Dharma: Dharmik Jeevan Drishti (धर्म:धार्मिक जीवन दृष्टि)

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धर्म के बारे में में बडे बडे विद्वानों ने बहुत भ्रम निर्माण कर रखा है । कई लोग कहते हैं कि धर्म के कारण विश्व में जितने नरसंहार हुए अन्य किसी कारण से नही हुए । धर्म एक अफीम की गोली है । ऐसा कहकर धर्म को बदनाम करने के प्रयास किये गए हैं । आज भी किये जा रहे हैं । वास्तव में ऐसा जिन विद्वानों ने कहा है उन्हे धर्म का अर्थ ही समझ मे नहीं आया था और नहीं आया है । रिलीजन, मजहब के स्थान पर धर्म शब्द का और धर्म के स्थान पर रिलीजन, मजहब इन शब्दों का प्रयोग अज्ञानवश लोग करते रहते हैं। इसलिये धर्म और रिलीजन, मजहब और संप्रदाय इन तीनो शब्दों के अर्थ समझना भी आवश्यक है। यह अंतर हम "धर्म एवं पंथ (सम्प्रदाय) में अंतर" में अध्ययन करेंगे ।

भारतीय परंपरा में पग पग पर और क्षण क्षण पर धर्म के पालन का आग्रह है । हमारी कोई कृति धर्म विरोधी ना हो ऐसा उपदेश दिया गया है । तैत्तिरीय उपनिषद् में ‘संमावर्तन’ संस्कार के समय जो गुरू द्वारा दिए गए आदेश और उपदेश हैं और जो शिष्यों द्वारा किये गए संकल्प हैं उनमें एक है ‘धर्मं चर’ अर्थात सदा धर्मयुक्त आचरण करो। इसलिये धर्म के अर्थ को समझना आवश्यक है ।

धर्म की व्याख्या

धर्म की अनेक व्याख्याएं है । उन में से कुछ महत्वपूर्ण व्याख्याओं का अब हम विचार करेंगे ।

क) धर्मो धारयते प्रजा : यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्याख्या है । जिन बातों के करने और ना करने से समाज की धारणा होती है उन का नम धर्म है । समाज की धारणा का अर्थ है समाज बने रहना, बलवान बनना, समाजजीवन में लचीलापन होना, समाज निरोग रहना और समाजजीवन मे तितिक्षा रहना । शरीरधर्म शब्द का प्रयोग हम कई बार करते है । इस का अर्थ है सर्वप्रथम शरीर बनाए रखने के लिये खाना पिना, मलमूत्र विसर्जन, आराम व्यायाम आदि के माध्यम से शरीर को बनाए रखना । दूसरे शरीर बलवान बनाना । जिसे आयुर्वेद में युक्त आहार विहार कहा है ऐसे व्यायाम, योग, योग्य आदतें योग्य पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से शरीर बलवान बनाना । तीसरा है शरीर को लचीला बनाना और बनाए रखना । इस के लिये आसन या विविध प्रकार के खेल का अनियमित अभ्यास करना । चौथा है निरोग रहना । योग्य आदतें आहार विहार और दिनचर्या और ॠतुचर्या के अनुसार आचरण से शरीर निरोगी रहता है । तितिक्षा अर्थात् दम यह पाँचवीं बात है । विपरीत परिस्थियों में भी अधितम कालतक शरीर स्वस्थ बनाए रखने का अर्थ है तितिक्षावान बनना । यह अभ्यास से, शरीर के बल के आधारपर और इच्छाशक्ति बढाने से होता है। यह सब हो इस हेतु जो भी करना पडता है बस वही शरीरधर्म माना जाता है। इसी प्रकार पड़ोसी धर्म भी होता है । पड़ोसीयों के साथ संबंध बनें रहें, मजबूत हों, लचीले रहें, निरोग रहें और तितिक्षावान रहें इस हेतु जो जो करना पडे वही पड़ोसी धर्म कहलाता है । समाज बने रहने से तात्पर्य है समाज सातत्य से । समाज अपने वप्रशिष्ठयों के साथ चिरंजीवी बने इस के लिये आवश्यक बातें । समाज बलवान बनता है संगठन से । परस्पर प्रेमभाव से । ऐसा संगठन बनाने के लिये और परस्पर प्रेमभाव निर्माण करने और बनाए रखने की व्यवस्था से । समाज निरोगी, लचीला और तितिक्षावन बनता है योग्य संस्कार और शिक्षा और सुयोग्य व्यवस्थाओं के कारण । इसलिये हमारे पूर्वजों ने इस के लिये अधिजनन, पीढी-दर-पीढी संस्कार संक्रमण के लिये कुटुंब व्यवस्था, श्रेष्ठ, तेजस्वी और प्रभावी ऐसी गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था, चतुराश्रम व्यवस्था, वर्णव्यवस्था आदी का निर्माण और व्यवहार किया था । इन्ही के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों के निरंतर विदेशी बर्बर आक्रमणों के उपरांत भी हम आज अपनी अत्यंत श्रेष्ठ ऐसी वेदकालीन परंपराओं से अबतक पूर्णत: टूटे नहीं हैं। ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य: धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटकद्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य । सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है - अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: । एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु: ॥ ( मनुस्मृती १० - १६३)

  	भावार्थ : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है । व्यक्ति के भी समाज के अन्य घटकों के साथ जो परस्पर संबंध है उन के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्य भी होते है । जप्रसे पत्नी से संबंधित पति के कर्तव्यों को पतिधर्म कहा जाता है । पडोसी से संबंधित कर्तवुव्यों को  पडोसीधर्म कहा जाता है । बेटे-बेटी के अपने मातापिता के प्रति कर्तव्यं को पुत्रधर्म कहा जाता है । व्यापारी के ग्राहक के प्रति कर्तवों को व्यापारी धर्म कहा जाता है । सप्रनिक के अपने देश के प्रति कर्तव्यों को सप्रनिकधर्म कहा जाता है । 

इस मे एक बात महत्वपूर्ण है । कोई भी व्यक्तिगत स्तर का कर्तव्य सामासिक धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम आदि कर्तव्यों के विपरीत नही होना चाहिये । इसी कर्तव्य संबंधों का एक पहलू नीचे दिया है - त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ भावार्थ : जब कुलपर संकट हो तो व्यक्ति ने कुल के हित में त्याग करना चाहिये । या कुल न ए व्य्क्ति के हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये । ग) धर्म मानव और पशू में अंतर आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशू में समान है । मानव की विशेषता इसी में है की वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशू ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है - आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: । रामायण में बाली ने जब राम से पूछ की आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्याप्त मारा ? राम ने उन्हे याद दिलाया की तुम्हारा व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । और पशू को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है । घ ) दशलक्षण धर्म धर्म की मनुस्मृती में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । वह है - धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: । धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं ॥ भावार्थ : धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, विवेक, ज्ञान, सत्य और अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण है। इन के अर्थ भी समझना महत्वपूर्ण है । धैर्य का अर्थ है विपरीत स्थिती में भी संयमित व्यवहार करना । सामान्य शब्दों में धीरज से काम लेना । क्षमा का अर्थ है किसी ने अपने साथ किये अपराध के लिये उसे माफ करना । क्षमा करना यह बडप्पन का लक्षण है । किन्तु क्षमा अनधिकार नही होनी चाहिये । उदा. सहकारी संस्था के एक कर्मचारी ने संस्था के पप्रसों का अपहार किया । संस्था संचालक ने उसे माफ कर दिया । तब यह संस्था के