Difference between revisions of "Dharmik Agricultural Systems (धार्मिक कृषि दृष्टि)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m (Text replacement - "लोगो" to "लोगों")
m (Text replacement - "फिर भी" to "तथापि")
Tags: Mobile edit Mobile web edit
 
(4 intermediate revisions by the same user not shown)
Line 32: Line 32:
 
उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।
 
उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।
  
हमारे किसान अब कुछ पिछडे हुए नहीं रहे हैं। अत्याधुनिक जनुकीय तन्त्रज्ञान से निर्माण किये गए संकरित बीज, अत्याधुनिक रासायनिक खरपतवार, महंगी रासायनिक खाद, उत्तम से उत्तम रासायनिक कीटक नाशकों का उपयोग करना अब वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं। फिर भी किसानों की यह स्थिति क्यों है?
+
हमारे किसान अब कुछ पिछडे हुए नहीं रहे हैं। अत्याधुनिक जनुकीय तन्त्रज्ञान से निर्माण किये गए संकरित बीज, अत्याधुनिक रासायनिक खरपतवार, महंगी रासायनिक खाद, उत्तम से उत्तम रासायनिक कीटक नाशकों का उपयोग करना अब वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं। तथापि किसानों की यह स्थिति क्यों है?
  
उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। अतः हम पुरे समाज के जीवन की जड़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
+
उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। अतः हम पुरे समाज के जीवन की जड़़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
  
 
== अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ ==
 
== अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ ==
वर्तमान में हमने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अधार्मिक) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़ पदार्थ से ही। आधुनिक विज्ञान भी इसे जड़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:
+
वर्तमान में हमने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अधार्मिक) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़़ पदार्थ से ही। आधुनिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] भी इसे जड़़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। अतः बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। अतः बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
 
# इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।
 
# इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।
# जडवादिता : सारा विश्व जड़ से बना है ऐसा मानना। सजीव भी जड़ ही हैं, जड़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है ऐसा मानने से औरों के प्रति प्रेम, आत्मीयता, सहानुभूति, स्नेह, सदाचार, सत्यनिष्ठा आदि का कोई अर्थ नहीं रहा जाता।
+
# जड़वादिता : सारा विश्व जड़़ से बना है ऐसा मानना। सजीव भी जड़़ ही हैं, जड़़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है ऐसा मानने से औरों के प्रति प्रेम, आत्मीयता, सहानुभूति, स्नेह, सदाचार, सत्यनिष्ठा आदि का कोई अर्थ नहीं रहा जाता।
 
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के आधारपर अधार्मिक (अधार्मिक) समाज की जीवनशैली के व्यवहार सूत्र निम्न बनते हैं:
 
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के आधारपर अधार्मिक (अधार्मिक) समाज की जीवनशैली के व्यवहार सूत्र निम्न बनते हैं:
 
# सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट। बलवानों के लिए दुनिया है।
 
# सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट। बलवानों के लिए दुनिया है।
Line 64: Line 64:
 
# विश्व में परस्परावलंबन और चक्रीयता है। जिस प्रकार विश्व परमात्मा में से बना उसी तरह विश्व परमात्मा में विलीन हो जाएगा।
 
# विश्व में परस्परावलंबन और चक्रीयता है। जिस प्रकार विश्व परमात्मा में से बना उसी तरह विश्व परमात्मा में विलीन हो जाएगा।
 
# कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्म सिद्धांत इसका विवरण देता है।  
 
# कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्म सिद्धांत इसका विवरण देता है।  
# परमात्मा अनंत चेतनावान है। उससे ही बना होने के कारण सारा विश्व चेतन से बना है। विश्व में जड़ कुछ भी नहीं है। अक्रिय या निम्न स्तरीय चेतना को ही जड़ कहा गया है। चेतना के जड़ से ऊँचे चेतना के स्तरपर वनस्पति, पेड पौधे आते हैं। इससे ऊँचे चेतना के स्तर को प्राणी कहते हैं। मानव का स्तर इन सबसे ऊपर का है।
+
# परमात्मा अनंत चेतनावान है। उससे ही बना होने के कारण सारा विश्व चेतन से बना है। विश्व में जड़़ कुछ भी नहीं है। अक्रिय या निम्न स्तरीय चेतना को ही जड़़ कहा गया है। चेतना के जड़़ से ऊँचे चेतना के स्तरपर वनस्पति, पेड पौधे आते हैं। इससे ऊँचे चेतना के स्तर को प्राणी कहते हैं। मानव का स्तर इन सबसे ऊपर का है।
 
# मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। परमात्मपद प्राप्ति है। कुटुम्ब के साथ, समाज के साथ, पर्यावरण के साथ, विश्व के साथ एकात्मता का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। कुटुम्ब भावना का असीम विस्तार और विकास ही मोक्ष है।
 
# मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। परमात्मपद प्राप्ति है। कुटुम्ब के साथ, समाज के साथ, पर्यावरण के साथ, विश्व के साथ एकात्मता का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। कुटुम्ब भावना का असीम विस्तार और विकास ही मोक्ष है।
 
