Dharmik Justice Systems (धार्मिक न्याय दृष्टि)

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प्रस्तावना

वर्तमान न्याय व्यवस्था के विषय में बडे पैमाने पर लोगोंं के मन में असंतोष व्याप्त है । न्यायालय में न्याय मिलेगा इस बात की आश्वस्ति स्वयं सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी नहीं दे सकता। वह भी कहता है कि 'उपलब्ध गवाहों और प्रमाणों के आधार पर' न्याय दिया जा रहा है ।

वर्तमान न्याय व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग है। एक न्यायाधीश, दूसरा वकील और तीसरा पक्षकार। पक्षकार के मुकदमे वकील न्यायालय में लड़ते हैं। सामान्यत: इन मुकदमों में केवल एक ही पक्ष न्याय का होता है। स्वाभाविक रूप से दूसरा पक्ष अन्याय का ही होता है। और हमारे लगभग ५० प्रतिशत वकील इस अन्याय के पक्ष के लिये मुकदमे लड़ते हैं। अपनी पूरी बुद्धिमत्ता अन्यायवाले पक्ष को जिताने के लिये लगा देते है । इसे व्यावसायिक आवश्यकता या मजबूरी कहा जाता है। किन्तु वास्तविक देखा जाये तो क्या यह 'अनैतिक धंधा' नहीं है? किन्तु इसे वकीलों की मान्यता है। न्यायालय की मान्यता है। कानून की मान्यता है। और संविधान की भी मान्यता है। यह कैसा अंधेर है ? ऐसा न्याय के क्षेत्र में काम करनेवाले विद्वानों को लगता है या नहीं ? केवल इतना ही नहीं, वर्तमान न्यायतंत्र में न्यायाधीश शासक का हित देखनेवाला है या नहीं यह भी महत्वपूर्ण होता है ।

वर्तमान न्याय व्यवस्था धार्मिक न्याय व्यवस्था नहीं है। इसे हमारी गुलामी के दिनों में अंग्रेजों ने यहाँ स्थापित किया था। वर्तमान में केवल भारत में ही नहीं विश्व के सभी देशों ने इसी प्रकार की न्याय व्यवस्था को स्वीकार किया है। इस में एक महत्वपूर्ण कारण पाश्चात्य देशों की गुलामी का है। दूसरा कारण इन देशों में संभवतः इस से अधिक संगठित और न्यायपूर्ण कोई व्यवस्था योरप के देशों द्वारा गुलाम बनाए जाने से पहले नहीं थी, यह भी है। किन्तु भारत की स्थिति भिन्न है। हमारे इतिहास में अत्यंत श्रेष्ठ न्याय व्यवस्था थी, इस के प्रमाण और न्याय व्यवस्था से जुड़ा काफी साहित्य आज भी उपलब्ध है। किन्तु स्वाधीनता के बाद भी हमारी मानसिकता तो दासता की ही रही है। हमने उस पाश्चात्य न्याय व्यवस्था को निष्ठा से आगे बढाया है।

कहने को तो हम कहते है कि हम स्वतंत्र हो गये है। किन्तु स्वाधीनता और स्वतन्त्रता इन में अन्तर भी हम नहीं समझते। स्वाधीनता का अर्थ है पराए शासकों की अधीनता समाप्त होकर अपने शासकों के अधीन देश हो जाना। स्वतन्त्रता स्वाधीनता से अधिक कठिन बात है। इस में अपने समाज के हित में अपनी जीवनदृष्टि के अनुरूप अपने तंत्र अर्थात् अपनी व्यवस्थाएं निर्माण करनी पडती है। किन्तु हमारी स्वाधीनता के बाद हमने अपनी जीवनदृष्टि से सुसंगत तंत्रों के या अपनी व्यवस्थाओं के विकास का कोई प्रयास नहीं किया है। अंग्रेजी शासन ने उन के लाभ के लिये भारत में प्रतिष्ठित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, राजस्व, अर्थ, उद्योग, कृषि, शिक्षा आदि सभी व्यवस्थाएं हमने निष्ठा के साथ आज भी वैसी ही बनाए रखी है।