संचालक की अनधिकार चेष्टा हुई । संस्था के सदस्य उस संस्था के मालिक है । उन की अनुमति के सिवा उस कर्मचारी को माफ करना संचालक के लिये अनधिकार कृत्य ही है । और एक उदाहरण लें । पृथ्वीराज चौहान ने घोरी को कई बार युध्द में हराया । और हर बार क्षमा कर दी । एक राजा के तौरपर ऐसी क्षमा करने के परिणाम क्या हो सकते है ? उन परिणामों को निरस्त करने के लिये कार्यवाही किये बगप्रर ही ऐसी क्षमा करने का अर्थ है की पृथ्वीराज ने, जनता ने उसे जो अधिकार दिये थे (प्रजा के संरक्षण के) उन का उल्लंघन किया था । अतएव पृथ्वीराज का घोरी को पहली बार क्षं करना एक बार क्षम्य माना जा सकता है । दूसरी बार क्षमा करना तो तब ही क्षम्य माना जा सकता है जब घोरीद्वारा पुन: आक्रमण की सभी संभावनाएं नष्ट कर दी गयी हों । और बारबार क्षमा करना तो पृथ्वीराज की मूर्खता का ही लक्षण और राजधर्म का उल्लंघन ही माना जाएगा । इस संबंध में भी घोरी को क्षमा के कारण केवल पृथ्वीराज को केवल व्यक्तिगत हानी होनेवाली होती तो भी पृथ्वीराज का क्षमाशीलता के लिये काप्रतुक किया जा सकता है । किंतु जब हर बार होनेवाले आक्रमण में हजारों सप्रनिक मारे जाते थे और पराभव के बाद तो कत्लेआम ही हुवा । इन सबका अपश्रेय पृथ्वीराज को और उसने क्षमा के लगाए गलत अर्थ को जाता है । दम का अर्थ है तप । सातत्य से एक बात की आस लेकर प्रयत्नों की पराकाष्टा करते हुए भी उसे प्राप्त करने को दम कहते है । अस्तेय का अर्थ है अचौर्य । चोरी नही करना । किसी की अनुमति के बिना उस की वस्तू लेना या उस का उपयोग करना चोरी कहा जाता है । अर्थात् जो मेरे परिश्रम की कमाई का नही है और मै उस का उपभोग करता हूं तो मैं चोरी करता हूं । शौच का अर्थ है शरीर (बाहर की), मन, बुध्दि और चित्त इन सब की अर्थात् (अंत:करण की) ऐसी अंतर्बाह्य स्वच्छता। धी का अर्थ है विवेक । योग्य अयोग्य, सत्य असत्य, करणीय अकरणीय, सर्वहितकारी क्या है और क्या नही है और क्या कितना सर्वहितकारी है यह समझना आदि में अंतर समझने की क्षमता को और उस के अनुरूप जो योग्य है, सत्य के पक्ष में है, सर्वहितकारी है उस के अनुसार व्यवहार करने को धी कहते है । ज्ञान अर्थात् योग्य जानकारी प्राप्त करना और उस का सर्वहितकारी पध्दति से उपयोग करने की कला को विद्या कहते है । यह विद्या ही है जो मनुष्य को मोक्षमार्गपर आगे बढाती है । इसीलिये कहा गया है सा विद्या या विमुक्तये । सत्य का अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा सत्य व्यवहार करना । मन में भी असत्य का साथ देने की इच्छा नही जगना । वाणी से असत्य भाषण नही करना और कृति से असत्य का साथ ना देना इन सब का मिलाकर अर्थ है सत्य धर्म का पालन करना । सत्य की कसाप्रटि तो तब ही लगती है जब सत्य व्यवहार के कारण मेरा नुसान होगा यह निश्चित होते हुए भी मै सत्य का व्यवहार करूं । अक्रोध का अर्थ है किसी भी परिस्थिति में गुस्से में आकर कोई कृति नही करना । श्रीमद्भगवद्गीता में भी उपदेश है की 'युध्दस्य विगत ज्वर:’ अर्थात् युध्द भी करो तो क्रोध में आकर ना करो। असूरों का संहार तो करो किन्तु विवेक से करो । गुस्से में आकर नहीं। गीता में श्रीकृष्ण क्रोध का परिणाम अंत में सर्वनाश में कैसे होता है, इस का वर्णन करते है - क्रोधात् भवति संमोहात् संमोहात स्मृतिविभ्रम: । स्मृतिभ्रंशात बुध्दिनाशो बुध्दिनाशात प्रणश्यति ॥ छ) धर्म का अर्थ कानून महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते है - न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: । धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् । अर्थ : किसी समय पहले न कोई राजा था, न कोई दंडशक्ति थी । सारी प्रजा धर्मानुकूल जीवन जीती थी और परस्पर सुख साप्रहार्द से रहती थी । यहाँ धर्म का अर्थ सामाजिक व्यवहार के नियमों से अर्थ्ता् आज की भाषा में कानून से ही है । ज) जिस के पालन से इहलोक में अभ्यूदय होता है और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है धर्म की एक और मान्यताप्राप्त व्याख्या है ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म: ' । अर्थ है सर्वप्रथम जिस के आचरण से इस जन्म में हर प्रकार की भौतिक उन्नति होती है । अभ्यूदय होता है । और दूसरे जिस के कारण अगला जन्म अधिक श्रेष्ठ होता है । मोक्ष की दिशा में मोक्ष के और पास ले जानेवाला होता है । ऐसी दोनों बातों की आश्वस्ति जिस व्यवहार में है वह है धर्म । झ) धर्म का अर्थ है सत्यनिष्ठा सत्यनिष्ठा, प्रामाणिकता, सच्चाई आदि अर्थों से भी धर्म शब्द का उपयोग होता है । जप्रसे धर्मकाँटा अर्थात् भारी वाहनों के वजन क मापन करनेवाला काँटा । वजनयंत्र । अचूक, सही, जरा सी भी कोई गलती नही करते हुए एकदम सही वजन बतानेवाला वजनयंत्र या तराजू अर्थात् धर्मकाँटा। त) गुणधर्म धर्म शब्द पदार्थों के लक्षणों के लिये भी, उस पदार्थ की अन्य पदार्थों के साथ होनेवाली क्रिया प्रक्रियाओं में उस पदार्थ की विशेषताओं को भी कहा जाता है । इन सब बातों को पदार्थ के गुणधर्म कहा जाता है । जैसे लोहा काला होता है । प्राणवायू और पानी के संपर्क से उसे जंग लग जाता है । इन सब को लोहे के गुणधर्म कहते हैं। इसी का दूसरा अर्थ है गुणधर्म का अर्थ है पदार्थ का स्वभाव । जैसे मनुष्य का स्वभाव होता है उसी प्रकार लोहे का या अन्य किसी भी प्रकार के पदार्थ का अपना एक विशेष स्वभाव होता है । इसे ही उस पदार्थ का गुणधर्म कहा जाता है । थ) आपद्धर्म : धर्म का और भी एक पहलू ध्यान में लेने योग्य है । वह है आपध्दर्म । आपद्धर्म का अर्थ है आपत्ती के समय धर्म से भिन्न या विपरीत कर्म करने की छूट। यह आपत्ती स्थल, काल परिस्थिति के अनुसार तय होती है। मनमाने व्यवहार को आपद्धर्म नहीं कहा जा सकता। जब अपनी जान खतरे में पड जाती है तो अन्य सभी कर्तव्यों के साथ समझौता करते हुए जान बचाना यही एकमात्र कर्तव्य रह जाता है। उपनिषद् में एक कहानी है। सभी ओर अकाल की स्थिति है। अन्न मिलना दुर्लभ हो गया है। ऐसी स्थिति में एक भूखे प्यासे ऋषि किसी चांडाल के पास आते हैं। चांडाल से मिले अन्न पानी का सेवन ऋषि को वर्जित माना गया था। चांडाल से अन्न की भिक्षा माँगते हैं। चांडाल से प्राप्त अन्न का सेवन करते हैं। चांडाल अत्यंत प्रसन्नता से ऋषि को अन्न अर्पण करता है। अन्न ग्रहण के बाद चांडाल ऋषि को पीने के लिए जल भी प्रस्तुत करता है। ऋषि जल ग्रहण करने से मना करते हैं। अन्न ग्रहण किया है अब जल ग्रहण क्यों नहीं करा रहे इस चांडाल के प्रश्न का ऋषि कुछ इस प्रकार से उत्तर देते हैं – में यदि अन्न ग्रहण नहीं करता तो मेरी मृत्यू हो जाती। इसलिए मैंने तुम्हारे हाथ का अन्न ग्रहण किया। वह आपद्धर्म था। लेकिन अभी मैं यदि पानी नहीं भी पिटा तो भी मैं मरुंगा नहीं। इसलिए मैं तुम्हारे हाथ का पानी नहीं पी रहा। तात्पर्य यह है कि आपद्धर्म में आपत्ती का अर्थ है मृत्यू की निश्चितता। धर्मनिरपेक्षता शब्द अज्ञान या विकृती का लक्षण