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के अनुसार धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली के जो व्यवहार सूत्र बनते हैं वे निम्न हैं:
 
उपर्युक्त जीवनदृष्टि के अनुसार धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली के जो व्यवहार सूत्र बनते हैं वे निम्न हैं:
Line 105: Line 105:
 
# खेती को अदेवमातृका बनाने के लिए ग्राम के लोगोंं की शक्ति से गाँव के तालाब का निर्माण या पुनर्निर्माण करना और उसका रखरखाव करना।
 
# खेती को अदेवमातृका बनाने के लिए ग्राम के लोगोंं की शक्ति से गाँव के तालाब का निर्माण या पुनर्निर्माण करना और उसका रखरखाव करना।
 
# खेती को आनुवंशिक बनाने के लिए खेती को कौटुम्बिक उद्योग बनाना।
 
# खेती को आनुवंशिक बनाने के लिए खेती को कौटुम्बिक उद्योग बनाना।
# बच्चों को भी वर्तमान शिक्षा केन्द्रों से दूर रखकर अच्छी शिक्षा के लिए किसी वानप्रस्थी त्यागमयी योग्य शिक्षक की व्यवस्था करना। शिक्षक की आजीविका की चिंता ग्राम करे ऐसी व्यवस्था बिठाना। सीखने के लिए सारा विश्व ही ग्राम है, लेकिन जीने के लिए ग्राम ही विश्व है ऐसा जिन का दृढ़ निश्चय है ऐसे बच्चों को ही केवल अध्ययन के लिए, नई उपयुक्त बातें सीखने के लिए ही ग्राम से बाहर भेजना।
+
# बच्चोंं को भी वर्तमान शिक्षा केन्द्रों से दूर रखकर अच्छी शिक्षा के लिए किसी वानप्रस्थी त्यागमयी योग्य शिक्षक की व्यवस्था करना। शिक्षक की आजीविका की चिंता ग्राम करे ऐसी व्यवस्था बिठाना। सीखने के लिए सारा विश्व ही ग्राम है, लेकिन जीने के लिए ग्राम ही विश्व है ऐसा जिन का दृढ़ निश्चय है ऐसे बच्चोंं को ही केवल अध्ययन के लिए, नई उपयुक्त बातें सीखने के लिए ही ग्राम से बाहर भेजना।
 
# यथासंभव ग्राम में से धन, पानी और जीने के लिए युवक बाहर नहीं जाए यह देखना होगा।
 
# यथासंभव ग्राम में से धन, पानी और जीने के लिए युवक बाहर नहीं जाए यह देखना होगा।
  
Line 112: Line 112:
 
# ग्राम से सीधे किसान से उत्पाद प्राप्त करने की व्यवस्था बिठाना। उत्पाद का उचित मूल्य किसान को देना।
 
# ग्राम से सीधे किसान से उत्पाद प्राप्त करने की व्यवस्था बिठाना। उत्पाद का उचित मूल्य किसान को देना।
 
# संयुक्त कुटुम्ब बनाने के प्रयास करना। इससे खेती एवं उत्पाद की माँग का परिमाण बढेगा।
 
# संयुक्त कुटुम्ब बनाने के प्रयास करना। इससे खेती एवं उत्पाद की माँग का परिमाण बढेगा।
# किसानों के बच्चों के लिए नि:शुल्क उनके ग्राम में ही धार्मिक (भारतीय) शिक्षा की व्यवस्था में योगदान देना।
+
# किसानों के बच्चोंं के लिए नि:शुल्क उनके ग्राम में ही धार्मिक (भारतीय) शिक्षा की व्यवस्था में योगदान देना।
 
# ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था के स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए प्रयास करना।
 
# ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था के स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए प्रयास करना।
 
# सम्भव हो तो शहर छोड़कर ग्राम का चयन कर ग्राम में रहने को जाना।
 
# सम्भव हो तो शहर छोड़कर ग्राम का चयन कर ग्राम में रहने को जाना।

Latest revision as of 21:59, 23 June 2021

प्रस्तावना

मोक्ष प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति यह धार्मिक (भारतीय) समाज का सदा लक्ष्य रहा है। इस दृष्टि से कृषि के क्षेत्र में हमारे पूर्वजों ने कृषि प्रक्रिया का पूर्णत्व के स्तर पर अध्ययन और विकास किया था। दसों-हजार वर्षों से खेती होने पर भी हमारी भूमि बंजर नहीं हुई। वर्तमान के रासायनिक कृषि के काल को छोड़ दें तो अभी तक हमारी भूमि उर्वरा रही है।

मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्माचरण, धर्माचरण के लिए अच्छा शरीर और अच्छे शरीर के लिए अच्छा अन्न आवश्यक होता है। कहा गया है “शरीरमाद्यं खलुधर्मसाधनम्”। इस विचार से भी हमारी कृषि दृष्टि आकार लेती है।

