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{{One source|date=January 2019}}
 
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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रद्धा नहीं है या धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के जानकार तो हैं, धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों पर श्रद्धा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रद्धा रखते हैं। उन्हें धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। धार्मिक (भारतीय) शोध दृष्टि की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोगोंं के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रद्धा नहीं है या धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के जानकार तो हैं, धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों पर श्रद्धा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रद्धा रखते हैं। उन्हें धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। धार्मिक (भारतीय) शोध दृष्टि की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगोंं के लिये आवश्यक है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है।
 
गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है।
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अधार्मिक (अधार्मिक) शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त धार्मिक (भारतीय) विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो धार्मिक (भारतीय) साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है।<ref>व्हॉट इंडिया शुड नो, भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित </ref> भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अधार्मिक (अधार्मिक) शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगोंं को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त धार्मिक (भारतीय) विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो धार्मिक (भारतीय) साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है।<ref>व्हॉट इंडिया शुड नो, भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित </ref> भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
    
== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अधार्मिक ==
 
== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अधार्मिक ==
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== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का धार्मिक (भारतीय) अधिष्ठान ==
 
== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का धार्मिक (भारतीय) अधिष्ठान ==
आजकल वर्तमान धार्मिक (भारतीय) शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।  
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आजकल वर्तमान धार्मिक (भारतीय) शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगोंं को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।  
    
सत्य की व्याख्या की गई है {{Citation needed}}<blockquote>'यदभूत हितं अत्यंत' </blockquote><blockquote>याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। </blockquote>इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है, यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता।   
 
सत्य की व्याख्या की गई है {{Citation needed}}<blockquote>'यदभूत हितं अत्यंत' </blockquote><blockquote>याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। </blockquote>इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है, यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता।   
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ऐसे लोगों के लिये कहा गया है{{Citation needed}}: <blockquote>'महाजनो येन गत: स पंथ:'। </blockquote><blockquote>ऐसे लोगों को श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता , 3.21</ref> <blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।</blockquote><blockquote>अर्थ: केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।</blockquote>किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है?
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ऐसे लोगोंं के लिये कहा गया है{{Citation needed}}: <blockquote>'महाजनो येन गत: स पंथ:'। </blockquote><blockquote>ऐसे लोगोंं को श्रेष्ठ लोगोंं का अनुकरण करना चाहिये।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता , 3.21</ref> <blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।</blockquote><blockquote>अर्थ: केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।</blockquote>किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है?
    
वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा।
 
वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा।
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# प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।
 
# प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।
 
# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
 
# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
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# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगोंं के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगोंं का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगोंं को ही आप्त कहा गया है।
 
सामान्यत: अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु धार्मिक (भारतीय) परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।
 
सामान्यत: अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु धार्मिक (भारतीय) परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।
  

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