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{{One source|date=January 2019}}
 
== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
 
भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्वों के आधार पर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं:  
 
भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्वों के आधार पर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं:  
 
# वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।  
 
# वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।  
 
# वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।  
 
# वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।  
# वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं।  
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# वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २७, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== समाज की प्रधान आवश्यकताएँ ==
 
== समाज की प्रधान आवश्यकताएँ ==
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#* सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं के अनुपालन, परिष्कार और नवनिर्माण में सार्थक योगदान
 
#* सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं के अनुपालन, परिष्कार और नवनिर्माण में सार्थक योगदान
 
# अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधोपचार – ये बातें क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये।
 
# अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधोपचार – ये बातें क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये।
# धर्म व्यवस्था : वर्तमान के सन्दर्भ में धर्म को व्याख्यायित करने की व्यवस्था। चराचर के हित में सदैव चिंतन करनेवाले धर्म के जानकारों के लोकसंग्रह, त्याग, तपस्या के कारण लोग और शासन भी इनका अनुगामी बनता है। ऐसे लोगों का निर्माण यह धर्म की प्रतिनिधि शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है।
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# धर्म व्यवस्था : वर्तमान के सन्दर्भ में धर्म को व्याख्यायित करने की व्यवस्था। चराचर के हित में सदैव चिंतन करनेवाले धर्म के जानकारों के लोकसंग्रह, त्याग, तपस्या के कारण लोग और शासन भी इनका अनुगामी बनता है। ऐसे लोगोंं का निर्माण यह धर्म की प्रतिनिधि शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है।
# शिक्षा: जन्म जन्मान्तर की और आजीवन शिक्षा/संस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए। धर्माचरण की याने पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। वर्णाश्रम धर्म इसका व्यावहारिक स्वरूप है। ब्राह्मण स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीनों स्वतन्त्रताओं  की सार्वत्रिकता की आश्वस्ति बनाए रखना है। क्षत्रिय स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी शासनिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की आश्वस्ति बनाए रखने की है। वैश्य स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता बनाए रखने की है। यह सब वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आता है।
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# शिक्षा: जन्म जन्मान्तर की और आजीवन शिक्षा/संस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए। धर्माचरण की याने पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। वर्णाश्रम धर्म इसका व्यावहारिक स्वरूप है। ब्राह्मण स्वभाव के लोगोंं की जिम्मेदारी स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीनों स्वतन्त्रताओं  की सार्वत्रिकता की आश्वस्ति बनाए रखना है। क्षत्रिय स्वभाव के लोगोंं की जिम्मेदारी शासनिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की आश्वस्ति बनाए रखने की है। वैश्य स्वभाव के लोगोंं की जिम्मेदारी समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता बनाए रखने की है। यह सब वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आता है।
 
विविध सामाजिक संगठनों के लिए और व्यवस्थाओं के लिए इन की अच्छी समझ और इनको चलाने की कुशलता रखनेवाले लोग निर्माण करना भी शिक्षा की ही जिम्मेदारी है।  
 
विविध सामाजिक संगठनों के लिए और व्यवस्थाओं के लिए इन की अच्छी समझ और इनको चलाने की कुशलता रखनेवाले लोग निर्माण करना भी शिक्षा की ही जिम्मेदारी है।  
संक्षेप में कहें तो आगे दिए हुए ढाँचे के अनुसार जीवन के प्रतिमान के लिए आवश्यक लोगों का निर्माण करना यह शिक्षा का काम है।
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संक्षेप में कहें तो आगे दिए हुए ढाँचे के अनुसार जीवन के प्रतिमान के लिए आवश्यक लोगोंं का निर्माण करना यह शिक्षा का काम है।
 
[[File:Part 1 Last Chapter Table Bhartiya Jeevan Pratiman.jpg|center|thumb|969x969px]]
 
[[File:Part 1 Last Chapter Table Bhartiya Jeevan Pratiman.jpg|center|thumb|969x969px]]
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== समाजधारणा के लिए मार्गदर्शक बातें ==
 