प्रकृति से प्राप्त जल का ही ठीक से नियोजन करना, आवश्यक तन्त्रज्ञान का विकास करना और कृषि को अदेवमातृका बनाना यह धार्मिक (भारतीय) कृषि का महत्वपूर्ण अंग था। प्रकृति से ही प्राप्त नेमतों का उपयोग कृषि के उत्पादन में वृद्धि के लिए और उपज के गुण बढाने के लिए किया जाता था। स्थानिक प्रकृति से सुसंगत ऐसे भिन्न भिन्न फसलों की जातियों का विकास किया जाता था।

भारत में वेद और उपवेदों के पूर्व काल से खेती होती रही है। अथर्ववेद के उपवेद शिल्पशास्त्रपर आधारित भृगु शिल्प संहिता के धातुखंड हिस्से में कृषि की शास्त्रीय जानकारी प्राप्त होती है। उपवेद के इस विभाग में खेती के लिए जो महत्वपूर्ण घटक हैं उन मनुष्य, पशु और वनस्पति ऐसे तीनों हिस्सों का शास्त्रीय वर्णन मिलता है।

प्रत्यक्ष कृषि से सम्बंधित महत्वपूर्ण हिस्से निम्न हैं:

  1. जल की आवश्यकता
  2. बीजसंस्कार
  3. खाद निर्माण
  4. चिकित्सा पद्दति
  5. उत्पादन संग्रह

इस के अलावा जलशास्त्र का ज्ञान भी प्राप्त होता है। बरसात के पानी की उपलब्धता के अनुसार जलसंचेतन (बड़े बाँध), जलसंहरण (छोटे छोटे कुंड़ोंका जाल) और जलस्तम्भन (बावड़ियाँ) विद्याओं का वर्णन भी इस में मिलता है।

कृषि के विषय में अन्य भी ग्रन्थ हैं जो निम्न हैं:

  1. कृषि पराशर - पराशर लिखित
  2. काश्यपीय कृषि सूक्त – कश्यप
  3. वृक्षायुर्वेद – सुरपाल
  4. उपवनविनोद – शारंगधर
  5. विश्ववल्लभ – चक्रपाणी मिश्र

अन्न, वस्त्र और मकान मानव की प्राथमिक अवश्यकताओं में हैं। इन में से अन्न और वस्त्र की पूर्ति तो अधिकांशत: कृषि के माध्यम से ही होती है। परमात्मा ने मानव को बनाया तो उसके जीने के लिए उसकी सभी आवश्यकताओं की व्यवस्था भी की। बढती हुई आबादी के कारण जब प्राकृतिक स्तर पर पाए जानेवाले फल आदि पदार्थों की कमी पड़ने लगी तब मानव ने कृषि की ख़ोज की। भारत में कृषि बहुत प्राचीन काल से होती आई है। किसी भी बात का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की भारत में परंपरा रही है। किसी भी तंत्र का विकास उसके पूर्णत्व तक कर के ही हमारे पूर्वजों ने उस का पीछा छोड़ा है। शून्य से लेकर ९ तक के गणित के अंक, गणित की मूलभूत आठ प्रक्रियाएँ इस पूर्णता के कुछ उदहारण हैं। भारतीयों ने अपने स्वभाव के अनुसार कृषि में भी पूर्णता पाने के प्रयास किये। और ऐसे कृषि तंत्र का विकास किया जो प्रकृति सुसंगत होने के साथ ही चराचर के हित में हो और चिरंजीवी भी हो। प्रकृति सुसंगत होने से यह कृषि तंत्र सदा ही खेती के लिए उपयुक्त रहा। मानव की आवश्यकताओं की सदैव पूर्ति होती रही।

अंग्रेजों के आने से पूर्व तक भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा ये तीनों बातें बिकाऊ नहीं थीं। भारत भूमि में सदा विपुल मात्र में अन्न पैदा होता रहा है। अंग्रेजों के दस्तावेज़ बताते हैं कि उनके भारत में आने के समय भारत में कृषि का तंत्र अत्यंत विकसित अवस्था में था। इंग्लैड में जो कृषि तंत्र उस समय था उससे धार्मिक (भारतीय) कृषि तंत्र बहुत प्रगत था।

आबादी की दृष्टि से भी भारत सदा बहुत घनी आबादी का देश रहा है। भारत में उत्पादन के जो मानक निर्माण किये गए थे वे अत्यंत ऊँचे थे। भारत में स्वाधीनता के बाद हरित क्रांति के काल में पंजाब में प्रति हेक्टर जो धान पैदा होता था वह देश में सबसे अधिक था। अंग्रेजों के दस्तावेज बताते हैं कि उस उत्पादन की तुलना में १३वीं सदी में तमिलनाडु के चेंगलपट्टू में १ हेक्टर में ही वर्तमान के लगभग चार गुना धान पैदा किया जाता था। १६ वीं सदी के आंकड़े भी बताते हैं कि प्रति हेक्टर उत्पादन कम हो जाने पर भी वर्तमान के पंजाब के हरित क्रांति के काल के सर्वोत्तम उत्पादन से दुगुना उत्पादन मिलता था।

उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।

हमारे किसान अब कुछ पिछडे हुए नहीं रहे हैं। अत्याधुनिक जनुकीय तन्त्रज्ञान से निर्माण किये गए संकरित बीज, अत्याधुनिक रासायनिक खरपतवार, महंगी रासायनिक खाद, उत्तम से उत्तम रासायनिक कीटक नाशकों का उपयोग करना अब वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं। तथापि किसानों की यह स्थिति क्यों है?

