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</ref><blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों से बने स्थूल शरीर से इन्द्रिय पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होते हैं। इन इन्द्रियों से पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म मन है। बुद्धि मन से भी पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो बुद्धि से भी कहीं पर याने बहुत अधिक श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होता है। जो सूक्ष्म होता है वह व्यापक भी होता है। फैलने की क्षमता उसकी तरलता के साथ बढ़ती जाती है। यहाँ तात्पर्य इतना समझाने से ही है कि मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, व्यापक होता है और बलवान होता है।  
 
</ref><blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों से बने स्थूल शरीर से इन्द्रिय पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होते हैं। इन इन्द्रियों से पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म मन है। बुद्धि मन से भी पर याने श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होती है। और आत्मतत्व तो बुद्धि से भी कहीं पर याने बहुत अधिक श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म होता है। जो सूक्ष्म होता है वह व्यापक भी होता है। फैलने की क्षमता उसकी तरलता के साथ बढ़ती जाती है। यहाँ तात्पर्य इतना समझाने से ही है कि मन अत्यंत सूक्ष्म होता है, व्यापक होता है और बलवान होता है।  
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महाभारत में युधिष्ठिर दुर्योधन से पूछते हैं -'अरे! तू इतना बुध्दिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा?'। दुर्योधन कहता है -
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महाभारत में युधिष्ठिर दुर्योधन से पूछते हैं -'अरे! तू इतना बुद्धिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा?'। दुर्योधन कहता है -
    
जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
 
जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
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तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय में तपस्या करनेवालों के लिए ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
तप का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्तितक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय में तपस्या करनेवालों के लिए ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
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स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। योग शास्त्र में स्वाध्याय का अर्थ बताया जाता है- ज्ञान और विज्ञान का अध्ययन। इन के माध्यम से परमात्मा को समझने के प्रयास। स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुध्दि, तप, चिंतन, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। गुरूकुल की शिक्षा पूर्ण कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिये इच्छुक हर स्नातक को कुछ संकल्प करने होते थे। इन्हें समावर्तन कहते थे। समावर्तन के संकल्पों में 'स्वाध्यायान्माप्रमदा:' ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह है कि प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेन्द्र का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत भी आजीवन स्वाध्याय करता रहे। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपनेअपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये संकल्पबध्द था। इस स्वाध्याय का लक्ष्य भी ‘मोक्ष प्राप्ति’ ही होना चाहिए। याने अपनी रूचि के विषय का अध्ययन इस पद्धति से हो की उस विषय के माध्यम से आप मोक्षगामी बन जाएँ। इस संकल्प और स्वाध्याय के कारण व्यापक स्तरपर भारत में मौलिक चिंतन होता था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
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स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। योग शास्त्र में स्वाध्याय का अर्थ बताया जाता है- ज्ञान और विज्ञान का अध्ययन। इन के माध्यम से परमात्मा को समझने के प्रयास। स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, चिंतन, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। गुरूकुल की शिक्षा पूर्ण कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिये इच्छुक हर स्नातक को कुछ संकल्प करने होते थे। इन्हें समावर्तन कहते थे। समावर्तन के संकल्पों में 'स्वाध्यायान्माप्रमदा:' ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह है कि प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेन्द्र का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत भी आजीवन स्वाध्याय करता रहे। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपनेअपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये संकल्पबध्द था। इस स्वाध्याय का लक्ष्य भी ‘मोक्ष प्राप्ति’ ही होना चाहिए। याने अपनी रूचि के विषय का अध्ययन इस पद्धति से हो की उस विषय के माध्यम से आप मोक्षगामी बन जाएँ। इस संकल्प और स्वाध्याय के कारण व्यापक स्तरपर भारत में मौलिक चिंतन होता था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
    
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है परमात्मा की आराधना। जो भी निर्माण हुआ है वह सब परमात्मा का है।  सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है। मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये हैं उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  
 
ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है परमात्मा की आराधना। जो भी निर्माण हुआ है वह सब परमात्मा का है।  सर्वशक्तीमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है। मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये हैं उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना।  

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