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सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवों द्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे। दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे। सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया। इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे। लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये। देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये। अमृत भी हथिया लिया। जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला। इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथ्वी को सहना पडता। इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं:
 
सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवों द्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे। दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे। सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया। इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे। लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये। देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये। अमृत भी हथिया लिया। जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला। इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथ्वी को सहना पडता। इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं:
 
# अनमोल रत्न प्राप्त करना हो, अर्थात् मानवमात्र के विशाल हित की बात यदि करनी हो तो इसमें सज्जन और दुर्जन दोनों का सहयोग आवश्यक है। इस हेतु सहकारिता अनिवार्य है।
 
# अनमोल रत्न प्राप्त करना हो, अर्थात् मानवमात्र के विशाल हित की बात यदि करनी हो तो इसमें सज्जन और दुर्जन दोनों का सहयोग आवश्यक है। इस हेतु सहकारिता अनिवार्य है।
# सहकार के कारण प्राप्त रत्नों पर अधिकार दैवी गुणसंपदायुक्त अर्थात् आत्मीयता की प्रवृत्ति रखनेवाले लोगों का रहे। इस हेतु आवश्यक चतुराई सज्जन समाज के नेतृत्व के पास होनी चाहिये।
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# सहकार के कारण प्राप्त रत्नों पर अधिकार दैवी गुणसंपदायुक्त अर्थात् आत्मीयता की प्रवृत्ति रखनेवाले लोगोंं का रहे। इस हेतु आवश्यक चतुराई सज्जन समाज के नेतृत्व के पास होनी चाहिये।
 
# ऐसे सहकारिता के प्रयत्नों से अमृत ओर लक्ष्मी के साथ ही हलाहल विष भी निकलता है। इस विष को हजम करने की शक्ति भी सज्जन नेतृत्व में होनी चाहिये।  
 
# ऐसे सहकारिता के प्रयत्नों से अमृत ओर लक्ष्मी के साथ ही हलाहल विष भी निकलता है। इस विष को हजम करने की शक्ति भी सज्जन नेतृत्व में होनी चाहिये।  
# जब तक ऐसा करने की समझ और शक्ति सज्जन समाज के नेतृत्व में नहीं होगी, सज्जनोंद्वारा परिचालित सहकार के प्रयासों से दुर्जनों को दूर ही रखना होगा। वर्तमान में ‘सहकारी’ विशेषण लगाकर काम करनेवाली लगभग सभी संस्थाएं अपने अपने स्वार्थ साधने के लिये निर्माण की गई हैं। अन्य लोगों के हित के लिये नहीं। फिर वह सहनिवास संस्था हो, सहकारी पतसंस्था हो,  सहकारी मच्छीमार संस्था हो या सहकारी शकर कारखाना हो। ये सभी संस्थाएं, अपने अपने स्वार्थ के लिये कुछ लोगों ने एकत्रित आकर चलाए हुए उपक्रम है। इन सभी के पीछे पाश्चात्य 'समाजशास्त्र' की भावना काम कर रही है। सोशल कॉण्ट्रॅक्ट थियरी के आधार पर अर्थात् परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये जब लोग एकत्रित होते हैं तो समाज बनता है, इस विचार से प्रेरित यह सभी सहकारिता के नाम से चलने वाले प्रयास हैं।
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# जब तक ऐसा करने की समझ और शक्ति सज्जन समाज के नेतृत्व में नहीं होगी, सज्जनोंद्वारा परिचालित सहकार के प्रयासों से दुर्जनों को दूर ही रखना होगा। वर्तमान में ‘सहकारी’ विशेषण लगाकर काम करनेवाली लगभग सभी संस्थाएं अपने अपने स्वार्थ साधने के लिये निर्माण की गई हैं। अन्य लोगोंं के हित के लिये नहीं। फिर वह सहनिवास संस्था हो, सहकारी पतसंस्था हो,  सहकारी मच्छीमार संस्था हो या सहकारी शकर कारखाना हो। ये सभी संस्थाएं, अपने अपने स्वार्थ के लिये कुछ लोगोंं ने एकत्रित आकर चलाए हुए उपक्रम है। इन सभी के पीछे पाश्चात्य 'समाजशास्त्र' की भावना काम कर रही है। सोशल कॉण्ट्रॅक्ट थियरी के आधार पर अर्थात् परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये जब लोग एकत्रित होते हैं तो समाज बनता है, इस विचार से प्रेरित यह सभी सहकारिता के नाम से चलने वाले प्रयास हैं।
# जब तक बलवान नहीं बनूंगा मेरा हित नहीं होगा। मैं अकेला अपने स्वार्थ की साधना में बहुत दुर्बल हूं। इसलिये जो मेरे जैसे ही दुर्बल हैं, ऐसे लोगों की सहायता से मैं मेरे जैसे अन्य दुर्बलों से बलवान बन जाऊंगा, इस भावना से सहकारिता का आंदोलन आज चलाया जा रहा है। इस का आधार पूर्णत: स्वार्थ भावना अर्थात् पाशव विचार अर्थात् पाश्चात्य समाजशास्त्रीय विचार ही है।
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# जब तक बलवान नहीं बनूंगा मेरा हित नहीं होगा। मैं अकेला अपने स्वार्थ की साधना में बहुत दुर्बल हूं। इसलिये जो मेरे जैसे ही दुर्बल हैं, ऐसे लोगोंं की सहायता से मैं मेरे जैसे अन्य दुर्बलों से बलवान बन जाऊंगा, इस भावना से सहकारिता का आंदोलन आज चलाया जा रहा है। इस का आधार पूर्णत: स्वार्थ भावना अर्थात् पाशव विचार अर्थात् पाश्चात्य समाजशास्त्रीय विचार ही है।
 
