Dharmik Scientific Temperament and Modern Science (धार्मिक शोध दृष्टि एवं आधुनिक विज्ञान)

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भारतीय शोध दृष्टि पृष्ठभूमि वर्तमान में अपने को हिन्दुत्ववादी कहलाने वाले कई लोगों में भारतीय शास्त्रों की समझ और श्रध्दा का अभाव दिखाई देता है। गोहत्या का विषय तो ताजा है। कई हिन्दुत्ववादी लोगों के मन में वर्तमान पत्रों में जो विपरीत समाचार आते हैं उन के कारण संभ्रम निर्माण हुवा दिखाई देता है। यज्ञ में बलि के विषय को लेकर भी बहुत संभ्रम है। इस संभ्रम के मुख्य कारण भारतीय शास्त्रों में श्रध्दा का अभाव और अभारतीय शिक्षा के फलस्वरूप विचार करने की संशयात्मक दृष्टि यह हैं। एक बार चर्चा में विषय निकला कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पू. श्री. गुरूजी का वृत्तपत्र में छपा कोई कथन श्रीमद्भगवद्गीता के विरोधी है। संघ के कुछ कार्यकर्ता सोचने लगे कि पू. श्री. गुरूजी जब ऐसा कहते हैं तो क्या श्रीमद्भगवद्गीता गलत है? या गुरूजी गलत हैं? वास्तव में विचार तो इस तरह करना चाहिये कि पहली बात तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गलत नहीं हो सकता, इस बात पर श्रध्दा हो। दूसरी बात यह है कि पू. श्री. गुरूजी पर भी श्रध्दा हो कि वे ऐसा कह ही नहीं सकते। यह तो छापने वाले की गलती ही हो सकती है। किन्तु इतनी प्रगल्भता कम ही लोगों में होती है। सामान्य लोगों में यह संभ्रम शायद क्षम्य माना जा सकता है। किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के या शोध के क्षेत्र में काम करने वाले शोध कर्ताओं को तो इस संभ्रम से ऊपर उठना ही होगा। विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रध्दा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रध्दा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रध्दा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टी की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है| भारतीय विद्वानों में हीनता बोध गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जिस तपस्वी ने सत्य दर्शन किये हैं वह यह कहता है, ऐसा जब कोई कहता है तो हमारे विद्वान उसे मूर्ख कहते हैं। किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है ऐसा कहा जाता है तब उसे सत्य मान लिया जाता है। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है| यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो) भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है। जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के भारतीय प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई भारतीय जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। १९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में कभी आता नहीं है। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषी, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। प्रत्यक्ष बदलना तो बहुत दूर की बात है। साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी बात हो उसे साईंस की कसौटि पर तौला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह प्रमुखत: पंचमहाभौतिक तत्त्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये है वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटि साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह उचित ही है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुवा है। इस दृष्टि से साईंस की कसौटियों की मर्यादाएं खींच जातीं हैं। मन, बुध्दि, अहंकार जैसी अनुभव जन्य बातों के लिये जो पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और परमात्व तत्त्व जैसी अनूभूति जन्य बात के लिये साईंस की कसौटियाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु आज के साईंटिस्ट सामान्यत: यह समझते नहीं हैं। वास्तव में भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब न केवल कसौटि की समस्या दूर होगी साथ ही में साईंस का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुवा है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि और उन के अनुयायी ऐसे वैज्ञानिकों में रहे हैं जो भारतीय दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित और बुध्दियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा। श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ही ज्ञान-विज्ञान योग है। इस में श्लोक ४ में की हुई विज्ञान की व्याख्या निम्न है। भूमिरापोऽनलोवायू: खं मनो बुध्दिरेव च । अहंकार इतियं मे भिन्ना प्रकृतिरष्ट्धा: ॥ अर्थात् भूमि, जल, अग्नि, वायु और पृथ्वि इन पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार मिलकर अष्टधा प्रकृति बनती है। परमात्म तत्त्व के अलावा सृष्टि में कुछ भी नहीं है। चराचर सृष्टि का प्रत्येक अस्तित्व इसी अष्टधा प्रकृति का ही बना हुआ है। यह प्रत्येक अस्तित्व अन्य कुछ नहीं, परमात्म तत्त्व के ही विविध रूप हैं इसे जानना ही विज्ञान है। इसी प्रकार से अध्याय ३, श्लोक ४२ में बताया गया है - इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन । मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥ अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल महाभूतों से तो सूक्ष्म है किन्तु मन उन से भी अधिक सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और आत्म तत्त्व बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से मन, बुद्धि और आत्म तत्त्व के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है लेकिन इस से सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते| इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्त्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुध्दि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है। एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुवे उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार इस में “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल- भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण धर्मपाल देते हैं। पं सातवळेकरजी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५)। ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देष्य नहीं है। वास्तव में नई व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं – पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् | और यह भी कहा गया है – युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि | अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि || एकात्म मानव दृष्टि हम कहते तो हैं कि भारतीय दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अभारतीय शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं। एकात्मता की भावना में स्पर्धा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। किन्तु हम स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं? किसानों की आत्महत्याओं की समस्या क्या मात्र किसानों की है? या पूरे सामाजिक जीवन के प्रतिमान की है? कुटुम्ब टूटने की समस्या क्या केवल पारिवारों की समस्या है या पूरे जीवन के प्रतिमान की? किन्तु हम प्रतिमान के परिवर्तन का विचार नहीं करते। एकात्म मानव दृष्टि में अधिकारों के लिये संघर्ष नहीं किया जाता। कर्तव्य पालन के लिये संघर्ष होते हैं। किन्तु हमने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले बडे बडे संगठन बनाये हैं। बनाने की हमारी मजबूरी होगी। लेकिन बनाए तो हैं। गाँव नष्ट हो रहे हैं। जन, धन, उत्पादन के केन्द्रिकरण की समस्या क्या केवल गाँव के विकास की समस्या है? या वह अभारतीय प्रतिमान के कारण निर्माण हुई है? विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर, अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है। अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान आजकल वर्तमान भारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता। सत्य की व्याख्या की गई है 'यदभूत हितं अत्यंत' याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। ऐसे लोगों के लिये कहा गया है 'महाजनो येन गत: स पंथ:'। ऐसे लोगों ने श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है 'यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्त देवेतरो जना:। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनु वर्तंते'। केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता। किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है? वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा। वर्तमान साईंस के विकास की पृष्ठभूमि वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के करण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जप्रसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। रेने देकार्ते को इस साईंटिफिक टेम्परामेंट का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। इस साईंटिफिक टेम्परामेंट के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है। १. द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि से भिन्न हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करने वाला हूं। २. वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। एक साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री का भिन्न होगा। एक किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह एक किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते। ३. विखंडित विश्लेषण पध्दति : साईंटिफिक टेम्परामेंट की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पध्दति के रूप में एक प्रणालि बताई। इस पध्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा। ४. जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव् समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है। ५. यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जेका कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। इस विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन का निर्माण जड पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार तथा आत्म तत्त्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुध्दि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है। अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। पुनर्जन्म से संबंधित कार्यक्रम कई दूरदर्शन की वाहिनियों ने प्रसारित किये है। लगभग सभी में वह दूरचित्र वाहिनी एक टोली बनाती है। इस टोली में एक साईंटिस्ट भी लिया जाता है। फिर टोली द्वारा सुने हुवे पुनर्जन्म के किस्सों की तहकीकात की जाती है। प्रत्यक्ष जिन बच्चों को पुर्व जन्म की कुछ स्मृतियाँ है उन से मिल कर उन से पूर्व जन्म की जानकारी ली जाती है। फिर उस बच्चे के पूर्व जन्म के स्थान पर जाकर बच्चे की दी हुई जानकारी को जाँचा जाता है। उसे सत्य पाया जाता है। ऐसी कई घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रसारण वाहिनी के कार्यक्रम में होता है। अंत में उस तहकीकात करने वाली टोलि के सदस्य साईंटिस्ट को प्रश्न पूछा जाता है कि आपने यह सब प्रत्यक्ष देखा है। इस पर आप की क्या राय है? साईंटिस्ट का उत्तर होता है - यह सब तो ठीक है। किन्तु साईंस पुनर्जन्म को मान्यता नहीं देता। इस में समझने की कुछ बातें है। नहीं तो दूरचित्र वाहिनी वाले और ना ही वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते है। इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करते है। साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं? सत्य जानने के तरीके सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है। १. प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है। २. अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता। ३. शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है की हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है। सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है। किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है। शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार किसी ने भी लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है। प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान - प्रस्थान त्रयी भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है। वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष।दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता। वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है। वर्तमान साईंस के विकास से पहले तक यानी मुष्किल से २००-२५० वर्ष पूर्व तक भारत में प्रस्थान त्रयी को ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रमाण माना जाता था। किन्तु साईंस के विकास के कारण आज इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? वर्तमान साईंस के विकास के कारण या अन्य कारणों से गत २००-२५० वर्षों में ऐसे कौन से घटक निर्माण हो गये है जिन्हें हम प्रस्थान त्रयी की कसौटि पर नहीं तौल सकते? शायद साईंटिस्टों का कहना है कि निम्न बातों में साईंस ने जो प्रगति की है उस के कारण प्रस्थान त्रयी को प्रमाण के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता। १) साईंस ने सूक्ष्मता(नॅनो) के क्षेत्र में और सृष्टि के मूल द्रव्य को जानने की दिशा में बहुत प्रगति की है। २) साईंस ने विशालता (कॉसमॉस) के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है। प्रमाण की समस्या का हल (अध्यात्म, भारतीय विज्ञान और साईंस का अंगांगी भाव) उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नॅनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है। ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम भारतीय शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्त्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला भारतीय विज्ञान उसका अंग है। और इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टी भारतीय विज्ञान की दृष्टी, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे| वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है| प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है| यह साईंटिफिक ही है| लेकिन यह अधूरा है| भारतीय विज्ञान की दृष्टी से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं| जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतोंका जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है| इनमें प्रदूषण के लिए जबतक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली| इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है| इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा। निष्कर्ष : संक्षेप में कहें तो - १) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु

  भारतीय शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।

२) भारत में भारत के विषय में शोध कार्य होते हैं। किन्तु भारत के लिये नहीं। ३) वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आतंकित होकर साईंस का सीधा सामना करने से बचते रहते हैं। ४) जीवन के भारतीय प्रतिमान की समझ नष्ट हो गई है। वर्तमान अभारतीय प्रतिमान को ही अपना

  प्रतिमान माना जा रहा। 

५) एकात्मता का जप करते हुवे अनात्मवादी, विखण्डित पध्दति से विचार हो रहा है। शोध विषय सूचि विज्ञान और तंत्रज्ञान १ अध्यात्म आधारित तंत्रज्ञान २ कौटुम्बिक उद्योगोंके लिए तंत्रज्ञान ३ सर्वे भवन्तु सुखिन: और तन्त्रज्ञान विकास/ उपयोग ४ अणुशस्त्रोंके शमनके लिए तंत्रज्ञान ५ शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग ६ लोह-मुक्त मजबूत, सस्ता और दीर्घायू भवन ७ सस्ती सौर ऊर्जा ८ जीवनकी इष्ट गति ९ तन्त्रज्ञान और संस्कृति १० विज्ञान और तन्त्रज्ञान विकास नीति ११ अनवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनोंका उपभोग १२ तन्त्रज्ञान और पगढीला समाज १३ गाँव की ओर – (हेतु) तन्त्रज्ञान का विकास १४ सामाजिक विकेंद्रीकरण के लिए तंत्रज्ञान १५ प्लॅस्टिक के लिये जैविक विकल्प मानविकी १ भाषा अध्ययनके माध्यम से मोक्ष २ वाणि विकास - वैखरी से परातक ३ शास्त्र प्रस्तुतिका अधिकार - ध्यानावस्था ४ ब्राह्मणका घर ५ क्षत्रिय का घर ६ माता प्रथमोगुरू:, पिताद्वितीयो ७ लालयेत पंचवर्षाणि ८ दश वर्षाणि ताडयेत् ९ वर्ण व्यवस्था १० जाति व्यवस्था ११ आश्रम व्यवस्था १२ समान जीवनदृष्टिवाले समाज का सहजीवन - राष्ट्र १३ समाज संगठन १४ तथाकथितजीवनमूल्य बनाम भारतीयजीवनशैलीके सूत्र १५ स्वायत्त शिक्षा १६ नि:शुल्क शिक्षा १७ धर्मशास्त्र १८ भारतीय समाजशास्त्र १९ भारतीय अर्थशास्त्र २० भारतीयन्याय व्यवस्था २१ भारतीय जल प्रबंधन व्यवस्था २२ प्रकृति सुसंगतजीवन २३ सुख या साधन २४ जीवन से संबंधित सभी विषयों का अंगांगी संबंध २५ १६/४९ संस्कार प्रक्रिया २६ जीवन की इष्ट गति २७ लोक शिक्षा का पुनरूज्जीवन/नवर्निर्माण २८ वर्णानुसार आहार २९ विद्यार्थियों के लिये आहार ३० यम नियमों (अष्टांग योग) की शिक्षा ३१ नि:शुल्क अन्न, औषधी और शिक्षा ३२ अंत:करण चतुष्टय की अध्ययन प्रक्रिया में भूमिका ३३ कुटुम्ब शिक्षा से मानव निर्माण ३४ धर्मनियंत्रित समाज रचनाकी प्रतिष्ठापना ३५ अनध्ययन के दिन - व्यावहारिक सर्वेक्षण ३६ वनस्पति पूजन/प्रार्थना- औषधी के गुण में योगदान ३७ जीवनका भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना ३८ कौटुम्बिक उद्योगोंकी पुनर्प्रतिष्ठा ३९ संस्कार - एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ४० स्वावलंबी ग्राम की अर्थव्यवस्था ४१ भारतीय कुटुम्ब - प्रत्यक्ष में प्रतिष्ठापना ४२ भारतीयइतिहास दृष्टि ४३ भारतीय जीवशास्त्रीय दृष्टि ४४ भौगोलिक परिस्थिति और आहार का समायोजन ४५ आध्यात्मिक मनोविज्ञान ४६ शिक्षा के अ-सरकारीकरणकी प्रक्रिया ४७ आयु की अवस्थाके अनुसार शिक्षा ४८ भारतीय वैज्ञानिक दृष्टि ४९ माध्यम - भाषा दृष्टि ५० भारतीय समाज कीचिरंजीविताका विश्लेषण ५१ समाज जीवन में वैश्विकता/स्थानीयता, चिरंजीविता/तात्कालिकता ५२ समाजिक सबंधोंका आधार स्वार्थ या कौटुम्बिक भावना अर्थात् कौटुम्बिक भावना आधारित समाज ५३ वर्णानुक्रम - मनुष्य के व्यक्तित्व में सबसे प्रभावी वर्ण और दूसरे क्रमांक का वर्ण ५४ अंग्रेजी में अनुवाद नहीं करना चाहिए ऐसे भारतीय संकल्पनात्मक शब्दोंकी सूचि ५५ मम हिताय मम सुखाय से सर्वे भवन्तु सुखिन: की ओर - परिवर्तनकी प्रक्रिया ५६ शिक्षा से जुडे विभिन्न घटकोंकी जिम्मेदारी - शिक्षक, विद्वान, अभिभावक, शासन, समाज सूचना: यह सूचि तो नमूनेके लिए दी गई है। इसे और बढानेकी आवश्यकता है।