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# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं।      
 
# परिवर्तन ही दुनियाँ का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये।      
 
# परिवर्तन ही दुनियाँ का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये।      
# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
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# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाड़ने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
 
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      

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