इस प्रबंध का उद्देश्य, वर्तमान न्यायव्यवस्था की त्रुटियों को उजागर करना, इस वर्तमान (अ)न्याय दृष्टि के पीछे काम कर रही पाश्चात्य जीवनदृष्टि को समझना, धार्मिक जीवनदृष्टि को समझना और धार्मिक जीवनदृष्टि पर आधारित न्यायदृष्टि के आधारभूत बिन्दुओं को समझना है।[1]

वर्तमान न्यायतंत्र की विकृतियाँ और धार्मिक न्यायदृष्टि के सूत्र

न्यायतंत्र का उद्देश्य है प्रस्तुत परिस्थितियों का विचार करते हुए सत्य को खोजना। सत्य की प्रतिष्ठापना करना। इस दृष्टि से पाश्चात्य न्यायदृष्टि के अनुसार सत्य की व्याख्या बनती है "प्रस्तुत जानकारी, साक्षी और प्रमाणों के आधारपर विश्लेषण, संश्लेषण, तर्क अनुमान के आधारपर जो सिद्ध होगा वही सत्य है।" अर्थात् वास्तविक सत्य नहीं कानूनी सत्य। पाश्चात्य न्यायतंत्र का एक सूत्र यह कहता है की न्यायदेवता अंधी होती है। यह कथन भी अत्यंत विचित्र है। वास्तव में तो न्यायदेवता सूक्ष्म से सूक्ष्म बात जान सके ऐसी होनी चाहिये। किन्तु पाश्चात्य न्यायतंत्र के अनुसार न्यायाधीश ने प्रस्थापित कानून के आधार पर, प्रस्तुत की गई जानकारी, साक्ष और प्रमाणों को छोडकर अन्य किसी भी बात का विचार नहीं करना है। लेकिन ऐसा करने से न्यायाधीश सत्य को पूरी तरह कैसे जान सकता है? यहाँ पाश्चात्य जीवनदृष्टि का टुकड़ों में जानने का सूत्र लागू होता है। जितने टुकडों की जानकारी मिलेगी उन के आधारपर सत्य का निर्धारण करना। यदि पूरे की जानकारी नहीं होगी तो पूरा सत्य कैसे सामने आएगा? लेकिन पूरे सत्य की चिंता पाश्चात्य न्यायतंत्र को नहीं है। सत्य की धार्मिक व्याख्या महाभारत में दी गई है। यह व्याख्या धार्मिक जीवनदृष्टि के“ सर्वे भवन्तु सुखिन:" इस सूत्र के अनुसार ही है। व्याख्या है[citation needed]:

यद् भूत हितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम।

भावार्थ : जो बात चराचर के हित में है, वही सत्य है। सत्य की यह सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है।

सच्चिदानन्द याने सत्-चित्-आनन्द स्वरूप परमात्मा का एक प्रमुख लक्षण “सत्” भी है। सत् याने जो अटल है। जो अपरिवर्तनीय है। चिरन्तन है। अतः सत्य की खोज वास्तव में परमात्मा की खोज ही होती है।

न्याय दर्शन के पहले आन्हिक के पहले ही सूत्र में कहा है[2]:

प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्तावयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभासच्छल जाति निग्रहस्था-नानांतत्वज्ञानान्नि:श्रेयसाधिगम: ।।१।।

अर्थ : प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थानानाम् आदि सोलह के माध्यम से संसार के पदार्थों के तत्वज्ञान के द्वारा नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति होती है।

प्रस्तावना में हमने देखा है कि इस न्यायतंत्र का ५० प्रतिशत वकील नामक वर्ग यह असत्य की विजय के लिये अपनी शक्ति लगाता है । अर्थात् अनैतिक धंधा करता है । उसे दुराचार करना ही पडता है।

धार्मिक व्यवस्था धर्म का सूत्र यह कहता है कि जिस व्यवस्था में किसी को सदाचार से जीना संभव नहीं हो, वह व्यवस्था त्याज्य है । व्यवस्था धर्म का यह सूत्र न्यायव्यवस्था को भी पूर्ण रूप से लागू है।

