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शास्त्र की व्याख्या हमने पहले जानी है। जब कोई ध्यानावस्था प्राप्त ऋषि ध्यानावस्था में लोकहित के लिए किसी विषय की प्रस्तुति करता है तब वह शास्त्र माना जाता है। विज्ञान केवल प्रकृति के नियमों की जानकारी देता है। शास्त्र, विज्ञान के साथ ही उसके कल्याणकारी उपयोग के लिए भी मार्गदर्शन करता है। स्वास्थ्य विज्ञान यह जानकारी होगा। जैसे शरीर विज्ञान याने (एनोटोमी) शरीर की रचना की, शरीर की विभिन्न प्रणालियों की जानकारी देगा। जब की स्वास्थ्य शास्त्र शरीर विज्ञान का उपयोग शरीर को स्वस्थ कैसे रखा जाता है इसकी भी जानकारी देगा।     
 
शास्त्र की व्याख्या हमने पहले जानी है। जब कोई ध्यानावस्था प्राप्त ऋषि ध्यानावस्था में लोकहित के लिए किसी विषय की प्रस्तुति करता है तब वह शास्त्र माना जाता है। विज्ञान केवल प्रकृति के नियमों की जानकारी देता है। शास्त्र, विज्ञान के साथ ही उसके कल्याणकारी उपयोग के लिए भी मार्गदर्शन करता है। स्वास्थ्य विज्ञान यह जानकारी होगा। जैसे शरीर विज्ञान याने (एनोटोमी) शरीर की रचना की, शरीर की विभिन्न प्रणालियों की जानकारी देगा। जब की स्वास्थ्य शास्त्र शरीर विज्ञान का उपयोग शरीर को स्वस्थ कैसे रखा जाता है इसकी भी जानकारी देगा।     
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इस दृष्टि से आयुर्वेद स्वास्थ्य शास्त्र है। जो शरीर विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, मनोविज्ञान, बुद्धि और चित्त के विज्ञानों की मदद से मानव के केवल शरीर ही नहीं मानव के पूरे व्यक्तित्व को याने शरीर, मन, बुद्धि और चित्त को स्वस्थ रखने के लिए मार्गदर्शन करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में एक शब्द का प्रयोग किया गया है। वह है “योगक्षेम”। योगक्षेम में दो शब्द हैं। एक है योग और दूसरा है क्षेम। योग का अर्थ है जो कमी है उसे पूरा करना। और क्षेम का अर्थ है कमी पूरी करने के बाद जो है उसकी रक्षा करना, उसका क्षरण नहीं होने देना। केवल आयुर्वेद ही नहीं सभी धार्मिक (धार्मिक) शास्त्रों में योगक्षेम का ही मार्गदर्शन मिलता है। सामान्यत: हर बालक जन्म से तो स्वस्थ ही होता है। आहार विहार की गलतियों न करे तो वह स्वस्थ ही रहेगा। इसलिए आयुर्वेद या धार्मिक (धार्मिक) स्वास्थ्य शास्त्र केवल रोग चिकित्सा का विषय नहीं है। रोग हो ही नहीं इस बात पर इसमें अधिक बल है। किसी अपरिहार्य परिस्थिति के कारण यदि स्वास्थ्य में कुछ दोष (रोग) निर्माण हो जाए तब ही चिकित्सा की आवश्यकता निर्माण होती है। इस दृष्टि से यह मूलत: धर्म का याने प्राकृतिक जीवन जीकर स्वास्थ्य के रक्षण करने का मार्गदर्शन है। रोग चिकित्सा और रोग निवारण तो इसमें आपद्धर्म के रूप में आते हैं। वर्तमान में “नेचरोपेथी” नाम से जो भी चलता है वह आयुर्वेद के ज्ञान को ही “नेचरोपेथी” के नाम से अपने नाम पर तथाकथित पश्चिमी विद्वानों द्वारा की हुई प्रस्तुति मात्र है।   
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इस दृष्टि से आयुर्वेद स्वास्थ्य शास्त्र है। जो शरीर विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, मनोविज्ञान, बुद्धि और चित्त के विज्ञानों की सहायता से मानव के केवल शरीर ही नहीं मानव के पूरे व्यक्तित्व को याने शरीर, मन, बुद्धि और चित्त को स्वस्थ रखने के लिए मार्गदर्शन करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में एक शब्द का प्रयोग किया गया है। वह है “योगक्षेम”। योगक्षेम में दो शब्द हैं। एक है योग और दूसरा है क्षेम। योग का अर्थ है जो कमी है उसे पूरा करना। और क्षेम का अर्थ है कमी पूरी करने के बाद जो है उसकी रक्षा करना, उसका क्षरण नहीं होने देना। केवल आयुर्वेद ही नहीं सभी धार्मिक (धार्मिक) शास्त्रों में योगक्षेम का ही मार्गदर्शन मिलता है। सामान्यत: हर बालक जन्म से तो स्वस्थ ही होता है। आहार विहार की गलतियों न करे तो वह स्वस्थ ही रहेगा। इसलिए आयुर्वेद या धार्मिक (धार्मिक) स्वास्थ्य शास्त्र केवल रोग चिकित्सा का विषय नहीं है। रोग हो ही नहीं इस बात पर इसमें अधिक बल है। किसी अपरिहार्य परिस्थिति के कारण यदि स्वास्थ्य में कुछ दोष (रोग) निर्माण हो जाए तब ही चिकित्सा की आवश्यकता निर्माण होती है। इस दृष्टि से यह मूलत: धर्म का याने प्राकृतिक जीवन जीकर स्वास्थ्य के रक्षण करने का मार्गदर्शन है। रोग चिकित्सा और रोग निवारण तो इसमें आपद्धर्म के रूप में आते हैं। वर्तमान में “नेचरोपेथी” नाम से जो भी चलता है वह आयुर्वेद के ज्ञान को ही “नेचरोपेथी” के नाम से अपने नाम पर तथाकथित पश्चिमी विद्वानों द्वारा की हुई प्रस्तुति मात्र है।   
    
