Difference between revisions of "Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)"
m (Text replacement - "लोगो" to "लोगों") Tags: Mobile edit Mobile web edit |
m (Text replacement - "शायद" to "संभवतः") Tags: Mobile edit Mobile web edit |
||
(8 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
{{One source|date=January 2019}} | {{One source|date=January 2019}} | ||
− | '''सृष्टि निर्माण''' की भिन्न भिन्न मान्यताएँ भिन्न भिन्न समाजों में हैं। इन में कोई भी मान्यता या तो अधूरी हैं या फिर बुद्धियुक्त नहीं है। सेमेटिक मजहब मानते हैं कि जेहोवा या गॉड या अल्लाह ने पाँच दिन में अन्धेरा-उजाला, गीला-सूखा, वनस्पति और मानवेतर प्राणी सृष्टि का निर्माण किया। छठे दिन उसने आदम का निर्माण किया। तत्पश्चात आदम में से हव्वा का निर्माण किया और उनसे कहा कि यह पाँच दिन की बनाई हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। इस निर्माण का न तो कोई काल-मापन दिया है और न ही कारण। वर्तमान साइंटिस्ट मानते हैं कि एक अंडा था जो फटा और सृष्टि बनने लगी। इसमें भी कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। अतः हम धार्मिक | + | '''सृष्टि निर्माण''' की भिन्न भिन्न मान्यताएँ भिन्न भिन्न समाजों में हैं। इन में कोई भी मान्यता या तो अधूरी हैं या फिर बुद्धियुक्त नहीं है। सेमेटिक मजहब मानते हैं कि जेहोवा या गॉड या अल्लाह ने पाँच दिन में अन्धेरा-उजाला, गीला-सूखा, वनस्पति और मानवेतर प्राणी सृष्टि का निर्माण किया। छठे दिन उसने आदम का निर्माण किया। तत्पश्चात आदम में से हव्वा का निर्माण किया और उनसे कहा कि यह पाँच दिन की बनाई हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। इस निर्माण का न तो कोई काल-मापन दिया है और न ही कारण। वर्तमान साइंटिस्ट मानते हैं कि एक अंडा था जो फटा और सृष्टि बनने लगी। इसमें भी कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। अतः हम धार्मिक वेदों और उपनिषदों के चिंतन में प्रस्तुत मान्यता का यहाँ विचार करेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय २, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
== सृष्टि निर्माण का प्रमाण == | == सृष्टि निर्माण का प्रमाण == | ||
प्रमाण ३ प्रकार के होते हैं। '''प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवचन या शास्त्र वचन'''। सृष्टि निर्माण के समय हममें से कोई भी नहीं था। किसी ने भी प्रत्यक्ष सृष्टि निर्माण होती नहीं देखी है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल सकता। ऐसी स्थिति में अनुमान प्रमाण का भी प्रत्यक्ष प्रमाण जैसा ही महत्व होता है। अनुमान का आधार प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिये। जैसे हम देखते और समझते भी हैं कि अपने आप कुछ नहीं होता। कुछ नहीं से ‘कुछ’ भी बन नहीं सकता। बिना प्रयोजन कोई कुछ नहीं बनाता। तो अनुमान यह बताता है कि सृष्टि यदि बनी है तो इसका बनानेवाला होना ही चाहिए। इसके निर्माण का कोई प्रयोजन भी होना चाहिए। यह यदि बनी है तो इसके बनाने के लिए ‘कुछ’ तो पहले से था। इससे कुछ प्रश्न उभरकर आते हैं। '''जैसे सृष्टि किसने निर्माण की है? इसका निर्माता कौन है? इसे किस ‘कुछ’ में से बनाया है? इसे क्यों बनाया है? इसके निर्माण का प्रयोजन क्या है?''' | प्रमाण ३ प्रकार के होते हैं। '''प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवचन या शास्त्र वचन'''। सृष्टि निर्माण के समय हममें से कोई भी नहीं था। किसी ने भी प्रत्यक्ष सृष्टि निर्माण होती नहीं देखी है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल सकता। ऐसी स्थिति में अनुमान प्रमाण का भी प्रत्यक्ष प्रमाण जैसा ही महत्व होता है। अनुमान का आधार प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिये। जैसे हम देखते और समझते भी हैं कि अपने आप कुछ नहीं होता। कुछ नहीं से ‘कुछ’ भी बन नहीं सकता। बिना प्रयोजन कोई कुछ नहीं बनाता। तो अनुमान यह बताता है कि सृष्टि यदि बनी है तो इसका बनानेवाला होना ही चाहिए। इसके निर्माण का कोई प्रयोजन भी होना चाहिए। यह यदि बनी है तो इसके बनाने के लिए ‘कुछ’ तो पहले से था। इससे कुछ प्रश्न उभरकर आते हैं। '''जैसे सृष्टि किसने निर्माण की है? इसका निर्माता कौन है? इसे किस ‘कुछ’ में से बनाया है? इसे क्यों बनाया है? इसके निर्माण का प्रयोजन क्या है?''' | ||
− | इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक | + | इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक उपनिषदिक चिंतन में मिलता है। |
− | कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई मापन नहीं हो सकता | + | कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई मापन नहीं हो सकता तथापि उसका अस्तित्व मान लिया जाता है। इस के माने बिना तो भूमिती का आधार ही नष्ट हो जाता है। इसी तरह सृष्टि को जानना हो तो परमात्मा के स्वरूप को समझना और मानना होगा। |
सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – '''‘एकाकी न रमते सो कामयत’''' याने अकेले मन नहीं रमता अतः इच्छा हुई। | सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – '''‘एकाकी न रमते सो कामयत’''' याने अकेले मन नहीं रमता अतः इच्छा हुई। | ||
Line 20: | Line 20: | ||
== मान्यताओं की बुद्धियुक्तता == | == मान्यताओं की बुद्धियुक्तता == | ||
− | किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। अतः मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। अतः मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक | + | किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। अतः मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। अतः मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक मान्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नों के बुद्धियुक्त उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। अतः इन मान्यताओं पर विश्वास रखना तथा इन्हें मानकर व्यवहार करना अधिक उचित है। धार्मिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] यह मानता है कि सृष्टि की रचना की गयी है। यह करने वाला परमात्मा है। जिस प्रकार से मकडी अपने शरीर से ही अपने जाल के तंतु निर्माण कर उसी में निवास करती है, उसी तरह से इस परमात्मा ने सृष्टि को अपने में से ही बनाया है और उसी में वास करा रहा है। अतः चराचर सृष्टि के कण कण में परमात्मा है। |
== जीवन का आधार == | == जीवन का आधार == | ||
− | जीवन का आधार चेतना है, | + | जीवन का आधार चेतना है, जड़़ नहीं। ठहराव या जड़़ता तो जीवन का अंत हैं। जड़़ से चेतन बनते आज तक नहीं देखा गया। डार्विन का विकासवाद और मिलर की जीवनिर्माण की परिकल्पना के प्रकाश में किये गए ग्लास ट्यूब जैसे प्रयोगों का तो आधार ही मिथ्या होने से उसके निष्कर्ष भी विपरीत हैं। ग्लास ट्यूब प्रयोग में पक्के हवाबंद कांच की नली में मीथेन और फफूंद की प्रक्रिया से जीव निर्माण हुआ ऐसा देखा गया। इससे अनुमान लगाया गया कि जब वह नली पक्की हवाबंद है तो उसमें जीवात्मा जा नहीं सकता। निष्कर्ष यह निकाला गया कि जड़़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं से ही जीव पैदा हो जाता है। वास्तव में जिनका ज्ञान केवल पंच महाभूतों तक ही सीमित है उन्हें ऐसा लगना स्वाभाविक है। लेकिन जो यह जानते हैं कि मन, बुद्धि हवा से बहुत सूक्ष्म होते हैं और जीवात्मा तो उनसे भी कहीं सूक्ष्म होता है उनके लिए इस प्रयोग का मिथ्यात्व समझना कठिन नहीं है। एक और भी बात है कि जब लोगोंं ने कांच के अन्दर कुछ होते देखा तो इसका अर्थ है कि प्रकाश की किरणें अन्दर बाहर आ-जा रहीं थीं। याने हवा से सूक्ष्म कोई भी पदार्थ नली के अन्दर भी जा सकता है और बाहर भी आ सकता है। जीवात्मा ऐसे ही नली के अन्दर सहज ही प्रवेश कर सकता है। |
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref name=":0" />- <blockquote>इंद्रियाणि पराण्याहू इन्द्रियेभ्य परं मन। मनसस्तु परा बुद्धिर्योबुद्धे परस्तस्तु स:॥3-42॥</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों के सूक्ष्मरूप जो इन्द्रिय हैं उनसे मन सूक्ष्म है। मनसे बुद्धि और आत्मतत्व याने जीवात्मा तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म होता है। | श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref name=":0" />- <blockquote>इंद्रियाणि पराण्याहू इन्द्रियेभ्य परं मन। मनसस्तु परा बुद्धिर्योबुद्धे परस्तस्तु स:॥3-42॥</blockquote>अर्थ : पंचमहाभूतों के सूक्ष्मरूप जो इन्द्रिय हैं उनसे मन सूक्ष्म है। मनसे बुद्धि और आत्मतत्व याने जीवात्मा तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म होता है। | ||
Line 37: | Line 37: | ||
== सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया == | == सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया == | ||
− | धार्मिक | + | धार्मिक सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं। इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं। हम यहाँ मुख्यत: [[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] की मान्यता का विचार करेंगे। वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं। एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड। ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है। |
छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। अतः इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ। | छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। अतः इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ। | ||
Line 76: | Line 76: | ||
== भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम == | == भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम == | ||
− | + | जड़़ के बिना चेतन या जीव जी नहीं सकता। अतः पहले जड़़ फिर चेतन। इसमें सभी एकमत हैं। जीवन के निर्माण के क्रम का अनुमान हम अवतार कल्पना से लगा सकते हैं। चेतन में भी सब से पहले निम्न चेतना के जीव निर्माण हुए। इसीलिये मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार से लेकर बुद्धावतार तक अवतारों में सृष्टि के निर्माण और विकास का क्रम ही समझ में आता है। | |
चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में '''यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे''' के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे । | चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में '''यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे''' के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे । | ||
Line 84: | Line 84: | ||
