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किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामूहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृध्दि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। इसलिए उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।  
 
किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामूहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृध्दि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। इसलिए उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।  
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भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स: धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2 </ref> - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृध्दि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।  
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भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स: धर्म:<ref>वैशेषिक दर्शन 1.1.2 </ref> - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृध्दि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।  
    
व्यक्ति के स्तर पर इस लक्ष्य को ‘मोक्ष’ कहते हैं। सामाजिक स्तर पर यह लक्ष्य ‘स्वतंत्रता” होता है। और सृष्टी के स्तर पर यह लक्ष्य ‘धर्माचरण’ का होता है।  
 
व्यक्ति के स्तर पर इस लक्ष्य को ‘मोक्ष’ कहते हैं। सामाजिक स्तर पर यह लक्ष्य ‘स्वतंत्रता” होता है। और सृष्टी के स्तर पर यह लक्ष्य ‘धर्माचरण’ का होता है।  
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भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देश्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।  
 
भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देश्य तो बुध्दिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजीने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बन सकती है। समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे।  
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पध्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पध्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
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किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पद्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं तो जो मेरी पूजा पद्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौति दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
    
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
 
समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्हों ने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
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पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।
 
पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।
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साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि की अभौतिक बातों का महत्व ही ख़तम हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्व ख़तम हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोइ रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।  
 
साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि की अभौतिक बातों का महत्व ही ख़तम हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्व ख़तम हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोइ रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।  
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जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात जरूर करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना इस विषय में नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षोंतक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए ? बलवान होते ही आक्रमण करनेवालों की संस्कृति जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये उस समाज से अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढाया जाने वाला इतिहास हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे यह बताने वाला, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। ' गुप्तकाल एक स्वर्णयुग ' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में १८ वीं सदीतक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था यह सिध्द हुआ है। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढलिखकर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास हीं है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिध्द होता है।  
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जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात जरूर करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना इस विषय में नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षोंतक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए ? बलवान होते ही आक्रमण करनेवालों की संस्कृति जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये उस समाज से अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढाया जाने वाला इतिहास हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे यह बताने वाला, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। ' गुप्तकाल एक स्वर्णयुग ' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में १८ वीं सदीतक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था यह सिद्ध हुआ है। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढलिखकर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास हीं है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिद्ध होता है।  
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महाविद्यालयीन शिक्षा के क्षेत्र में तो लगभग १०० प्रतिशत पश्चिम का अंधानुकरण होता दिखाई देता है। हजारों वर्षों तक विश्व में अग्रणी रहे भारत में समाजशास्त्र, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, शिक्षणशास्त्र आदि शास्त्र यह अत्यंत प्रगत अवस्था में थे। पाश्चात्य शास्त्रों का तो जन्म पिछले २५०-३०० वर्षों का है। इस लिये उन का अधूरा होना स्वाभाविक ही है। किंतु हमारी मानसिक और बौद्धिक दासता के कारण हम कालसिध्द भारतीय शास्त्रों का विचार छोड केवल पश्चिमी (अधूरी) ज्ञानधारा की शिक्षा को ही शिक्षा मान रहे है। वास्तव में स्वाधीनता के बाद पूरी शक्ति के साथ हमने अपने शास्त्रों का व्यावहारिक दृष्टि से अध्ययन और अनुसंधान करने की आवश्यकता थी। लेकिन इसका विचार आज ७० वर्ष के उपरांत भी होता दिखाई नहीं दे रहा। स्वाधीनता के बाद हमारे शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्धारक यूनेस्को से मार्गदर्शन लेनेवाले ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् ‘ में श्रध्दा रखने वाले राजकीय नेताओं से मार्गदर्शन लेकर शिक्षा के निर्माण में लगे हैं।
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महाविद्यालयीन शिक्षा के क्षेत्र में तो लगभग १०० प्रतिशत पश्चिम का अंधानुकरण होता दिखाई देता है। हजारों वर्षों तक विश्व में अग्रणी रहे भारत में समाजशास्त्र, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, शिक्षणशास्त्र आदि शास्त्र यह अत्यंत प्रगत अवस्था में थे। पाश्चात्य शास्त्रों का तो जन्म पिछले २५०-३०० वर्षों का है। इस लिये उन का अधूरा होना स्वाभाविक ही है। किंतु हमारी मानसिक और बौद्धिक दासता के कारण हम कालसिद्ध भारतीय शास्त्रों का विचार छोड केवल पश्चिमी (अधूरी) ज्ञानधारा की शिक्षा को ही शिक्षा मान रहे है। वास्तव में स्वाधीनता के बाद पूरी शक्ति के साथ हमने अपने शास्त्रों का व्यावहारिक दृष्टि से अध्ययन और अनुसंधान करने की आवश्यकता थी। लेकिन इसका विचार आज ७० वर्ष के उपरांत भी होता दिखाई नहीं दे रहा। स्वाधीनता के बाद हमारे शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्धारक यूनेस्को से मार्गदर्शन लेने वाले ' साहेब वाक्यं प्रमाणम् ‘ में श्रध्दा रखने वाले राजकीय नेताओं से मार्गदर्शन लेकर शिक्षा के निर्माण में लगे हैं।
    