वेबस्टर न्यू डिक्शनरी में “हील” के जो अर्थ दिए हैं, उसी में हेल्थ शब्द आता है। क्यों कि हेल्थ मूल शब्द नहीं है। वह हील से बना है। इसी लिए वह अलग नहीं दिया गया। हीलिंग का अर्थ है क्षति की पूर्ति करना। अर्थात् रोग को ठीक करना। कहने का तात्पर्य यह है कि पश्चिम की कल्पना में ही बिना किसी भी दवाई के सेवन के स्वास्थ्य रक्षण की संकल्पना नहीं है। इसीलिये एलोपेथी यह मात्र रोग निवारण का ही विषय है। रोग हो ही नहीं इस विचार से दूर है।   
 
वेबस्टर न्यू डिक्शनरी में “हील” के जो अर्थ दिए हैं, उसी में हेल्थ शब्द आता है। क्यों कि हेल्थ मूल शब्द नहीं है। वह हील से बना है। इसी लिए वह अलग नहीं दिया गया। हीलिंग का अर्थ है क्षति की पूर्ति करना। अर्थात् रोग को ठीक करना। कहने का तात्पर्य यह है कि पश्चिम की कल्पना में ही बिना किसी भी दवाई के सेवन के स्वास्थ्य रक्षण की संकल्पना नहीं है। इसीलिये एलोपेथी यह मात्र रोग निवारण का ही विषय है। रोग हो ही नहीं इस विचार से दूर है।   
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धार्मिक मान्यता के अनुसार परमात्मा ने अपने में से ही सृष्टि का निर्माण किया है। याने सृष्टि का हर अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है। इसे भारत में केवल तत्वज्ञान के तौर पर ही नहीं व्यवहार याने आचरण के लिए भी आग्रह का विषय बनाया गया है। इसीलिये वनस्पति से जब औषधि के लिए कुछ छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लिए जाते हैं तब उस वनस्पति को आदर से पूजा जाता है। वनस्पति की प्रार्थना की जाती है कि, "हे वनस्पति! मैं आपसे मेरे स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि किसी रोगी के दुःख को दूर करने के लिए आपके छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लेना चाहता हूँ। कृपया हम पर कृपा कर मुझे रोगी का रोग दूर करने में सहायता करें।"     
 
