Dharmik Dinacharya (धार्मिक दिनचर्या)

From Dharmawiki
Revision as of 14:21, 3 April 2023 by AnuragV (talk | contribs)
Jump to navigation Jump to search

सनातन धर्म में भारतीय जीवन पद्धति क्रमबद्ध और नियन्त्रित है। इसकी क्रमबद्धता और नियन्त्रित जीवन पद्धति ही दीर्घायु, प्रबलता, अपूर्व ज्ञानत्व, अद्भुत प्रतिभा एवं अतीन्द्रिय शक्ति का कारण रही है। ऋषिकृत दिनचर्या व्यवस्था का शास्त्रीय, व्यावहारिक एवं सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक अनुशासन भारतीय जीवनचर्या में देखा जाता है। जो अपना सर्वविध कल्याण चाहते हैं उन्हैं शास्त्रकी विधिके अनुसार अपनी दैनिकचर्या बनानी चाहिए। दिनचर्या का धर्म से सम्बन्ध एवं गहरी चिंतन की प्रक्रिया में आध्यात्मिकता की भूमिका का महत्वपूर्ण योगदान है।

परिचय

दिनचर्या नित्य कर्मों की एक क्रमबद्ध शृंघला है। जिसका प्रत्येक अंग अन्त्यत महत्त्वपूर्ण है और क्रमशः दैनिककर्मों को किया जाता है। दिनचर्या के अनेक बिन्दु नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में प्राप्त होते हैं।

प्रकृति के प्रभाव को शरीर और वातावरण पर देखते हुये दिनचर्या के लिये समय का उपयोग आगे पीछे किया जाता है। धर्म और योग की दृष्टि से दिन का शुभारम्भ उषःकाल से होता है। इस व्यवस्था को आयुर्वेद और ज्योतिषशास्त्र भी स्वीकार करते हैं। चौबीस घण्टे का समय ऋषिगण सुव्यवस्थित ढंग से व्यतीत करने को कहते हैं। संक्षिप्त दृष्टि से इस काल को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं-

  • ब्राह्ममुहूर्त+प्रातःकाल= प्रायशः ३,४, बजे रात्रि से ६, ७ बजे प्रातः तक। संध्यावन्दन, देवतापूजन एवं प्रातर्वैश्वदेव।
  • प्रातःकाल+संगवकाल= प्रायशः ६, ७ बजे से ९, १० बजे दिन तक। उपजीविका के साधन।
  • संगवकाल+पूर्वाह्णकाल= प्रायशः ९, १० बजे से १२ बजे तक।
  • मध्याह्नकाल+अपराह्णकाल= प्रायशः १२ बजे से ३ बजे तक।
  • अपराह्णकाल+सायाह्नकाल= प्रायशः ३ बजे से ६, ७ बजे तक।
  • पूर्वरात्रि काल= प्रायशः ६, ७ रात्रि से ९, १० बजे तक।
  • शयन काल(दो याम, ६घण्टा)= ९, १० रात्रि से ३, ४ बजे भोर तक।

भारत वर्ष में ऋतुओं के अनुसार दिनचर्या में बदलाव होता रहता है। भारत वर्षं में ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल मे प्रातः एवं सायंकाल का समय व्यावहारिक जगत् मेँ प्रायशः एक घण्टा बढ़ जाता है या एक घण्टा घट जाता हे। अधेरा ओर प्रकाश का फैलाव प्रातःसायं काल को व्यावहारिक जगत् में थोडा-सा अन्तरित कर देता है।

परिभाषा

प्रातः काल उठने से लेकर रात को सोने तक किए गए कृत्यों को एकत्रित रूप से दिनचर्या कहते हैं। आयुर्वेद एवं नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में दिनचर्या की परिभाषा इस प्रकार की गई है-

प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या। (इन्दू) दिने-दिने चर्या दिनस्य वा चर्या दिनचर्या, चरणचर्या।(अ०हृ०सू०)

अर्थ- अर्थ- प्रतिदिन करने योग्य चर्या को दिनचर्या कहा जाता है।

दिनचर्याके समानार्थी शब्द- आह्निक, दैनिक कर्म एवं नित्यकर्म आदि।

दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण

इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।

आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं?

धनके लिये क्या करना है ?

शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ?

यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?

एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची-बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये। जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।[1]

धार्मिक दिनचर्या के विषयविभाग॥ Guidelines on different aspects of Dinacharya

सम्पूर्ण मानव जीवन स्वस्थ रहे, उसे कोई भी विकार न हों, इस दृष्टि से दिनचर्या पर विचार किया जाता है।

दिनचर्या प्रकृति के नियमों के अनुसार हो, तो उन कृत्यों से मानव को कष्ट नहीं वरन् लाभ ही होता है। कोई व्यक्ति दिनभर में क्या आहार-विहार करता है, कौन-कौन से कृत्य करता है, इस पर उसका स्वास्थ्य निर्भर करता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दिनचर्या महत्त्वपूर्ण है। पशु-पक्षी भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं।

इसलिए प्रकृति के नियमों के अनुसार (धर्म द्वारा बताए अनुसार) आचरण करना आवश्यक है। जिसमें की धार्मिकदिनचर्या के विषयविभाग निम्नलिखित हैं-

ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta

प्रातः जागरण॥ Time of getting up in the morning

करदर्शन॥ Kar Darshana

भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana

मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana

अभिवादन॥ Abhivadana

अजपाजप॥ Ajapajapa

उषा काल॥ Ushakala

शौचाचार॥ Shouchara

दन्तधावन एवं मुखप्रक्षालन॥ Dantadhavana Evam Mukhaprakshalana

व्यायाम॥ Vyayama

तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga

क्षौर॥ Kshaura

स्नान॥ Snana

वस्त्रपरिधान॥ vastra paridhana

पूजाविधान॥ pujavidhana

योगसाधना॥ yoga sadhana

यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana

तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana

संध्योपासना-आराधना॥ Sandhyopasana- Aradhana

तर्पण॥ Tarpana

पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayagya

भोजन॥ Bhojana

लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika

संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya

शयनविधि॥ Shayana Vidhi

दिनचर्या के विभाग

ब्राह्ममुहूर्ते उत्तिष्ठेत्‌। कुर्यान्‌ मूत्रं पुरीषं च। शौचं कुर्याद्‌ अतद्धितः। दन्तस्य धावनं कुयात्‌।

प्रातः स्नानं समाचरेत्‌। तर्पयेत्‌ तीर्थदेवताः। ततश्च वाससी शुद्धे। उत्तरीय सदा धार्यम्‌।

ततश्च तिलकं कुर्यात्‌। प्राणायामं ततः कृत्वा संध्या-वन्दनमाचरेत्‌॥ विष्णुपूजनमाचरेत्‌॥

अतिथिंश्च प्रपूजयेत्‌। ततो भूतबलिं कुर्यात्‌। ततश्च भोजनं कुर्यात्‌ प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।

शोधयेन्मुखहस्तौ च। ततस्ताम्बूलभक्षणम्‌। व्यवहारं ततः कुर्याद्‌ बहिर्गत्वा यथासुखम्‌॥

वेदाभ्यासेन तौ नयेत्‌। गोधूलौ धर्मं चिन्तयेत्‌। कृतपादादिशौचस्तुभुक्त्वा सायं ततो गृही॥

यामद्वयंशयानो हि ब्रह्मभूयाय कल्यते॥प्राक्शिराः शयनं कुर्यात्‌। न कदाचिदुदक्‌ शिराः॥

दक्षिणशिराः वा। रात्रिसूक्तं जपेत्स्मृत्वा। वैदिकैर्गारुडैर्मन्त्रे रक्षां कृत्वा स्वपेत्‌ ततः॥

नमस्कृत्वाऽव्ययं विष्णुं समाधिस्थं स्वपेन्निशि। माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं च शिरःस्थाने निधाय च।

ऋतुकालाभिगामीस्यात्‌ स्वदारनिरतः सदा।अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्‌।

शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥[2]

