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→‎कला क्या है?: लेख सम्पादित किया
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== कला क्या है? ==
 
== कला क्या है? ==
हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति की क्षमता और स्वरूप भिन्न होता है। फिर भी औसत समाज की जो भावनाएं होतीं हैं उनकी अभिव्यक्ति से समाज की अभिरुचि का परिचय होता है। समाज की यह अभिरुची उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुरूप होती है। कलाओं का विकास भी इस जीवन दृष्टि के अनुसार ही होता है। कला के बारे में कई बातें कही जातीं हैं। जैसे
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हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति की क्षमता और स्वरूप भिन्न होता है। फिर भी औसत समाज की जो भावनाएं होतीं हैं उनकी अभिव्यक्ति से समाज की अभिरुचि का परिचय होता है। समाज की यह अभिरूचि उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुरूप होती है। कलाओं का विकास भी इस जीवन दृष्टि के अनुसार ही होता है। कला के बारे में कई बातें कही जातीं हैं। जैसे:
- समाजकी संस्कृति की अभिव्यक्ति का एक माध्यम कला होता है।।
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* समाज की संस्कृति की अभिव्यक्ति का एक माध्यम कला होता है।
- अमूर्त को मूर्त स्वरूप में अभिव्यक्त करने का माध्यम। अभिकर्ता जब अपनी कृती से अपनी अमूर्त भावनाएं मूर्त स्वरूप में अभिव्यक्त करता है तो कला जन्म लेती है।   
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* अमूर्त को मूर्त स्वरूप में अभिव्यक्त करने का माध्यम। अभिकर्ता जब अपनी कृति से अपनी अमूर्त भावनाएं मूर्त स्वरूप में अभिव्यक्त करता है तो कला जन्म लेती है।   
- मनुष्य को मोक्षगामी बनाने का एक माध्यम। सा कला या विमुक्तये।  
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* मनुष्य को मोक्षगामी बनाने का एक माध्यम। सा कला या विमुक्तये।  
- अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण का एक माध्यम।  
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* अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण का एक माध्यम।  
- अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का साधन है कला। कलावस्तु का प्रदर्शन यह कलाकार और कला का लक्ष्य नहीं होता। कलावस्तु की जानकारी तो विज्ञान और पुस्तकों का काम है। लेकिन विज्ञान की परिभाषाएँ और ग्रंथों के शब्द कलाकार की अपेक्षित भावनाओं को याने कलाकार के व्यक्तित्व को सही सही प्रकट नहीं कर सकते। इसलिए कलावस्तु के माध्यम से अभिव्यक्त होने के कलाकार के प्रयास को कला कहते हैं।
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* अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का साधन है कला। कलावस्तु का प्रदर्शन यह कलाकार और कला का लक्ष्य नहीं होता। कलावस्तु की जानकारी तो विज्ञान और पुस्तकों का काम है। लेकिन विज्ञान की परिभाषाएँ और ग्रंथों के शब्द कलाकार की अपेक्षित भावनाओं को याने कलाकार के व्यक्तित्व को सही सही प्रकट नहीं कर सकते। इसलिए कलावस्तु के माध्यम से अभिव्यक्त होने के कलाकार के प्रयास को कला कहते हैं।  
- कलाकार और कला के प्रेमी (रसग्रहण करनेवालों) में संवाद की भाषा।
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* कलाकार और कला के प्रेमी (रसग्रहण करनेवालों) में संवाद की भाषा।  
- लोगों की अभिरुची या पसंद (वह हीन हो तब भी) को समझकर उसका लाभ उठानेका एक साधन। इसे बाजारू कला भी कहा जा सकता है।
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* लोगों की अभिरुचि या पसंद (वह हीन हो तब भी) को समझकर उसका लाभ उठाने का एक साधन। इसे बाजारू कला भी कहा जा सकता है।  
- कला यह मनोरंजन का एक साधन है।  
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* कला मनोरंजन का एक साधन है।  
    