  1. पाश्चात्य न्यायतंत्र का एक सूत्र है – १०० अपराधी भले छूट जाएं, एक निरपराध को दण्ड नहीं होना चाहिये। जब भी कोई अपराध होता है तो उस प्रसंग में वह किसी निरपराध के विरोध में ही होता है। किसी निरपराध को हानि पहुंचाने के कारण ही होता है। इसलिये हर छूटने वाले अपराधी के पीछे न्यूनतम एक निरपराध की हानि होती ही है। अर्थात् जब सौ अपराधी छूट जाते है तो १०० निरपराधों को हानि पहुंचती है। अर्थात् १०० अपराधियों के दोषमुक्त होने से न्यूनतम १०० निरपराधियों को दण्ड हो जाता है। इसलिये इस न्यायसूत्र का अर्थ इस प्रकार बनता है - न्यूनतम १०० निरपराधों को भले ही दण्ड भोगना पड़े, १ निरपराध को दण्डित नहीं करना चाहिये। वास्तव में १०० निरपराधों को दण्डित कर एक निरपराध को दण्ड से बचाने का आग्रह करनेवाला यह सूत्र अन्यायतंत्र का ही सूत्र है, यह सामान्य मनुष्य भी समझ सकता है। यह न्यायतंत्र का सूत्र ही नहीं होना चाहिये।
  2. धार्मिक न्यायतंत्र में अपराधी के छूट जाने के लिये कोई गुंजाईश नहीं है। वास्तव में तो धार्मिक न्यायतंत्र तो बहुत बाद में काम करता है। पहले तो धार्मिक राज्यतंत्र का काम यह होता है कि अपराध होना ही नहीं चाहिये। जिस राज्य में अपराध होते है, वह शासक अपराधी माना जाता है। धार्मिक मान्यता यह है कि प्रजा द्वारा किये पुण्यों का फल जैसे राजा को अनायास ही मिलता है, उसी प्रकार से प्रजा द्वारा किये पापों का फल भी शासक को भुगतना पडता है। इस में एक भी अपराधी छूटने का प्रश्न नहीं आता। रामराज्य की यही विशेषता थी। पहले तो अपराध होने से पहले ही रोकने की शासन व्यवस्था हो और फिर कोई भी अपराधी छूटे नहीं ऐसी शासन व्यवस्था और न्यायव्यवस्था हो । यह थी धार्मिक मान्यता और व्यवस्था। हम सब को इस त्रुटिपूर्ण न्यायतंत्र में रहने की आदत हो गई है इसलिये वर्तमान में लोगोंं को यह असंभव लगेगी। अंग्रेजी न्यायव्यवस्था की भारत में प्रतिष्ठापना होने से पूर्व तक ऐसी न्यायप्रणाली धार्मिक न्यायतंत्र का वास्तव था।
  3. पाश्चात्य न्यायतंत्र में न्यायाधीश की अर्हता है, उस का एक सफल वकील होना। अर्थात जो सत्य को सहजता से असत्य सिद्ध कर दे और जो असत्य को सहजता से सत्य सिद्ध कर दे ऐसी जिस की बुद्धि और कुशलता है वह न्यायाधीश बनने के योग्य माना जाता है । धार्मिक न्यायदृष्टि के अनुसार न्यायाधीश बनने की अर्हता अत्यंत युक्तिसंगत और सामान्य मनुष्य को भी सहज समझ में आए ऐसी है। ऊपर हम देख आये है कि सत्य की धार्मिक व्याख्या है: यद् भूत हितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम । इसलिये न्यायाधीश बनने के लिये सत्यनिष्ठा, निर्भयता, नि:स्वार्थी भावना और संवेदनशील मन के साथ में ही हर प्रसंग में, हर विषय में, हर मुकदमे में 'चराचर के हित में क्या है' यह समझने की कुशाग्र बुद्धि का होना अनिवार्य माना गया है। सत्य के प्रति निष्ठावान होना अनिवार्य बात मानी गई थी। न्यायाधीश सात्विक वृत्ति का, आवश्यकताएं न्यूनतम हों ऐसा होता था। इन्द्रियों पर संयम रखनेवाला होता था। ये बातें न्यायाधीश की अर्हता के अनिवार्य बिन्दू होते थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में मीमांसा शास्त्र का जानकार, वेदाभ्यास सम्पन्न, धर्मशास्त्र का जानकार, सत्यवादी, शत्रुमित्र समान मानने वाले हो ऐसी न्यायाधीश की अर्हता बताई है। कात्यायन इसमें संयमी, उच्च कुलोत्पन्न, अपक्ष, शांत, परमात्मा से डरने वाला याने कर्मसिद्धान्त पर श्रद्धा रखने वाला, लांगुलचालन से प्रभावित न होनेवाला