== समाजधारणा के लिए मार्गदर्शक बातें ==
# तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि: तत्व : चर-अचर सृष्टि यह परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए चराचर में एकात्मता व्याप्त है। परमात्मा यह सारी सृष्टि का मूल “तत्व” है। इस तत्व का ज्ञान ही तत्वज्ञान है। जीवन दृष्टि : इस तत्वज्ञान से भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र उभरकर आते हैं, वे निम्न हैं:
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# तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि: तत्व : चर-अचर सृष्टि यह परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। अतः चराचर में एकात्मता व्याप्त है। परमात्मा यह सारी सृष्टि का मूल “तत्व” है। इस तत्व का ज्ञान ही तत्वज्ञान है। जीवन दृष्टि : इस तत्वज्ञान से भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र उभरकर आते हैं, वे निम्न हैं:
 
## चर और अचर सृष्टि एक ही आत्मतत्व से बनी होने के कारण सभी अस्तित्व एकात्म हैं। एकात्मता याने आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है।
 
## चर और अचर सृष्टि एक ही आत्मतत्व से बनी होने के कारण सभी अस्तित्व एकात्म हैं। एकात्मता याने आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है।
 
## जीवन स्थल के सम्बन्ध में अखंड और काल के सन्दर्भ में एक है। सृष्टि के चर-अचर ऐसे सभी अस्तित्व परस्पर सम्बद्ध हैं। तथा जीवन पहले जन्म से लेकर अंतिम जन्मतक एक होता है।
 
## जीवन स्थल के सम्बन्ध में अखंड और काल के सन्दर्भ में एक है। सृष्टि के चर-अचर ऐसे सभी अस्तित्व परस्पर सम्बद्ध हैं। तथा जीवन पहले जन्म से लेकर अंतिम जन्मतक एक होता है।
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# जीवनशैली के महत्वपूर्ण सूत्र इन सूत्रों की विशेषता यह है की किसी भी एक सूत्र को पूरी तरह जान लेने से तथा व्यवहार में लाने से अन्य सभी सूत्र अपने आप व्यवहार में आ जाते हैं। यह प्रत्येक सूत्र अपने आप में जीवन के लक्ष्य की याने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है:
 
# जीवनशैली के महत्वपूर्ण सूत्र इन सूत्रों की विशेषता यह है की किसी भी एक सूत्र को पूरी तरह जान लेने से तथा व्यवहार में लाने से अन्य सभी सूत्र अपने आप व्यवहार में आ जाते हैं। यह प्रत्येक सूत्र अपने आप में जीवन के लक्ष्य की याने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है:
 
#* सर्वे भवन्तु सुखिन:
 
#* सर्वे भवन्तु सुखिन:
#* नर करनी करे तो नारायण बन जाए
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#* नर करनी करे तो उतरोत्तर प्रगति करता जाए
 
#* आत्मवत् सर्वभूतेषू
 
#* आत्मवत् सर्वभूतेषू
 
#* वसुधैव कुटुम्बकम्
 
#* वसुधैव कुटुम्बकम्
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== सामाजिक मान्यताएँ ==
 
== सामाजिक मान्यताएँ ==
 
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के कारण निम्न मान्यताएँ निर्माण होतीं है:
 
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के कारण निम्न मान्यताएँ निर्माण होतीं है:
# वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अभारतीय विचार भी स्वीकार्य हैं।
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# वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अधार्मिक (अधार्मिक) विचार भी स्वीकार्य हैं।
 
# आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाज हित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है।
 
# आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाज हित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है।
# समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा।
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# समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पड़ेगा।
 
# समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्मा ने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.10 </ref>। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.11</ref>।
 
# समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्मा ने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.10 </ref>। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.11</ref>।
 
# सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयस की ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2</ref>। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं: ज्ञान और विज्ञान, परा और अपरा<ref>श्रीमद भगवदगीता, अध्याय 15, 16 व 17  </ref> (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
 
# सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयस की ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2</ref>। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं: ज्ञान और विज्ञान, परा और अपरा<ref>श्रीमद भगवदगीता, अध्याय 15, 16 व 17  </ref> (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
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# कृतज्ञता मानवता का व्यवच्छेदक लक्षण है। अन्य सजीवों में यह अभाव से ही होता है। इससे भी आगे ऋणमुक्ति सिद्धांत मानव को मोक्षगामी बनाता है।
 
# कृतज्ञता मानवता का व्यवच्छेदक लक्षण है। अन्य सजीवों में यह अभाव से ही होता है। इससे भी आगे ऋणमुक्ति सिद्धांत मानव को मोक्षगामी बनाता है।
 
# प्रकृति विकेन्द्रित है इसलिये सभी क्षेत्रों मे विकेंद्रीकरण हितकारी है। विकेंद्रीकरण की सीमा को समझना भी महत्वपूर्ण है। जिससे अधिक विकेंद्रीकरण करने से उस इकाई का नुकसान होने लग जाता है यही वह सीमा है।
 
# प्रकृति विकेन्द्रित है इसलिये सभी क्षेत्रों मे विकेंद्रीकरण हितकारी है। विकेंद्रीकरण की सीमा को समझना भी महत्वपूर्ण है। जिससे अधिक विकेंद्रीकरण करने से उस इकाई का नुकसान होने लग जाता है यही वह सीमा है।
# समाज व्यवहार व्यापक सामाजिक संगठन, व्यापक सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से नियमित होने से श्रेष्ठ होता है। स्थाई होता है। फफूँद जैसी निर्माण की गई छोटी छोटी अल्पजीवी संस्थाओं (इन्स्टीट्युशंस) के निर्माण से नहीं। बहुत बड़ी मात्रा में समाज का इन्स्टीट्युशनायझेशन (संस्थीकरण) करना यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की आवश्यकता है, भारतीय जीवन के प्रतिमान की नहीं।
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# समाज व्यवहार व्यापक सामाजिक संगठन, व्यापक सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से नियमित होने से श्रेष्ठ होता है। स्थाई होता है। फफूँद जैसी निर्माण की गई छोटी छोटी अल्पजीवी संस्थाओं (इन्स्टीट्युशंस) के निर्माण से नहीं। बहुत बड़ी मात्रा में समाज का इन्स्टीट्युशनायझेशन (संस्थीकरण) करना यह जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की आवश्यकता है, भारतीय जीवन के प्रतिमान की नहीं।
 
# शासन को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं होता। अनुपालन करवाने का कर्तव्य और अधिकार दोनों होते हैं। धर्म के जानकार ही क़ानून बनाने के अधिकारी हैं।
 
# शासन को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं होता। अनुपालन करवाने का कर्तव्य और अधिकार दोनों होते हैं। धर्म के जानकार ही क़ानून बनाने के अधिकारी हैं।
 
# सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों (य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए।
 
# सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों (य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए।
 
# समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो।
 
# समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो।
# समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगों की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है।  
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# समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगोंं की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है।  
 
# सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाई के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन व्यवस्था समूह का हिस्सा है।
 
# सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाई के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन व्यवस्था समूह का हिस्सा है।
 
# हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है।
 
# हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है।
 
# सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
 
# सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
 
# किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडों पर आँकी जानी चाहिए।
 
# किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडों पर आँकी जानी चाहिए।
# समान जीवन दृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।
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# समान जीवन दृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगोंं की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।
 
# सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।
 
# सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।
 
# सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
 
# सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
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# कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए।  
 
# कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए।  
 
# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनों द्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं।  
 
# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनों द्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं।  
# जाति व्यवस्था के दर्जनों लाभ और जाति व्यवस्था पर किये गए दोषारोपों का वास्तव समझना आवश्यक है। वास्तव समझकर किसी सक्षम वैकल्पिक व्यवस्था निर्माण की आवश्यकता है।  
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# [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के दर्जनों लाभ और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] पर किये गए दोषारोपों का वास्तव समझना आवश्यक है। वास्तव समझकर किसी सक्षम वैकल्पिक व्यवस्था निर्माण की आवश्यकता है।  
 