इस विषय में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 14-4</ref>:<blockquote>सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥ १४-४ ॥</blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! भिन्न भिन्न प्रकार की जातियों में जितने भी शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सब का गर्भ धारण करनेवाली प्रकृति है और बीज स्थापना करनेवाला पिता मैं हूँ। | इस विषय में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 14-4</ref>:<blockquote>सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥ १४-४ ॥</blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! भिन्न भिन्न प्रकार की जातियों में जितने भी शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सब का गर्भ धारण करनेवाली प्रकृति है और बीज स्थापना करनेवाला पिता मैं हूँ। | ||
− | == | + | == जड़़ और जीव याने चेतन == |
− | सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। अतः यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह | + | सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। अतः यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह जड़़ है। जड़़ से मतलब है की वह अक्रिय है। जब तक कोई चेतन इसमें परिवर्तन न करे इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे एक पत्थर जहाँ रखा हुआ है वहीं पडा रहेगा। जब कोई चेतन तत्व उसे हिलाएगा तब ही वह हिलेगा। इसी प्रकार से जो चेतन तत्व है वह अष्टधा प्रकृति के बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता। चेतन तत्व यह अष्टधा प्रकृति के साथ संयोग करने के लिए नियोजित परमात्मा का एक अंश ही है। |
− | श्रीमद्भगवद्गीता में में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>:<blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:॥ 15-7 ॥</blockquote> | + | श्रीमद्भगवद्गीता में में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>:<blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:॥ 15-7 ॥</blockquote>जड़ की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है<ref>ब्रह्मसूत्र 2-2-4</ref>: <blockquote>व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ 2-2-4 ॥</blockquote>अर्थ : जड़ पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले। |
इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state. | इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state. | ||
− | + | जड़़ और चेतन में चेतना के स्तर का अंतर है और इस स्तर के कारण आने वाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रियता का। सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव। मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टी जैसे पदार्थों में सबसे कम होता है। सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धि की शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है। | |
जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के टुकड़े पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाई थी (इसे fatigue कहते हैं) । जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं । | जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के टुकड़े पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाई थी (इसे fatigue कहते हैं) । जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं । | ||
Line 101: | Line 101: | ||
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-10</ref> <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक॥3-10॥</blockquote>अर्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो। | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-10</ref> <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक॥3-10॥</blockquote>अर्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो। | ||
− | यह है समाज निर्माण की धार्मिक | + | यह है समाज निर्माण की धार्मिक मान्यता। वर्तमान व्यक्ति- केंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टि में है। |
आगे कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-11</ref>:<blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व:। परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥3-11॥</blockquote>अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टि करो। और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें। इसा प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक दूसरे की परस्पर उन्नति करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। | आगे कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-11</ref>:<blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व:। परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥3-11॥</blockquote>अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टि करो। और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें। इसा प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक दूसरे की परस्पर उन्नति करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। | ||
− | यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की धार्मिक | + | यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की धार्मिक दृष्टि। वर्तमान पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने की सामर्थ्य इस दृष्टि में है। परम कल्याण का ही अर्थ मोक्ष की प्राप्ति है। |