और अक्रोधी ऐसे और लक्षण जोड़ता है। धार्मिक प्रणाली में गाँव में न्यायदान का काम गाँव के पंच करते थे । पंच कौन बनेगा यह शासन तय नहीं करता था। गाँव के सभी लोग सर्वसहमति से पंच को मनोनीत करते थे। पंचों का चुनाव नहीं होता था । बहुमत से पंच तय नहीं होते थे । सर्वमत से होते थे । गाँव के समदर्शी, ज्ञानी, सदाचारी, निर्व्यसनी, नि:स्वार्थी, कुशल, निर्भय और स्वच्छ चारित्र्यवाले व्यक्ति को गाँव के लोग अनुरोध करते थे की वह पंच की जिम्मेदारी स्वीकार करे। वह व्यक्ति भी यह मेरी सामाजिक जिम्मेदारी है ऐसी पवित्र भावना से न्यायदान का काम करता था।
  4. इस पाश्चात्य कानून व्यवस्था में एक ही देश के भिन्न लोगोंं के लिये भिन्न कानून है। मुसलमानों के लिये अलग कानून है। उन का पारंपरिक कानून शरीयत कहलाता है। उसे धार्मिक न्यायतंत्र की मान्यता है। किन्तु यह शरीयत का कानून भी वर्तमान मुस्लिम समाज के लोगोंं को जो लगता है उस के अनुसार झुकने वाला कानून है। शाहबानो के मुकदमे में अन्याय हुआ था। शाहबानो एक मुस्लिम तलाक पीड़ित महिला थी। उस के पति ने उसे तलाक देकर बेसहारा कर दिया। आजीविका का उस के पास कोई साधन नहीं रहा। तब धार्मिक कानून के अनुसार उसने न्याय माँगा। न्यायाधीश ने उस के पति को मुआवजा देने का निर्णय दिया। किन्तु उसके पति को यह रास नहीं आया। उस के पीछे केवल पुरूषों का हित देखने वाला मुस्लिम समाज खडा हो गया। शासन झुका और संसद में कानून बनाकर मुस्लिम तलाक पीड़ित स्त्रियों को मुआवजा देने की जिम्मेदारी पति से निकालकर वक्फ बोर्ड पर डाल दी गई। यहाँ भी हम देखते है की इस न्यायतंत्र का स्वभाव ही है बलवानों के हित का रक्षण करना धार्मिक न्यायतंत्र के आगे सभी देशवासी समान माने जाते है। न्याय सत्य के आधारपर दिया जाता है । बल के आधार पर नहीं। केवल बलवान है इसलिये उसके पक्ष को सत्य नहीं माना जाता ।
  5. पाश्चात्य न्यायतंत्र के कारण अपराधीकरण को बढावा मिलता है। जीवन में कोई पहली बार अपराध करता है। कानून के अनुसार न्यायाधीश उसे सजा सुनाता है। कारागृह में भेज देता है। कारगृह में रहकर, बन चुके अपराधियों की संगत में रहकर वह भोलाभाला पापभीरु व्यक्ति पक्का अपराधी बनकर ही बाहर निकलता है ।धार्मिक न्यायतंत्र में प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। अपराधी के अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करने से अपराध कम होते है। अपराधी को दण्डित करने से नहीं। केवल पश्चात्ताप नहीं तो साथ में अपराधी प्रायश्चित्त भी लेता था। एक बार जब अपराधी को पश्चात्ताप हुआ और उस ने प्रायश्चित्त कर लिया तो वह निष्कलंक माना जाता था। अन्य सामान्य लोगोंं जैसा ही सम्मान उसे समाज में प्राप्त होता था। दण्ड तो अन्तिम विकल्प के रूप में ही किया जाता था। जैसे जैसे पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार और प्रभाव बढता जा रहा है यह पश्चात्ताप की भावना और उस का न्यायदान में उपयोग करने की सम्भावनाएँ भी कम होती जा रहीं है।
