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धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या, सैन्य विज्ञान या युद्ध कला से संबंधित विषय आते हैं। प्राचीनकाल में पूरे भारत में इस ज्ञान परंपरा का बड़े ही आदर के साथ प्रचार-प्रसार हुआ था। प्राचीन भारत में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्तप्राय से हो गए। कतिपय ग्रंथों में उनका विवरण प्राप्त होता है। जैसे अग्निपुराण में इसे ज्ञान की १८ शाखाओं में से एक बताया गया है। महाभारत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है एवं धनुर्वेद संहिता नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है। किन्तु अनेक ग्रंथों में इसके कुछ-कुछ अंश पाए जाते हैं।  
 
धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है। इसके अंतर्गत धनुर्विद्या, सैन्य विज्ञान या युद्ध कला से संबंधित विषय आते हैं। प्राचीनकाल में पूरे भारत में इस ज्ञान परंपरा का बड़े ही आदर के साथ प्रचार-प्रसार हुआ था। प्राचीन भारत में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्तप्राय से हो गए। कतिपय ग्रंथों में उनका विवरण प्राप्त होता है। जैसे अग्निपुराण में इसे ज्ञान की १८ शाखाओं में से एक बताया गया है। महाभारत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है एवं धनुर्वेद संहिता नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है। किन्तु अनेक ग्रंथों में इसके कुछ-कुछ अंश पाए जाते हैं।  
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दुष्टों डाकुओं सदा चोरों से सज्जनों का संरक्षण करना एवं प्रजा का पालन करना धनुर्विज्ञान का मुख्य प्रयोजन है। यदि किसी गांव में एक भी अच्छा धनुर्धर होता था तो उससे एक समस्त ग्राम की रक्षा होती थी शत्रु उसके डर से भाग जाते थे शुक्र नीति के अनुसार धनुर्वेद विज्ञान द्वारा केवल धनुष संचालन का नहीं अपितु युद्ध उपयोगी समग्र शस्त्रों के निर्माण वा प्रयोग संबंधी ज्ञान भी दिया जाता था। महाकवि भवभूति जी ने भी उत्तररामचरित में धनुर्वेद के रक्षात्मक स्वरूप का चित्रण किया है।
 
दुष्टों डाकुओं सदा चोरों से सज्जनों का संरक्षण करना एवं प्रजा का पालन करना धनुर्विज्ञान का मुख्य प्रयोजन है। यदि किसी गांव में एक भी अच्छा धनुर्धर होता था तो उससे एक समस्त ग्राम की रक्षा होती थी शत्रु उसके डर से भाग जाते थे शुक्र नीति के अनुसार धनुर्वेद विज्ञान द्वारा केवल धनुष संचालन का नहीं अपितु युद्ध उपयोगी समग्र शस्त्रों के निर्माण वा प्रयोग संबंधी ज्ञान भी दिया जाता था। महाकवि भवभूति जी ने भी उत्तररामचरित में धनुर्वेद के रक्षात्मक स्वरूप का चित्रण किया है।
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==धनुर्वेद के प्रवक्ता॥ Spokesperson of Dhanurveda==
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==धनुर्वेद के प्रवक्ता॥ Acharyas of Dhanurveda==
 
धनुर्वेद के मूल प्रवक्ता भगवान शिव हैं सदाशिव से परशुराम जी ने प्राप्त किया महर्षि वसिष्ठ भी उनके ही शिष्य थे वसिष्ठ जी से विश्वामित्र ने प्राप्त किया प्रस्थान भेद नामक ग्रंथ में पाद चतुष्टयात्मक धनुर्वेद को विश्वामित्र प्रणीत ही बताया गया है। वशिष्ठ द्वारा उक्त धनुर्वेद में तंत्र युद्ध की प्रधानता है विश्वामित्र ने धनुर्वेद शास्त्र का संशोधन करके शास्त्रीय रूप देकर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया था। यद्यपि पूर्ण धनुर्वेद कहीं प्राप्त नहीं होता है तथापि वाशिष्ठ धनुर्वेद, औशनक धनुर्वेद, अग्निपुराणोक्त अध्यायात्मक, विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 4 अध्याय, मानसोल्लास, युक्तीकल्पतरु, वीरमित्रोदय आदि ग्रंथों में धनुर्वेद और उससे संबंधित विद्या का वर्णन मिलता है।<ref>डॉ० देवव्रत आचार्य, धनुर्वेद, सन १९९९, विजयकुमार गोविंद्रम हसानंद , नई सड़क, दिल्ली (पृ० २१)</ref>
 
