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उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। इसलिए हम पुरे समाज के जीवन की जड़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। इसलिए हम पुरे समाज के जीवन की जड़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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== अभारतीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ ==
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== अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ ==
वर्तमान में हमने अधार्मिक (अभारतीय) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अभारतीय) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़ पदार्थ से ही। आधुनिक विज्ञान भी इसे जड़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:
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वर्तमान में हमने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अधार्मिक) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़ पदार्थ से ही। आधुनिक विज्ञान भी इसे जड़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। इसलिए बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। इसलिए बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
 
# इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।
 
# इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।
 
# जडवादिता : सारा विश्व जड़ से बना है ऐसा मानना। सजीव भी जड़ ही हैं, जड़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है ऐसा मानने से औरों के प्रति प्रेम, आत्मीयता, सहानुभूति, स्नेह, सदाचार, सत्यनिष्ठा आदि का कोई अर्थ नहीं रहा जाता।
 
# जडवादिता : सारा विश्व जड़ से बना है ऐसा मानना। सजीव भी जड़ ही हैं, जड़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है ऐसा मानने से औरों के प्रति प्रेम, आत्मीयता, सहानुभूति, स्नेह, सदाचार, सत्यनिष्ठा आदि का कोई अर्थ नहीं रहा जाता।
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के आधारपर अधार्मिक (अभारतीय) समाज की जीवनशैली के व्यवहार सूत्र निम्न बनते हैं:
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उपर्युक्त जीवनदृष्टि के आधारपर अधार्मिक (अधार्मिक) समाज की जीवनशैली के व्यवहार सूत्र निम्न बनते हैं:
 
# सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट। बलवानों के लिए दुनिया है।
 
# सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट। बलवानों के लिए दुनिया है।
 
# एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक। दुर्बलों का शोषण।
 
# एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक। दुर्बलों का शोषण।
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[[File:Adharmik System.jpg|center|thumb|590x590px]]
 
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इस अधार्मिक (अभारतीय) व्यवस्था समूह की विशेषताएँ निम्न हैं:
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इस अधार्मिक (अधार्मिक) व्यवस्था समूह की विशेषताएँ निम्न हैं:
 
# शासन सर्वसत्ताधीश है। अंग्रेजी कहावत है – पॉवर करप्ट्स एण्ड अब्सोल्युट पॉवर करप्ट्स अब्सोल्युटली । सत्ता होती है तो भ्रष्टाचार होता ही है। और अमर्याद सत्ता होती है तो भ्रष्टाचार की भी कोई मर्यादा नहीं रह जाती। सारी व्यवस्थाएँ बलवानों के स्वार्थ को पोषक होतीं हैं। सभी सामाजिक संबंधों का आधार स्वार्थ होता है। गुरु विक्रेता होता है। शिष्य खरीददार।  
 
# शासन सर्वसत्ताधीश है। अंग्रेजी कहावत है – पॉवर करप्ट्स एण्ड अब्सोल्युट पॉवर करप्ट्स अब्सोल्युटली । सत्ता होती है तो भ्रष्टाचार होता ही है। और अमर्याद सत्ता होती है तो भ्रष्टाचार की भी कोई मर्यादा नहीं रह जाती। सारी व्यवस्थाएँ बलवानों के स्वार्थ को पोषक होतीं हैं। सभी सामाजिक संबंधों का आधार स्वार्थ होता है। गुरु विक्रेता होता है। शिष्य खरीददार।  
 
# अर्थव्यवस्था में स्वार्थ भावना के कारण गलाकाट स्पर्धा चलती है। किसान जैसा घटक इस स्पर्धा में नष्ट हो जाता है। जैसा दुनिया भर के प्रगत देशों में हुआ है।   
 