  6. अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है - जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाईड अर्थात् न्याय देने में देरी करने का अर्थ है अन्याय करना । लेकिन पाश्चात्य न्यायव्यवस्था का इस कहावत से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है। न्याय व्यवस्था ही ऐसी बनाई गई है कि विलंब इस का स्थायी भाव है। अभी कुछ महीने पहले वर्तमान पत्रों में एक खबर छपी थी। बंगाल के न्यायालय के एक मुकदमे की जानकारी उस में दी गई थी। यह स्थावर संपत्ति का मुकदमा था। यह १७६ वर्षों से चल रहा था। इस मुकदमे के चलते दोनों पक्षों की कितनी ही पीढियाँ पैदा हुई और मर गई किन्तु न्याय नहीं हुआ। क्या इसे न्याय कहा जा सकता है? वर्तमान में इस पाश्चात्य न्यायतंत्र में सत्र न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक विशाल संख्या में (लगभग ३ करोड़) मुकदमे लंबित हैं। इस में वकील नाम का जो घटक है वह भी इस न्यायतंत्र को प्रलंबित बनाता है। प्रलंबित मुकदमों में उस का निहित स्वार्थ होता है। धार्मिक न्याय व्यवस्था में वकील इस घटक का कोई स्थान नहीं था। न्यायाधीश ही तहकीकात करते थे और न्याय देते थे। मुकदमे का निर्णय शीघ्र हो जाता था।
  7. अविश्वास पाश्चात्य जीवन, शासन व्यवस्था और न्याय व्यवस्था का आधारबिन्दू है। निरर्थकता भी इसमें समाहित है। पुलिस कहती है - हमारी दृष्टि में हर व्यक्ति अपराधी हो सकता है, कोई अपराधी है या नहीं यह देखना हमारा काम नहीं है। यह बात न्यायालय तय करेगा। और न्यायालय में इससे उलट कहा जाता है। न्यायालय में वैसे तो यह कहा जाता है कि हर मनुष्य जब तक कि उस का अपराध सिद्ध नहीं हो जाता वह निरपराध ही माना जाना चाहिये। किन्तु व्यवहार भिन्न है। हर व्यक्ति को कटघरे में खडे होने पर पहले अपने सच बोलने की भगवान की सौगंध लेकर दुहाई देनी पडती है। यह उस व्यक्ति पर अविश्वास बताने जैसा ही है। वास्तव में जिनका भगवान पर विश्वास है वे झूठ नहीं बोलते। बोल ही नहीं सकते। उन के लिये भगवान की सौगंध लेना निरर्थक है। जिनका भगवान पर विश्वास नहीं है वे कितनी भी भगवान की सौगंध खाए उन्हे झूठ बोलने से कोई रोक नहीं सकता। अर्थात उन के लिये भी भगवान की सौगंध खाना निरर्थक बात ही होती है। धार्मिक न्याय व्यवस्था में ऐसे अविश्वास के लिये या निरर्थक बातों के लिये कोई स्थान नहीं है। मनुष्य झूठ बोलने वाला है या नहीं यह जानने की शक्ति न्यायाधीश में होनी चाहिये। वह झूठ बोल रहा है यह निरीक्षण, परिक्षण और तहकीकात के आधारपर प्रस्थापित करने की कुशलता न्यायाधीश में होनी चाहिये । यह धार्मिक न्यायतंत्र में वांछित है।
  8. पाश्चात्य शासनतंत्र में और न्यायतंत्र में जिस व्यक्तिपर न्याय की जिम्मेदारी है जिस के हाथों में न्याय व्यवस्था है उस के द्वारा किये अन्याय के लिये कोई उपाय नहीं है। नीचे की अदालत में यदि गलत न्याय दिया गया हो तो ऊपर की अदालत उसे बदल तो सकती है । किन्तु नीचे की अदालत के न्यायाधीश और वकीलों को दण्डित नहीं कर सकती। पुलिस किसी निरपराध को पकड़ लेती है । उसे पीडा देती है। उस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण काल का हरण कर लेती है। किन्तु उस के निरपराध सिद्ध होने पर उस निरपराध को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। और ना ही उस पुलिस अधिकारी को अपने कर्तव्य को ठीक से न निभाने के लिये दण्डित किया जाता है। धार्मिक शासन व्यवस्था और न्यायव्यवस्था में किसी अधिकारी फिर वह न्यायाधीश हो चाहे शासकीय अधिकारी, उस के दायरे में अपराध होने से वह अधिकारी अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आने वाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूँढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुआ है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।
