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वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। अतः यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।
 
वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। अतः यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।
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इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।
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इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह संभवतः इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।
 
[[File:Part 2 Chapter 3 Table.jpg|center|thumb|720x720px]]
 
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# अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग पूर्ण रूप से करना चाहिये।  
 
# अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग पूर्ण रूप से करना चाहिये।  
 
# अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग मानवीय क्षमताओं को हानि ना होते हुए यथासंभव वर्तमान न्यूनतम से भी कम करते जाना।  
 
# अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग मानवीय क्षमताओं को हानि ना होते हुए यथासंभव वर्तमान न्यूनतम से भी कम करते जाना।  
# अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों को बिगाडनेवाली अर्थात् उपयोग के बाद जो प्रकृति में घुलती नहीं है या घुलने को बहुत अधिक समय लेती है ऐसी वस्तुओं का शौक नहीं करना। जैसे प्लास्टिक की वस्तू आदि।  
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# अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों को बिगाड़नेवाली अर्थात् उपयोग के बाद जो प्रकृति में घुलती नहीं है या घुलने को बहुत अधिक समय लेती है ऐसी वस्तुओं का शौक नहीं करना। जैसे प्लास्टिक की वस्तू आदि।  
 
# नविकरणीय पदार्थों के पुनर्भरण के और लकड़ी जैसे संसाधन के (जंगल क्षेत्र) या भूमिजल के विस्तार के लिये प्रयास करते रहना और ऐसे प्रयास बढाते जाना। तेजी से घटा रहे जंगल आच्छादन को रोकना और बढाने के प्रयास करना।   
 
# नविकरणीय पदार्थों के पुनर्भरण के और लकड़ी जैसे संसाधन के (जंगल क्षेत्र) या भूमिजल के विस्तार के लिये प्रयास करते रहना और ऐसे प्रयास बढाते जाना। तेजी से घटा रहे जंगल आच्छादन को रोकना और बढाने के प्रयास करना।   
 
उपर्युक्त बातें लोग स्वयं प्रेरणा से करें, ऐसे संस्कार घरों-परिवारों में देना और उस के शास्त्रीय शिक्षण और प्रशिक्षण को शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाना। इसके उपरांत भी जो लोग स्वयं प्रेरणा से ऐसा नहीं करते उन्हें दण्डित करना।  
 
उपर्युक्त बातें लोग स्वयं प्रेरणा से करें, ऐसे संस्कार घरों-परिवारों में देना और उस के शास्त्रीय शिक्षण और प्रशिक्षण को शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाना। इसके उपरांत भी जो लोग स्वयं प्रेरणा से ऐसा नहीं करते उन्हें दण्डित करना।  
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# दिखाऊ नहीं टिकाऊ पर बल। संसाधनों का संपूर्ण / पुन: पुन: उपयोग करें। शोषण न करने की दृष्टि।  
 
# दिखाऊ नहीं टिकाऊ पर बल। संसाधनों का संपूर्ण / पुन: पुन: उपयोग करें। शोषण न करने की दृष्टि।  
 
# अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना।  
 
# अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना।  
# सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष। इन का विश्लेषण हम [[Bharat's Science and Technology (भारतीय विज्ञान तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस]] अध्याय में देखेंगे। यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है। सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो। ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है।  
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# सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष। इन का विश्लेषण हम [[Bharat's Science and Technology (भारतीय [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस]] अध्याय में देखेंगे। यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है। सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो। ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है।  
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# [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|इस लेख]] को भी देखें।
    
=== ग्राम धर्म ===
 
=== ग्राम धर्म ===
# ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/ विज्ञान / तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगोंं यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भाव से होती है।  
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# ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/ [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] / तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगोंं यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भाव से होती है।  
 
# ग्राम के सभी लोगोंं का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।  
 
# ग्राम के सभी लोगोंं का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।  
 
# किसी पर भी अन्याय न हो। सुख शांति से जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।  
 
# किसी पर भी अन्याय न हो। सुख शांति से जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।  
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# ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। अतः अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है।  
 
# ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। अतः अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है।  
 
# अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना।  
 
# अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना।  
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# [[Grama Kul (ग्रामकुल)|इस लेख]] को भी देखें।
    
=== कौशल विधा (जाति) धर्म ===
 
=== कौशल विधा (जाति) धर्म ===
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# कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना। किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना। कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना।  
 
# कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना। किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना। कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना।  
 
# अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना।  
 
# अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना।  
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# [[Jaati System (जाति व्यवस्था)|इस लेख]] को भी देखें। 
    
=== राष्ट्र धर्म ===
 
=== राष्ट्र धर्म ===
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# जन (आबादी), धन, सत्ता और उत्पादन का विकेंद्रीकरण।  
 
# जन (आबादी), धन, सत्ता और उत्पादन का विकेंद्रीकरण।  
 
# अधिकतम कर निर्धारण १६ प्रतिशत हो।  
 
# अधिकतम कर निर्धारण १६ प्रतिशत हो।  
# राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए निम्न व्यवस्थाओं का निर्माण करना:
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# राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए निम्न व्यवस्थाओं का निर्माण करना  
 
## पोषण व्यवस्था  
 
## पोषण व्यवस्था  
 
## रक्षण व्यवस्था  
 
## रक्षण व्यवस्था  
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समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगोंं को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
 
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगोंं को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगोंं को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। अतः यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। अतः हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगोंं को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। अतः यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]], कौशल विधा याने [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। अतः हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
# कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
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# कुटुम्ब व्यवस्था, [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]], कौशल विधा याने [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
 
## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
 
## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
 
## स्थान स्थान पर इनके अस्थाई अध्ययन और मार्गदर्शन के लिए केन्द्र निर्माण करने होंगे। इन केन्द्रों के माध्यम से लोकमत परिष्कार करना होगा।
 
## स्थान स्थान पर इनके अस्थाई अध्ययन और मार्गदर्शन के लिए केन्द्र निर्माण करने होंगे। इन केन्द्रों के माध्यम से लोकमत परिष्कार करना होगा।

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