उपर्युक्त सभी बातें हमें इस विषयपर गहराई से विचार करने को बाध्य करती हैं। ऐसा समझ में आता है कि कुछ मूल में ही गड़बड़ हुई है। अतः हम पुरे समाज के जीवन की जड़़ में जाकर इस समस्या का विचार करेंगे।[1]

अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्थाएँ

वर्तमान में हमने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवन के प्रतिमान को अपनाया हुआ है। हमारी जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ सब अधार्मिक (अधार्मिक) हो गया है। जब तक हम इस धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जो अन्तर है उसे नहीं समझेंगे इस समस्या की जड़़ तक नहीं पहुँच सकेंगे। जीवनदृष्टि, जीवनशैली और जीवन की व्यवस्थाएँ ये सब मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि का आधार उनकी विश्व निर्माण की कल्पना में है। उनकी समझ के अनुसार विश्व का निर्माण या तो अपने आप हुआ है या किसी गौड़ ने या अल्लाह ने किया है। किन्तु इसे बनाया गया है जड़़ पदार्थ से ही। आधुनिक विज्ञान भी इसे जड़़ से बना हुआ ही मानता है। इन जड़़ पदार्थों में होनेवाली रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप जीव पैदा हो गया। सभी जीव रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे मात्र हैं। इसी तरह हमारा मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। इस जन्म के बाद भी मैं नहीं रहूँगा। इन मान्यताओं के आधारपर इस अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:

  1. व्यक्तिवादिता या स्वार्थवादिता : जब व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व होता है तो वहां दुर्बल के स्वार्थ को कोई नहीं पूछता। अतः बलवानों के स्वार्थ के लिए समाज में व्यवस्थाएं बनतीं हैं। फिर “सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट” याने जो बलवान होगा वही जियेगा। जो दुर्बल होगा वह बलवान के लिए और बलवान की इच्छा के अनुसार जियेगा। इसी का अर्थ है “एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक” याने बलवान को दुर्बल का शोषण करने की छूट है। इस मान्यता के कारण मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट हो जाती है। हर परिस्थिति में वह केवल अपने हित का ही विचार करता है।
  2. इहवादिता : इसका अर्थ है इसी जन्म को सबकुछ मानना। पुनर्जन्म को नहीं मानना। मेरा न इससे पहले कोई जन्म था और न ही आगे कोई जन्म होगा। ऐसा मानने से मानव उपभोगवादी बन जाता है।
  3. जड़वादिता : सारा विश्व जड़़ से बना है ऐसा मानना। सजीव भी जड़़ ही हैं, जड़़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है ऐसा मानने से औरों के प्रति प्रेम, आत्मीयता, सहानुभूति, स्नेह, सदाचार, सत्यनिष्ठा आदि का कोई अर्थ नहीं रहा जाता।

उपर्युक्त जीवनदृष्टि के आधारपर अधार्मिक (अधार्मिक) समाज की जीवनशैली के व्यवहार सूत्र निम्न बनते हैं:

  1. सर्व्हायव्हल ऑफ़ द फिटेस्ट। बलवानों के लिए दुनिया है।
  2. एक्स्प्लोयटेशन ऑफ़ द वीक। दुर्बलों का शोषण।
  3. फाइट फॉर सर्व्हायव्हल। जीने के लिए संघर्ष आवश्यक है।
  4. राइट्स एण्ड नो ड्यूटीज। मेरे अधिकार हैं। कर्तव्य नहीं हैं।
  5. फाइट फॉर राइट्स। अधिकारों के लिए संघर्ष।
  6. पीसमील एप्रोच। मैं और अन्य ऐसा टुकड़ों में विचार करना।
  7. कंझ्युमेरिझम । उपभोक्तावादिता। चार्वाक जीवनदृष्टि। यावद् जीवेत सुखं जीवेत कृत्वा घृतं पिबेत। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनाय कुत:। अर्थ:जो भी है यही जन्म है। अतः जितना उपभोग कर सको कर लो। मरने के बाद आगे क्या होगा किसने देखा है?
  8. सभी सामाजिक संबंधों का आधार “स्वार्थ” है। सभी सामाजिक संबंध पति पत्नि का सम्बन्ध (विवाह) भी कॉन्ट्रैक्ट है।
  9. उपर्युक्त जीवनशैली के अनुसार जीने के लिए जो व्यवस्था समूह बना है उसका स्वरूप निम्न है:
Adharmik System.jpg

इस अधार्मिक (अधार्मिक) व्यवस्था समूह की विशेषताएँ निम्न हैं:

  1. शासन सर्वसत्ताधीश है। अंग्रेजी कहावत है – पॉवर करप्ट्स एण्ड अब्सोल्युट पॉवर करप्ट्स अब्सोल्युटली । सत्ता होती है तो भ्रष्टाचार होता ही है। और अमर्याद सत्ता होती है तो भ्रष्टाचार की भी कोई मर्यादा नहीं रह जाती। सारी व्यवस्थाएँ बलवानों के स्वार्थ को पोषक होतीं हैं। सभी सामाजिक संबंधों का आधार स्वार्थ होता है। गुरु विक्रेता होता है। शिष्य खरीददार।
  2. अर्थव्यवस्था में स्वार्थ भावना के कारण गलाकाट स्पर्धा चलती है। किसान जैसा घटक इस स्पर्धा में नष्ट हो जाता है। जैसा दुनिया भर के प्रगत देशों में हुआ है।
  3. नौकरों का इकोनोमिक्स पनपता है। ९९ % नौकर और मुश्किल से १ % मालिक। सारा समाज नौकरों की मानसिकता का बन जाता है।
  4. व्यक्तिवादिता के कारण जो स्वार्थ भाव पनपता है वह मानव की सामाजिकता की और परस्परावलंबन की भावना को नष्ट कर देता है। कुटुम्ब टूट जाते हैं। समाज लिव्ह इन रिलेशनशिप याने स्वेच्छा सहनिवास की ओर बढ़ता है। आत्मनाश की दिशा प्राप्त करता है।

भारतीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली और व्यवस्था समूह का ढाँचा

प्रारंभ में केवल परमात्मा था। उसने अपने में से ही सरे विश्व का सृजन किया। सारे विश्व के अस्तित्व ये परमात्मा के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। अतः चराचर विश्व में परस्पर संबंधों का आधार एकात्मता है। आत्मीयता है। प्यार है। कुटुम्ब भावना है। विश्व निर्माण की इस धार्मिक (भारतीय) मान्यता के कारण धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र बनते हैं:

  1. चराचर विश्व के परस्पर सम्बन्ध एकात्मता के हैं। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है।
  2. विश्व में परस्परावलंबन और चक्रीयता है। जिस प्रकार विश्व परमात्मा में से बना उसी तरह विश्व परमात्मा में विलीन हो जाएगा।
  3. कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्म सिद्धांत इसका विवरण देता है।
  4. परमात्मा अनंत चेतनावान है। उससे ही बना होने के कारण सारा विश्व चेतन से बना है। विश्व में जड़़ कुछ भी नहीं है। अक्रिय या निम्न स्तरीय चेतना को ही जड़़ कहा गया है। चेतना के जड़़ से ऊँचे चेतना के स्तरपर वनस्पति, पेड पौधे आते हैं। इससे ऊँचे चेतना के स्तर को प्राणी कहते हैं। मानव का स्तर इन सबसे ऊपर का है।
  5. मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। परमात्मपद प्राप्ति है। कुटुम्ब के साथ, समाज के साथ, पर्यावरण के साथ, विश्व के साथ एकात्मता का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। कुटुम्ब भावना का असीम विस्तार और विकास ही मोक्ष है।

उपर्युक्त जीवनदृष्टि के अनुसार धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली के जो व्यवहार सूत्र बनते हैं वे निम्न हैं:

  1. आत्मवत् सर्वभूतेषु । मैं अपने लिए औरों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा करता हूँ वैसा ही व्यवहार मैं औरों से करूँ। इसी का विस्तार है – मातृवत परदारेषु, काष्ठवत परद्रव्येषु आदि।
  2. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सब सुखी हों। सबका स्वास्थ्य अच्छा रहे।
  3. वसुधैव कुटुम्बकम । सारा विश्व एक कुटुम्ब है। हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुम्ब है।
  4. कृण्वन्तो विश्वमार्यम । हम अपने श्रेष्ठ व्यवहार से सारे विश्व को आर्य याने “सर्वे भवन्तु” का व्यवहार करनेवाला बनाएँगे। इसके लिए बलप्रयोग नहीं होगा। हमारे श्रेष्ठ व्यवहार से सीख लेकर विश्व के लोग हम जैसा बनेंगे।
  5. अपने कर्तव्य और अन्यों के अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करना। जब सब अपने अपने कर्तव्य करते हैं तो सभी के अधिकारों की पूर्ति तो अपने आप ही हो जाती है।
  6. ऋणमुक्ति : ५ प्रकार के ऋण होते हैं। देव ऋण, पितर ऋण, ऋषि ऋण, नृऋण और भूत ऋण। धार्मिक (भारतीय) मान्यता है कि जब ये ऋण बढ़ाते जाते हैं हम अगले जन्म में अधम गति को याने हीं जन्म को प्राप्त होते हैं। और इस जन्म में यदि ऋणों से अधिक ऋण मुक्ति होती है तो हम श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं।