  9. पाश्चात्य न्यायतंत्र में प्रत्यक्ष घटनास्थल से दूरी को कोई महत्व नहीं है। तहसील के न्यायालय में से आगे जाकर तहसील के न्याय में कई बार परिवर्तन हो जाता है। इस में दो ही बातें हो सकती है। या तो तहसील का न्यायाधीश अयोग्य है या फिर ऊपर के न्यायालय का न्यायाधीश अयोग्य है। तहसील से ऊपर के न्यायालय में न्याय की सम्भावनाएँ कम ही होती जाती हैं। न्यायदान का केन्द्र घटना स्थल के जितना पास में होगा न्यायदान उतना ही अधिक अचूक होने की सम्भावनाएँ होती हैं। न्यायदान का केन्द्र जितना दूर उतनी अन्याय की सम्भावनाएँ अधिक होती है। तथापि पाश्चात्य न्यायतंत्र में छोटे तहसील न्यायालय से आगे बढकर सर्वोच्च न्यायालय में सैंकड़ों मुकदमे जाते है। यह न्याय व्यवस्था की अव्यवस्था का लक्षण नहीं है तो और क्या है? धार्मिक न्याय व्यवस्था में गाँव के पंचों का निर्णय अंतिम माना जाता था। अपवाद स्वरूप ही कोई मुकदमा राजा के स्तर पर आगे जाता था। न्याय मिलने की सम्भावनाएँ गाँव के पंचों के न्याय में जितनी अधिक होंगी उतनी अन्य किसी भी स्तर पर नहीं हो सकती थीं। क्योंकि गाँव के पंच गाँव के हर व्यक्ति को अंदर बाहर से जाननेवाले होते है। उन के हाथों अन्याय होने की सम्भावनाएँ सामान्यत: हैं ही नहीं और हुई तो अपवाद स्वरूप ही हो सकती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है।
  10. पाश्चात्य कानून के अनुसार अपराध और दण्ड का समीकरण है। इस में मनुष्य की वृत्तियो को, स्वभाव को कोई स्थान नहीं है। अर्थात् अंग्रेजी न्यायतंत्र में न्याय को ऑब्जेक्टिव्ह याने व्यक्तिनिरपेक्ष माना जाता है। सब्जेक्टिव्ह अर्थात् व्यक्तिसापेक्ष नहीं माना जाता। एक विशिष्ट अपराध के लिये कानून द्वारा निर्धारित दण्ड सबके लिये समान होगा। व्यक्ति सदाचारी है और अनजाने में उस से अपराध हो गया है, इस से न्यायतंत्र को कोई लेनादेना नहीं होता। वर्तमान समाज में बढते अपराधीकरण का यह भी एक प्रमुख कारण है। सम्राट विक्रम के सभा की एक न्यायकथा का वर्णन चीनी प्रवासी ने किया है। यह कथा धार्मिक न्यायदृष्टि के इस व्यक्तिसापेक्षता के महत्व को अधोरेखित करनेवाली है। कथा ऐसी है - विक्रम के सभा में एक मुकदमा आया। चार अपराधी थे। अपराध सिद्ध हो गया था। अपराध सब ने मान्य कर लिया था। चारों की पार्श्वभूमि विक्रम के गुप्तचरों ने पहले ही एकत्रित की थी। विक्रम ने न्याय दिया। एक को तो केवल इतना कहा कि तुम जिस कुटुम्ब के हो उसे यह शोभा नहीं देता। उसे बस इतना ही कहकर छोड दिया गया। दूसरे को थोडी अधिक कठोरता से उलाहना देकर छोड दिया गया। तीसरे को हंटर से पाँच बार मारकर छोड दिया गया। चौथे की गधे पर बिठाकर शहर में अशोभायात्रा निकालने की आज्ञा दी गई। चीनी प्रवासी आश्चर्य में पड गया कि यह कैसा न्याय है? उसने विक्रम से इस का कारण जानना चाहा। विक्रम ने उसे कहा, मेरे साथ चलो। दोनों वेश बदलकर निकल पड़े। पहले अपराधी के घर गये। देखा! वहाँ मातम मनाया जा रहा है। जिस युवक ने अपराध किया था उसने गले में फाँस लगाकर आत्महत्या कर ली है। दूसरे के घर गये तो जानकारी मिली कि वह युवक शर्म के मारे घर छोडकर चला गया है। तीसरे के घर गये तो पता चला कि वह युवक आया है तब से उसने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया है। किसी को मूंह नहीं दिखा रहा है। चौथे को देखने गये तो पता चला कि उसकी अशोभा-यात्रा जब शहर में उस युवक के घर के सामने से निकली तब उसने चिल्लाकर अपनी माँ से कहा 'अभी थोडी देर में मैं घर आ रहा हूं। बहुत भूख लगी होगी। जरा कुछ अच्छा सा खाना बनाना' । यह एक ऐतिहासिक सत्यकथा है। इस से धार्मिक न्यायदृष्टि का व्यक्ति-सापेक्षता का सिद्धात समझ में आता है।