== भारतीय दृष्टि पर आधारित विषयवस्तु निर्धारण के मार्गदर्शक तत्व ==
 
== भारतीय दृष्टि पर आधारित विषयवस्तु निर्धारण के मार्गदर्शक तत्व ==
१. विषय के अध्ययन, अध्यापन का लक्ष्य मोक्ष है। जब जीवन का लक्ष्य मोक्ष है तो शिक्षा का लक्ष्य उससे भिन्न नहीं हो सकता। और जब शिक्षा का लक्ष्य मोक्ष या सा विद्या या विमुक्तये है तब किसी भी विषय के अध्ययन अध्यापन का लक्ष्य भी मोक्ष ही है।
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# विषय के अध्ययन, अध्यापन का लक्ष्य मोक्ष है। जब जीवन का लक्ष्य मोक्ष है तो शिक्षा का लक्ष्य उससे भिन्न नहीं हो सकता। और जब शिक्षा का लक्ष्य मोक्ष या सा विद्या या विमुक्तये है तब किसी भी विषय के अध्ययन अध्यापन का लक्ष्य भी मोक्ष ही है।
२. विषयों का आधार भारतीय जीवनदृष्टि याने चराचर में व्याप्त एकात्मता और वैश्विक समग्रता होंगे। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है। प्रत्येक विषय की विषयवस्तु सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत रहे।
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# विषयों का आधार भारतीय जीवनदृष्टि याने चराचर में व्याप्त एकात्मता और वैश्विक समग्रता होंगे। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है। प्रत्येक विषय की विषयवस्तु सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत रहे।
३. जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ प्रत्येक विषय का अंगांगी संबंध है। यह अंगांगी संबंध विषयवस्तु में स्पष्ट होना चाहिए।
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# जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ प्रत्येक विषय का अंगांगी संबंध है। यह अंगांगी संबंध विषयवस्तु में स्पष्ट होना चाहिए।
४. भारत के उज्वल इतिहास और इतिहास दृष्टि के आधार पर प्रत्येक विषय के विकास की जानकारी और उससे प्रेरणा मिले।
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# भारत के उज्वल इतिहास और इतिहास दृष्टि के आधार पर प्रत्येक विषय के विकास की जानकारी और उससे प्रेरणा मिले।
५. हर वस्तु के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इसी तरह से हर विषय की विषयवस्तु का भी जीवन में और जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए।  
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# हर वस्तु के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इसी तरह से हर विषय की विषयवस्तु का भी जीवन में और जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए।
६. १५ वर्ष की आयुतक बच्चे के ज्ञानार्जन के करणों (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय और अंत:करण चतुष्टय) के विकास की दृष्टि से विषय और विषयवस्तु रहे।  
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# १५ वर्ष की आयुतक बच्चे के ज्ञानार्जन के करणों (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय और अंत:करण चतुष्टय) के विकास की दृष्टि से विषय और विषयवस्तु रहे।
७. शिक्षा यह आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। इस दृष्टि से कुटुंब शिक्षा की योजना और क्रियान्वयन नितांत आवश्यक है।  
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# शिक्षा यह आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। इस दृष्टि से कुटुंब शिक्षा की योजना और क्रियान्वयन नितांत आवश्यक है।
८. भारतीय दृष्टि से विचार कैसे किया जाता है ? इसकी शिक्षा भी आवश्यक है।  
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# भारतीय दृष्टि से विचार कैसे किया जाता है ? इसकी शिक्षा भी आवश्यक है।
९. शिक्षा सर्वप्रथम अध्यात्मनिष्ठ हो, फिर विज्ञाननिष्ठ हो और भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ में साईंस निष्ठ हो।
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# शिक्षा सर्वप्रथम अध्यात्मनिष्ठ हो, फिर विज्ञाननिष्ठ हो और भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ में साईंस निष्ठ हो।
१०. अन्य सामान्य तत्व निम्न हैं।
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# अन्य सामान्य तत्व निम्न हैं:
- प्रत्यक्ष से कल्पना की ओर या मूर्त से अमूर्त की ओर या परिचित से अपरिचित की ओर  
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#* प्रत्यक्ष से कल्पना की ओर या मूर्त से अमूर्त की ओर या परिचित से अपरिचित की ओर
- स्थूल से सूक्ष्म की ओर  
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#* स्थूल से सूक्ष्म की ओर
- सरल से कठिन/जटिल की ओर  
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#* सरल से कठिन/जटिल की ओर
- आयु की अवस्था के अनुसार भावना, इच्छा या विचार और क्रिया तीनों के विकास के लिए
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#* आयु की अवस्था के अनुसार भावना, इच्छा या विचार और क्रिया तीनों के विकास के लिए
- आनंददायक से दु:खदायक की ओर  
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#* आनंददायक से दु:खदायक की ओर
- श्रेष्ठ स्त्री और श्रेष्ठ पुरुष निर्माण के लिए  
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#* श्रेष्ठ स्त्री और श्रेष्ठ पुरुष निर्माण के लिए
- सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधार पर करणीय अकरणीय विवेक से विचार कैसे करना चाहिये
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#* सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधार पर करणीय अकरणीय विवेक से विचार कैसे करना चाहिये
    
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
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