# मानव की धर्म सुसंगत इच्छाओं में और उनकी पूर्ति में किसी का विरोध नहीं होना चाहिए (आर्थिक स्वतंत्रता)।  
 
# मानव की धर्म सुसंगत इच्छाओं में और उनकी पूर्ति में किसी का विरोध नहीं होना चाहिए (आर्थिक स्वतंत्रता)।  
 
# उत्पादकों की संख्या जितनी अधिक उतनी कीमतें कम होती हैं। कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में ही यह संभव होता है। कौटुम्बिक उद्योग आधारित समृद्धि व्यवस्था के भी दर्जनों लाभ हैं।  
 
# उत्पादकों की संख्या जितनी अधिक उतनी कीमतें कम होती हैं। कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में ही यह संभव होता है। कौटुम्बिक उद्योग आधारित समृद्धि व्यवस्था के भी दर्जनों लाभ हैं।  
 
# स्त्री और पुरूष में कार्य विभाजन उनकी परस्पर-पूरकता तथा स्वाभाविक क्षमताओं/योग्यताओं के आधारपर हो।  
 
# स्त्री और पुरूष में कार्य विभाजन उनकी परस्पर-पूरकता तथा स्वाभाविक क्षमताओं/योग्यताओं के आधारपर हो।  
 
# उत्पादन यथासंभव लघुतम इकाई में हो। कौटुम्बिक उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम उद्योग और अंत में बड़े उद्योग।  
 
# उत्पादन यथासंभव लघुतम इकाई में हो। कौटुम्बिक उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम उद्योग और अंत में बड़े उद्योग।  
# पैसा अर्थव्यवस्था को विकृत कर देता है। इसलिए ग्राम स्तर पर पैसे का लेनदेन नहीं हो। शहर स्तर पर भी यथासंभव पैसे का उपयोग न्यूनतम हो।  
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# पैसा अर्थव्यवस्था को विकृत कर देता है। अतः ग्राम स्तर पर पैसे का लेनदेन नहीं हो। शहर स्तर पर भी यथासंभव पैसे का उपयोग न्यूनतम हो।  
 
# मधुमख्खी फूलों से जिस प्रमाण में रस लेती है कर वसूली भी उससे अधिक नहीं हो।  
 
# मधुमख्खी फूलों से जिस प्रमाण में रस लेती है कर वसूली भी उससे अधिक नहीं हो।  
 
# राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी। सुरक्षा उत्पादनों जैसे अपवाद छोड़ शासन कोई उद्योग नहीं चलाए।  
 
# राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी। सुरक्षा उत्पादनों जैसे अपवाद छोड़ शासन कोई उद्योग नहीं चलाए।  
 
# दान की महत्ता बढे। आजीविका से अधिक की अतिरिक्त आय दान में देने की मानसिकता बढे।  
 
# दान की महत्ता बढे। आजीविका से अधिक की अतिरिक्त आय दान में देने की मानसिकता बढे।  
# धनार्जन का काम केवल गृहस्थाश्रमी करे। गृहस्थाश्रमी अन्य सभी आश्रमों के लोगों की, वास्तव में चराचर की आजीविका का भार उठाए। वानप्रस्थी लोकहित में अपना ज्ञान, अपनी क्षमताओं और अपने अनुभवों का उपयोग करे। समाज की सेवा करें। नौकरी नहीं। ब्रह्मचारी अपनी क्षमताओं को संभाव्यता की उच्चतम सीमातक विकसित करने का प्रयास करे। व्यवस्था ऐसी हो की कोई भी पिछड़ा नहीं रहे। अन्त्योदय तो आपद्धर्म है।  
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# धनार्जन का काम केवल गृहस्थाश्रमी करे। गृहस्थाश्रमी अन्य सभी आश्रमों के लोगोंं की, वास्तव में चराचर की आजीविका का भार उठाए। वानप्रस्थी लोकहित में अपना ज्ञान, अपनी क्षमताओं और अपने अनुभवों का उपयोग करे। समाज की सेवा करें। नौकरी नहीं। ब्रह्मचारी अपनी क्षमताओं को संभाव्यता की उच्चतम सीमातक विकसित करने का प्रयास करे। व्यवस्था ऐसी हो की कोई भी पिछड़ा नहीं रहे। अन्त्योदय तो आपद्धर्म है।  
 