  11. पाश्चात्य कानून व्यवस्था में शासन सर्वोपरि होने से सर्वोच्च अधिकार संसद को होते है। संसद के सदस्य बनने के लिये कानून का विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। पाश्चात्य व्यवस्था में कानून से अनभिज्ञ लोग न्याय क्या है और अन्याय क्या है यह तय करते है। लोकतंत्र में तो यह स्थिति और भी बिगड जाती है। संसद के निर्णय बहुमत से होते है। विद्वानों का समाज में कभी भी बहुमत नहीं होता। जब सामान्य लोग जिन्हें न्याय और न्यायतंत्र की ठीक से जानकारी नहीं हैं, न्यायतंत्र को नियंत्रित करने लगेंगे तो न्याय नहीं होगा यह छोटा बच्चा भी बता सकता है। लोकतंत्र व्यवस्था में न्यायतंत्र में भी मतपेटी की राजनीति चलती है। इस राजनीति के चलते समाज का बलशाली गुट दुर्बल गुट पर हावी हो जाता है। कानून बलशाली गुट के हित में झुक जाता है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विषय में यही हो रहा है। जिनका उपद्रव मूल्य अधिक है उन के हित में कानून झुक जाता है । धार्मिक न्यायप्रणाली में न्यायतंत्र शासक के अधीन नहीं होता था। धर्मसभा और न्यायसभा के विद्वान न्यायतंत्र का और कानून का स्वरूप तय करते थे।
  12. धार्मिक न्यायतंत्र के और भी कुछ महत्वपूर्ण लक्षण है । उन में से कुछ निम्न हैं:
    1. कानून के नियमों में बुद्धिसंगतता, सरलता, सरल भाषा में लेखन और अभिव्यक्ति, कानूनों की न्यूनतम संख्या, समदर्शिता (न्यायदान के समय व्यक्तिगत संबंधों और नाते-रिश्तों से परे रहने की क्षमता), आप्तोक्तता (अपराधी अपना आप्त है यह मानकर न्यूनतम दण्ड से दण्डित करना) का होना अनिवार्य माना जाता था। धार्मिक मानसशास्त्र का एक सिद्धांत है कि अनाप्त मनुष्य अधिक स्खलनशील होता है। और स्खलनशील मनुष्य सहज ही अपराध करने को उद्यत हो जाता है । उसे जब आप्तोप्त दृष्टि से न्याय मिलता है तो उस की स्खलनशीलता घटती है ।
    2. न्यायाधीश विरलदण्ड होना चाहिये । एकदम अनिवार्य है, ऐसे मामले मे ही अपराधी को दण्डित करने को विरलदण्ड कहते है।
    3. न्याय प्रक्रिया सरल हो । सामान्य मनुष्य भी अपना पक्ष रख सके ऐसी न्यायप्रक्रिया होनी चाहिये । वर्तमान कानून अत्यन्त क्लिष्ट भाषा में लिखे होते हैं और इतनी अधिक संख्या में लिखी गई कानून की पुस्तकों के जंजाल के कारण सामान्य बुद्धि रखनेवाला कोई भी मनुष्य अपना मुकदमा नहीं लड सकता । अपना पक्ष नहीं रख सकता।
    4. कानून बनाते समय मनुष्य की स्वतन्त्रता और सहानुभूति (अर्थात् मैं उस के स्थानपर यदि होऊं तो मेरे साथ कैसे न्याय करना चाहिये ऐसी सह-अनूभूति) के आधारपर कानून बनाना चाहिये।
  13. रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी पुस्तक (पर्सनेलिटी) में पृष्ठ १५ पर लिखते हैं – ऑस्टीन (लेखक) के अनुसार राजकीय दृष्टि से बलवान द्वारा बनाए हुए क़ानून और शासकीय आदेश राजकीय दृष्टि से दुर्बलों के अनुपालन के लिए बनाए हुए (पश्चिमी) क़ानून होते हैं। जब कि धार्मिक दृष्टि से क़ानून वह होता है जो क़ानून और शासक दोनों को नियत्रित करता है।
  14. रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी पुस्तक (पर्सनेलिटी) में पृष्ठ १५ पर लिखते हैं – किंग केन डू नो रोंग - यह धार्मिक क़ानून को मान्य नहीं है। धार्मिक क़ानून का पहला तत्व है, धर्म शासकों का शासक है। धर्म शासन के साथ मिलकर दुर्बल को भी बलवान के समकक्ष बना देता है। दूसरा है तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। कहा है[3]

