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→‎सत्य जानने के तरीके: लेख सम्पादित किया
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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रद्धा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रद्धा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रद्धा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टी की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है।
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विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रद्धा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रद्धा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रद्धा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टि की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है।
    
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
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== सत्य जानने के तरीके ==
 
== सत्य जानने के तरीके ==
सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है।
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सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है:
१.  प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।  
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# प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।
२.  अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।  
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# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
३.  शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है की हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
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# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।  
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सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।
किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।
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किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।
    
== शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार ==
 
== शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार ==
किसी ने भी लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।
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किसी की भी लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों द्वारा एकत्रित होकर की हुई प्रस्तुति भी शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।
    
== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
 
== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
- प्रस्थान त्रयी
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भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है।  
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===== प्रस्थान त्रयी =====
वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष।दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
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भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है। वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष। दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।  
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वर्तमान साईंस के विकास से पहले तक यानी मुष्किल से २००-२५० वर्ष पूर्व तक भारत में प्रस्थान त्रयी को ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रमाण माना जाता था। किन्तु साईंस के विकास के कारण आज इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? वर्तमान साईंस के विकास के कारण या अन्य कारणों से गत २००-२५० वर्षों में ऐसे कौन से घटक निर्माण हो गये है जिन्हें हम प्रस्थान त्रयी की कसौटी पर नहीं तौल सकते?  
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'''वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।'''
शायद साईंटिस्टों का कहना है कि निम्न बातों में साईंस ने जो प्रगति की है उस के कारण प्रस्थान त्रयी को प्रमाण के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता।
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१) साईंस ने सूक्ष्मता(नॅनो) के क्षेत्र में और सृष्टि के मूल द्रव्य को जानने की दिशा में बहुत प्रगति की है।
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वर्तमान साईंस के विकास से पहले तक यानी मुश्किल से २००-२५० वर्ष पूर्व तक भारत में प्रस्थान त्रयी को ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रमाण माना जाता था। किन्तु साईंस के विकास के कारण आज इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? वर्तमान साईंस के विकास के कारण या अन्य कारणों से गत २००-२५० वर्षों में ऐसे कौन से घटक निर्माण हो गये है जिन्हें हम प्रस्थान त्रयी की कसौटी पर नहीं तौल सकते?
२) साईंस ने विशालता (कॉसमॉस) के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है।
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शायद साईंटिस्टों का कहना है कि निम्न बातों में साईंस ने जो प्रगति की है उस के कारण प्रस्थान त्रयी को प्रमाण के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं दिया जा सकता:
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# साईंस ने सूक्ष्मता(नॅनो) के क्षेत्र में और सृष्टि के मूल द्रव्य को जानने की दिशा में बहुत प्रगति की है।
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# साईंस ने विशालता (कॉसमॉस) के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है।
    
== प्रमाण की समस्या का हल ==
 
== प्रमाण की समस्या का हल ==
(अध्यात्म, भारतीय विज्ञान और साईंस का अंगांगी भाव)
   
उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नॅनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है।
 
उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नॅनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है।
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ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम भारतीय शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला भारतीय विज्ञान उसका अंग है। और इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है।  
 
ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम भारतीय शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला भारतीय विज्ञान उसका अंग है। और इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है।  
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टी भारतीय विज्ञान की दृष्टी, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। भारतीय विज्ञान की दृष्टी से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतोंका जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जबतक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा।
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निष्कर्ष :
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संक्षेप में कहें तो -
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पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टि भारतीय विज्ञान की दृष्टि, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। भारतीय विज्ञान की दृष्टि से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतों का जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जब तक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा।
१) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु भारतीय शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।
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२) भारत में भारत के विषय में शोध कार्य होते हैं। किन्तु भारत के लिये नहीं।
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== निष्कर्ष ==
३) वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आतंकित होकर साईंस का सीधा सामना करने से बचते रहते हैं।
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संक्षेप में कहें तो:
४) जीवन के भारतीय प्रतिमान की समझ नष्ट हो गई है। वर्तमान अभारतीय प्रतिमान को ही अपना प्रतिमान माना जा रहा।  
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# हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु भारतीय शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।  
५) एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, विखण्डित पद्दति से विचार हो रहा है।  
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# भारत में भारत के विषय में शोध कार्य होते हैं। किन्तु भारत के लिये नहीं।  
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# वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आतंकित होकर साईंस का सीधा सामना करने से बचते रहते हैं।  
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# जीवन के भारतीय प्रतिमान की समझ नष्ट हो गई है। वर्तमान अभारतीय प्रतिमान को ही अपना प्रतिमान माना जा रहा।  
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# एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, विखण्डित पद्दति से विचार हो रहा है।  
    
== शोध विषय सूची ==
 
== शोध विषय सूची ==
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