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वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
 
वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
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वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या धार्मिक (भारतीय) समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुद्धू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
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वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या धार्मिक (भारतीय) समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृद्धि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुद्धू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
    
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगोंं ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।   
 
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगोंं ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।   
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हिंदू समाज को ऐसा बनाने में सबसे बडा कारण विपरीत शिक्षा है। विदेशी मुस्लिम शासन के काल में शासित होने के उपरांत भी हिंदू अपने को मुसलमान से श्रेष्ठ ही मानता रहा। किंतु अंग्रेजी शासन ने इस स्थिति को बदल दिया। विशेषत: अंग्रेजी शिक्षा ने धार्मिक (भारतीय) समाज को आत्मनिंदाग्रस्त बना दिया, इसे स्वत्वहीन बना दिया। पश्चिम का अंधा अनुगामी बना दिया।   
 
हिंदू समाज को ऐसा बनाने में सबसे बडा कारण विपरीत शिक्षा है। विदेशी मुस्लिम शासन के काल में शासित होने के उपरांत भी हिंदू अपने को मुसलमान से श्रेष्ठ ही मानता रहा। किंतु अंग्रेजी शासन ने इस स्थिति को बदल दिया। विशेषत: अंग्रेजी शिक्षा ने धार्मिक (भारतीय) समाज को आत्मनिंदाग्रस्त बना दिया, इसे स्वत्वहीन बना दिया। पश्चिम का अंधा अनुगामी बना दिया।   
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स्वामी विवेकानंदजीने वर्तमान शिक्षा के बारे में कहा था - टुडेज एज्युकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इट इज टॉट हाऊ टु थिंक (Today's education is all wrong. Mind is crammed with facts before it is taught how to think.)। यानी वर्तमान शिक्षा पूरी गलत है। मन को ‘विचार कैसे किया जाता है’ यह सिखाये बिना ही जानकारी ठूँस ठूँस कर दिमाग में भर दी जाती है। लोकतंत्र के संबंध में उपर बताई वैचारिक धांधली का शायद यही कारण है।   
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स्वामी विवेकानंदजीने वर्तमान शिक्षा के बारे में कहा था - टुडेज एज्युकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इट इज टॉट हाऊ टु थिंक (Today's education is all wrong. Mind is crammed with facts before it is taught how to think.)। यानी वर्तमान शिक्षा पूरी गलत है। मन को ‘विचार कैसे किया जाता है’ यह सिखाये बिना ही जानकारी ठूँस ठूँस कर दिमाग में भर दी जाती है। लोकतंत्र के संबंध में उपर बताई वैचारिक धांधली का संभवतः यही कारण है।   
 
* भारतीय मान्यता यह है की प्रजा ने किये पुण्यों का फल जैसे राजा को अनायास ही मिलता है, उसी प्रकार से प्रजा ने किये पापों का फल शासक को भुगतना पडता है।  
 
* भारतीय मान्यता यह है की प्रजा ने किये पुण्यों का फल जैसे राजा को अनायास ही मिलता है, उसी प्रकार से प्रजा ने किये पापों का फल शासक को भुगतना पडता है।  
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# प्रत्याशी लोगोंं को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगोंं के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।
 
# प्रत्याशी लोगोंं को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगोंं के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।
 
# चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुद्धिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगोंं को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
 
# चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुद्धिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगोंं को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
# कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था धार्मिक (भारतीय) राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
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# कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था धार्मिक (भारतीय) राज-कुटुम्ब अपने बच्चोंं के लिये करते थे। वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
    
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
 
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
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धर्मराज्य को हम आज की भाषा में संवैधानिक शासन कह सकते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन में संविधान बनानेवाले लोग कौन हैं यह महत्त्वपूर्ण है। धर्म के सिद्धांत समाधि अवस्था प्राप्त लोगोंं ने तय किये हुए हैं। वे काल की कसौटीपर भी खरे उतरे हैं। ऐसे धर्म के तत्त्वोंपर आधारित संविधान के अनुसार चलनेवाला शासन धर्मराज्य ही होगा। धर्मविरोधी शासक को बदलने का अधिकार प्रजा को होता है। लेकिन धर्माधिष्ठित शासन चलाने वाले शासक को हटाने का अधिकार प्रजा को नहीं होता। धर्म के अनुसार आचरण करना यह प्रजा का धर्म है। राजा को हटाना यह प्रजा का धर्म नहीं है। लेकिन जब प्रजा के धर्म पालन में राजा अवरोध बनता है तब राजा को हटाना प्रजा का धर्म बन जाता है।  
 
धर्मराज्य को हम आज की भाषा में संवैधानिक शासन कह सकते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन में संविधान बनानेवाले लोग कौन हैं यह महत्त्वपूर्ण है। धर्म के सिद्धांत समाधि अवस्था प्राप्त लोगोंं ने तय किये हुए हैं। वे काल की कसौटीपर भी खरे उतरे हैं। ऐसे धर्म के तत्त्वोंपर आधारित संविधान के अनुसार चलनेवाला शासन धर्मराज्य ही होगा। धर्मविरोधी शासक को बदलने का अधिकार प्रजा को होता है। लेकिन धर्माधिष्ठित शासन चलाने वाले शासक को हटाने का अधिकार प्रजा को नहीं होता। धर्म के अनुसार आचरण करना यह प्रजा का धर्म है। राजा को हटाना यह प्रजा का धर्म नहीं है। लेकिन जब प्रजा के धर्म पालन में राजा अवरोध बनता है तब राजा को हटाना प्रजा का धर्म बन जाता है।  
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वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिद्धांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
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वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार संभवतः बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिद्धांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चोंं के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
    
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगोंं का लोगोंं के हित में लोगोंंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगोंं के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
 
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगोंं का लोगोंं के हित में लोगोंंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगोंं के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  

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