कृषि सम्बन्धी धार्मिक (भारतीय) दृष्टि

  1. भारतीय मान्यता है – उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और कनिष्ठ नौकरी।
  2. भारतीय मान्यता के अनुसार अन्न को परब्रह्म माना गया है। इस परब्रह्म का निर्माता तो सृष्टि निर्माता का ही लघुरूप होता है।
  3. किसान अन्नदाता है। अन्न से शरीर बनता है। और शरीर धर्म के आचरण के लिए और उसके माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। इस कारण किसान का समाज में अनन्य साधारण महत्त्व है। जिस समाज में किसान की उपेक्षा होती है वह समाज धीरे धीरे नष्ट हो जाता है। खेती कर अन्न उपजाना यह महापुण्य का काम होता है। अतः भारत में तो जनक राजा, बलिराजा जैसे कई राजा भी खेती किया करते थे।
  4. मोक्ष प्राप्ति यह मानव जीवन का लक्ष्य है। जितना अधिक परोपकारी जीवन उतना मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः हर कार्य करते समय उसे नि:स्वार्थ भावना से करना मोक्ष की दिशा में आगे बढना है। इसके लिए किसान को तो उसका सहज और स्वाभाविक कार्य ही याने अन्न उत्पादन ही करना होता है। वह करते समय स्वार्थ की भावना नहीं रखनीं चाहिये।
  5. जब कोई वस्तु नि:स्वार्थ भाव से दी जाती है तो उसे दान कहते हैं। प्राणदान अत्यंत श्रेष्ठ दान होता है। और अन्नदान एक दृष्टि से प्राणदान ही होता है।
  6. गो आधारित धार्मिक (भारतीय) खेती चिरंजीवी खेती होती है। कृषि कार्य में पूर्णत्व की प्रणाली होती है।
  7. अति प्राचीन काल से भारत में जैविक खेती ही होती रही है।
  8. विश्व का हर अस्तित्व याने चराचर हमारे कुटुम्ब का हिस्सा होता है। उसी तरह हमारी जमीन हमारी माता होती है। प्रकृति हमारी माता होती है। जिसकी कोख से हमने जन्म लिया है उस माता की तरह ही ये दोनों आदरणीय और पवित्र होती है।
  9. श्रीमदभगवदगीता (अध्याय ३) में यज्ञचक्र का वर्णन है। अन्न का निर्माण यह उस यज्ञचक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह यज्ञ ठीक चलता है तो दुनियाँ ठीक चलती है। यज्ञचक्र ठीक से चलाना यह एक दृष्टि से परमात्मा का ही काम है जो किसान करता है।
  10. अन्न उपजाना किसान का जातिधर्म भी होता है। धार्मिक (भारतीय) समाज में व्यावसायिक कुशलताओं की बीनापर जातियाँ बनाई गईं थीं। इन जातियों के माध्यम से पुरे समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हुआ करती थी। किसान के पास अन्न उपजाने की कुशलता होती है। अतः विपुल मात्रा में अन्न पैदा करना किसान का जातिधर्म होता है।
  11. आयुर्वेद और एलोपेथी में जैसा अन्तर है वैसा ही अन्तर धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) कृषि में होता है। धार्मिक (भारतीय) कृषि अहिंसक होती है। इस में अनिष्ट जीव जंतुओं को मारने के स्थानपर श्रेष्ठ गोमूत्र, गोबर अदि के उपयोग से उपज की अवरोध शक्ति बढाई जाती है।
  12. भारत में कृषि को सदा अदेवमातृका रखने को कहा है। खेती के लिए पानीपर निर्भर होना टाला नहीं जा सकता। अदेवमातृका का अर्थ है जो खेती बारिश के दिनों में तो होगी ही, लेकिन किसी साल बारिश नहीं हुई तो भी खेती तो होनी चाहिए। और बारिश के काल के बाद में भी संचित पानीपर कृषि की जा सके ऐसी पानी की व्यवस्था होनी चाहिए। इस दृष्टि से विपुल संख्या में बड़े बड़े तालाब बनाए जाते थे। हर गाँव के लिए न्यूनतम १ या २ बड़े बड़े तालाब तो होते ही थे। इन तालाबों का निर्माण और रखरखाव किसान और गाँव के लोग आपस में मिलकर करते थे। संचेतन विद्या (बाँध), संहरण विद्या (कुंदों का जाल) और स्तम्भन (तालाब) विद्या आदि का उपयोग इस जल-संचय के लिए किया जाता था।
  13. भारतीय कृषि में प्रकृति सुसंगतता का विशेष ध्यान रखा जाता है। अतः खनिज तेल की उर्जा का उपयोग नहीं किया जाता था। मनुष्य की और पशुओं की शक्ति का उपयोग किया जाता था। इससे पर्यावरण स्वच्छ और शुद्ध रहता था। लोगोंं का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था। शारीरिक परिश्रम की आदत के कारण लोग दीर्घायु होते हैं।
  14. भारतीय कृषि गो आधारित होती है। खेती के लिए लगनेवाले मानव, जमीन, बीज, हवा से मिलनेवाला नत्र वायु और पानी ये ५ बातें छोड़कर सभी बातें धार्मिक (भारतीय) गो से प्राप्त होती है। इसीलिए भी गो को हम गोमाता मानते हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) गायों के दूध में मानव के लिए हानिकारक ऐसा बीसीएम ७ यह रसायन पाया जाता है। केवल धार्मिक (भारतीय) गो के दूध में यह विषैला रसायन नहीं होता। इससे मिलनेवाले बैल खेती के लिए गोबर और गोमूत्र देने के साथ ही धान्य और सामान के वहन के लिए उपयुक्त होते है। इन के उपयोग से खनिज तेल की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोबर के बारे में हम मानते हैं की गोबर में तो लक्ष्मीजी का वास होता है। गोबर गैस का उपयोग चूल्हा जलाने के लिए भी होता है। दूध तो गो से मिलनेवाला आनुशंगिक लाभ होता था।
  15. भारतीय मान्यता के अनुसार किसानों को यदि जीने के लिए संगठन बनाने की आवश्यकता निर्माण होती है तो या तो किसान नष्ट हो जाएगा या फिर वह समाज क नष्ट कर देगा। वर्तमान में किसान जीने के लिए संघर्ष कर रहा है। वर्तमान जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में किसानों का संगठित होना अत्यधिक कठिन होने के कारण किसान नष्ट ही होंगे। यही हो रहा है।

