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== भारत में वर्तमान वास्तव ==
 
== भारत में वर्तमान वास्तव ==
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यूरो-अमरीकी श्रोताओं के सामने कला की व्याख्या करने से इनकार कर दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि वहाँ के लोग कला की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या को समझ नहीं पाएँगे। भारत में भी उपस्थित अधार्मिक (अभारतीय) वातावरण के कारण वर्तमान में कला को मनुष्य का उन्नयन करने का माध्यम कम ही समझा जाता है। ऐसा समझनेवाले लोगों की संख्या तो किसी भी काल में अल्प ही होती है। लेकिन भारत में जिस कृति से मानव का उन्नयन नहीं होता उसे कला के अग्रणी लोग कला नहीं मानते थे। भारत में सामान्य लोग समझते थे की वे सामान्य हैं, उन्हें उन्नयन के लिए कला क्षेत्र के अग्रणी लोगों का अनुसरण करने में अपना हित दिखता था।   
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गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यूरो-अमरीकी श्रोताओं के सामने कला की व्याख्या करने से इनकार कर दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि वहाँ के लोग कला की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या को समझ नहीं पाएँगे। भारत में भी उपस्थित अधार्मिक (अधार्मिक) वातावरण के कारण वर्तमान में कला को मनुष्य का उन्नयन करने का माध्यम कम ही समझा जाता है। ऐसा समझनेवाले लोगों की संख्या तो किसी भी काल में अल्प ही होती है। लेकिन भारत में जिस कृति से मानव का उन्नयन नहीं होता उसे कला के अग्रणी लोग कला नहीं मानते थे। भारत में सामान्य लोग समझते थे की वे सामान्य हैं, उन्हें उन्नयन के लिए कला क्षेत्र के अग्रणी लोगों का अनुसरण करने में अपना हित दिखता था।   
    
किन्तु गुलामी के काल की १० पीढ़ियों की अंग्रेजी शिक्षा, स्वाधीनता के बाद की लगभग ४ पीढ़ियों की वर्तमान की यूरो अमरीका से प्रभावित शिक्षा ने और तथाकथित लोकतंत्र ने समाज के सर्वसामान्य व्यक्ति के मन में भी ‘वह और विद्वान समान हैं’ ऐसी मिथ्या धारणा को स्थिर कर दिया है। बहुमत तो हमेशा ही सर्वसामान्य लोगों का ही होता है, फिर वह लोकतंत्र हो या राजतंत्र। ऐसी स्थिति में बहुमत के प्रभाव में कला के क्षेत्र को वासनाओं तथा अश्लीलता के तथा हिंसा और क्रूरता जैसी हीन भावनाओं (Lower Instincts) के उद्दीपन का साधन ही मान लिया गया है। इन्द्रियजन्य सुख को ही एकमात्र सुख माननेवाले सामान्य जनों के उन्नयन के लिए कलाकृतियाँ बनती भी हैं तो उन्हें लोग अपवाद के रूप में ही पसंद करते हैं। अन्यथा ऐसी कलाकृतियाँ उपेक्षा की बलि चढ़ जातीं हैं।   
 
किन्तु गुलामी के काल की १० पीढ़ियों की अंग्रेजी शिक्षा, स्वाधीनता के बाद की लगभग ४ पीढ़ियों की वर्तमान की यूरो अमरीका से प्रभावित शिक्षा ने और तथाकथित लोकतंत्र ने समाज के सर्वसामान्य व्यक्ति के मन में भी ‘वह और विद्वान समान हैं’ ऐसी मिथ्या धारणा को स्थिर कर दिया है। बहुमत तो हमेशा ही सर्वसामान्य लोगों का ही होता है, फिर वह लोकतंत्र हो या राजतंत्र। ऐसी स्थिति में बहुमत के प्रभाव में कला के क्षेत्र को वासनाओं तथा अश्लीलता के तथा हिंसा और क्रूरता जैसी हीन भावनाओं (Lower Instincts) के उद्दीपन का साधन ही मान लिया गया है। इन्द्रियजन्य सुख को ही एकमात्र सुख माननेवाले सामान्य जनों के उन्नयन के लिए कलाकृतियाँ बनती भी हैं तो उन्हें लोग अपवाद के रूप में ही पसंद करते हैं। अन्यथा ऐसी कलाकृतियाँ उपेक्षा की बलि चढ़ जातीं हैं।   
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जीवन का उद्देश्य मोक्ष है। तो हर विचार, भावना और कृति का भी उद्देश्य मोक्ष ही होगा। इसलिए कला का उद्देश्य  सा कला या विमुक्तये । परमात्मपद प्राप्ति के लिये कला। इस लक्ष्य के कारण कला के क्षेत्र में करणीय और अकरणीय कार्य का स्वरूप तय हो जाता है।   
 