धार्मिक मान्यता के अनुसार परमात्मा ने अपने में से ही सृष्टि का निर्माण किया है। याने सृष्टि का हर अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है। इसे भारत में केवल तत्वज्ञान के तौर पर ही नहीं व्यवहार याने आचरण के लिए भी आग्रह का विषय बनाया गया है। इसीलिये वनस्पति से जब औषधि के लिए कुछ छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लिए जाते हैं तब उस वनस्पति को आदर से पूजा जाता है। वनस्पति की प्रार्थना की जाती है कि, "हे वनस्पति! मैं आपसे मेरे स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि किसी रोगी के दुःख को दूर करने के लिए आपके छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लेना चाहता हूँ। कृपया हम पर कृपा कर मुझे रोगी का रोग दूर करने में सहायता करें।"     
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सामान्यत: जब किसी अन्य से मदद माँगी जाती है, तब नम्रता से ही माँगी जाती है। जब कोई आपके माँगने पर प्रसन्नता से मदद करता है तब उस मदद का स्तर श्रेष्ठ होता है। मदद करनेवाला मन:पूर्वक मदद करता है। खुलकर मदद करता है। तब वह मदद आपके काम के लिए अधिक लाभप्रद होती है। भारत में सामान्यत: घर या कोई भी मकान बांधने से पूर्व इसीलिये भूमि-पूजन का कार्यक्रम किया जाता है। यह भूमि को और उस भूमि के सहारे जीनेवाले जीव, सूक्ष्मजीव और वनस्पतियों को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। वनस्पति भी जीव होते हैं। इसलिए आयुर्वेद कहता है कि ऐसी आदर से माँगकर ली हुई औषधि अधिक गुणकारी होती है।     
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सामान्यत: जब किसी अन्य से सहायता माँगी जाती है, तब नम्रता से ही माँगी जाती है। जब कोई आपके माँगने पर प्रसन्नता से सहायता करता है तब उस सहायता का स्तर श्रेष्ठ होता है। सहायता करनेवाला मन:पूर्वक सहायता करता है। खुलकर सहायता करता है। तब वह सहायता आपके काम के लिए अधिक लाभप्रद होती है। भारत में सामान्यत: घर या कोई भी मकान बांधने से पूर्व इसीलिये भूमि-पूजन का कार्यक्रम किया जाता है। यह भूमि को और उस भूमि के सहारे जीनेवाले जीव, सूक्ष्मजीव और वनस्पतियों को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। वनस्पति भी जीव होते हैं। इसलिए आयुर्वेद कहता है कि ऐसी आदर से माँगकर ली हुई औषधि अधिक गुणकारी होती है।     
    
आयुर्वेद में स्वास्थ्य का तीन प्रकार से विचार किया जाता है। सत्कार्यवाद, गुणपरिणामवाद और सहकार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य के गुण सूक्ष्म रूप में कारण में होते ही हैं, ऐसा कहा गया है। सांख्य दर्शन में यही कार्य कारण सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। गुणपरिणामवाद में कुछ गुण तो दृष्ट याने सहज दिखाई देनेवाले होते हैं। लेकिन कुछ सूक्ष्म होने से अदृष्ट होते हैं। ये अदृष्ट गुण किसी विशेष प्रक्रिया में ही प्रकट होते हैं। इस अदृष्ट गुणों के प्रकट होकर दृष्ट होने की प्रक्रिया को ही गुणपरिणामवाद कहा है। हर द्रव्य के गुणों में त्रिगुणों में से की एक एक की मात्रा का प्रमाण भिन्न होता है। इस भिन्न परिमाण के कारण ही प्रत्येक द्रव्य में विविधता होती है। गुणपरिणामवाद में जिस प्रकार से गुणों की समानता के उपरांत भी विविधता होती है, इसके बराबर विपरीत सहकार्यवाद प्रत्येक द्रव्य की अन्यों से विविधता की ओर से हमें एकत्व की ओर ले जाता है।   
 
आयुर्वेद में स्वास्थ्य का तीन प्रकार से विचार किया जाता है। सत्कार्यवाद, गुणपरिणामवाद और सहकार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य के गुण सूक्ष्म रूप में कारण में होते ही हैं, ऐसा कहा गया है। सांख्य दर्शन में यही कार्य कारण सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। गुणपरिणामवाद में कुछ गुण तो दृष्ट याने सहज दिखाई देनेवाले होते हैं। लेकिन कुछ सूक्ष्म होने से अदृष्ट होते हैं। ये अदृष्ट गुण किसी विशेष प्रक्रिया में ही प्रकट होते हैं। इस अदृष्ट गुणों के प्रकट होकर दृष्ट होने की प्रक्रिया को ही गुणपरिणामवाद कहा है। हर द्रव्य के गुणों में त्रिगुणों में से की एक एक की मात्रा का प्रमाण भिन्न होता है। इस भिन्न परिमाण के कारण ही प्रत्येक द्रव्य में विविधता होती है। गुणपरिणामवाद में जिस प्रकार से गुणों की समानता के उपरांत भी विविधता होती है, इसके बराबर विपरीत सहकार्यवाद प्रत्येक द्रव्य की अन्यों से विविधता की ओर से हमें एकत्व की ओर ले जाता है।   

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