किसान को पुन: प्रतिष्ठित कैसे करें?

वर्तमान में जिस प्रतिमान में हम जी रहे हैं वह अधार्मिक (अधार्मिक) या यूरो अमरीकी जीवन का प्रतिमान है। इस प्रतिमान में हमारे किसानों को कोइ स्थान नहीं है। इस प्रतिमान में तो ठेके की कृषि ही चलेगी। औद्योगिक कृषि ही चलेगी। जीवन के प्रतिमान का परिवर्तन करना सरल बात नहीं है। यह परिवर्तन की प्रक्रिया जैसे शिक्षा क्षेत्र में चलानी चाहिए उसी प्रकार शासकीय , आर्थिक ऐसे सभी क्षेत्रों में एकसाथ चलनी चाहिए।

लेकिन चलाएगा कौन? सामान्यत: तो इसका उत्तर जो समस्या से पीड़ित है और जो पीड़ितों की पीड़ा को समझते हैं और दूर भी करना चाहते हैं वे लोग ही परिवर्तन के लिए पहल करेंगे। हमारी मान्यता है – उद्धरेत् आत्मनात्मानाम् । मेरा उद्धार कोई अन्य नहीं कर सकता। अन्यों की सहायता मिल सकती है। पहल तो मुझे ही करनी होगी। और करनेवाले को तो ईश्वर भी सहायता करता है।

किसान को क्या करना होगा?

किसान को यह समझ लेना चाहिए कि ग्राम यदि ग्राम बने रहेंगे तो वह बचेगा। शहरीकरण में उसका नष्ट होना सुनिश्चित है। ग्राम की व्याख्या है – स्थानिक संसाधनों के आधारपर जीनेवाला परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी समुदाय। एक ढंग से एक बड़ा ग्राम-कुटुम्ब। किसान को निम्न बातें करनी होंगी:

  1. अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम करना। व्यय को कम से कम रखना।
  2. अनिवार्यता की स्थिति में ही ऋण लेना। योगेश्वर कृषि जैसे प्रयोग अपने गाँव में चलाना।
  3. कितना भी अच्छा वर हो अपनी बेटी को शहर में नहीं ब्याहना। ग्राम का ही किसान पति खोजना।
  4. अपने ग्राम को जो वर्तमान में व्हिलेज या शहर बनने चल पडा है, उसे फिर से ग्राम बनाना। ग्राम को स्वावलंबी बनानेवाली ग्राम कुल की अर्थव्यवस्था कैसी होती थी, आज कैसी होनी चाहिए इसे ठीक से समझकर क्रियान्वयन करना। (यह देखें)
  5. इस दृष्टि से पैसे का विनिमय कम कम करते जाना। ग्राम में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करना।
  6. खेती को अदेवमातृका बनाने के लिए ग्राम के लोगोंं की शक्ति से गाँव के तालाब का निर्माण या पुनर्निर्माण करना और उसका रखरखाव करना।
  7. खेती को आनुवंशिक बनाने के लिए खेती को कौटुम्बिक उद्योग बनाना।
  8. बच्चोंं को भी वर्तमान शिक्षा केन्द्रों से दूर रखकर अच्छी शिक्षा के लिए किसी वानप्रस्थी त्यागमयी योग्य शिक्षक की व्यवस्था करना। शिक्षक की आजीविका की चिंता ग्राम करे ऐसी व्यवस्था बिठाना। सीखने के लिए सारा विश्व ही ग्राम है, लेकिन जीने के लिए ग्राम ही विश्व है ऐसा जिन का दृढ़ निश्चय है ऐसे बच्चोंं को ही केवल अध्ययन के लिए, नई उपयुक्त बातें सीखने के लिए ही ग्राम से बाहर भेजना।
  9. यथासंभव ग्राम में से धन, पानी और जीने के लिए युवक बाहर नहीं जाए यह देखना होगा।

किसान की पीड़ा को समझनेवाले लोगोंं को क्या करना होगा?