अर्थ- ब्राह्म मुहूर्तं मे जागना चाहिए, मूत्र-मल का विसर्जन, शुद्धि, दन्तधावन, स्नान, तर्पण, शुद्ध- पवित्र वस्त्र, तिलक, प्राणायाम- संध्यावन्दन, देव पूजा, अतिथि सत्कार, गोग्रास एवं जीवों को भोजन, पूर्वमुख मौन होकर भोजन, भोजन कर मुख ओर हाथ धोयें, ताम्बूल भक्षण, स्व-कार्य(जीविका हेतु), प्रातःसायं संध्या के पश्चात् वेद अध्ययन, धर्म चिन्तन, वैश्वदेव, हाथपैरधोकर भोजन, दोयाम (छःघण्टा) शयन, पानीपीने हेतु सिर की ओर पूर्णकुम्भ, ऋतुकाल (चतुर्थरात्रि से सोलहरात्रि) में पत्नी गमन आदि भारतीय जीवन पद्धति का यही सुव्यवस्थित पवित्र वैदिक एवं आयुर्वर्धक क्रम ब्रह्मपुराण मे दिया हआ है। इसे आलस्य, उपेक्षा, नास्तिकता या शरीर सुख मोह के कारण नहीं तोडना चाहिये।

दिनचर्या कब, कितनी ?

दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हैं। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। ऐसे लोगों को दृढव्रत कहते हैं। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है। यह शास्त्रों का आदेश है -

मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्‌॥ (कात्यायनस्मृतिः,९,९८/२)

प्रवास में भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिए। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा में दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-

स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥ (ब्रह्माण्डपुराण)

दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या

इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं। उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार और निद्रा मनुष्येतर प्राणियों को पृथ्वी पर अभीष्ट हैं। मनुष्य आहार और निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजित) बनता है। यही भारतीय जीवन पद्धति की प्राधान्यता है।[3]

धार्मिक दिनचर्या का महत्व

व्यक्ति चाहे जितना भी दीर्घायुष्य क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), नैमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्ति हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-

अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात्‌ सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)

अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसंगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायंकृत्य करके रात्रि में भोजन-शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है -

सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्‌। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)

उषः काल में जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायंकाल में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वाञ्छित कार्य पूर्ण कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति को महान्‌ बनाती है। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या में अनुशासित नहीं हैं वह दीर्घजीवन में यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।

महर्षि चरकप्रोक्त दिनचर्या

आयुर्वेद दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार-विहार को निर्देशित करके स्वास्थ्य हेतु शुभ एवं कल्याणकारी पथ दिखलाता है। आयुर्वेद की परम्परा वेद से आरम्भ होने के कारण अत्यन्त प्राचीन है। आयुर्वेद से उपदिष्ट मार्ग पर चलता हआ व्यक्ति यदि तपस्वी हो तो शतायु की सीमाओं को भी लाँघ जाता है। तपस्या, आत्मनियन्त्रण, सम्यक् चर्या और आहार-विहार से व्यक्ति इच्छित आयु प्राप्त कर लेता हे। मुनिप्रवर व्यासजी ने कहा है-

पुरुषाः सर्वसिद्धाश्च चतुर्वर्षशतायुषः। कृते त्रेतादिकेऽप्येवं पादशो हृसति क्रमात् ॥

कृत (सत्य) युग में पुरुष चार सौ वर्ष की आयु वाले होते थे। वे सर्वसिद्ध होते थे। त्रेता मे तीन सौ वर्ष, द्वापर में दो सौ वर्ष और कलियुग में सौ वर्ष या इससे कम आयु के होते हैं। पुरुष का अर्थ है- पुर अर्थात् शरीर मे सोने वाला चेतन तत्व (आत्मा)। यही पुरुष कहलाता हे। अतः स्त्री-पुरुष जनित भेद आत्मा में उपलब्ध नहीं होता है। रोग अपने ही कर्म से शरीर और मन दोनों में उत्पन्न होते हैं-

कर्मजा हि शरीरेषु रोगाः शरीरमानसाः। शरा इव पतन्तीह विमुखा दृढधन्विभिः॥

चरक संहिता की व्याख्या में श्रीचक्रपाणिदत्त ने लिखा है कि शारीरिक रोग कुष्ठादि हैं, मानसिक रोग कामादि हैं और शरीर मन दोनों से उत्पत्न रोग उन्माद होता है। शरीर की रक्षा संसार की सभी वस्तुओं को समर्पित करके करनी चाहिए।

विद्यार्थी की दिनचर्या

समय पर सोना एवं समय पर जागना, वह स्वस्थ और दीर्घायुमान बने। ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी। आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था परन्तु आज वर्तमान काल में रात्रि में कार्य और दिन में नींद होती है। पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी। दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप होगी उतनी ही स्वास्थ्य के लिये पूरक होती है। शास्त्रोक्त आचारों के पालन से रज एवं तम गुण न्यून होते एवं सत्वगुण में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधन मार्गों की तरह ही धार्मिक दिनचर्या भी उत्तम मार्ग प्रशस्त करती है।


ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर स्नान-संध्या-वन्दन-गायत्री जप करके तप से परिपूर्ण जीवनचर्या का शुभारम्भ करें। सरस्वती और गणेश देवता को प्रणाम करें। योगासन और व्यायाम हितकारी मात्रा में करें। शरीर, मन, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों को एकाग्र करके गुरु मुख की ओर देखते हुए विद्या को आत्मसात् करना चाहिए-

शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥

सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा विद्यार्थी को हमेशा सम्मान प्राप्त करना चाहिए-

सत्येन ब्रहमचर्येण व्यायामेनाथ विद्यया। देशभक्त्याऽऽत्मत्यागेन सम्मानार्हो सदा भव॥

श्रीरामजी की दिनचर्या

प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यंत व्यक्तिविशेष द्वारा किए जानेवाले कार्य या आचार-विचार ही उसकी दैनिकचर्या की संज्ञा से अभिहित होते हैं। श्रीरामचंद्रजी की दिनचर्या सुनियमित एवं शास्त्रोक्त विधिकी अनुसारिणी थी। दिनचर्या का आरंभ अनेक प्रकारके धार्मिक कृत्योंसे होता था। प्रातःजागरण के उपरान्त स्नानादिसे निवृत्त होकर देवताओंका तर्पण, सन्ध्योपासना तथा मन्त्रजप आदि उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था। रामायण में वर्णित श्री राम जी की आदर्श दिनचर्या समस्त मानवमात्र के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है।

प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च। प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च॥ हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥

ऊर्जाचक्र एवं दिनचर्या

मनुष्यकी दिनचर्याका प्रारम्भ निद्रा-त्यागसे और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहनेकी कामना रखनेवालोंको शरीरमें कौन-से अंग और क्रिया कब विशेष सक्रिय होती हैं, इस बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम प्रकृतिके अनुरूप दिनचर्याको निर्धारित करें हम स्वस्थ रह सकते हैं। दिनचर्याका निर्माण इस प्रकार करना चाहिये जिससे शरीरके अंगोंकी क्षमताओंका अधिकतम उपयोग हो। शरीरके सभी अंगोंमें प्राण-ऊर्जाका प्रवाह वैसे तो चौबीसों घण्टे होता है परंतु सभी समय एक-सा ऊर्जाका प्रवाह नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ समयके लिये अपेक्षाकृत कम सक्रिय होते हैं।

ऊर्जाचक्रानुसार दिनचर्या की आवश्यकता
क्र0सं0 समय चक्र शरीर के अंग तत्संबन्धि कार्य
1. प्रातः 3 बजे से 5 बजे तक। फेफड़ों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह सर्वाधिक।
2. प्रातः 5 बजे से 7 बजे तक। बड़ी ऑंत में चेतना का विशेष प्रवाह।
3. प्रातः 7 बजेसे 9 बजे तक। आमाशय (स्टमक)-में प्राण ऊर्जाका प्रवाह सर्वाधिक।
4. प्रातः 9 बजेसे 11 बजे तक। स्प्लीन(तिल्ली) और पैन्क्रियाजकी सबसे अधिक सक्रियता का समय।
5. दिनमें 11 बजे से 1 बजे तक। हृदय में विशेष प्राण ऊर्जा का प्रवाह।
6. दोपहर 1 बजे से 3 बजे तक। छोटी ऑंत में अधिकतम प्राण ऊर्जा का प्रवाह।
7. दोपहर 3 बजे से 5 बजे तक। यूरेनरी ब्लेडर(मूत्राशय) में सर्वाधिक प्राण ऊर्जा का प्रवाह।
8. सायंकाल 5 बजे से 7 बजे तक। किडनी में सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह।
9. सायं 7 बजे से 9 बजे तक। मस्तिष्कमें सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह।
10. रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक। स्पाइनल कार्डमें सर्वाधिक ऊर्जाका प्रवाह।
11. रात्रि 11 बजे से 1 बजे तक। गालब्लेडरमें अधिकतम ऊर्जा का प्रवाह।
12. रात्रि 1 बजे से 3 बजे तक। लीवरमें सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह।

उद्धरण॥ References

  1. पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।
  2. डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० ५८।
  3. श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।