धनुर्वेद के मूल प्रवक्ता भगवान शिव हैं सदाशिव से परशुराम जी ने प्राप्त किया महर्षि वसिष्ठ भी उनके ही शिष्य थे वसिष्ठ जी से विश्वामित्र ने प्राप्त किया प्रस्थान भेद नामक ग्रंथ में पाद चतुष्टयात्मक धनुर्वेद को विश्वामित्र प्रणीत ही बताया गया है। वशिष्ठ द्वारा उक्त धनुर्वेद में तंत्र युद्ध की प्रधानता है विश्वामित्र ने धनुर्वेद शास्त्र का संशोधन करके शास्त्रीय रूप देकर प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया था। यद्यपि पूर्ण धनुर्वेद कहीं प्राप्त नहीं होता है तथापि वाशिष्ठ धनुर्वेद, औशनक धनुर्वेद, अग्निपुराणोक्त अध्यायात्मक, विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 4 अध्याय, मानसोल्लास, युक्तीकल्पतरु, वीरमित्रोदय आदि ग्रंथों में धनुर्वेद और उससे संबंधित विद्या का वर्णन मिलता है।<ref>डॉ० देवव्रत आचार्य, धनुर्वेद, सन १९९९, विजयकुमार गोविंद्रम हसानंद , नई सड़क, दिल्ली (पृ० २१)</ref>
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अग्नि पुराण में धनुर्वेद को चतुर्पाद कहा गया है- 1. दीक्षा, 2. संग्रह 3. सिद्धि प्रयोग और 4. प्रयोग विज्ञान यह चार पाद कहे गए हैं।<blockquote>तत्र चतुष्टयपादात्मको धनुर्वेदः। यस्य प्रथमे पादे दीक्षाप्रकारः। द्वितीये संग्रहः, तृतीये सिद्धप्रयोगाः, चतुर्थे प्रयोगविधयः॥ (वाशि०धनु० 1-2)<ref name=":1">पूर्णिमा राय,[https://ia904701.us.archive.org/20/items/in.ernet.dli.2015.382701/2015.382701.Vasistas-Dhanurveda_text.pdf वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता], अंग्रेजी व्याख्या, सन् २००३, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० ३)।</ref></blockquote>अग्नि पुराण में 249 / 1 दीक्षा पाद में धनुष का लक्षण तथा अधिकारी का निरूपण किया गया है तथा धनुष शब्द से तात्पर्य धनुर्विद्या में प्रयुक्त आयुध से लिया गया है। महाभारत की नीलकंठी टीका में दीक्षा शिक्षा आत्मरक्षा और उनके साधन इन्हें धनुर्वेद के चार पाद बताया गया है।
 
अग्नि पुराण में धनुर्वेद को चतुर्पाद कहा गया है- 1. दीक्षा, 2. संग्रह 3. सिद्धि प्रयोग और 4. प्रयोग विज्ञान यह चार पाद कहे गए हैं।<blockquote>तत्र चतुष्टयपादात्मको धनुर्वेदः। यस्य प्रथमे पादे दीक्षाप्रकारः। द्वितीये संग्रहः, तृतीये सिद्धप्रयोगाः, चतुर्थे प्रयोगविधयः॥ (वाशि०धनु० 1-2)<ref name=":1">पूर्णिमा राय,[https://ia904701.us.archive.org/20/items/in.ernet.dli.2015.382701/2015.382701.Vasistas-Dhanurveda_text.pdf वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता], अंग्रेजी व्याख्या, सन् २००३, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० ३)।</ref></blockquote>अग्नि पुराण में 249 / 1 दीक्षा पाद में धनुष का लक्षण तथा अधिकारी का निरूपण किया गया है तथा धनुष शब्द से तात्पर्य धनुर्विद्या में प्रयुक्त आयुध से लिया गया है। महाभारत की नीलकंठी टीका में दीक्षा शिक्षा आत्मरक्षा और उनके साधन इन्हें धनुर्वेद के चार पाद बताया गया है।
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==धनुर्विद्या का महत्व॥ importance of Archery==
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==धनुर्विद्या का महत्व॥ Importance of Archery==
 
भारतमें युद्ध प्रणाली एवं सैन्य संगठन में धनुर्विद्या का महत्वपूर्ण योगदान था। भारतीय धनुर्धारी को किसी भी रूप में रोका नहीं जा सकता था किन्तु कालांतर में भारतीय भूमि पर इसका महत्व कम हो गया किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि धनुष एवं बाण का प्रयोग समाप्त हो गया। पृथ्वी राज चौहान एक उत्कृष्ट कोटि के धनुर्धारी थे।<blockquote>दुष्टदस्युचौरादिभ्य साधुसंरक्षणं तथा। धर्मत: प्रजापालनं धनुर्वेदस्य प्रयोजनम॥ एकोऽपि यत्र नगरे प्रसिद्ध: स्याद्धनुर्धर:। ततो यान्त्यरयो दूरान्मृगा: सिंह गृहादिव॥ (वाशि० धनु० 1-5)<ref name=":1" /></blockquote>दुष्ट मनुष्य, डाकू, चोर आदि से सज्जन धर्मात्मा पुरुषों की रक्षा करना ही धनुर्वेद का प्रयोजन है। जिस नगर या गांव में एक भी प्रसिद्ध धनुर्धर है, उस गाँव से शत्रु ऐसे दूर भागते हैं जैसे शेर के स्थान को देखकर हिरन आदि पशु भागते हैं। भारतीय सेना के परंपरागत चार विभाग थे- हाथी, अश्वारोही, रथ तथा पैदल।<blockquote>धर्मार्थं यः त्यजेत्प्राणान्किं तीर्थे जपे च किम् । मुक्तिभागी भवेत् सोऽपि निरयं नाधिगच्छति॥ ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा स्त्रीणां बालवधेषु च। प्राणत्यागपरो यस्तु सवै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ (वाशि० धनु० 45-66)<ref>पूर्णिमा राय,[https://ia904701.us.archive.org/20/items/in.ernet.dli.2015.382701/2015.382701.Vasistas-Dhanurveda_text.pdf वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता], अंग्रेजी व्याख्या, सन् 2003, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० 75)।</ref></blockquote>
 