बाहर से उपदेश देना सरल होता है। लेकिन उसके लिए स्वत: त्याग करना बहुत कठिन होता है। लेकिन इस त्याग के अभाव में तो चिंता जताना केवल आडंबर ही होगा। किसान बचाने की इच्छा है ऐसे लोगोंं को निम्न बातें करनी चाहिए:

  1. ग्राम से सीधे किसान से उत्पाद प्राप्त करने की व्यवस्था बिठाना। उत्पाद का उचित मूल्य किसान को देना।
  2. संयुक्त कुटुम्ब बनाने के प्रयास करना। इससे खेती एवं उत्पाद की माँग का परिमाण बढेगा।
  3. किसानों के बच्चोंं के लिए नि:शुल्क उनके ग्राम में ही धार्मिक (भारतीय) शिक्षा की व्यवस्था में योगदान देना।
  4. ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था के स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए प्रयास करना।
  5. सम्भव हो तो शहर छोड़कर ग्राम का चयन कर ग्राम में रहने को जाना।
  6. अधार्मिक प्रतिमान के जिस भी क्षेत्र में हम कार्यरत हों उस के परिवर्तन और धार्मिक (भारतीय) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना।

उपसंहार

वर्तमान में उपर्युक्त बातें किसानों को बताने पर वे पलटकर पूछेंगे कि यह सब उपदेश हमें ही क्यों दे रहे हैं? इन सब बातों का हम पालन करेंगे तो हम तो गरीब ही रहेंगे। और केवल गरीब ही नहीं रहेंगे तो आज जैसे कई किसान आत्महत्या कर रहे हैं वैसे हमें भी आत्महत्या करनी पड़ेगी। उन का कहना तो उचित ही है। लेकिन फिर इसका हल कैसे निकलेगा? किसी को तो पहल करनी ही होगी। किसान यदि अन्य समाज के बदलने की राह देखेगा तो न किसान बचेगा और न ही समाज। वह जब धार्मिक (भारतीय) पद्दति से खेती करेगा तो वह स्वावलंबी बनेगा। जब वह स्वावलंबी बनेगा तो आत्महत्या की नौबत ही नहीं आएगी।

बचपन में एक कहानी सुनी थी। एक बार किसी गाँव में कई वर्षों तक बारिश नहीं हुई। हर साल बारिश होगी अतः सब किसान तैयारी करते थे। मेंढक टर्राते थे। पक्षी अपने घोसलों का रखरखाव करते थे। मोर नाचते थे। लेकिन सब व्यर्थ हो जाता था। बारिश नहीं आती थी। सब तैयारी व्यर्थ हो जाती थी। सब निराश हो गए थे। अब की बार फिर बारिश के दिन आए। लेकिन किसानों ने ठान लिया था कि अब वे खेती की तैयारी नहीं करेंगे। किसानों ने कोई तैयारी नहीं की। मेंढकों ने टर्राना बंद कर दिया। पक्षियों ने अपने घोसलों का रखरखाव नहीं किया। लेकिन एक मोर ने सोचा यह तो ठीक नहीं है। औरों ने अपना काम बंद किया होगा तो करने दो। मैं क्यों मेरा काम नहीं करूँ? उसने तय किया की बादल आयें या न आयें, बारिश हो या नहीं, वह तो अपना काम करेगा। वह निकला और लगा झूमझूम कर नाचने। उस को नाचते देखकर पक्षियों को लगा की हम क्यों अपना काम छोड़ दें। वे भी लगे अपने घोसलों के रखरखाव में। मेंढकों ने सोचा वे भी क्यों अपना काम छोड़ें। वे भी लगे टर्राने। फिर किसान भी सोचने लगा ये सब अपना काम कर रहे हैं, फिर मैं क्यों अपना काम छोड़ दूँ ? वह भी लगा तैयारी करने। ऐसे सब को अपना काम करते देखकर वरुण देवता जो बारिश लाते हैं, उन को शर्म अनुभव हुई। मेंढक, मोर जैसे प्राणी भी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। फिर मैंने अपना काम क्यों छोड़ा है ? वह झपटे। बादलों को संगठित किया और लगे पानी बरसाने। किसान खुशहाल हो गया। सारा गाँव खुशहाल हो गया।

हम जानते हैं कि यह तो मात्र कथा है। लेकिन इस के सिवाय दूसरा मार्ग भी तो नहीं है। अन्य लोग अपना कर्तव्य निभा रहे हैं या नहीं इस की चिंता किये बगैर ही हम किसानों को और किसानों की पीड़ा समझनेवाले किसानों के समर्थकों को मोर की तरह सोचना होगा। अपने कर्तव्यों का, जातिधर्म का पालन करना हमें अपने से आरम्भ करना होगा। रास्ता तो यही है। हम कोई ५-६ दिन काम कर थककर छठे सातवें दिन आराम करनेवाले नौकर लोग या गॉड तो नहीं हैं। सूरज की तरह, परोपकारी पेड़ों की तरह प्रकृति माता की तरह अविश्रांत परिश्रम करनेवाले और मालिक की मानसिकतावाले लोग हैं हम। शक्ति भी हम में कुछ कम नहीं है। बस निश्चय करने की आवश्यकता मात्र है।

References

  1. जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३६, लेखक - दिलीप केलकर