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# अनासक्ति : मन आलंबन के बिना नहीं रह सकता। आसक्ति यह मन का स्वभाव है। वह विषयों के आलंबन को छोड़ना नहीं चाहता। प्रयासपूर्वक उसे आलंबन से दूर हटाने से दु:ख अनुभव करता है। विषयों के चिंतन से क्या क्या होता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।</blockquote><blockquote>सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।</blockquote><blockquote>क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।</blockquote><blockquote>स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।</blockquote><blockquote>अर्थ : विषयों का चिंतन करनेसे उन विषयों में आसक्ति निर्माण हो जाती है। आसक्ति के कारण विषयों की प्राप्ति की कामना याने इच्छा जागती है। कामनाओं की पूर्ति नहीं होने पर क्रोध याने गुस्सा आता है। गुस्से के कारण अविचार पनपता है। अविचार के कारण स्मरणशक्ति भ्रष्ट हो जाती है। स्मरणशक्ति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि का याने ज्ञान का नाश होता है। और बुद्धि के नाश के कारण मनुष्य का अध:पात होता है। मन को विषयों से सहजता से अलिप्त बनाने की क्षमता मन का विकास है।</blockquote>
 
# अनासक्ति : मन आलंबन के बिना नहीं रह सकता। आसक्ति यह मन का स्वभाव है। वह विषयों के आलंबन को छोड़ना नहीं चाहता। प्रयासपूर्वक उसे आलंबन से दूर हटाने से दु:ख अनुभव करता है। विषयों के चिंतन से क्या क्या होता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।</blockquote><blockquote>सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।</blockquote><blockquote>क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।</blockquote><blockquote>स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।</blockquote><blockquote>अर्थ : विषयों का चिंतन करनेसे उन विषयों में आसक्ति निर्माण हो जाती है। आसक्ति के कारण विषयों की प्राप्ति की कामना याने इच्छा जागती है। कामनाओं की पूर्ति नहीं होने पर क्रोध याने गुस्सा आता है। गुस्से के कारण अविचार पनपता है। अविचार के कारण स्मरणशक्ति भ्रष्ट हो जाती है। स्मरणशक्ति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि का याने ज्ञान का नाश होता है। और बुद्धि के नाश के कारण मनुष्य का अध:पात होता है। मन को विषयों से सहजता से अलिप्त बनाने की क्षमता मन का विकास है।</blockquote>
 
# द्वंद्वों की समाप्ति : मन द्वंद्वात्मक होता है। हर्ष-क्रोध, सुख-दु:ख, शान्ति-अशांति, राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प में फँस जाता है। उसे द्वंद्वात्मकता से हटाकर निश्चयात्मक बनाना आवश्यक होता है। अन्यथा मनुष्य कोइ निर्णय नहीं ले पाता। इस द्वंद्वात्मकता के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है –
 
# द्वंद्वों की समाप्ति : मन द्वंद्वात्मक होता है। हर्ष-क्रोध, सुख-दु:ख, शान्ति-अशांति, राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प में फँस जाता है। उसे द्वंद्वात्मकता से हटाकर निश्चयात्मक बनाना आवश्यक होता है। अन्यथा मनुष्य कोइ निर्णय नहीं ले पाता। इस द्वंद्वात्मकता के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है –
<blockquote>व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।</blockquote><blockquote>बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।</blockquote><blockquote>अर्थ : निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है। अस्थिर विचार करनेवाले, अविचारी, कामलिप्त मनुष्यों की बुद्धि अनेकों विकल्पों में भटक जाती है। ऐसी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं हो सकती। मन की द्वंद्वातीत अवस्था मन का विकास है।</blockquote>
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<blockquote>व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।</blockquote><blockquote>बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।</blockquote><blockquote>अर्थ : निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है। अस्थिर विचार करनेवाले, अविचारी, कामलिप्त मनुष्यों की बुद्धि अनेकों विकल्पों में भटक जाती है। ऐसी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं हो सकती। मन की द्वंद्वातीत अवस्था मन का विकास है।</blockquote><br /><br /><br /><br />
 
# विकारों से मुक्ति : काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये षड्विकार मन के स्वभाव में होते हैं। इन्हें षड्रिपु के नाम से जाना जाता है। इन से मुक्ति पाना मन का विकास कहलाता है। ६. सद्गुण और सदाचार : मन को दया, करुणा, स्नेह, सहानुभूति, कृतज्ञता, विनयशीलता, मित्रता, ऋजुता आदि गुणों से भर देना मन का विकास है। सेवा, दान की मानसिकता, परोपकार आदि में रूचि निर्माण होना मन के विकास के लक्षण हैं।  ७. बुद्धि के वश में करना : इस बिन्दु को हमने पहले ही उपनिषद के उदाहरण से स्पष्ट किया है। यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि मन की केवल एकाग्रता मन का विकास नहीं है। अपनी रूचि के विषय में मनुष्य तुरंत एकाग्र हो जाता है। लेकिन यह मन का विकास नहीं है। मन को जिस विषय में रूचि है उस में नहीं बल्कि इष्ट विषय पर मन को एकाग्र करने की क्षमता से मन का विकास होता है। यह मन को बुद्धि के वश में रखने से होता है।
 
# विकारों से मुक्ति : काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये षड्विकार मन के स्वभाव में होते हैं। इन्हें षड्रिपु के नाम से जाना जाता है। इन से मुक्ति पाना मन का विकास कहलाता है। ६. सद्गुण और सदाचार : मन को दया, करुणा, स्नेह, सहानुभूति, कृतज्ञता, विनयशीलता, मित्रता, ऋजुता आदि गुणों से भर देना मन का विकास है। सेवा, दान की मानसिकता, परोपकार आदि में रूचि निर्माण होना मन के विकास के लक्षण हैं।  ७. बुद्धि के वश में करना : इस बिन्दु को हमने पहले ही उपनिषद के उदाहरण से स्पष्ट किया है। यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि मन की केवल एकाग्रता मन का विकास नहीं है। अपनी रूचि के विषय में मनुष्य तुरंत एकाग्र हो जाता है। लेकिन यह मन का विकास नहीं है। मन को जिस विषय में रूचि है उस में नहीं बल्कि इष्ट विषय पर मन को एकाग्र करने की क्षमता से मन का विकास होता है। यह मन को बुद्धि के वश में रखने से होता है।
  
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