# खेती गोआधारित तथा अदेवामातृका और राष्ट्र की समृद्धि व्यवस्था अपरमातृका होनी चाहिए।  
 
# खेती गोआधारित तथा अदेवामातृका और राष्ट्र की समृद्धि व्यवस्था अपरमातृका होनी चाहिए।  
 
# प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य उनकी नवीकरण की संभावना और गति के आधारपर तय हो। अनवीकरणीय पदार्थों का उपभोग यथासंभव कम करते चलें।  
 
# प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य उनकी नवीकरण की संभावना और गति के आधारपर तय हो। अनवीकरणीय पदार्थों का उपभोग यथासंभव कम करते चलें।  
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# विज्ञापनबाजी वर्जित हो।  
 
# विज्ञापनबाजी वर्जित हो।  
 
# वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टि से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा।  
 
# वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टि से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा।  
# वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टि अधूरी है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जब तक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़ हैं।
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# वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टि अधूरी है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जब तक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़़ हैं।
    
== अभिशासन (Governance) ==
 
== अभिशासन (Governance) ==
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# धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टि से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो।  
 
# धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टि से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो।  
 
# प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे।  
 
# प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे।  
# शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगों की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।  
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# शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगोंं की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।  
 
# शासक के प्रमुख कर्तव्य :  
 
# शासक के प्रमुख कर्तव्य :  
 
#* अपने से भी श्रेष्ठ उत्तराधिकारी निर्माण करना  
 
#* अपने से भी श्रेष्ठ उत्तराधिकारी निर्माण करना  
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#* भौगोलिक विकेंद्रीकरण: प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जबतक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना।  
 
#* भौगोलिक विकेंद्रीकरण: प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जबतक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना।  
 
#* सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: ग्राम स्तर से जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है।  
 
#* सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: ग्राम स्तर से जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है।  
#* जनपद / नगर / महानगर जैसे बडे भौगोलिक / आबादी वाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं / प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद / नगर / महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति में कठिनाई होनेपर धर्म व्यवस्था उपलब्ध लोगों में से शासक बनने की योग्यता और क्षमता किसमें अधिक है यह ध्यान में लेकर उसके पक्ष में जनमत तैयार करे।  
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#* जनपद / नगर / महानगर जैसे बडे भौगोलिक / आबादी वाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं / प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद / नगर / महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति में कठिनाई होनेपर धर्म व्यवस्था उपलब्ध लोगोंं में से शासक बनने की योग्यता और क्षमता किसमें अधिक है यह ध्यान में लेकर उसके पक्ष में जनमत तैयार करे।  
 
#* शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्म के जानकार अपनी व्यवस्था निर्माण करे। ऐसा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा।  
 
#* शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्म के जानकार अपनी व्यवस्था निर्माण करे। ऐसा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा।  
 
#* सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्म सत्ता के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज में मिलता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।  
 
#* सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्म सत्ता के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज में मिलता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।  
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जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी। दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी। इसका समन्वय करना होगा।
 
जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी। दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी। इसका समन्वय करना होगा।
 
