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== स्वास्थ्य में आहार विहार का महत्व ==
 
== स्वास्थ्य में आहार विहार का महत्व ==
 
आहार का अर्थ है खाया जानेवाला अन्न । अन्न में चारों प्रकार के अन्न का समावेश होता है। अन्न भी चूस कर खाने का, पीने का, चाट कर खाने का, चबा कर खाने का ऐसा चार प्रकार का होता है। विहार में दिनचर्या और ऋतुचर्या आते हैं। उठना कब, सोना कब, खाना कब और कब नहीं , व्यायाम कब और किस प्रकार का करना, कैसे शौक कैसी आदतें पालना आदि बातें विहार में आते हैं। आहार विहार प्रकृति के अनुसार होने से कोई कारण नहीं कि स्वास्थ्य बिगड़ जाए। आहार विहार उचित याने प्रकृति के अनुकूल रखने से अपघात से ही स्वास्थ्य बिगड़ने की सम्भावनाएँ होतीं हैं। आहार में भी सात्विक, राजसी और तामसी आहार का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। वह निम्न है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 17.8, 17.9, 17.10
 
आहार का अर्थ है खाया जानेवाला अन्न । अन्न में चारों प्रकार के अन्न का समावेश होता है। अन्न भी चूस कर खाने का, पीने का, चाट कर खाने का, चबा कर खाने का ऐसा चार प्रकार का होता है। विहार में दिनचर्या और ऋतुचर्या आते हैं। उठना कब, सोना कब, खाना कब और कब नहीं , व्यायाम कब और किस प्रकार का करना, कैसे शौक कैसी आदतें पालना आदि बातें विहार में आते हैं। आहार विहार प्रकृति के अनुसार होने से कोई कारण नहीं कि स्वास्थ्य बिगड़ जाए। आहार विहार उचित याने प्रकृति के अनुकूल रखने से अपघात से ही स्वास्थ्य बिगड़ने की सम्भावनाएँ होतीं हैं। आहार में भी सात्विक, राजसी और तामसी आहार का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। वह निम्न है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 17.8, 17.9, 17.10
</ref>  <blockquote>आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।</blockquote><blockquote>रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।</blockquote>अर्थ : आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और आत्मीयता बढ़ानेवाले, रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर रहनेवाले याने जिनका सत्त्व शरीर में दीर्घ काल तक रहता है, ऐसे स्वभाव से ही मन को प्रिय लगनेवाले भोजन के पदार्थ सात्विक (कफ) प्रवृत्ति के लोगों को प्रिय होते हैं।   
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</ref>  <blockquote>आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।</blockquote><blockquote>रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।</blockquote>अर्थ : आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और आत्मीयता बढ़ानेवाले, रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर रहनेवाले याने जिनका सत्त्व शरीर में दीर्घ काल तक रहता है, ऐसे स्वभाव से ही मन को प्रिय लगनेवाले भोजन के पदार्थ सात्विक (कफ) प्रवृत्ति के लोगोंं को प्रिय होते हैं।   
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आगे कहा है -  <blockquote>कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।</blockquote><blockquote>आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।17.9।।</blockquote>अर्थ : कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, तीखे, सूखे, जलन करनेवाले और दुःख चिंता और रोग उत्पन्न करनेवाले भोजन के पदार्थ राजस प्रकृति के लोगों को प्रिय होते हैं।
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आगे कहा है -  <blockquote>कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।</blockquote><blockquote>आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।17.9।।</blockquote>अर्थ : कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, तीखे, सूखे, जलन करनेवाले और दुःख चिंता और रोग उत्पन्न करनेवाले भोजन के पदार्थ राजस प्रकृति के लोगोंं को प्रिय होते हैं।
    
आगे कहा है  <blockquote>यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।</blockquote><blockquote>उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।</blockquote>अर्थ : जो भोजन कच्चा या अधपका है, रसहीन है, दुर्गन्धयुक्त है, बांसा है, जूठन है और अपवित्र भी है वह भोजन तामसी लोग पसंद करते हैं।   
 