भारतमें युद्ध प्रणाली एवं सैन्य संगठन में धनुर्विद्या का महत्वपूर्ण योगदान था। भारतीय धनुर्धारी को किसी भी रूप में रोका नहीं जा सकता था किन्तु कालांतर में भारतीय भूमि पर इसका महत्व कम हो गया किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि धनुष एवं बाण का प्रयोग समाप्त हो गया। पृथ्वी राज चौहान एक उत्कृष्ट कोटि के धनुर्धारी थे।<blockquote>दुष्टदस्युचौरादिभ्य साधुसंरक्षणं तथा। धर्मत: प्रजापालनं धनुर्वेदस्य प्रयोजनम॥ एकोऽपि यत्र नगरे प्रसिद्ध: स्याद्धनुर्धर:। ततो यान्त्यरयो दूरान्मृगा: सिंह गृहादिव॥ (वाशि० धनु० 1-5)<ref name=":1" /></blockquote>दुष्ट मनुष्य, डाकू, चोर आदि से सज्जन धर्मात्मा पुरुषों की रक्षा करना ही धनुर्वेद का प्रयोजन है। जिस नगर या गांव में एक भी प्रसिद्ध धनुर्धर है, उस गाँव से शत्रु ऐसे दूर भागते हैं जैसे शेर के स्थान को देखकर हिरन आदि पशु भागते हैं। भारतीय सेना के परंपरागत चार विभाग थे- हाथी, अश्वारोही, रथ तथा पैदल।<blockquote>धर्मार्थं यः त्यजेत्प्राणान्किं तीर्थे जपे च किम् । मुक्तिभागी भवेत् सोऽपि निरयं नाधिगच्छति॥ ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा स्त्रीणां बालवधेषु च। प्राणत्यागपरो यस्तु सवै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ (वाशि० धनु० 45-66)<ref>पूर्णिमा राय,[https://ia904701.us.archive.org/20/items/in.ernet.dli.2015.382701/2015.382701.Vasistas-Dhanurveda_text.pdf वाशिष्ठ धनुर्वेद संहिता], अंग्रेजी व्याख्या, सन् 2003, जे० पी० पब्लिशिंग हाऊस, शक्ति नगर, दिल्ली (पृ० 75)।</ref></blockquote>
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भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिक काल में भी प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। कौशीतकी ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। धनुष विद्या की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थे । पौराणिक समय में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सगर, श्री राम, भीष्म, अर्जुन आदि सभी प्रतिष्ठित रूप से दिव्य हथियार(दिव्यास्त्र) बुला सकते थे, जो ऐसी मारक क्षमता उत्पन्न करते थे जिसका मुकाबला सामान्य रथ पर सवार धनुर्धर नहीं कर सकते थे। कोई भी इन धनुषधारकों के प्रभाव को समझ नहीं सकता है। भीष्म ने स्वयं अपने आदेशानुसार प्रतिदिन 10,000 सैनिकों को नष्ट करने की शपथ ली थी।    
 
भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिक काल में भी प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। कौशीतकी ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। धनुष विद्या की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थे । पौराणिक समय में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सगर, श्री राम, भीष्म, अर्जुन आदि सभी प्रतिष्ठित रूप से दिव्य हथियार(दिव्यास्त्र) बुला सकते थे, जो ऐसी मारक क्षमता उत्पन्न करते थे जिसका मुकाबला सामान्य रथ पर सवार धनुर्धर नहीं कर सकते थे। कोई भी इन धनुषधारकों के प्रभाव को समझ नहीं सकता है। भीष्म ने स्वयं अपने आदेशानुसार प्रतिदिन 10,000 सैनिकों को नष्ट करने की शपथ ली थी।    
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==धनुर्वेद का प्रयोग॥ Use of Dhanurveda==
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==धनुर्वेद का प्रयोग॥ Application of Dhanurveda==
अग्निपुराण में राजधर्म तथा उसके अंगों के वर्णन के प्रसंग में धनुर्विद्या का अध्याय 249 प्रारंभ में होकर 252 अध्याय पर्यंत वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन काल में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्त प्राय से हो गए।
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अग्निपुराण में राजधर्म तथा उसके अंगों के वर्णन के प्रसंग में धनुर्विद्या का अध्याय 249 प्रारंभ में होकर 252 अध्याय पर्यंत वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन काल में धनुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ उपलब्ध थे, किन्तु कालांतर में धनुर्वेद के प्रायः सभी ग्रंथ लुप्त हो गए। धनुर्वेद के तेरह (13) उपांगों का वर्णन किया गया है – (नीति प्रकाशिका पृ0 9)
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'''आयुधों के प्रकार'''
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'''शब्द'''
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महाभारत के प्रथम खण्ड अनुसार जब कुरु राजकुमार बड़े होने लगे तो उनकी आरंभिक शिक्षा का भार राजगुरु कृपाचार्य जी के पास गया। उन्हीं से कुरु राजकुमारों ने धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। कृपाचार्य जी के अनुसार धनुर्वेद के प्रमुख चार भेद इस प्रकार हैं जो कि उन्होंने शिष्यों को सिखाए – <blockquote>चतुष्पाच्च धनुर्वेदः सांगोपांग रहस्यकः।(नी० प्रका० 1-38)<ref>टी०चंद्रशेखरन, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369604/page/5/mode/1up?view=theater वैशम्पायननीतिप्रकाशिका], सन् 1953,  मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-१, श्लोक १६ (पृ० 6)।</ref> मुक्तं चैव ह्यमुक्तं च मुक्तामुक्तमतः परम् । मंत्रमुक्तं च चत्वारि धनुर्वेदपदानी वै॥(नी० प्रका० 2-11)<ref name=":0">टी०चंद्रशेखरन, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369604/page/5/mode/1up?view=theater वैशम्पायननीतिप्रकाशिका], सन् 1953,  मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-२, श्लोक-११ (पृ० २१)।</ref></blockquote>'''1. मुक्त–''' जो बाण छोड़ दिया जाए उसे मुक्त कहते हैं।
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'''स्पर्श''' 
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'''गंध'''
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'''2. अमुक्त-''' जिस अस्त्र को हाथ में लेकर प्रहार किया जाए जैसे खड्ग आदि को अमुक्त कहा जाता है।
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'''रस'''
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'''3. मुक्तामुक्त-''' जिस अस्त्र को चलाने और समेटने की कला ज्ञात हो, उस अस्त्र को मुक्तामुक्त कहा जाता है।
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'''दूर'''  
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'''4. मंत्रमुक्त-''' जिस अस्त्र को मंत्र पढ़कर चला तो दिया जाये किन्तु उसके उपसंहारकी विधि मालूम न हो, उस अस्त्र को मंत्रमुक्त कहा गया है।
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'''चल'''  
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शस्त्र विद्या के आधार पर धनुर्वेद को भी चार शाखाओं में वर्गीकृत किया गया है-<blockquote>शस्त्रमस्त्रंच प्रत्यस्त्रं परमास्त्रमितीव च। चातुर्विध्यं धनुर्वेदे केचिदाहुर्धनुर्विदः॥ (नीति०प्रका०)<ref name=":0" /></blockquote>'''1. शस्त्र-''' हथियार जो हाथों में रखे जाते हैं।
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'''अदर्शन'''
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'''2. अस्त्र-''' छोड़े जाने वाले हथियार।
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'''पृष्ठ'''  
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'''3. प्रत्यस्त्र-''' अस्त्रों का प्रतीकार करने के लिए प्रयुक्त अस्त्र अर्थात् रक्षात्मक हथियार या रक्षात्मक कलाएं।
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'''स्थित'''  
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'''4. परमास्त्र-''' सर्वोच्च हथियार, अर्थात् दिव्य हथियार या शत्रु का पीछा करने वाले हथियार।
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'''स्थिर'''  
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धनुर्वेद को क्रियाओं अथवा अंगों के आधार पर भी चार भागों में वर्गीकृत किया गया है- <blockquote>आदानश्चैव सन्धानं विमोक्षस्संहृतिस्तथा। धनुर्वेदश्चतुर्धेति वदन्तीति परे जगुः॥(नीति०प्रका० २-१५)<ref name=":0" /></blockquote>'''1. आदान-''' तीरों पर नियंत्रण रखना अर्थात् दुश्मन के तीरों/ हथियारों को मार गिराना या दूर खींचकर फेक देना। शत्रु के हथियारों को नष्ट करना/जब्त करना, घोड़े पर बैठकर हथियार चलाने की क्रियाएँ भी इसी शाखा के अंतर्गत आती हैं।
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'''भ्रमण'''  
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'''2. संधान-''' दो हथियारों या कलाओं (शैलियों) को एक साथ जोड़ना जैसे- उपचारात्मक हथियार, हवाई हथियार, मायावी हथियार या आविष्कार।(दिव्यास्त्र दो प्रकार के कहे गए हैं नालिक और मांत्रिक। <ref name=":2">शुक्र नीति – अस्त्रं तु द्विविधं ज्ञेयं नालिकं मांत्रिकं तथा।(४, १०२५ )</ref> (नालिक) अस्त्रों से किया जाने वाला युद्ध आसूर मायिक और मांत्रिक दैविक कहलाता है।
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'''प्रतिबिंब'''  
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'''3. विमोक्ष-''' अदान के विपरीत हथियार छोड़ने की कलाएं या शैलियां।
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'''उद्देश (ऊपर) लक्ष्यों पर शरनिपातन करना (वेध करना)'''
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'''4. संहार-''' सूचनाओं का संकलन।
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धनुर्वेद में मुक्त और अमुक्त आयुधों की संख्या बत्तीस है –