=== विकसित प्रणाली : आश्रम ===
 
=== विकसित प्रणाली : आश्रम ===
मनुष्य की बढती घटती क्षमताएँ: बच्चा पैदा होता है तब एकदम असमर्थ होता है। इसी तरह वह वृद्धावस्था में अधिक और अधिक अन्यों पर निर्भर होता जाता है। इन अवस्थाओं में युवक अवस्था मदद नहीं करेगी तो मानव जाति नष्ट हो जाएगी। इस समायोजन को ही आश्रम व्यवस्था कहते हैं। चारों आश्रमियों के साथ चराचर सृष्टि के घटकों को आधार देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य होता है:
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मनुष्य की बढती घटती क्षमताएँ: बच्चा पैदा होता है तब एकदम असमर्थ होता है। इसी तरह वह वृद्धावस्था में अधिक और अधिक अन्यों पर निर्भर होता जाता है। इन अवस्थाओं में युवक अवस्था सहायता नहीं करेगी तो मानव जाति नष्ट हो जाएगी। इस समायोजन को ही [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] कहते हैं। चारों आश्रमियों के साथ चराचर सृष्टि के घटकों को आधार देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य होता है:
 
# ब्रह्मचर्य
 
# ब्रह्मचर्य
 
# गृहस्थ
 
# गृहस्थ
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# सन्यास
 
# सन्यास
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=== विकसित प्रणाली : ग्राम व्यवस्था ===
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=== विकसित प्रणाली : [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] ===
व्यक्ति अपनी केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। लेकिन परावलम्बन से स्वतन्त्रता नष्ट होती है। परस्परावलंबन से स्वतन्त्रता और आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है, परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। इसलिए छोटे से छोटे भूक्षेत्र में परस्परावलंबी कुटुम्ब मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी बना हुआ समुदाय ही ग्राम है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। अनुवांशिक कौटुम्बिक उद्योगों से निरंतर आपूर्ति की आश्वस्ती हो जाती है।
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व्यक्ति अपनी केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। लेकिन परावलम्बन से स्वतन्त्रता नष्ट होती है। परस्परावलंबन से स्वतन्त्रता और आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है, परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। अतः छोटे से छोटे भूक्षेत्र में परस्परावलंबी कुटुम्ब मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी बना हुआ समुदाय ही ग्राम है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। अनुवांशिक कौटुम्बिक उद्योगों से निरंतर आपूर्ति की आश्वस्ती हो जाती है।
 
# बड़ा कुटुम्ब : कौटुम्बिक भावना
 
# बड़ा कुटुम्ब : कौटुम्बिक भावना
 
# कौटुम्बिक उद्योग
 
# कौटुम्बिक उद्योग
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=== विकसित प्रणाली : कौशल विधा व्यवस्था ===
 
=== विकसित प्रणाली : कौशल विधा व्यवस्था ===
समान जीवन दृष्टि वाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं। आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं। अन्न, वस्त्र, भवन जैसी दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे की ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि आवश्यकताओं के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता। आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का सन्तुलन  अनिवार्य होता है। इसलिए आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति की व्यवस्था के लिए व्यवसायिक कौशल की विधाओं के सन्दर्भ में दर्जनों लाभ देनेवाली आनुवांशिक व्यवस्था बनाना उचित होता है।
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समान जीवन दृष्टि वाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं। आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं। अन्न, वस्त्र, भवन जैसी दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे की ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि आवश्यकताओं के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता। आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का सन्तुलन  अनिवार्य होता है। अतः आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति की व्यवस्था के लिए व्यवसायिक कौशल की विधाओं के सन्दर्भ में दर्जनों लाभ देनेवाली आनुवांशिक व्यवस्था बनाना उचित होता है।
    
व्यवसायिक कौशलों के आधार पर:
 
व्यवसायिक कौशलों के आधार पर:
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=== विकसित संगठन :  राष्ट्र ===
 
=== विकसित संगठन :  राष्ट्र ===
समान जीवनदृष्टि वाले समाज के घटकों की जीवन शैली, आकांक्षाएँ और इच्छाएँ समान होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवन दृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। समान जीवनदृष्टि वाले, सुरक्षित भूमि पर रहने वाले सामूहिक सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने के लिए राष्ट्र एक चरण है। राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले इसलिए समाज को संगठित करता है और तीन प्रकार की व्यवस्थाएं भी निर्माण करता है।
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समान जीवनदृष्टि वाले समाज के घटकों की जीवन शैली, आकांक्षाएँ और इच्छाएँ समान होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवन दृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। समान जीवनदृष्टि वाले, सुरक्षित भूमि पर रहने वाले सामूहिक सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने के लिए राष्ट्र एक चरण है। राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले अतः समाज को संगठित करता है और तीन प्रकार की व्यवस्थाएं भी निर्माण करता है।
 
