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== भारतीय और यूरो अमरीकी जीवन दृष्टि और व्यवहार सूत्र ==
 
== भारतीय और यूरो अमरीकी जीवन दृष्टि और व्यवहार सूत्र ==
इन के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान विषय की चर्चा में मोटी मोटी बातें जानीं हैं। इसलिए अब हम इस सत्र में केवल उनका अति-संक्षिप्त पुनर्स्मरण करते हुए आगे बढ़ेंगे। (अभारतीय जीवन दृष्टि के ३ और धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि के ५ सूत्र तथा उनपर आधारित व्यवहार सूत्र [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|यहाँ]] देखें)      
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इन के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान विषय की चर्चा में मोटी मोटी बातें जानीं हैं। इसलिए अब हम इस सत्र में केवल उनका अति-संक्षिप्त पुनर्स्मरण करते हुए आगे बढ़ेंगे। (अधार्मिक जीवन दृष्टि के ३ और धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि के ५ सूत्र तथा उनपर आधारित व्यवहार सूत्र [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|यहाँ]] देखें)      
    
== वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान  के विकास की पृष्ठभूमि ==
 
== वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान  के विकास की पृष्ठभूमि ==
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== वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि ==
 
== वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि ==
वर्तमान में धार्मिक (भारतीय) विज्ञान और तन्त्रज्ञान  दृष्टि नष्ट हो गयी है। जो भी है वह अधार्मिक (अभारतीय) साईंस और तन्त्रज्ञान  दृष्टि ही है। रेने देकार्ते को इस यूरोपीय साईंस दृष्टि का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। उस के द्वारा प्रतिपादित साईंस दृष्टि के महत्वपूर्ण पहलू निम्न हैं:      
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वर्तमान में धार्मिक (भारतीय) विज्ञान और तन्त्रज्ञान  दृष्टि नष्ट हो गयी है। जो भी है वह अधार्मिक (अधार्मिक) साईंस और तन्त्रज्ञान  दृष्टि ही है। रेने देकार्ते को इस यूरोपीय साईंस दृष्टि का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। उस के द्वारा प्रतिपादित साईंस दृष्टि के महत्वपूर्ण पहलू निम्न हैं:      
 
# द्वैतवाद : इस का धार्मिक (भारतीय) द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करनेवाला हूँ। मैं इस सृष्टि से भिन्न हूँ।      
 
# द्वैतवाद : इस का धार्मिक (भारतीय) द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करनेवाला हूँ। मैं इस सृष्टि से भिन्न हूँ।      
 
# वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। १ साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री को भिन्न होगा। १ किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह १ किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते।      
 
# वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। १ साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री को भिन्न होगा। १ किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह १ किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते।      
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# इसी तरह से नॅनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। मनुष्य के आहार में मैदे के अधिक मात्रा में उपयोग का इसीलिये निषेध है।      
 
# इसी तरह से नॅनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। मनुष्य के आहार में मैदे के अधिक मात्रा में उपयोग का इसीलिये निषेध है।      
 
# कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बडे उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बडे उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।      
 
# कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बडे उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बडे उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।      
# वर्तमान में अधार्मिक (अभारतीय) समाजोंने जो संहारक शस्त्र निर्माण किये हैं उनसे सुरक्षा के लिये तन्त्रज्ञान का निर्माण और उपयोग तो आज हमारी अनिवार्यता है। आक्रमण यह सुरक्षा का श्रेष्ठ तरीका होता है। इसे ध्यान में रखकर उनसे भी अधिक घातक तंत्रज्ञानों का विकास भी हमें करना ही होगा। लेकिन यह आपध्दर्म है इसे ध्यान में रखना होगा। साथ ही में संभाव्य शत्रुओं के शस्त्रों का उपशम करने के लिये याने उन शस्त्रोंकी संहारकता नष्ट करने के लिये हमें तंत्रज्ञानों का विकास करना होगा।      
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# वर्तमान में अधार्मिक (अधार्मिक) समाजोंने जो संहारक शस्त्र निर्माण किये हैं उनसे सुरक्षा के लिये तन्त्रज्ञान का निर्माण और उपयोग तो आज हमारी अनिवार्यता है। आक्रमण यह सुरक्षा का श्रेष्ठ तरीका होता है। इसे ध्यान में रखकर उनसे भी अधिक घातक तंत्रज्ञानों का विकास भी हमें करना ही होगा। लेकिन यह आपध्दर्म है इसे ध्यान में रखना होगा। साथ ही में संभाव्य शत्रुओं के शस्त्रों का उपशम करने के लिये याने उन शस्त्रोंकी संहारकता नष्ट करने के लिये हमें तंत्रज्ञानों का विकास करना होगा।      
 
# गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञानने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।      
 
# गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञानने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।      
 
*  आपध्दर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है।
 
*  आपध्दर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है।
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==== जीवन के विपरीत प्रतिमान की शिक्षा ====
 