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कृपाचार्य जी ने इन चारों का उल्लेख किया। अर्जुन ने उपपाण्डवों को दस अंग या दस विधाएं सिखाईं। (विमोक्ष यहां मोक्ष का ही एक रूप है, संहार या संकलन अर्जुन की सूची में नहीं है। कृपाचार्य जी ने इन्हैं अन्य शीर्षकों के अंतर्गत शामिल किया। सभी शिक्षकों के लिए शिक्षण का तरीका अलग-अलग है, पहले दो समान हैं।
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1. उनमें पहले धनुष इत्यादि 12 आयुध मुक्त आयुधों में आते हैं।  
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धनुर्वेद के दश अंग जो कि इस प्राकार बताए गए हैं – <blockquote>आदानमथ संधानं मोक्षणं विनिवर्तनम्। स्थानं मुष्टिः प्रयोगश्च प्रायश्चित्तानि मंडलम्॥ रहस्यंचेति दशधा धनुर्वेदांगमिष्यते॥(महा० आदि० 220। 72) </blockquote>
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2. शेष खड्गादि 20 आयुध अमुक्त आयुध कहे गए हैं।
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*'''1. आदान -''' तीरों पर नियंत्रण रखना अर्थात् दुश्मन के तीरों/ हथियारों को मार गिराना या दूर खींचकर फेक देना। शत्रु के हथियारों को नष्ट करना/जब्त करना, घोड़े पर बैठकर हथियार चलाने की क्रियाएँ भी इसी शाखा के अंतर्गत आती हैं।
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वेदों और महाकाव्यों में वर्णित कई लोकप्रिय खेलों की उत्पत्ति सैन्य प्रशिक्षण में हुई है, जैसे कि मुक्केबाजी (मुष्टि-युद्ध), कुश्ती (मल, द्वन्द्व वा युद्ध)। रथ-रेसिंग (रथ चलन), घुड़सवारी (अश्व-रोहण) और तीरंदाजी (धनुर्विद्या)। धनुर्वेद में तीरंदाजी, धनुष-बाण बनाने और सैन्य प्रशिक्षण के नियमों प्रथाओं और उपयोगों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में योद्धाओं, रथियों, घुड़सवारों, हाथी योद्धाओं और पैदल सेना आदि के प्रशिक्षण के संबंध में चर्चा की गई है। विष्णु पुराण में ज्ञान की अट्ठारह शाखाओं में इसे एक माना गया है।
*'''2. संधान -''' दो हथियारों या कलाओं (शैलियों) को एक साथ जोड़ना जैसे- उपचारात्मक हथियार, हवाई हथियार, मायावी हथियार या आविष्कार।(दिव्यास्त्र दो प्रकार के कहे गए हैं नालिक और मांत्रिक। <ref name=":2" /> (नालिक) अस्त्रों से किया जाने वाला युद्ध आसूर मायिक और मांत्रिक दैविक कहलाता है।
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*'''3. मोक्षण -''' लक्ष्य के उपर ध्यान का केन्द्रीकरण मोक्षण एवं अलक्षित (लक्ष्यहीन) ध्यान विमोचन।
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*'''4. विनिवर्त -''' तीर छोड़ने के बाद, यदि आपको पता चलता है कि प्रतिद्वंद्वी कमजोर है या बचाव के लिए उसके पास हथियार नहीं हैं, तो महान योद्धाओं के पास तीरों को वापस बुलाने की मंत्र शक्ति थी। इस कला को विनिर्वतन कहा जाता है।
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*'''5. स्थान -''' धनुष के विभिन्न हिस्सों का उपयोग करना और तीरों को विभिन्न स्थितियों में लॉक करना स्थान कला है।
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*'''6. मुष्टि -''' अंगूठे के बिना एक या एकाधिक तीरों को निर्देशित करने और फेंकने के लिए तीन या चार अंगुलियों का उपयोग करना मुष्टि है।
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*'''7. प्रयोग -''' तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग केवल निशानेबाजी के लिए करना ही प्रयोग है। ऐसा करने के लिए आप मध्यमा और अंगूठे के मध्य भाग का भी उपयोग कर सकते हैं।
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*'''8. प्रायश्चित्त -''' बाणों या ज्याघात (प्रत्यांचा या डोरी से हमला) को पीछे हटाने के लिए रक्षात्मक हथियार के रूप में चमड़े के दस्ताने का उपयोग करना या दुश्मन के धनुष की डोरी को पकड़ना प्रायश्चित अंग कहलाता है।
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*'''9. मण्डल -''' यह वह कला है जहां रथ गोलाकार गति में तेजी से चलता है और आपको एक गतिशील लक्ष्य पेश करते हुए और तेजी से आगे बढ़ते हुए भी दुश्मनों या लक्ष्यों को स्थिर मानकर उन पर ध्यान केंद्रित करना होता है और इसके अलावा स्टैहना का उपयोग करके दुश्मनों को निशाना बनाना होता है। , मुष्टि, प्रयोग और प्रायश्चित और अन्य कलाएँ युद्ध के मैदान पर हावी होने के लिए पूरी तरह से।
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*'''10. रहस्य -''' यह लक्ष्य या लक्ष्य पर प्रहार करने के साधन के रूप में ध्वनि का उपयोग है।
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धनुर्वेद के तेरह (13) उपांगों का वर्णन किया गया है – (नीति प्रकाशिका पृ0 9)
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=== आयुधों के प्रकार ॥ Kinds of Weapons ===
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1'''.  शब्द -''' 
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'''2.  स्पर्श -'''
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महाभारत के प्रथम खण्ड अनुसार जब कुरु राजकुमार बड़े होने लगे तो उनकी आरंभिक शिक्षा का भार राजगुरु कृपाचार्य जी के पास गया। उन्हीं से कुरु राजकुमारों ने धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। कृपाचार्य जी के अनुसार धनुर्वेद के प्रमुख चार भेद इस प्रकार हैं जो कि उन्होंने शिष्यों को सिखाए – <blockquote>चतुष्पाच्च धनुर्वेदः सांगोपांग रहस्यकः।(नी० प्रका० 1-38)<ref>टी०चंद्रशेखरन, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369604/page/5/mode/1up?view=theater वैशम्पायननीतिप्रकाशिका], सन् 1953,  मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-१, श्लोक १६ (पृ० 6)।</ref> मुक्तं चैव ह्यमुक्तं च मुक्तामुक्तमतः परम् । मंत्रमुक्तं च चत्वारि धनुर्वेदपदानी वै॥(नी० प्रका० 2-11)<ref name=":0">टी०चंद्रशेखरन, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369604/page/5/mode/1up?view=theater वैशम्पायननीतिप्रकाशिका], सन् 1953,  मद्रास गवर्नमेंट ओरिएंटल मैनुस्क्रिप्ट्स सीरीज- 24, अध्याय-२, श्लोक-११ (पृ० २१)।</ref></blockquote>'''1. मुक्त–''' जो बाण छोड़ दिया जाए उसे मुक्त कहते हैं।
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'''3.  गंध -'''
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'''2. अमुक्त-''' जिस अस्त्र को हाथ में लेकर प्रहार किया जाए जैसे खड्ग आदि को अमुक्त कहा जाता है।
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'''4.  रस -'''
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'''3. मुक्तामुक्त-''' जिस अस्त्र को चलाने और समेटने की कला ज्ञात हो, उस अस्त्र को मुक्तामुक्त कहा जाता है।
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'''5.  दूर -'''
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'''4. मंत्रमुक्त-''' जिस अस्त्र को मंत्र पढ़कर चला तो दिया जाये किन्तु उसके उपसंहारकी विधि मालूम न हो, उस अस्त्र को मंत्रमुक्त कहा गया है।
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'''6.  चल -'''
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शस्त्र विद्या के आधार पर धनुर्वेद को भी चार शाखाओं में वर्गीकृत किया गया है-<blockquote>शस्त्रमस्त्रंच प्रत्यस्त्रं परमास्त्रमितीव च। चातुर्विध्यं धनुर्वेदे केचिदाहुर्धनुर्विदः॥ (नीति०प्रका०)<ref name=":0" /></blockquote>'''1. शस्त्र-''' हथियार जो हाथों में रखे जाते हैं।