जीवन का उद्देश्य मोक्ष है। तो हर विचार, भावना और कृति का भी उद्देश्य मोक्ष ही होगा। इसलिए कला का उद्देश्य  सा कला या विमुक्तये । परमात्मपद प्राप्ति के लिये कला। इस लक्ष्य के कारण कला के क्षेत्र में करणीय और अकरणीय कार्य का स्वरूप तय हो जाता है।   
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भारतीय मान्यता के अनुसार आद्य कलाकार “नटराज” है। अर्धनारीनटेश्वर है। इस में प्रकृति (स्त्री) का पुरुष के साथ तादात्म्य दिखाई देता है। अभिव्यक्ति के लिए केवल पुरुष याने जीवात्मा या केवल अष्टधा प्रकृति सक्षम नहीं है। ये दोनों मिलकर ही सृष्टि की रचना होती है। परमात्मा असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होता है। इसीलिये वह अपने में से ही पहले अपरा प्रकृति का निर्माण करता है। अपरा का अर्थ है जो इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि से परे नहीं है। जिस का इन्द्रियों, मन, बुद्धि के माध्यम से अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। अधार्मिक (अभारतीय) समाजों की जीवन दृष्टि व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित और इहवादी होने से कला यह इन्द्रियसुख का एक साधन बन जाती है। कला बाजारू बन जाती है। कला और संस्कृति दोनों का निकट का संबंध होता है। कला के माध्यम से मानव का व्यक्तित्व जिस संस्कृति में ढला है वही प्रकट होती है। विकृति में ढला हुआ कोई व्यक्ति अपनी विकृति को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकेगा। वह और कुछ कर ही नहीं सकता। विद्या की देवी और भारत माता के नग्न चित्र बनाने से चित्रकार के विकृत व्यक्तित्व का ही परिचय होगा। उस की इस चित्रकला की सराहना करनेवाले भी विकृत संस्कृति के ही माने जाएंगे।   
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भारतीय मान्यता के अनुसार आद्य कलाकार “नटराज” है। अर्धनारीनटेश्वर है। इस में प्रकृति (स्त्री) का पुरुष के साथ तादात्म्य दिखाई देता है। अभिव्यक्ति के लिए केवल पुरुष याने जीवात्मा या केवल अष्टधा प्रकृति सक्षम नहीं है। ये दोनों मिलकर ही सृष्टि की रचना होती है। परमात्मा असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होता है। इसीलिये वह अपने में से ही पहले अपरा प्रकृति का निर्माण करता है। अपरा का अर्थ है जो इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि से परे नहीं है। जिस का इन्द्रियों, मन, बुद्धि के माध्यम से अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की जीवन दृष्टि व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित और इहवादी होने से कला यह इन्द्रियसुख का एक साधन बन जाती है। कला बाजारू बन जाती है। कला और संस्कृति दोनों का निकट का संबंध होता है। कला के माध्यम से मानव का व्यक्तित्व जिस संस्कृति में ढला है वही प्रकट होती है। विकृति में ढला हुआ कोई व्यक्ति अपनी विकृति को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकेगा। वह और कुछ कर ही नहीं सकता। विद्या की देवी और भारत माता के नग्न चित्र बनाने से चित्रकार के विकृत व्यक्तित्व का ही परिचय होगा। उस की इस चित्रकला की सराहना करनेवाले भी विकृत संस्कृति के ही माने जाएंगे।   
    
== भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास ==
 
== भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास ==

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