# एकत्रित रूप से पुरुषार्थ करने की भावना गलत नहीं है। किंतु उस के पीछे यदि पाश्चात्य विचार अर्थात् केवल स्वार्थ भावना काम कर रही हो तो समाज का विघटन अवश्यम्भावी है। समाज में विषमता फैलेगी। इस विषमता के लक्षण आज भी स्पष्ट दिखाई दे रहे है। पूरी बात को ठीक से समझने के लिये हमें मूल पाश्चात्य जीवनदृष्टि के आधारभूत विचार को और उस पर आधारित वर्तनसूत्रों को समझना होगा।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
# एकत्रित रूप से पुरुषार्थ करने की भावना गलत नहीं है। किंतु उस के पीछे यदि पाश्चात्य विचार अर्थात् केवल स्वार्थ भावना काम कर रही हो तो समाज का विघटन अवश्यम्भावी है। समाज में विषमता फैलेगी। इस विषमता के लक्षण आज भी स्पष्ट दिखाई दे रहे है। पूरी बात को ठीक से समझने के लिये हमें मूल पाश्चात्य जीवनदृष्टि के आधारभूत विचार को और उस पर आधारित वर्तनसूत्रों को समझना होगा।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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# एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित धार्मिक (भारतीय) कुटुम्ब है। कौटुम्बिक भावना के आधार पर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने किये थे। इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखने वाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीने वाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है।  
 
# एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित धार्मिक (भारतीय) कुटुम्ब है। कौटुम्बिक भावना के आधार पर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने किये थे। इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखने वाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीने वाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है।  
 
# राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनों द्वारा चलाये हुए सेवाकार्य। केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं। ये चलाने वाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं। इन उपक्रमों के नामों में 'सहकारी' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शन द्वारा मार्गदर्शित धार्मिक (भारतीय) सहकारिता पर आधारित ही हैं। इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है।  
 
# राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनों द्वारा चलाये हुए सेवाकार्य। केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं। ये चलाने वाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं। इन उपक्रमों के नामों में 'सहकारी' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शन द्वारा मार्गदर्शित धार्मिक (भारतीय) सहकारिता पर आधारित ही हैं। इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है।  
# और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगों ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है। वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभी तक लेखक ने न देखी है न सुनी है। लेकिन शायद हो सकती है। कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक सहायता करती हैं। उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है। लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण धार्मिक (भारतीय) सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती।  
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# और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगोंं ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है। वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभी तक लेखक ने न देखी है न सुनी है। लेकिन शायद हो सकती है। कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक सहायता करती हैं। उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है। लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण धार्मिक (भारतीय) सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती।  
    
=== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू ===
 
=== एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू ===
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस बातपर विचार पूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है। ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है। इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक धार्मिक (भारतीय) है। वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगों पर हुआ है। ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है। इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे ।
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कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस बातपर विचार पूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है। ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है। इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक धार्मिक (भारतीय) है। वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगोंं पर हुआ है। ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है। इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे ।
    
==References==
 
==References==

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