	धर्म शब्द का उपयोग केवल भारतीय भाषाओं में ही होता है । भारतीय भाषाओं में सामान्यत: उपर्युक्त अर्थों से ही धर्म  शब्द का प्रयोग होता है । इन में से किसी भी अर्थ के साथ निरपेक्ष शब्द जोडने से अनर्थ ही होता है । क्या किसी बेटे ने अपने पुत्रधर्म से निरपेक्ष व्यवहार करना ठीक है ? क्या कोई पदार्थ अपने गुणधर्मों से निरपेक्ष हो सकता है ? क्या कोई ईकाई अपना अस्तित्व टिकाने, बलवान बनने, निरोग रहने, लचीला बनने, दमदार बनने की अधिकारी नही है ? क्या इन बातों से निरपेक्ष रहने या बनने से उस का अर्थात् मनुष्य का, व्यापारी का, पडोसी का, सप्रनिक का, राजा का व्यवहार ठीक माना जाएगा ? ऐसा करने से अनर्थ निर्माण नही होगा ? फिर भी हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता यह अर्थहीन शब्द संविधान में डाला गया है । यह पाश्चात्य शब्द सेक्युलॅरिझम् शब्द का भौंडा अनुवाद मात्र है । जिन्हें ना तो योरप का इतिहास ठीक से पता है और ना ही जिन्हे भारत का इतिहास ठीक से पता है ऐसे अज्ञानी और गुलामी की मानसिकता रखनेवाले नेताओं की यह करनी जितनी शीघ्र निरस्त हो सके उतना ही देश के लिये अच्छा है । पूरे देश की जनता इस का विरोध करने की जगह माप्रन है । यह भी अभी जनता के मनपर गुलामी का कितना प्रभाव शेष है इसी बात का लक्षण है । 

यूरोप के इतिहास में सेक्युलरीझम शब्द का प्रयोग चर्च के मजहबी प्रभाव से मुक्ति के लिए किया गया था। ईसाईयत से पहले यूरोप के राजा सर्वसत्ताधीश थे। और इसलिए अन्याय, अत्याचार यह सार्वत्रिक बातें थीं। ईसाईयत के उदय के बाद सभी राजा अब चर्च के निर्देश में राज चलाने लग गए। फिर भी वे सर्वसत्ताधीश ही रहे। इसलिए अब अत्याचार में चर्च का भी समर्थन मिलने से और अधिक अत्याचारी और अन्यायी हो गए। अंग्रेजी कहावत है – पॉवर करप्ट्स एण्ड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स अब्सोल्यूटली। अर्थ है सता मनुष्य को बिगाड़ती है और अमर्याद सत्ताधीश के बिगड़ने की कोइ सीमा नहीं होती। यही हो रहा था यूरोप में। जब फ्रांस में जनता का शासन आया तब उसने चर्च की तानाशाही और नियंत्रण से मुक्ति का याने सेक्युलरिझम का नारा लगाया। वह योग्य ही था। यह है सेक्युलरिझम शब्द की यूरोपीय पार्श्वभूमी। भारत में तो चर्च की तानाशाही नहीं थी। इसलिए यहाँ इस शब्द का प्रयोग जनता को बेवकूफ बनाने के लिए ही था। हमारे यहाँ धर्म सर्वोपरि रहा है। सम्प्रदाय नहीं। सम्राट अशोक यह ऐसा राजा था जिसने बौद्ध मत को राजाश्रय दिया। अन्यथा दूसरा कोई उदाहरण हमें भारतीय इतिहास में नहीं मिलता। भारत में तो सभी राजा धर्म द्वारा नियमित होते थे फिर वे किसी भी सम्प्रदाय को मानते हों। भारत का पतन भी जब से राजाओं के सर से धर्म का अंकुश कमजोर हुआ या दूर हो गया तब से हुआ है। इसलिये यह आवश्यक है की संविधान में से तो बाद में धर्मनिरपेक्षता का शब्द जब जाएगा तब जाए उस से पहले हमें उसे हमारे शिक्षा के उद्दिष्टों में से हटाना चाहिये । लक्ष्य प्राप्तीका साधन जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। उत्पत्ति, स्थिति ओर ले का चक्र चलता रहता है। यह हमारा सार्वत्रिक अनुभव है। तब जिस परमात्वतत्व में से हम बनें हैं उस में विलीन होना ही तो अंतिम गंतव्य होगा। जीवन का लक्ष्य होगा। सारी सृष्टी परमात्मा में से ही नि:सृत हुई है। इसा कारण सारी सृष्टी के साथ एकात्मता की भावना का विकास लक्ष्य है। एकात्मता की भावना की व्यावहारिक अभिव्यक्ति ही कुटुंब भावना है। व्यक्तिगत विकास, समष्टीगत विकास याने समूची मानव जाति के साथ कुटुंब भावना का विकास और समूची सृष्टी के साथ कुटुंब भावना का विकास यह इस के जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के आयाम हैं। धर्म