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित: । तस्माधर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मोहतीवधीत् ।

उपसंहार

उपर्युक्त पाश्चात्य और धार्मिक न्यायतंत्रों की जो तुलनात्मक प्रस्तुति हुई है उस से यह सिद्ध होता है कि धार्मिक न्यायप्रणाली के साथ वर्तमान पाश्चात्य न्यायप्रणाली की तुलना ही नहीं हो सकती। पाश्चात्य न्यायप्रणाली जिनके पास सत्ता का बल है, बाहुबल है, धन का बल है या बुद्धि का बल है ऐसे बलवानों को स्वार्थ के हित में काम करती है तो धार्मिक न्याय प्रणाली चराचर के हित में काम करती है। जैसे इस प्रबंध के प्रारंभ में दिया है, उस के निष्कर्षों पर धार्मिक न्यायप्रणाली की प्रतिष्ठापना करणीय है, ऐसा यदि हमें लगता है तो फिर उस की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये जो भी संभव है उसे करना होगा । वही करणीय है । वही विवेक है ।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३२, लेखक - दिलीप केलकर
  2. न्याय दर्शन , प्रथम सूत्र
  3. मनुस्मृति, 8.15

अन्य स्रोत:

पर्सनेलिटी, लेखक रवीन्द्रनाथ ठाकुर,