# अर्थव्यवस्था में स्वार्थ भावना के कारण गलाकाट स्पर्धा चलती है। किसान जैसा घटक इस स्पर्धा में नष्ट हो जाता है। जैसा दुनिया भर के प्रगत देशों में हुआ है।   
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# श्रीमदभगवदगीता (अध्याय ३) में यज्ञचक्र का वर्णन है। अन्न का निर्माण यह उस यज्ञचक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह यज्ञ ठीक चलता है तो दुनियाँ ठीक चलती है। यज्ञचक्र ठीक से चलाना यह एक दृष्टि से परमात्मा का ही काम है जो किसान करता है।
 
# श्रीमदभगवदगीता (अध्याय ३) में यज्ञचक्र का वर्णन है। अन्न का निर्माण यह उस यज्ञचक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह यज्ञ ठीक चलता है तो दुनियाँ ठीक चलती है। यज्ञचक्र ठीक से चलाना यह एक दृष्टि से परमात्मा का ही काम है जो किसान करता है।
 
# अन्न उपजाना किसान का जातिधर्म भी होता है। धार्मिक (भारतीय) समाज में व्यावसायिक कुशलताओं की बीनापर जातियाँ बनाई गईं थीं। इन जातियों के माध्यम से पुरे समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हुआ करती थी। किसान के पास अन्न उपजाने की कुशलता होती है। इसलिए विपुल मात्रा में अन्न पैदा करना किसान का जातिधर्म होता है।
 
# अन्न उपजाना किसान का जातिधर्म भी होता है। धार्मिक (भारतीय) समाज में व्यावसायिक कुशलताओं की बीनापर जातियाँ बनाई गईं थीं। इन जातियों के माध्यम से पुरे समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हुआ करती थी। किसान के पास अन्न उपजाने की कुशलता होती है। इसलिए विपुल मात्रा में अन्न पैदा करना किसान का जातिधर्म होता है।
# आयुर्वेद और एलोपेथी में जैसा अन्तर है वैसा ही अन्तर धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अभारतीय) कृषि में होता है। धार्मिक (भारतीय) कृषि अहिंसक होती है। इस में अनिष्ट जीव जंतुओं को मारने के स्थानपर श्रेष्ठ गोमूत्र, गोबर अदि के उपयोग से उपज की अवरोध शक्ति बढाई जाती है।
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# आयुर्वेद और एलोपेथी में जैसा अन्तर है वैसा ही अन्तर धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) कृषि में होता है। धार्मिक (भारतीय) कृषि अहिंसक होती है। इस में अनिष्ट जीव जंतुओं को मारने के स्थानपर श्रेष्ठ गोमूत्र, गोबर अदि के उपयोग से उपज की अवरोध शक्ति बढाई जाती है।
 
# भारत में कृषि को हमेशा अदेवमातृका रखने को कहा है। खेती के लिए पानीपर निर्भर होना टाला नहीं जा सकता। अदेवमातृका का अर्थ है जो खेती बारिश के दिनों में तो होगी ही, लेकिन किसी साल बारिश नहीं हुई तो भी खेती तो होनी चाहिए। और बारिश के काल के बाद में भी संचित पानीपर कृषि की जा सके ऐसी पानी की व्यवस्था होनी चाहिए। इस दृष्टि से विपुल संख्या में बड़े बड़े तालाब बनाए जाते थे। हर गाँव के लिए न्यूनतम १ या २ बड़े बड़े तालाब तो होते ही थे। इन तालाबों का निर्माण और रखरखाव किसान और गाँव के लोग आपस में मिलकर करते थे। संचेतन विद्या (बाँध), संहरण विद्या (कुंदों का जाल) और स्तम्भन (तालाब) विद्या आदि का उपयोग इस जल-संचय के लिए किया जाता था।
 