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'''7.  अदर्शन -'''
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'''2. अस्त्र-''' छोड़े जाने वाले हथियार।
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'''8.  पृष्ठ -'''
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'''3. प्रत्यस्त्र-''' अस्त्रों का प्रतीकार करने के लिए प्रयुक्त अस्त्र अर्थात् रक्षात्मक हथियार या रक्षात्मक कलाएं।
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'''9.  स्थित -'''
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'''4. परमास्त्र-''' सर्वोच्च हथियार, अर्थात् दिव्य हथियार या शत्रु का पीछा करने वाले हथियार।
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'''10. स्थिर -'''
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धनुर्वेद को क्रियाओं अथवा अंगों के आधार पर भी चार भागों में वर्गीकृत किया गया है- <blockquote>आदानश्चैव सन्धानं विमोक्षस्संहृतिस्तथा। धनुर्वेदश्चतुर्धेति वदन्तीति परे जगुः॥(नीति०प्रका० २-१५)<ref name=":0" /></blockquote>'''1. आदान-''' तीरों पर नियंत्रण रखना अर्थात् दुश्मन के तीरों/ हथियारों को मार गिराना या दूर खींचकर फेक देना। शत्रु के हथियारों को नष्ट करना/जब्त करना, घोड़े पर बैठकर हथियार चलाने की क्रियाएँ भी इसी शाखा के अंतर्गत आती हैं।
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'''11. भ्रमण -'''
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'''2. संधान-''' दो हथियारों या कलाओं (शैलियों) को एक साथ जोड़ना जैसे- उपचारात्मक हथियार, हवाई हथियार, मायावी हथियार या आविष्कार।(दिव्यास्त्र दो प्रकार के कहे गए हैं नालिक और मांत्रिक। <ref name=":2">शुक्र नीति – अस्त्रं तु द्विविधं ज्ञेयं नालिकं मांत्रिकं तथा।(४, १०२५ )</ref> (नालिक) अस्त्रों से किया जाने वाला युद्ध आसूर मायिक और मांत्रिक दैविक कहलाता है।
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'''12. प्रतिबिंब -'''
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'''3. विमोक्ष-''' अदान के विपरीत हथियार छोड़ने की कलाएं या शैलियां।
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'''13. उद्देश (ऊपर) लक्ष्यों पर शरनिपातन करना (वेध करना) -'''  
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'''4. संहार-''' सूचनाओं का संकलन।
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धनुर्वेद में मुक्त और अमुक्त आयुधों की संख्या बत्तीस है
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कृपाचार्य जी ने इन चारों का उल्लेख किया। अर्जुन ने उपपाण्डवों को दस अंग या दस विधाएं सिखाईं। (विमोक्ष यहां मोक्ष का ही एक रूप है, संहार या संकलन अर्जुन की सूची में नहीं है। कृपाचार्य जी ने इन्हैं अन्य शीर्षकों के अंतर्गत शामिल किया। सभी शिक्षकों के लिए शिक्षण का तरीका अलग-अलग है, पहले दो समान हैं।
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1. उनमें पहले धनुष इत्यादि 12 आयुध मुक्त आयुधों में आते हैं।
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धनुर्वेद के दश अंग जो कि इस प्राकार बताए गए हैं – <blockquote>आदानमथ संधानं मोक्षणं विनिवर्तनम्। स्थानं मुष्टिः प्रयोगश्च प्रायश्चित्तानि मंडलम्॥ रहस्यंचेति दशधा धनुर्वेदांगमिष्यते॥(महा० आदि० 220। 72) </blockquote>
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2. शेष खड्गादि 20 आयुध अमुक्त आयुध कहे गए हैं।  
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*'''आदान -''' तीरों पर नियंत्रण रखना अर्थात् दुश्मन के तीरों/ हथियारों को मार गिराना या दूर खींचकर फेक देना। शत्रु के हथियारों को नष्ट करना/जब्त करना, घोड़े पर बैठकर हथियार चलाने की क्रियाएँ भी इसी शाखा के अंतर्गत आती हैं।
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*'''संधान -''' दो हथियारों या कलाओं (शैलियों) को एक साथ जोड़ना जैसे- उपचारात्मक हथियार, हवाई हथियार, मायावी हथियार या आविष्कार।(दिव्यास्त्र दो प्रकार के कहे गए हैं नालिक और मांत्रिक। <ref name=":2" /> (नालिक) अस्त्रों से किया जाने वाला युद्ध आसूर मायिक और मांत्रिक दैविक कहलाता है।
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*'''मोक्षण -''' लक्ष्य के उपर ध्यान का केन्द्रीकरण मोक्षण एवं अलक्षित (लक्ष्यहीन) ध्यान विमोचन।
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*'''विनिवर्त -''' तीर छोड़ने के बाद, यदि आपको पता चलता है कि प्रतिद्वंद्वी कमजोर है या बचाव के लिए उसके पास हथियार नहीं हैं, तो महान योद्धाओं के पास तीरों को वापस बुलाने की मंत्र शक्ति थी। इस कला को विनिर्वतन कहा जाता है।
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*'''स्थान -''' धनुष के विभिन्न हिस्सों का उपयोग करना और तीरों को विभिन्न स्थितियों में लॉक करना स्थान कला है।
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*'''मुष्टि -''' अंगूठे के बिना एक या एकाधिक तीरों को निर्देशित करने और फेंकने के लिए तीन या चार अंगुलियों का उपयोग करना मुष्टि है।
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*'''प्रयोग -''' तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग केवल निशानेबाजी के लिए करना ही प्रयोग है। ऐसा करने के लिए आप मध्यमा और अंगूठे के मध्य भाग का भी उपयोग कर सकते हैं।
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*'''प्रायश्चित्त -''' बाणों या ज्याघात (प्रत्यांचा या डोरी से हमला) को पीछे हटाने के लिए रक्षात्मक हथियार के रूप में चमड़े के दस्ताने का उपयोग करना या दुश्मन के धनुष की डोरी को पकड़ना प्रायश्चित अंग कहलाता है।
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*'''मण्डल -''' यह वह कला है जहां रथ गोलाकार गति में तेजी से चलता है और आपको एक गतिशील लक्ष्य पेश करते हुए और तेजी से आगे बढ़ते हुए भी दुश्मनों या लक्ष्यों को स्थिर मानकर उन पर ध्यान केंद्रित करना होता है और इसके अलावा स्टैहना का उपयोग करके दुश्मनों को निशाना बनाना होता है। , मुष्टि, प्रयोग और प्रायश्चित और अन्य कलाएँ युद्ध के मैदान पर हावी होने के लिए पूरी तरह से।
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*'''10. रहस्य -''' यह लक्ष्य या लक्ष्य पर प्रहार करने के साधन के रूप में ध्वनि का उपयोग है।
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वेदों और महाकाव्यों में वर्णित कई लोकप्रिय खेलों की उत्पत्ति सैन्य प्रशिक्षण में हुई है, जैसे कि मुक्केबाजी (मुष्टि-युद्ध), कुश्ती (मल, द्वन्द्व वा युद्ध)। रथ-रेसिंग (रथ चलन), घुड़सवारी (अश्व-रोहण) और तीरंदाजी (धनुर्विद्या)। धनुर्वेद में तीरंदाजी, धनुष-बाण बनाने और सैन्य प्रशिक्षण के नियमों प्रथाओं और उपयोगों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में योद्धाओं, रथियों, घुड़सवारों, हाथी योद्धाओं और पैदल सेना आदि के प्रशिक्षण के संबंध में चर्चा की गई है। विष्णु पुराण में ज्ञान की अट्ठारह शाखाओं में इसे एक माना गया है।
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=== व्यूह संरचना॥ Strategic Formations===
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== व्यूह संरचना॥ Array Structure==
   