== कला का उद्देश्य क्या है? और क्यों है? ==
 
== कला का उद्देश्य क्या है? और क्यों है? ==
जीवन का उद्देश्य : मोक्ष है। तो हर विचार, भावना और कृति का भी उद्देश्य मोक्ष ही होगा।  
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जीवन का उद्देश्य मोक्ष है। तो हर विचार, भावना और कृति का भी उद्देश्य मोक्ष ही होगा। इसलिए कला का उद्देश्य सा कला या विमुक्तये । परमात्मपद प्राप्ति के लिये कला। इस लक्ष्य के कारण कला के क्षेत्र में करणीय और अकरणीय कार्य का स्वरूप तय हो जाता है।
इसलिए कला का उद्देश्य : सा कला या विमुक्तये । परमात्मपद प्राप्ति के लिये कला। इस लक्ष्य के कारण कला के क्षेत्र में करणीय और अकरणीय कार्य का स्वरूप तय हो जाता है।
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भारतीय मान्यता के अनुसार आद्य कलाकार “नटराज” है। अर्धनारीनटेश्वर है। इस में प्रकृति(स्त्री) का पुरुष के साथ तादात्म्य दिखाई देता है। अभिव्यक्ति के लिए केवल पुरुष याने जीवात्मा या केवल अष्टधा प्रकृति सक्षम नहीं है। ये दोनों मिलकर ही सृष्टी की रचना होती है। परमात्मा असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होता है। इसीलिये वह अपने में से ही पहले अपरा प्रकृति का निर्माण करता है। अपरा का अर्थ है जो इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि से परे नहीं है। जिस का इन्द्रियों, मन, बुद्धि के माध्यम से अनुभव प्राप्त किया जा सकता है।
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भारतीय मान्यता के अनुसार आद्य कलाकार “नटराज” है। अर्धनारीनटेश्वर है। इस में प्रकृति (स्त्री) का पुरुष के साथ तादात्म्य दिखाई देता है। अभिव्यक्ति के लिए केवल पुरुष याने जीवात्मा या केवल अष्टधा प्रकृति सक्षम नहीं है। ये दोनों मिलकर ही सृष्टि की रचना होती है। परमात्मा असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होता है। इसीलिये वह अपने में से ही पहले अपरा प्रकृति का निर्माण करता है। अपरा का अर्थ है जो इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि से परे नहीं है। जिस का इन्द्रियों, मन, बुद्धि के माध्यम से अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। अभारतीय समाजों की जीवन दृष्टि व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित और इहवादी होने से कला यह इन्द्रियसुख का एक साधन बन जाती है। कला बाजारू बन जाती है। कला और संस्कृति दोनों का निकट का संबंध होता है। कला के माध्यम से मानव का व्यक्तित्व जिस संस्कृति में ढला है वही प्रकट होती है। विकृति में ढला हुआ कोई व्यक्ति अपनी विकृति को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकेगा। वह और कुछ कर ही नहीं सकता। विद्या की देवी और भारत माता के नग्न चित्र बनाने से चित्रकार के विकृत व्यक्तित्व का ही परिचय होगा। उस की इस चित्रकला की सराहना करनेवाले भी विकृत संस्कृति के ही माने जाएंगे।   
अभारतीय समाजों की जीवन दृष्टि व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित और इहवादी होने से कला यह इन्द्रियसुख का एक साधन बन जाती है। कला बाजारू बन जाती है।  
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कला और संस्कृति दोनों का निकट का संबंध होता है। कला के माध्यम से मानव का व्यक्तित्व जिस संस्कृति में ढला है वही प्रकट होती है। विकृति में ढला हुआ कोई व्यक्ति अपनी विकृति को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकेगा। वह और कुछ कर ही नहीं सकता। विद्या की देवी और भारत माता के नग्न चित्र बनाने से चित्रकार के विकृत व्यक्तित्व का ही परिचय होगा। उस की इस चित्रकला की सराहना करनेवाले भी विकृत संस्कृति के ही माने जाएंगे।   
      
== भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास ==
 
== भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास ==
भरत में कला का जन्म त्रेता युग के प्रारम्भ में हुआ ऐसी लोककथा प्रसिद्ध है। लोगों में सत्वगुण की कमी और रजोगुण में वृद्धि होने लगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर आदि विकार बढ़ने लगे। समाज जीवन अशांत होने लगा। ऐसी स्थिति में इंद्रादी देव ब्रह्मदेव के पास गए। वेदों को समझने की क्षमता अब तीन वर्णों के लोगों में भी कम हुई है। पूरे समाज के लिए हो ऐसा कोई वेद आप हमें दीजिये। वह वेद दृश्य और श्राव्य हो। निर्गुण निराकार की भक्ति अब समझ में नहीं आती। इसलिए सगुण साकार हो, शास्त्रों के सिद्धांत समझ नहीं रहे ऐसे में सहजता से हँसते खेलते हुए साध्य हो, मनोरंजन भी होता रहे ऐसा कोई वेद हमें दें। ब्रह्मदेव ने देवों की बिनती मान ली। उसने ऋग्वेदसे पाठ्य(संवाद)लिया, यजुर्वेद से अभिनय लिया, सामवेद से गीत लिया और अथर्ववेद से रस लिया। इसा प्रकार से चारों वेदों से सारतत्व लेकर ब्रह्मदेवने “नाट्यवेद” निर्माण किया। यह वेद लोगों के आचार-विचार के अनुरूप, सर्वशास्त्रसंपन्न, सर्वशिल्पसमावेशक और गत इतिहास को बताता हुआ लोगों को आगे के लिए मार्गदर्शन करनेवाला सिद्ध हुआ।  
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भरत में कला का जन्म त्रेता युग के प्रारम्भ में हुआ ऐसी लोककथा प्रसिद्ध है। लोगों में सत्वगुण की कमी और रजोगुण में वृद्धि होने लगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर आदि विकार बढ़ने लगे। समाज जीवन अशांत होने लगा। ऐसी स्थिति में इंद्रादि देव ब्रह्मदेव के पास गए। वेदों को समझने की क्षमता अब तीन वर्णों के लोगों में भी कम हुई है। पूरे समाज के लिए हो ऐसा कोई वेद आप हमें दीजिये। वह वेद दृश्य और श्राव्य हो। निर्गुण निराकार की भक्ति अब समझ में नहीं आती। इसलिए सगुण साकार हो, शास्त्रों के सिद्धांत समझ नहीं रहे ऐसे में सहजता से हँसते खेलते हुए साध्य हो, मनोरंजन भी होता रहे ऐसा कोई वेद हमें दें। ब्रह्मदेव ने देवों की विनती मान ली। उसने ऋग्वेद से पाठ्य(संवाद)लिया, यजुर्वेद से अभिनय लिया, सामवेद से गीत लिया और अथर्ववेद से रस लिया। इसा प्रकार से चारों वेदों से सारतत्व लेकर ब्रह्मदेव ने “नाट्यवेद” निर्माण किया। यह वेद लोगों के आचार-विचार के अनुरूप, सर्वशास्त्रसंपन्न, सर्वशिल्पसमावेशक और गत इतिहास को बताता हुआ लोगों को आगे के लिए मार्गदर्शन करने वाला सिद्ध हुआ।  
यह कथा भरतमुनीने “नाट्यशास्त्र” की रचना में कही है। जब भरत मुनी ऐसा लिखते हैं तो उसका अर्थ है कि नाट्यशास्त्र तो समाज में पहले से ही ज्ञात था। उनसे पूर्व में भी भारत में नाटकों की परम्परा थी। नाटकों में संवाद, संगीत, अभिनय (नृत्य), नेपथ्य में शिल्पशास्त्र का, नाटक की विषयवस्तु में शास्त्रीय ज्ञान का समावेश होता है। इसीका अर्थ है कि जब नाट्यवेद की प्रस्तुति हुई तब ये सभी शास्त्र और कलाएं समाज व्यवहार में थीं। ऐसा रहा होगा तब ही इन सभी कलाओं का समावेश और समन्वय करना संभव हुआ होगा और लोगोंद्वारा स्वीकृत हुआ होगा।  
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इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।
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यह कथा भरत मुनि ने “नाट्यशास्त्र” की रचना में कही है। जब भरत मुनि ऐसा लिखते हैं तो उसका अर्थ है कि नाट्यशास्त्र तो समाज में पहले से ही ज्ञात था। उनसे पूर्व में भी भारत में नाटकों की परम्परा थी। नाटकों में संवाद, संगीत, अभिनय (नृत्य), नेपथ्य में शिल्पशास्त्र का, नाटक की विषयवस्तु में शास्त्रीय ज्ञान का समावेश होता है। इसी का अर्थ है कि जब नाट्यवेद की प्रस्तुति हुई तब ये सभी शास्त्र और कलाएं समाज व्यवहार में थीं। ऐसा रहा होगा तब ही इन सभी कलाओं का समावेश और समन्वय करना संभव हुआ होगा और लोगों द्वारा स्वीकृत हुआ होगा।  
त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। इसलिए त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवी  कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं
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इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।  
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त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। इसलिए त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवी  कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं:
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  देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् । रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा । त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते । नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।   
 
  देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् । रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा । त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते । नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।   
 
अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनीजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए  रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगों का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगों का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।  
 
अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनीजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए  रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगों का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगों का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।  
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