्टि के अनुसार आवश्यक भी नहीं है।
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पाश्चात्य ऐतिहासिकता के मापदण्ड और उन की इतिहास लेखन की पद्दति उन के इतिहास के कालखण्ड की दृष्टि से संभवतः योग्य भी होगी किन्तु धार्मिक  इतिहास जो इंग्लैण्ड के इतिहास से कई गुना अधिक है, उस के लिये योग्य नहीं हो सकती । इंग्लैण्ड से १० गुना बडा भूभाग, १० गुना अधिक जनसंख्या और एक ही समय एक ही नाम के कई राजा हो सकते हैं ऐसे भारत का इतिहास इंग्लैण्ड के इतिहास की पद्दति से अर्थात कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है । और धार्मिक  इतिहास दृष्टि के अनुसार आवश्यक भी नहीं है।
    
धार्मिक इतिहास लेखन की पद्दति का स्वरूप निम्न कुछ बिन्दुओं के माध्यम से हम समझ सकेंगे:
 
धार्मिक इतिहास लेखन की पद्दति का स्वरूप निम्न कुछ बिन्दुओं के माध्यम से हम समझ सकेंगे:
 
* धर्मानुकूल अर्थ और काम को रख मोक्ष की ओर बढने के लिये मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है । कालानुक्रम नहीं।
 
* धर्मानुकूल अर्थ और काम को रख मोक्ष की ओर बढने के लिये मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है । कालानुक्रम नहीं।
 
* औरंगजेब के इतिहास में औरंगजेब के नहाने का कोई वर्णन नहीं लिखा मिलता। इस का अर्थ यह नहीं कि औरंगजेब नहाता नहीं था। अन्य बातों की तुलना में नहाना यह इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं थी, कि इतिहास में लिखी जाए। इसी तरह धार्मिक  इतिहास इतने लम्बे कालखण्ड का इतिहास है कि उसे अंग्रेजी पद्दति से कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । प्रदीर्घ काल के कारण इतिहास लिखने की धार्मिक  पद्दति में समाज जीवन को मोड देनेवाली महत्वपूर्ण घटनाओं का ही समावेष हो सकता है। जो महत्वपूर्ण नहीं है उसे लिखने से तो कागज और समय ही बिगडेगा।
 
* औरंगजेब के इतिहास में औरंगजेब के नहाने का कोई वर्णन नहीं लिखा मिलता। इस का अर्थ यह नहीं कि औरंगजेब नहाता नहीं था। अन्य बातों की तुलना में नहाना यह इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं थी, कि इतिहास में लिखी जाए। इसी तरह धार्मिक  इतिहास इतने लम्बे कालखण्ड का इतिहास है कि उसे अंग्रेजी पद्दति से कालक्रम के अनुसार लिखना संभव नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । प्रदीर्घ काल के कारण इतिहास लिखने की धार्मिक  पद्दति में समाज जीवन को मोड देनेवाली महत्वपूर्ण घटनाओं का ही समावेष हो सकता है। जो महत्वपूर्ण नहीं है उसे लिखने से तो कागज और समय ही बिगडेगा।
* भारत की जनसंख्या, भारत का भौगोलिक विस्तार और भारत में रहे छोटे छोटे राज्यों का अंग्रेजी पद्दति से इतिहास लिखना तो अंग्रेजों को भी संभव नहीं होगा। एक ही समय एक ही नाम के राजा शायद २ -३ राज्यों में राज करते हों तो उन के इतिहास लेखन में कितना संभ्रम निर्माण होगा कोई भी कल्पना कर सकता है। जैसे महाभारत में वासुदेव कृष्ण दो थे। नकली वासुदेव कृष्ण का असली कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सिर काटा था।
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* भारत की जनसंख्या, भारत का भौगोलिक विस्तार और भारत में रहे छोटे छोटे राज्यों का अंग्रेजी पद्दति से इतिहास लिखना तो अंग्रेजों को भी संभव नहीं होगा। एक ही समय एक ही नाम के राजा संभवतः २ -३ राज्यों में राज करते हों तो उन के इतिहास लेखन में कितना संभ्रम निर्माण होगा कोई भी कल्पना कर सकता है। जैसे महाभारत में वासुदेव कृष्ण दो थे। नकली वासुदेव कृष्ण का असली कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सिर काटा था।
 
* निचैर्गच्छ्त्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण का मथित अर्थ है प्रकृति की तरह ही इतिहास भी चक्रिय पद्दति से घटता रहता  है। उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है। हर युग में चतुर्युग हुआ करते है। कलियुग में भी जो श्रेष्ठ समय होगा उसे कलियुग का सत्ययुग कहा जाएगा। समाज के उत्थान और पतन में किस घटना चक्र से प्रेरणा या सबक मिलता है वह महत्वपूर्ण है । वह घटना किस समय चक्र की है यह नहीं। इतिहास यह कथारूप में पढाने का विषय है।
 
* निचैर्गच्छ्त्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण का मथित अर्थ है प्रकृति की तरह ही इतिहास भी चक्रिय पद्दति से घटता रहता  है। उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है। हर युग में चतुर्युग हुआ करते है। कलियुग में भी जो श्रेष्ठ समय होगा उसे कलियुग का सत्ययुग कहा जाएगा। समाज के उत्थान और पतन में किस घटना चक्र से प्रेरणा या सबक मिलता है वह महत्वपूर्ण है । वह घटना किस समय चक्र की है यह नहीं। इतिहास यह कथारूप में पढाने का विषय है।
 
* घरों के लिए अच्छे माता-पिता, समाज के लिये अच्छे समाजघटक, देश के लिये देशभक्त और विश्व के लिये अच्छे मानव बनाने की दृष्टि से इतिहास की प्रस्तुति और अध्यापन करना होगा।
 
* घरों के लिए अच्छे माता-पिता, समाज के लिये अच्छे समाजघटक, देश के लिये देशभक्त और विश्व के लिये अच्छे मानव बनाने की दृष्टि से इतिहास की प्रस्तुति और अध्यापन करना होगा।

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