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# वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अधार्मिक (अधार्मिक) विचार भी स्वीकार्य हैं।
 
# वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अधार्मिक (अधार्मिक) विचार भी स्वीकार्य हैं।
 
# आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाज हित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है।
 
# आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाज हित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है।
# समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा।
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# समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पड़ेगा।
 
# समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्मा ने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.10 </ref>। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.11</ref>।
 
# समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्मा ने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.10 </ref>। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे<ref>श्रीमद भगवदगीता, 3.11</ref>।
 
# सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयस की ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2</ref>। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं: ज्ञान और विज्ञान, परा और अपरा<ref>श्रीमद भगवदगीता, अध्याय 15, 16 व 17  </ref> (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
 
# सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयस की ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2</ref>। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं: ज्ञान और विज्ञान, परा और अपरा<ref>श्रीमद भगवदगीता, अध्याय 15, 16 व 17  </ref> (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
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# कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए।  
 
# कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए।  
 
# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनों द्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं।  
 
# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनों द्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं।  
# जाति व्यवस्था के दर्जनों लाभ और जाति व्यवस्था पर किये गए दोषारोपों का वास्तव समझना आवश्यक है। वास्तव समझकर किसी सक्षम वैकल्पिक व्यवस्था निर्माण की आवश्यकता है।  
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# [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के दर्जनों लाभ और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] पर किये गए दोषारोपों का वास्तव समझना आवश्यक है। वास्तव समझकर किसी सक्षम वैकल्पिक व्यवस्था निर्माण की आवश्यकता है।  
 
# मानव की धर्म सुसंगत इच्छाओं में और उनकी पूर्ति में किसी का विरोध नहीं होना चाहिए (आर्थिक स्वतंत्रता)।  
 
# मानव की धर्म सुसंगत इच्छाओं में और उनकी पूर्ति में किसी का विरोध नहीं होना चाहिए (आर्थिक स्वतंत्रता)।  
 
# उत्पादकों की संख्या जितनी अधिक उतनी कीमतें कम होती हैं। कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में ही यह संभव होता है। कौटुम्बिक उद्योग आधारित समृद्धि व्यवस्था के भी दर्जनों लाभ हैं।  
 
# उत्पादकों की संख्या जितनी अधिक उतनी कीमतें कम होती हैं। कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में ही यह संभव होता है। कौटुम्बिक उद्योग आधारित समृद्धि व्यवस्था के भी दर्जनों लाभ हैं।  
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# विज्ञापनबाजी वर्जित हो।  
 
# विज्ञापनबाजी वर्जित हो।  
 
# वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टि से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा।  
 
# वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टि से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा।  
# वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टि अधूरी है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जब तक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़ हैं।
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# वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टि अधूरी है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जब तक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़़ हैं।
    
== अभिशासन (Governance) ==
 
== अभिशासन (Governance) ==
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जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी। दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी। इसका समन्वय करना होगा।
 
जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी। दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी। इसका समन्वय करना होगा।
 
=== विकसित प्रणाली : आश्रम ===
 
=== विकसित प्रणाली : आश्रम ===
मनुष्य की बढती घटती क्षमताएँ: बच्चा पैदा होता है तब एकदम असमर्थ होता है। इसी तरह वह वृद्धावस्था में अधिक और अधिक अन्यों पर निर्भर होता जाता है। इन अवस्थाओं में युवक अवस्था सहायता नहीं करेगी तो मानव जाति नष्ट हो जाएगी। इस समायोजन को ही आश्रम व्यवस्था कहते हैं। चारों आश्रमियों के साथ चराचर सृष्टि के घटकों को आधार देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य होता है:
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मनुष्य की बढती घटती क्षमताएँ: बच्चा पैदा होता है तब एकदम असमर्थ होता है। इसी तरह वह वृद्धावस्था में अधिक और अधिक अन्यों पर निर्भर होता जाता है। इन अवस्थाओं में युवक अवस्था सहायता नहीं करेगी तो मानव जाति नष्ट हो जाएगी। इस समायोजन को ही [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] कहते हैं। चारों आश्रमियों के साथ चराचर सृष्टि के घटकों को आधार देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य होता है:
 
# ब्रह्मचर्य
 
# ब्रह्मचर्य
 
# गृहस्थ
 
# गृहस्थ
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# सन्यास
 
# सन्यास
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=== विकसित प्रणाली : ग्राम व्यवस्था ===
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=== विकसित प्रणाली : [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] ===
 
व्यक्ति अपनी केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। लेकिन परावलम्बन से स्वतन्त्रता नष्ट होती है। परस्परावलंबन से स्वतन्त्रता और आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है, परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। अतः छोटे से छोटे भूक्षेत्र में परस्परावलंबी कुटुम्ब मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी बना हुआ समुदाय ही ग्राम है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। अनुवांशिक कौटुम्बिक उद्योगों से निरंतर आपूर्ति की आश्वस्ती हो जाती है।
 
व्यक्ति अपनी केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। लेकिन परावलम्बन से स्वतन्त्रता नष्ट होती है। परस्परावलंबन से स्वतन्त्रता और आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है, परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। अतः छोटे से छोटे भूक्षेत्र में परस्परावलंबी कुटुम्ब मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी बना हुआ समुदाय ही ग्राम है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। अनुवांशिक कौटुम्बिक उद्योगों से निरंतर आपूर्ति की आश्वस्ती हो जाती है।
 
# बड़ा कुटुम्ब : कौटुम्बिक भावना
 
# बड़ा कुटुम्ब : कौटुम्बिक भावना
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=== प्रकृति सुसंगतता ===
 
=== प्रकृति सुसंगतता ===
समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार का सन्तुलन, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। वनवासी या गिरिजन भी ग्राम व्यवस्था से ही जुड़े हुए होने चाहिए।
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समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार का सन्तुलन, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। वनवासी या गिरिजन भी [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] से ही जुड़े हुए होने चाहिए।
    
=== प्रक्रियाएं ===
 
=== प्रक्रियाएं ===
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# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगोंं को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
 
# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगोंं को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
 
# स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। अतः यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
 
# स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। अतः यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।
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# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़़ होती है।
    
=== कारक तत्व ===
 
=== कारक तत्व ===

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