# भारत में कृषि को हमेशा अदेवमातृका रखने को कहा है। खेती के लिए पानीपर निर्भर होना टाला नहीं जा सकता। अदेवमातृका का अर्थ है जो खेती बारिश के दिनों में तो होगी ही, लेकिन किसी साल बारिश नहीं हुई तो भी खेती तो होनी चाहिए। और बारिश के काल के बाद में भी संचित पानीपर कृषि की जा सके ऐसी पानी की व्यवस्था होनी चाहिए। इस दृष्टि से विपुल संख्या में बड़े बड़े तालाब बनाए जाते थे। हर गाँव के लिए न्यूनतम १ या २ बड़े बड़े तालाब तो होते ही थे। इन तालाबों का निर्माण और रखरखाव किसान और गाँव के लोग आपस में मिलकर करते थे। संचेतन विद्या (बाँध), संहरण विद्या (कुंदों का जाल) और स्तम्भन (तालाब) विद्या आदि का उपयोग इस जल-संचय के लिए किया जाता था।
 
# भारतीय कृषि में प्रकृति सुसंगतता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसलिए खनिज तेल की उर्जा का उपयोग नहीं किया जाता था। मनुष्य की और पशुओं की शक्ति का उपयोग किया जाता था। इससे पर्यावरण स्वच्छ और शुद्ध रहता था। लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था। शारीरिक परिश्रम की आदत के कारण लोग दीर्घायु होते हैं।
 
# भारतीय कृषि में प्रकृति सुसंगतता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसलिए खनिज तेल की उर्जा का उपयोग नहीं किया जाता था। मनुष्य की और पशुओं की शक्ति का उपयोग किया जाता था। इससे पर्यावरण स्वच्छ और शुद्ध रहता था। लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था। शारीरिक परिश्रम की आदत के कारण लोग दीर्घायु होते हैं।
# भारतीय कृषि गो आधारित होती है। खेती के लिए लगनेवाले मानव, जमीन, बीज, हवा से मिलनेवाला नत्र वायु और पानी ये ५ बातें छोड़कर सभी बातें धार्मिक (भारतीय) गो से प्राप्त होती है। इसीलिए भी गो को हम गोमाता मानते हैं। अधार्मिक (अभारतीय) गायों के दूध में मानव के लिए हानिकारक ऐसा बीसीएम ७ यह रसायन पाया जाता है। केवल धार्मिक (भारतीय) गो के दूध में यह विषैला रसायन नहीं होता। इससे मिलनेवाले बैल खेती के लिए गोबर और गोमूत्र देने के साथ ही धान्य और सामान के वहन के लिए उपयुक्त होते है। इन के उपयोग से खनिज तेल की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोबर के बारे में हम मानते हैं की गोबर में तो लक्ष्मीजी का वास होता है। गोबर गैस का उपयोग चूल्हा जलाने के लिए भी होता है। दूध तो गो से मिलनेवाला आनुशंगिक लाभ होता था।
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# भारतीय कृषि गो आधारित होती है। खेती के लिए लगनेवाले मानव, जमीन, बीज, हवा से मिलनेवाला नत्र वायु और पानी ये ५ बातें छोड़कर सभी बातें धार्मिक (भारतीय) गो से प्राप्त होती है। इसीलिए भी गो को हम गोमाता मानते हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) गायों के दूध में मानव के लिए हानिकारक ऐसा बीसीएम ७ यह रसायन पाया जाता है। केवल धार्मिक (भारतीय) गो के दूध में यह विषैला रसायन नहीं होता। इससे मिलनेवाले बैल खेती के लिए गोबर और गोमूत्र देने के साथ ही धान्य और सामान के वहन के लिए उपयुक्त होते है। इन के उपयोग से खनिज तेल की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोबर के बारे में हम मानते हैं की गोबर में तो लक्ष्मीजी का वास होता है। गोबर गैस का उपयोग चूल्हा जलाने के लिए भी होता है। दूध तो गो से मिलनेवाला आनुशंगिक लाभ होता था।
# भारतीय मान्यता के अनुसार किसानों को यदि जीने के लिए संगठन बनाने की आवश्यकता निर्माण होती है तो या तो किसान नष्ट हो जाएगा या फिर वह समाज क नष्ट कर देगा। वर्तमान में किसान जीने के लिए संघर्ष कर रहा है। वर्तमान जीवन के अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान में किसानों का संगठित होना अत्यधिक कठिन होने के कारण किसान नष्ट ही होंगे। यही हो रहा है।
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# भारतीय मान्यता के अनुसार किसानों को यदि जीने के लिए संगठन बनाने की आवश्यकता निर्माण होती है तो या तो किसान नष्ट हो जाएगा या फिर वह समाज क नष्ट कर देगा। वर्तमान में किसान जीने के लिए संघर्ष कर रहा है। वर्तमान जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में किसानों का संगठित होना अत्यधिक कठिन होने के कारण किसान नष्ट ही होंगे। यही हो रहा है।
    