आगे कहा है  <blockquote>यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।</blockquote><blockquote>उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।</blockquote>अर्थ : जो भोजन कच्चा या अधपका है, रसहीन है, दुर्गन्धयुक्त है, बांसा है, जूठन है और अपवित्र भी है वह भोजन तामसी लोग पसंद करते हैं।   
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धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि में एलोपेथी जैसी रोग के लक्षणों को दूर करने के लिए चिकित्सा नहीं की जातीं। रोग मूल को दूर करने के लिए चिकित्सा होती है। जैसे किसी रोगी का सर दर्द कर रहा है। तो एलोपेथी का डोक्टर उसे पैरासीटेमोल देकर सर का दर्द दूर कर देगा। ऐसा करने से रोगी को तात्कालिक राहत तो मिलेगी। लेकिन मूल कारण जो पित्त प्रकोप हुआ है उस पित्तका निराकरण न होनेसे सरदर्द फिर कुछ समय के बाद होगा। धार्मिक (धार्मिक) वैद्य रोगी को दस प्रश्न पूछेगा। रोगी के उत्तरों से यह जानेगा कि सरदर्द का मूल कहाँ है। फिर उस रोगमूल का निराकरण करने के लिए औषधि देगा। ऐसी चिकित्सा कुछ धीमी होती है। जब रोग पुराना होगा तो और भी धीमी होती है।   
 
धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि में एलोपेथी जैसी रोग के लक्षणों को दूर करने के लिए चिकित्सा नहीं की जातीं। रोग मूल को दूर करने के लिए चिकित्सा होती है। जैसे किसी रोगी का सर दर्द कर रहा है। तो एलोपेथी का डोक्टर उसे पैरासीटेमोल देकर सर का दर्द दूर कर देगा। ऐसा करने से रोगी को तात्कालिक राहत तो मिलेगी। लेकिन मूल कारण जो पित्त प्रकोप हुआ है उस पित्तका निराकरण न होनेसे सरदर्द फिर कुछ समय के बाद होगा। धार्मिक (धार्मिक) वैद्य रोगी को दस प्रश्न पूछेगा। रोगी के उत्तरों से यह जानेगा कि सरदर्द का मूल कहाँ है। फिर उस रोगमूल का निराकरण करने के लिए औषधि देगा। ऐसी चिकित्सा कुछ धीमी होती है। जब रोग पुराना होगा तो और भी धीमी होती है।   
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लेकिन जीवन के वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण हुई जीवन की तेज गति के कारण अधिक समय तक धैर्य के साथ रोग का सामना करने के लिए लोगों के पास न तो समय है न धैर्य। जीवन की इस तेज गति के कारण मानव सुखी हो जाता है ऐसी बात नहीं है। वास्तव में यह तेज गति मनुष्य के शारिरीक, मानसिक और बौद्धिक रोगों में वृद्धि करती है। शीघ्र गति से रोग के लक्षण दूर करने की एलोपेथी में सुविधा होने के कारण भी वह एलोपेथी का चयन करता है। वैसे तो कोई भी अधिक काल तक बीमार रहना नहीं चाहता। लोगों के इसी अधैर्य का लाभ एलोपेथी के डॉक्टर उठाते हैं।  
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लेकिन जीवन के वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण हुई जीवन की तेज गति के कारण अधिक समय तक धैर्य के साथ रोग का सामना करने के लिए लोगोंं के पास न तो समय है न धैर्य। जीवन की इस तेज गति के कारण मानव सुखी हो जाता है ऐसी बात नहीं है। वास्तव में यह तेज गति मनुष्य के शारिरीक, मानसिक और बौद्धिक रोगों में वृद्धि करती है। शीघ्र गति से रोग के लक्षण दूर करने की एलोपेथी में सुविधा होने के कारण भी वह एलोपेथी का चयन करता है। वैसे तो कोई भी अधिक काल तक बीमार रहना नहीं चाहता। लोगोंं के इसी अधैर्य का लाभ एलोपेथी के डॉक्टर उठाते हैं।  
    
== अहिंसक रोग निवारण ==
 
== अहिंसक रोग निवारण ==
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धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि भी प्रकृति सुसंगतता का आदर करती है। ऊपर हमने देखा है कि किस प्रकार प्रकृति में उपलब्ध औषधि को सम्मान दिया जाता है। इस के साथ ही और भी एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। वनस्पति से छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते उतने ही लिए जाते हैं जितने की रोगी के रोग निवारण के लिए आवश्यकता होती है। उससे थोड़ा सा भी अधिक लेना वर्जित माना जाता है।   
 
धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि भी प्रकृति सुसंगतता का आदर करती है। ऊपर हमने देखा है कि किस प्रकार प्रकृति में उपलब्ध औषधि को सम्मान दिया जाता है। इस के साथ ही और भी एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। वनस्पति से छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते उतने ही लिए जाते हैं जितने की रोगी के रोग निवारण के लिए आवश्यकता होती है। उससे थोड़ा सा भी अधिक लेना वर्जित माना जाता है।   
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वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगों को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की देन ही है।   
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वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगोंं को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की देन ही है।   
    
शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें शायद ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है।
 
शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें शायद ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है।

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