युद्ध-स्थल में विविध रीति से सेना की स्थापना करना व्यूह रचना कहलाता है। युद्ध-विद्या में व्यूह-रचना का विशेष महत्त्व है।<blockquote>समग्रस्य तु सैन्यस्य विन्यासः स्थानभेदतः। स व्यूह इति विख्यातो युद्धेषु पृथिवीभुजाम्॥ (हलायुध कोष पृ० ६४६)</blockquote>वर्तमान में इसे मोर्चाबंदी कहा जाता है, जिसका अर्थ है युद्धक्षेत्र में सेना को एक विशिष्ट प्रकार से खड़ा करना। व्यूह से युक्त सेना अल्पसंख्या में होती हुई भी दूसरी सबल सेना को जीत सकती है। इसके विपरीत सबल सेना भी बिना व्यूह के छोटी व्यूहबद्ध सेना को पराजित नहीं कर सकती।  कुछ प्रमुख व्यूहों के नाम इस प्रकार हैं -
 
युद्ध-स्थल में विविध रीति से सेना की स्थापना करना व्यूह रचना कहलाता है। युद्ध-विद्या में व्यूह-रचना का विशेष महत्त्व है।<blockquote>समग्रस्य तु सैन्यस्य विन्यासः स्थानभेदतः। स व्यूह इति विख्यातो युद्धेषु पृथिवीभुजाम्॥ (हलायुध कोष पृ० ६४६)</blockquote>वर्तमान में इसे मोर्चाबंदी कहा जाता है, जिसका अर्थ है युद्धक्षेत्र में सेना को एक विशिष्ट प्रकार से खड़ा करना। व्यूह से युक्त सेना अल्पसंख्या में होती हुई भी दूसरी सबल सेना को जीत सकती है। इसके विपरीत सबल सेना भी बिना व्यूह के छोटी व्यूहबद्ध सेना को पराजित नहीं कर सकती।  कुछ प्रमुख व्यूहों के नाम इस प्रकार हैं -
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अथर्ववेद में व्यूह-रचना द्वारा सेना की रक्षा करना कहा गया है। श्री रामचन्द्रजी ने गरुडव्यूह की रचना करके लंका की घेराबन्दी की थी। महाभारत युद्ध में तो व्यूहरचना सामान्य बात रही है। इसी प्रकार कौटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दकीय नीतिसार में कई प्रकार के व्यूहों के भेद-प्रभेद कहे हैं, परन्तु इसका सबसे अधिक प्रामाणिक विवरण वीरमित्रोदय के अन्तर्गत राजविजय नामक ग्रन्थ के उद्धरणों से प्राप्त हुआ है।<ref>डॉ० देवव्रत आचार्य, [https://archive.org/details/ssRf_dhanurveda-dr.-devavrat-acharya-missing-pages/page/n14/mode/1up?view=theater धनुर्वेद], सन् १९९९, विजयकुमार गोविन्द्रम हसानन्द (पृ० १४)।</ref>
 
