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=== अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम न बनाकर धार्मिक (भारतीय) भाषाओं को माध्यम बनाने  की आवश्यकता ===
 
=== अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम न बनाकर धार्मिक (भारतीय) भाषाओं को माध्यम बनाने  की आवश्यकता ===
 
# अपनी भाषा का प्रयोग सामान्य व्यवहार के लिये करना यह हर समाज के लिये स्वत्व और स्वाभिमान की बात होती है। पराभूत और परावलंबी मानसिकता रखनेवाले समाज ही विदेशी समाजों की भाषा अपनाते हैं। जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी, पुर्तगाल में पुर्तगाली, फ्रांस में फ्रेंच भाषाओं का ही ये देश सामान्य व्यवहार के लिये उपयोग करते हैं।  
 
# अपनी भाषा का प्रयोग सामान्य व्यवहार के लिये करना यह हर समाज के लिये स्वत्व और स्वाभिमान की बात होती है। पराभूत और परावलंबी मानसिकता रखनेवाले समाज ही विदेशी समाजों की भाषा अपनाते हैं। जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी, पुर्तगाल में पुर्तगाली, फ्रांस में फ्रेंच भाषाओं का ही ये देश सामान्य व्यवहार के लिये उपयोग करते हैं।  
# अभारतीय भाषाएं उन समाजों की मान्यताओं, सोच को अभिव्यक्त करती है।और अधार्मिक (अभारतीय) समाजों में एकात्मता का विचार नहीं है। इसलिये इन भाषाओं में अध्ययन कर बच्चे हीन संस्कृति अपनाते जाते है। बच्चों को हीन संस्कृति से बचाकर 'एकात्मता' पर आधारित श्रेष्ठ संस्कृति मे संस्कारित करना धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने से ही संभव होता है।  
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# अधार्मिक भाषाएं उन समाजों की मान्यताओं, सोच को अभिव्यक्त करती है।और अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में एकात्मता का विचार नहीं है। इसलिये इन भाषाओं में अध्ययन कर बच्चे हीन संस्कृति अपनाते जाते है। बच्चों को हीन संस्कृति से बचाकर 'एकात्मता' पर आधारित श्रेष्ठ संस्कृति मे संस्कारित करना धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने से ही संभव होता है।  
 
# बच्चों की प्रतिभा का पूरा उपयोग अध्ययन के लिये होता है। धार्मिक (भारतीय) भाषाएं सीखने के लिये सरल, व्याकरणशुद्ध और तर्कशुद्ध होने के कारण भाषा सीखने में प्रतिभा का न्यूनतम और बहुत छोटा हिस्सा ही व्यय होता है। बचा हुआ पूरा हिस्सा नये विषयों के अध्ययन के लिये उपयोग में लाया जा सकता है ।  
 
# बच्चों की प्रतिभा का पूरा उपयोग अध्ययन के लिये होता है। धार्मिक (भारतीय) भाषाएं सीखने के लिये सरल, व्याकरणशुद्ध और तर्कशुद्ध होने के कारण भाषा सीखने में प्रतिभा का न्यूनतम और बहुत छोटा हिस्सा ही व्यय होता है। बचा हुआ पूरा हिस्सा नये विषयों के अध्ययन के लिये उपयोग में लाया जा सकता है ।  
 
# संस्कृत भाषा जिसे आती है, उसे विश्व की अन्य कोई भी भाषा सीखना बहुत सरल होता है। अन्य धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के लिये भी यह कम-अधिक मात्रा में लागू होता है।  
 
# संस्कृत भाषा जिसे आती है, उसे विश्व की अन्य कोई भी भाषा सीखना बहुत सरल होता है। अन्य धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के लिये भी यह कम-अधिक मात्रा में लागू होता है।  
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वर्तमान जीवन के प्रतिमान के कारण भारत में संपर्क भाषा की समस्या निर्माण हुई है। हजारों की संख्या में बोली, भाषाएं और प्रादेशिक भाषाओं का अस्तित्व तो २०० वर्षों से पहले भी था ही। लेकिन संपर्क भाषा की कोई समस्या नहीं थी। लोग उस समय भी कन्याकुमारी से लेकर बद्रीनाथ तक घूमते थे। उस समय संपर्क भाषा की समस्या नहीं थी। आज इस समस्या के निर्माण होने का कारण ही वर्तमान का जीवन का प्रतिमान है।  
 
वर्तमान जीवन के प्रतिमान के कारण भारत में संपर्क भाषा की समस्या निर्माण हुई है। हजारों की संख्या में बोली, भाषाएं और प्रादेशिक भाषाओं का अस्तित्व तो २०० वर्षों से पहले भी था ही। लेकिन संपर्क भाषा की कोई समस्या नहीं थी। लोग उस समय भी कन्याकुमारी से लेकर बद्रीनाथ तक घूमते थे। उस समय संपर्क भाषा की समस्या नहीं थी। आज इस समस्या के निर्माण होने का कारण ही वर्तमान का जीवन का प्रतिमान है।  
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वर्तमान में मानव पगढीला हो गया है। आवागमन के साधन, स्वभाव से भिन्न प्रकार का काम करना, अतिरिक्त धन की उपलब्धता, पर्यटन के लिए विज्ञापनबाजी और आजीविका के लिए नौकरी ये बातें मनुष्य को एक स्थानपर टिकने नहीं देते। यह पगढ़ीलापन वर्तमान के अधार्मिक (अभारतीय) जीवन के प्रतिमान की ही देन है। प्रतिमान को धार्मिक (भारतीय) बनाना ही उसका उत्तर है।  
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वर्तमान में मानव पगढीला हो गया है। आवागमन के साधन, स्वभाव से भिन्न प्रकार का काम करना, अतिरिक्त धन की उपलब्धता, पर्यटन के लिए विज्ञापनबाजी और आजीविका के लिए नौकरी ये बातें मनुष्य को एक स्थानपर टिकने नहीं देते। यह पगढ़ीलापन वर्तमान के अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान की ही देन है। प्रतिमान को धार्मिक (भारतीय) बनाना ही उसका उत्तर है।  
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==

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