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== एँथ्रॉपॉलॉजी (Anthropology) के तहत् शोध कार्य ==
 
== एँथ्रॉपॉलॉजी (Anthropology) के तहत् शोध कार्य ==
अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए, उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु धार्मिक (भारतीय) समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं<ref>भारतीय चित्त, मानस और काल, धर्मपाल, पृष्ठ १४</ref>। आज भारत में यह सब अध्ययन धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से नहीं अपितु यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं।  
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अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य आरम्भ हुए, उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु धार्मिक (भारतीय) समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं<ref>भारतीय चित्त, मानस और काल, धर्मपाल, पृष्ठ १४</ref>। आज भारत में यह सब अध्ययन धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से नहीं अपितु यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं।  
    
भारत पर किये जानने वाले शोध पर एक बिंदु विचारणीय है। इन शोधों का कोई लाभ भारत को या धार्मिक (भारतीय) समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावी भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देश्य नहीं है।  
 
भारत पर किये जानने वाले शोध पर एक बिंदु विचारणीय है। इन शोधों का कोई लाभ भारत को या धार्मिक (भारतीय) समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावी भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देश्य नहीं है।  

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