==== जीवन के विपरीत प्रतिमान की शिक्षा ====
 
वर्तमान में समस्या जीवन की इष्ट गति से कम गति की नहीं है। वर्तमान की समस्या है समाज जीवन को इष्ट गति से बहुत अधिक तेज गति प्राप्त होना। विपरीत शिक्षा से भी पतन की गति और इसलिए जीवन की गति भी तेज हो जाती है। वर्तमान की शिक्षा के निम्न घटक उसे विपरीत शिक्षा बनाते हैं।        
 
वर्तमान में समस्या जीवन की इष्ट गति से कम गति की नहीं है। वर्तमान की समस्या है समाज जीवन को इष्ट गति से बहुत अधिक तेज गति प्राप्त होना। विपरीत शिक्षा से भी पतन की गति और इसलिए जीवन की गति भी तेज हो जाती है। वर्तमान की शिक्षा के निम्न घटक उसे विपरीत शिक्षा बनाते हैं।        
अभारतीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली तथा व्यवस्थाएँ मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। वैसे तो तन्त्रज्ञान का विकास भी जीवन के प्रतिमान के अंतर्गत आनेवाला विषय है। लेकिन वर्तमान में तन्त्रज्ञान को जो महत्व प्राप्त हुआ है उस के कारण जीवनदृष्टि के सूत्रों के साथ तन्त्रज्ञान के विषय का स्वतंत्र विचार भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में स्थापित जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र, जीवनशैली याने प्रत्यक्ष व्यवहार के सूत्र और ऐसा व्यवहार हो सके इसलिए बनाई गई व्यवस्थाएँ आदि भी जीवन की गति बढाते हैं।  
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अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली तथा व्यवस्थाएँ मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। वैसे तो तन्त्रज्ञान का विकास भी जीवन के प्रतिमान के अंतर्गत आनेवाला विषय है। लेकिन वर्तमान में तन्त्रज्ञान को जो महत्व प्राप्त हुआ है उस के कारण जीवनदृष्टि के सूत्रों के साथ तन्त्रज्ञान के विषय का स्वतंत्र विचार भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में स्थापित जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र, जीवनशैली याने प्रत्यक्ष व्यवहार के सूत्र और ऐसा व्यवहार हो सके इसलिए बनाई गई व्यवस्थाएँ आदि भी जीवन की गति बढाते हैं।  
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।  
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।  
 
# ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। इसलिए इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।  
 
# ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। इसलिए इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।  
# तन्त्रज्ञान  : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टिवाले लोगों के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान  उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अधार्मिक (अभारतीय) समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान  का साधन नहीं था। इसलिए वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान  का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।  
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# तन्त्रज्ञान  : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टिवाले लोगों के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान  उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान  का साधन नहीं था। इसलिए वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान  का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।  
    
== भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के महत्त्वपूर्ण सूत्र ==
 
== भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के महत्त्वपूर्ण सूत्र ==
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
तन्त्रज्ञान दृष्टि में बदलाव लाना सहज बात नहीं है। लेकिन फिर भी यह करणीय होने से विशेष ध्यान देकर इसे स्थापित करना होगा। यह बदलाव अकेले तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में नहीं आ सकता। इसलिये हम जिस प्रतिमान में जी रहे हैं उस अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान के प्रत्येक घटक को बदलने की प्रक्रिया समांतर ंतथा साथ साथ चलानी होगी। साथ साथ चलाने से ऐसे परिवर्तन के प्रयास एक दूसरे के पूरक और पोषक होंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया को भूमितीय प्रमाण में गति देंगे। वैसे तो दुनियाँ के अन्य समाज भी उनके वर्तमान प्रतिमान के कारण दु:खी ही है। लेकिन उनके पास वर्तमान प्रतिमान से अधिक श्रेष्ठ विकल्प ही नहीं है। हमारे पास जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का कालसिध्द श्रेष्ठ विकल्प भी है और करने की सामर्थ्य भी है। आवश्यकता है इस परिवर्तन के संकल्प की।
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तन्त्रज्ञान दृष्टि में बदलाव लाना सहज बात नहीं है। लेकिन फिर भी यह करणीय होने से विशेष ध्यान देकर इसे स्थापित करना होगा। यह बदलाव अकेले तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में नहीं आ सकता। इसलिये हम जिस प्रतिमान में जी रहे हैं उस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के प्रत्येक घटक को बदलने की प्रक्रिया समांतर ंतथा साथ साथ चलानी होगी। साथ साथ चलाने से ऐसे परिवर्तन के प्रयास एक दूसरे के पूरक और पोषक होंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया को भूमितीय प्रमाण में गति देंगे। वैसे तो दुनियाँ के अन्य समाज भी उनके वर्तमान प्रतिमान के कारण दु:खी ही है। लेकिन उनके पास वर्तमान प्रतिमान से अधिक श्रेष्ठ विकल्प ही नहीं है। हमारे पास जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का कालसिध्द श्रेष्ठ विकल्प भी है और करने की सामर्थ्य भी है। आवश्यकता है इस परिवर्तन के संकल्प की।
    
==References==
 
==References==

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