== किसान को पुन: प्रतिष्ठित कैसे करें? ==
 
== किसान को पुन: प्रतिष्ठित कैसे करें? ==
वर्तमान में जिस प्रतिमान में हम जी रहे हैं वह अधार्मिक (अभारतीय) या यूरो अमरीकी जीवन का प्रतिमान है। इस प्रतिमान में हमारे किसानों को कोइ स्थान नहीं है। इस प्रतिमान में तो ठेके की कृषि ही चलेगी। औद्योगिक कृषि ही चलेगी। जीवन के प्रतिमान का परिवर्तन करना सरल बात नहीं है। यह परिवर्तन की प्रक्रिया जैसे शिक्षा क्षेत्र में चलानी चाहिए उसी प्रकार शासकीय , आर्थिक ऐसे सभी क्षेत्रों में एकसाथ चलनी चाहिए।   
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वर्तमान में जिस प्रतिमान में हम जी रहे हैं वह अधार्मिक (अधार्मिक) या यूरो अमरीकी जीवन का प्रतिमान है। इस प्रतिमान में हमारे किसानों को कोइ स्थान नहीं है। इस प्रतिमान में तो ठेके की कृषि ही चलेगी। औद्योगिक कृषि ही चलेगी। जीवन के प्रतिमान का परिवर्तन करना सरल बात नहीं है। यह परिवर्तन की प्रक्रिया जैसे शिक्षा क्षेत्र में चलानी चाहिए उसी प्रकार शासकीय , आर्थिक ऐसे सभी क्षेत्रों में एकसाथ चलनी चाहिए।   
    
लेकिन चलाएगा कौन? सामान्यत: तो इसका उत्तर जो समस्या से पीड़ित है और जो पीड़ितों की पीड़ा को समझते हैं और दूर भी करना चाहते हैं वे लोग ही परिवर्तन के लिए पहल करेंगे। हमारी मान्यता है – उद्धरेत् आत्मनात्मानाम् । मेरा उद्धार कोई अन्य नहीं कर सकता। अन्यों की मदद मिल सकती है। पहल तो मुझे ही करनी होगी। और करनेवाले को तो ईश्वर भी सहायता करता है।  
 
लेकिन चलाएगा कौन? सामान्यत: तो इसका उत्तर जो समस्या से पीड़ित है और जो पीड़ितों की पीड़ा को समझते हैं और दूर भी करना चाहते हैं वे लोग ही परिवर्तन के लिए पहल करेंगे। हमारी मान्यता है – उद्धरेत् आत्मनात्मानाम् । मेरा उद्धार कोई अन्य नहीं कर सकता। अन्यों की मदद मिल सकती है। पहल तो मुझे ही करनी होगी। और करनेवाले को तो ईश्वर भी सहायता करता है।  
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# ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था के स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए प्रयास करना।
 
# ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था के स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए प्रयास करना।
 
# सम्भव हो तो शहर छोड़कर ग्राम का चयन कर ग्राम में रहने को जाना।
 
# सम्भव हो तो शहर छोड़कर ग्राम का चयन कर ग्राम में रहने को जाना।
# अभारतीय प्रतिमान के जिस भी क्षेत्र में हम कार्यरत हों उस के परिवर्तन और धार्मिक (भारतीय) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना।
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# अधार्मिक प्रतिमान के जिस भी क्षेत्र में हम कार्यरत हों उस के परिवर्तन और धार्मिक (भारतीय) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना।
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==

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