# पोषण व्यवस्था
 
# पोषण व्यवस्था
 
# रक्षण व्यवस्था
 
# रक्षण व्यवस्था
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=== व्यवस्था नियंत्रण ===
 
=== व्यवस्था नियंत्रण ===
स्खलन रोकने के लिए व्यवस्थाओं के निरंतर परिशीलन और परिष्कार की अन्तर्निहित व्यवस्था आवश्यक होती है। नियंत्रण व्यवस्था त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी और चराचर के हित के लिए ही जीनेवाले, समाज जीवन का निरन्तर अध्ययन करनेवाले ऐसे ऋषितुल्य लोगोंद्वारा चलाई जानी चाहिए। व्यवस्था के नियमों का अनुपालन शासन करवाए।  
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स्खलन रोकने के लिए व्यवस्थाओं के निरंतर परिशीलन और परिष्कार की अन्तर्निहित व्यवस्था आवश्यक होती है। नियंत्रण व्यवस्था त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी और चराचर के हित के लिए ही जीनेवाले, समाज जीवन का निरन्तर अध्ययन करनेवाले ऐसे ऋषितुल्य लोगोंंद्वारा चलाई जानी चाहिए। व्यवस्था के नियमों का अनुपालन शासन करवाए।  
    
== राष्ट्र की चिरंजीविता ==
 
== राष्ट्र की चिरंजीविता ==
 
राष्ट्र को चिरंजीवी बनाने के लिये विशेष व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती है। इस व्यवस्था का काम राष्ट्र की सांस्कृतिक क्षेत्र (आबादी) में तथा इस आबादी द्वारा व्याप्त भौगोलिक सीमाओं में वृद्धि करने का होता है।  
 
राष्ट्र को चिरंजीवी बनाने के लिये विशेष व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती है। इस व्यवस्था का काम राष्ट्र की सांस्कृतिक क्षेत्र (आबादी) में तथा इस आबादी द्वारा व्याप्त भौगोलिक सीमाओं में वृद्धि करने का होता है।  
# श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन : श्रेष्ठ परंपरा निर्माण से श्रेष्ठता का सातत्य बना रहता है। सातत्य से स्वभाव बनता है। इसलिए श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पिता-पुत्र, श्रेष्ठ माता-पुत्री, श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ राजा-राजपुत्र, श्रेष्ठ वणिक, वणिकपुत्रों की, त्याग की, तपस्या की, दान की, ज्ञान की, कौशलों की, कला-कारीगरी की, रीती-रिवाजों की आदि परम्पराओं का विकास और निर्वहन समाज या राष्ट्र की दीर्घायु के लिए आवश्यक होता है।
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# श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन : श्रेष्ठ परंपरा निर्माण से श्रेष्ठता का सातत्य बना रहता है। सातत्य से स्वभाव बनता है। अतः श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पिता-पुत्र, श्रेष्ठ माता-पुत्री, श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ राजा-राजपुत्र, श्रेष्ठ वणिक, वणिकपुत्रों की, त्याग की, तपस्या की, दान की, ज्ञान की, कौशलों की, कला-कारीगरी की, रीती-रिवाजों की आदि परम्पराओं का विकास और निर्वहन समाज या राष्ट्र की दीर्घायु के लिए आवश्यक होता है।
 
# मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में श्रेष्ठ परम्पराएं नष्ट या भ्रष्ट हो जातीं हैं। परम्पराओं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिये निरंतर मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था होनी चाहिए।
 
# मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में श्रेष्ठ परम्पराएं नष्ट या भ्रष्ट हो जातीं हैं। परम्पराओं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिये निरंतर मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था होनी चाहिए।
 