मोक्ष प्राप्ति का साधन है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य में से त्रिवर्ग अनुपालन उसका मार्ग है। पुरूषार्थ चार हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनमें प्रारम्भ तो काम पुरूषार्थ से ही होता है। काम का अर्थ है इच्छा करना। मनुष्य यदि इच्छा करना ही छोड़ दे तो मानव जाति का जीवन थम जाएगा। जीवन चलाने का प्रारम्भ ही काम से होता है इसलिए काम को पुरूषार्थ माना गया है। इससे तरह इच्छाएँ अनेकों हों लेकिन उन्हें पूरी करने के लिए प्रयास नहीं किया गया तो भी जीवन थम जायेगा। इसलिए इच्छाओं को पूरी करने के प्रयासों, इसा के लिए उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधनों को मिलाकर ‘अर्थ’ पुरूषार्थ होता है ऐसी मान्यता है। इन को धर्म की सीमा में रखने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म के अर्थ हमने पूर्व में ही जाने हैं। इच्छाएँ अमर्याद होती है। सर्वाव्यापी होती हैं। इसलिए अर्थ पुरूषार्थ का दायरा भी जीवन और जगत के सभी अन्गोंतक होता है। इन दोनों पुरुषार्थों को यदि धर्म की सीमा में रखना हो तो धर्म का दायरा भी जीवन और जगत के सभी अंगों तक होना स्वाभाविक है। इसलिए धर्म का दायरा सर्वव्यापी है। वैसे भी विश्व व्यवस्था के नियमों को ही धर्म कहते हैं। धर्म की व्याप्ति समूचे ब्रह्माण्डतक होती है। इसीलिये भारतीय मान्यता है कि धर्म सर्वोपरी है। धर्म से ऊपर कुछ नहीं है। सबकुछ धर्म के नियंत्रण, निर्देशन और नियमन में रहे। धर्म के बारे में जानते समय एक और बात भी जानना आवश्यक है। वह है – शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् । धर्म के अनुसार जीने का सबसे प्रमुख साधन शरीर है। भारतीय विचार में शरीर की उपेक्षा नहीं की गयी है। और ना ही यह माना है कि शरीर केवल उपभोग के लिए होता है। शरीर को धर्म के अनुसार व्यवहार करने के लिए मिला साधन ही माना गया है। शरीर को स्वस्थ रखने से धर्म का पालन अधिक अच्छा हो सकेगा इस विचार से शरीर को स्वस्थ रखाना भी धर्म ही है। धर्माचरण की शिक्षा और शासन की भूमिका सारा समाज धर्माचरण करे यह अपेक्षा है। समाज को धर्माचरण सिखाने का काम शिक्षा का है। शिक्षा के उपरांत भी जो धर्मपालन नहीं करता उससे धर्म का पालन करवाने का काम शासन का है। इस दृष्टी से शिक्षा धर्माचरण की मार्गदर्शक, प्रसारक, और धर्म की प्रतिनिधी होती है। जब शिक्षा के माध्यम से ९०-९५ % लोग धर्माचरण करने लगते हैं तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा। और तब ही शासन भी ठीक से काम कर सकेगा। इसलिए समाज को अच्छी शिक्षा मिले यह सुनिश्चित करना शासन के हित में होता है। वर्त्तमान में केवल ‘हिन्दू’ ही धर्म है उपर्युक्त धर्म के सभी अर्थों को मान कर उनके अनुसार जीवन चलना चाहिए ऐसा माननेवाला समाज वर्त्तमान में केवल हिन्दू समाज है। विपरीत शिक्षा के कारण अनेकों हिन्दू बुद्धिजीवी धर्म के विषय में विपरीत ज्ञान या अज्ञान के कारण धर्म को मजहब या रिलीजन मानने लगे हैं। सामान्य हिन्दू इन तत्त्वों की व्याख्या नहीं बता सकता। लेकिन अनपढ़ हिन्दू भी इन तत्त्वों का पालन करने का प्रयास करता है। धर्म की शिक्षा के अभाव में यह समझ कम होती जा रही है। यह चिंता का, चिंतन का और कार्यवाही का विषय है।

साहित्य सूचि : १. वैशेषिक दर्शन, दर्शनकार कणाद ऋषि २. चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टी, प्रकाशक भारतीय विचार साधना ३. धर्म तथा समाजवाद, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, दिल्ली