अथर्ववेद में व्यूह-रचना द्वारा सेना की रक्षा करना कहा गया है। श्री रामचन्द्रजी ने गरुडव्यूह की रचना करके लंका की घेराबन्दी की थी। महाभारत युद्ध में तो व्यूहरचना सामान्य बात रही है। इसी प्रकार कौटिल्य अर्थशास्त्र, कामन्दकीय नीतिसार में कई प्रकार के व्यूहों के भेद-प्रभेद कहे हैं, परन्तु इसका सबसे अधिक प्रामाणिक विवरण वीरमित्रोदय के अन्तर्गत राजविजय नामक ग्रन्थ के उद्धरणों से प्राप्त हुआ है।<ref>डॉ० देवव्रत आचार्य, [https://archive.org/details/ssRf_dhanurveda-dr.-devavrat-acharya-missing-pages/page/n14/mode/1up?view=theater धनुर्वेद], सन् १९९९, विजयकुमार गोविन्द्रम हसानन्द (पृ० १४)।</ref>
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====युद्ध के प्रकार॥ Types of War====
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==युद्ध के प्रकार॥ Types of War==
 
धनुष , चक्र , कुन्त , खड्ग , क्षुरिका , गदा और बाहु द्वारा किया गया - ये युद्ध के सात प्रकार हैं -  
 
धनुष , चक्र , कुन्त , खड्ग , क्षुरिका , गदा और बाहु द्वारा किया गया - ये युद्ध के सात प्रकार हैं -  
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इस प्रकार से युद्धों के ज्ञाताओं को निम्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। मन्त्रास्त्रों द्वारा किया गया युद्ध दैविक, नालादि (तोप - बन्दूक) द्वारा किया आसुर या मायिक और हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर किया जानेवाला युद्ध मानवीय कहलाता है। अस्त्रों की भी दिव्य , नाग , मानुष और राक्षस - ये चार प्रजातियाँ हैं।
 
इस प्रकार से युद्धों के ज्ञाताओं को निम्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। मन्त्रास्त्रों द्वारा किया गया युद्ध दैविक, नालादि (तोप - बन्दूक) द्वारा किया आसुर या मायिक और हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर किया जानेवाला युद्ध मानवीय कहलाता है। अस्त्रों की भी दिव्य , नाग , मानुष और राक्षस - ये चार प्रजातियाँ हैं।
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====बाण का उपयोग॥ Use of Arrow ====
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===बाण का उपयोग॥ Use of Arrows ===
 
धनुर्विद्या में विभिन्न प्रकार के भयंकर बाण का उपयोग होता था इन विकराल भयंकर बाणों के समक्ष वर्तमान के विस्फोटक बम भी तुच्छ हैं यह बाण दैवीय शक्ति से सम्पन्न होते थे। कतिपय प्रमुख बाण का वर्णन इस प्रकार है –  
 
धनुर्विद्या में विभिन्न प्रकार के भयंकर बाण का उपयोग होता था इन विकराल भयंकर बाणों के समक्ष वर्तमान के विस्फोटक बम भी तुच्छ हैं यह बाण दैवीय शक्ति से सम्पन्न होते थे। कतिपय प्रमुख बाण का वर्णन इस प्रकार है –  
  

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