# भौगोलिक और संख्यात्मक वृद्धि व्यवस्था : अपने जैसी जीवनदृष्टि वाले समाज की जनसंख्या में और ऐसा समाज जिस भूमि पर रहता है उस भूमि के क्षेत्र में भी वृद्धि से राष्ट्र वर्धिष्णू रहता है। चिरंजीवी बनता है। इस के कारक तत्व निम्न हैं।  
 
# भौगोलिक और संख्यात्मक वृद्धि व्यवस्था : अपने जैसी जीवनदृष्टि वाले समाज की जनसंख्या में और ऐसा समाज जिस भूमि पर रहता है उस भूमि के क्षेत्र में भी वृद्धि से राष्ट्र वर्धिष्णू रहता है। चिरंजीवी बनता है। इस के कारक तत्व निम्न हैं।  
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# राष्ट्र
 
# राष्ट्र
 
# विश्व
 
# विश्व
ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का अविरोधी होना आवश्यक होता है। जैसे व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए।
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ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तर की ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का अविरोधी होना आवश्यक होता है। जैसे व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए।
    
==== व्यक्ति ====
 
==== व्यक्ति ====
व्यक्ति के स्तरपर जिन धर्मों का समावेश होता है वे निम्न हैं:
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व्यक्ति के स्तर पर जिन धर्मों का समावेश होता है वे निम्न हैं:
 
# स्वभावज : याने जन्म से जो सत्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना।
 
# स्वभावज : याने जन्म से जो सत्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना।
 
# स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री को एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता बनना। इसी तरह से पुरुष को अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता बनना।
 
# स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री को एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता बनना। इसी तरह से पुरुष को अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता बनना।
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==== कुटुम्ब ====
 
==== कुटुम्ब ====
समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरों पर उचित भूमिका निभाने वाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना। कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना।
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समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरों पर उचित भूमिका निभाने वाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना। कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना।
    
==== ग्राम ====
 
==== ग्राम ====
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=== प्रकृति सुसंगतता ===
 
=== प्रकृति सुसंगतता ===
समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार का सन्तुलन, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। वनवासी या गिरिजन भी ग्राम व्यवस्था से ही जुड़े हुए होने चाहिए।
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समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार का सन्तुलन, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। वनवासी या गिरिजन भी [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] से ही जुड़े हुए होने चाहिए।
    
=== प्रक्रियाएं ===
 
=== प्रक्रियाएं ===
 
धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तरपर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तरपर कौटुम्बिक भावना, श्रद्धा का विकास तथा शारीरिक स्तरपर सहकारिता की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं।
 
धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तरपर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तरपर कौटुम्बिक भावना, श्रद्धा का विकास तथा शारीरिक स्तरपर सहकारिता की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं।
# धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है। इसलिए जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधार पर शिक्षा देना उचित होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है।
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# धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है। अतः जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधार पर शिक्षा देना उचित होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है।
 
# कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं: जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
 
# कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं: जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
 
# धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना महत्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है। आदत बना जाती है। जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बना देतीं हैं।
 
# धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना महत्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है। आदत बना जाती है। जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बना देतीं हैं।
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=== धर्म के अनुपालन के अवरोध ===
 
=== धर्म के अनुपालन के अवरोध ===
 
धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं:
 
धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं:
# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगों को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
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# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगोंं को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
# स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
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# स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। अतः यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।
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# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़़ होती है।
    
=== कारक तत्व ===
 
=== कारक तत्व ===
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धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकार के माध्यम होते हैं:
 
धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकार के माध्यम होते हैं:
 
# कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा। धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है। कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है। गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें। मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं।
 
# कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा। धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है। कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है। गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें। मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं।
# कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है। इसलिए कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है। माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि।
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# कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है। अतः कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है। माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि।
    
== तन्त्रज्ञान  विकास नीति और सार्वत्रिकीकरण ==
 
== तन्त्रज्ञान  विकास नीति और सार्वत्रिकीकरण ==
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<references />अन्य स्रोत:
 
<references />अन्य स्रोत:
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]

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