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इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक  उपनिषदिक चिंतन में मिलता है।   
 
इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक  उपनिषदिक चिंतन में मिलता है।   
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कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई  मापन नहीं हो सकता फिर भी उसका अस्तित्व मान लिया जाता है। इस के माने बिना तो भूमिती का आधार ही नष्ट हो जाता है। इसी तरह सृष्टि को जानना हो तो परमात्मा के स्वरूप को समझना और मानना होगा।   
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कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई  मापन नहीं हो सकता तथापि उसका अस्तित्व मान लिया जाता है। इस के माने बिना तो भूमिती का आधार ही नष्ट हो जाता है। इसी तरह सृष्टि को जानना हो तो परमात्मा के स्वरूप को समझना और मानना होगा।   
    
सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – '''‘एकाकी न रमते सो कामयत’''' याने अकेले मन नहीं रमता अतः इच्छा हुई।   
 
सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – '''‘एकाकी न रमते सो कामयत’''' याने अकेले मन नहीं रमता अतः इच्छा हुई।   
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== मान्यताओं की बुद्धियुक्तता ==
 
== मान्यताओं की बुद्धियुक्तता ==
किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। अतः मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। अतः मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक  मान्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नों के बुद्धियुक्त उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। अतः इन मान्यताओं पर विश्वास रखना तथा इन्हें मानकर व्यवहार करना अधिक उचित है। धार्मिक  [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] यह मानता है कि सृष्टि की रचना की गयी है। यह करने वाला परमात्मा है। जिस प्रकार से मकडी अपने शरीर से ही अपने जाल के तंतु निर्माण कर उसी में निवास करती है, उसी तरह से इस परमात्मा ने सृष्टि को अपने में से ही बनाया है और उसी में वास करा रहा है। अतः चराचर सृष्टि के कण कण में परमात्मा है।   
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किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। अतः मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। अतः मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक  मान्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नों के बुद्धियुक्त उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। अतः इन मान्यताओं पर विश्वास रखना तथा इन्हें मानकर व्यवहार करना अधिक उचित है। धार्मिक  [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] यह मानता है कि सृष्टि की रचना की गयी है। यह करने वाला परमात्मा है। जिस प्रकार से मकडी अपने शरीर से ही अपने जाल के तंतु निर्माण कर उसी में निवास करती है, उसी तरह से इस परमात्मा ने सृष्टि को अपने में से ही बनाया है और उसी में वास करा रहा है। अतः चराचर सृष्टि के कण कण में परमात्मा है।   
    
== जीवन का आधार ==
 
== जीवन का आधार ==
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प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है। सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंत तक सिद्ध किया जा सकता है। साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता है कि एक विशाल अंडा था। उसमें विस्फोट हुआ। और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया। आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए। सृष्टि निर्माण की कल्पना में इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं। अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी। वह क्यों नहीं हुई?  
 
प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है। सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंत तक सिद्ध किया जा सकता है। साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता है कि एक विशाल अंडा था। उसमें विस्फोट हुआ। और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया। आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए। सृष्टि निर्माण की कल्पना में इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं। अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी। वह क्यों नहीं हुई?  
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हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है। सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से जड़़ में से ही एक कोशीय जीव अमीबा का निर्माण हुआ। इस प्रकार से मात्र रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण अब तक कोई साईंटिस्ट निर्माण नहीं कर पाया है। जीव की सहायता के बिना कोई जीव अब तक निर्माण नहीं किया जा सका है। अमीबा से ही मछली, बन्दर आदि क्रम से विकास होते होते वर्तमान का मानव निर्माण हुआ है। लेकिन आज तक ऐसा एक भी बन्दर नहीं पाया गया है जिसका स्वर यंत्र कहीं दूर दूर तक भी मानव के स्वरयंत्र जितना विकसित होगा या जिसकी बुद्धि मानव की बुद्धि जितनी विकासशील हो। मानव में बुद्धि का विकास तो एक ही जन्म में हो जाता है। कई प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अवसर न मिलने से बालक निर्बुद्ध ही रह जाता है। शायद बन्दर की बुद्धि जितनी भी उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती। प्रत्येक जीव में अनिवार्यता से उपस्थित जीवात्मा तथा परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने की हठधर्मी के कारण ही साईंटिस्ट अधूरी और अयुक्तिसंगत ऐसी सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को त्याग नहीं सकते। इसीलिये वे डार्विन की या मिलर की परिकल्पनाओं को ही सिद्धांत कहने को विवश हैं।
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हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है। सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से जड़़ में से ही एक कोशीय जीव अमीबा का निर्माण हुआ। इस प्रकार से मात्र रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण अब तक कोई साईंटिस्ट निर्माण नहीं कर पाया है। जीव की सहायता के बिना कोई जीव अब तक निर्माण नहीं किया जा सका है। अमीबा से ही मछली, बन्दर आदि क्रम से विकास होते होते वर्तमान का मानव निर्माण हुआ है। लेकिन आज तक ऐसा एक भी बन्दर नहीं पाया गया है जिसका स्वर यंत्र कहीं दूर दूर तक भी मानव के स्वरयंत्र जितना विकसित होगा या जिसकी बुद्धि मानव की बुद्धि जितनी विकासशील हो। मानव में बुद्धि का विकास तो एक ही जन्म में हो जाता है। कई प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अवसर न मिलने से बालक निर्बुद्ध ही रह जाता है। संभवतः बन्दर की बुद्धि जितनी भी उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती। प्रत्येक जीव में अनिवार्यता से उपस्थित जीवात्मा तथा परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने की हठधर्मी के कारण ही साईंटिस्ट अधूरी और अयुक्तिसंगत ऐसी सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को त्याग नहीं सकते। इसीलिये वे डार्विन की या मिलर की परिकल्पनाओं को ही सिद्धांत कहने को विवश हैं।
 
== प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक ==
 
== प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक ==
 
परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है। इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं। वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं। लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है। मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है।
 
परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है। इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं। वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं। लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है। मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है।
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८. जोपासना घटकत्वाची, लेखक दिलीप कुलकर्णी, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली
 
८. जोपासना घटकत्वाची, लेखक दिलीप कुलकर्णी, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली
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९. [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] और [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान], लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
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९. [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] और [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]], लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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