− | वर्तमान में जल, हवा और जमीन के प्रदूषण के निवारण की बात होती है। वास्तव में यह टुकड़ों में विचार करने की यूरो अमेरिकी दृष्टि है। इसे धार्मिक | + | वर्तमान में जल, हवा और जमीन के प्रदूषण के निवारण की बात होती है। वास्तव में यह टुकड़ों में विचार करने की यूरो अमेरिकी दृष्टि है। इसे धार्मिक याने समग्रता की दृष्टि से देखने से समस्या का निराकरण हो जाता है। अष्टधा प्रकृति में से वर्तमान में केवल ३ महाभूतों के प्रदूषण का विचार किया जा रहा है। यह विचार अधूरा है। इसमें अग्नि और आकाश इन दो शेष पंचमहाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार इन के प्रदूषण का विचार नहीं हो रहा। वास्तव में समस्या तो मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण की है। मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण का निवारण तो धार्मिक शिक्षा से ही संभव है। इनका प्रदूषण दूर होते ही सभी प्रकारके प्रदूषणों से मुक्ति मिल जाएगी। |
== सृष्टि निर्माण की अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यताएँ == | == सृष्टि निर्माण की अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यताएँ == | ||
यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टों द्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धि-युक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है। अतः अभी हम केवल वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे। | यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टों द्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धि-युक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है। अतः अभी हम केवल वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे। | ||
− | सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं। पहला है | + | सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं। पहला है जड़़ सृष्टि का निर्माण, दूसरा है प्रथम जीव का निर्माण, तीसरा है इस प्रथम जीव अमीबा से प्राणियों में सबसे अधिक विकसित मानव का निर्माण। इन तीनों से सम्बंधित साईन्टिस्टों की मान्यताएँ असिद्ध हैं। इन्हें आज भी पश्चिम के ही कई वैज्ञानिक परिकल्पना या हायपोथेसिस ही मानते हैं, सिद्धांत नहीं मानते। विकासवाद की प्रस्तुति को ‘डार्विन की थियरी’ ही माना जाता है, सिद्धांत नहीं। |
प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है। सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंत तक सिद्ध किया जा सकता है। साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता है कि एक विशाल अंडा था। उसमें विस्फोट हुआ। और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया। आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए। सृष्टि निर्माण की कल्पना में इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं। अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी। वह क्यों नहीं हुई? | प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है। सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंत तक सिद्ध किया जा सकता है। साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता है कि एक विशाल अंडा था। उसमें विस्फोट हुआ। और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया। आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए। सृष्टि निर्माण की कल्पना में इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं। अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी। वह क्यों नहीं हुई? | ||
− | हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है। सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से | + | हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है। सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से जड़़ में से ही एक कोशीय जीव अमीबा का निर्माण हुआ। इस प्रकार से मात्र रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण अब तक कोई साईंटिस्ट निर्माण नहीं कर पाया है। जीव की सहायता के बिना कोई जीव अब तक निर्माण नहीं किया जा सका है। अमीबा से ही मछली, बन्दर आदि क्रम से विकास होते होते वर्तमान का मानव निर्माण हुआ है। लेकिन आज तक ऐसा एक भी बन्दर नहीं पाया गया है जिसका स्वर यंत्र कहीं दूर दूर तक भी मानव के स्वरयंत्र जितना विकसित होगा या जिसकी बुद्धि मानव की बुद्धि जितनी विकासशील हो। मानव में बुद्धि का विकास तो एक ही जन्म में हो जाता है। कई प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अवसर न मिलने से बालक निर्बुद्ध ही रह जाता है। संभवतः बन्दर की बुद्धि जितनी भी उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती। प्रत्येक जीव में अनिवार्यता से उपस्थित जीवात्मा तथा परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने की हठधर्मी के कारण ही साईंटिस्ट अधूरी और अयुक्तिसंगत ऐसी सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को त्याग नहीं सकते। इसीलिये वे डार्विन की या मिलर की परिकल्पनाओं को ही सिद्धांत कहने को विवश हैं। |
== प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक == | == प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक == | ||
परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है। इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं। वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं। लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है। मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है। | परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है। इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं। वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं। लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है। मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है। | ||
Line 140: | Line 140: | ||
६. ऋग्वेद | ६. ऋग्वेद | ||
− | ७. Modern Physics and Vedant लेखक स्वामी जितात्मानंद, प्रकाशक धार्मिक | + | ७. Modern Physics and Vedant लेखक स्वामी जितात्मानंद, प्रकाशक धार्मिक विद्या भवन |
८. जोपासना घटकत्वाची, लेखक दिलीप कुलकर्णी, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली | ८. जोपासना घटकत्वाची, लेखक दिलीप कुलकर्णी, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली | ||
− | ९. विज्ञान और विज्ञान, लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली | + | ९. [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] और [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]], लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली |
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]] | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]] | ||
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] | ||
+ | [[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]] |
Latest revision as of 01:38, 24 June 2021
This article relies largely or entirely upon a single source.January 2019) ( |
सृष्टि निर्माण की भिन्न भिन्न मान्यताएँ भिन्न भिन्न समाजों में हैं। इन में कोई भी मान्यता या तो अधूरी हैं या फिर बुद्धियुक्त नहीं है। सेमेटिक मजहब मानते हैं कि जेहोवा या गॉड या अल्लाह ने पाँच दिन में अन्धेरा-उजाला, गीला-सूखा, वनस्पति और मानवेतर प्राणी सृष्टि का निर्माण किया। छठे दिन उसने आदम का निर्माण किया। तत्पश्चात आदम में से हव्वा का निर्माण किया और उनसे कहा कि यह पाँच दिन की बनाई हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। इस निर्माण का न तो कोई काल-मापन दिया है और न ही कारण। वर्तमान साइंटिस्ट मानते हैं कि एक अंडा था जो फटा और सृष्टि बनने लगी। इसमें भी कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। अतः हम धार्मिक वेदों और उपनिषदों के चिंतन में प्रस्तुत मान्यता का यहाँ विचार करेंगे।[1]
सृष्टि निर्माण का प्रमाण
प्रमाण ३ प्रकार के होते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवचन या शास्त्र वचन। सृष्टि निर्माण के समय हममें से कोई भी नहीं था। किसी ने भी प्रत्यक्ष सृष्टि निर्माण होती नहीं देखी है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल सकता। ऐसी स्थिति में अनुमान प्रमाण का भी प्रत्यक्ष प्रमाण जैसा ही महत्व होता है। अनुमान का आधार प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिये। जैसे हम देखते और समझते भी हैं कि अपने आप कुछ नहीं होता। कुछ नहीं से ‘कुछ’ भी बन नहीं सकता। बिना प्रयोजन कोई कुछ नहीं बनाता। तो अनुमान यह बताता है कि सृष्टि यदि बनी है तो इसका बनानेवाला होना ही चाहिए। इसके निर्माण का कोई प्रयोजन भी होना चाहिए। यह यदि बनी है तो इसके बनाने के लिए ‘कुछ’ तो पहले से था। इससे कुछ प्रश्न उभरकर आते हैं। जैसे सृष्टि किसने निर्माण की है? इसका निर्माता कौन है? इसे किस ‘कुछ’ में से बनाया है? इसे क्यों बनाया है? इसके निर्माण का प्रयोजन क्या है?
इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक उपनिषदिक चिंतन में मिलता है।
कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई मापन नहीं हो सकता तथापि उसका अस्तित्व मान लिया जाता है। इस के माने बिना तो भूमिती का आधार ही नष्ट हो जाता है। इसी तरह सृष्टि को जानना हो तो परमात्मा के स्वरूप को समझना और मानना होगा।
सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – ‘एकाकी न रमते सो कामयत’ याने अकेले मन नहीं रमता अतः इच्छा हुई।
कैसे बनाया - एकोहं बहुस्याम:। अपनी इच्छा और ताप से अर्जित शक्ति से एक का अनेक हो गया।
इन बातों के लिए अनुमान के आधार पर कुछ कल्पना की जा सकती है। शास्त्र के आधारपर उसकी सत्यता प्रमाणित होनेपर उसे प्रामाणिक मानना उचित है। ऊपर हम जिसे परमात्मा कह आए हैं ब्रह्म उसी का दूसरा नाम है।
श्रीमद्भगवद्गीता यह शास्त्र है। इस शास्त्र में बताई सृष्टि निर्माण की बातों के सन्दर्भ में हम आगे देखेंगे। यहाँ और भी एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है[2]
य: शास्त्र विधिमुत्स्रुज्य वर्तते कामकारत:। न स: सिद्धिमवाप्नोती न सुखं न परान्गातिम्॥16-23॥
अर्थ: जो शास्त्र से भिन्न, मनमाना व्यवहार करते हैं उन्हें न सिद्धि, न सुख और ना ही श्रेष्ठ जीवन की पाप्ति होती है।
मान्यताओं की बुद्धियुक्तता
किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। अतः मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। अतः मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक मान्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नों के बुद्धियुक्त उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। अतः इन मान्यताओं पर विश्वास रखना तथा इन्हें मानकर व्यवहार करना अधिक उचित है। धार्मिक विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की रचना की गयी है। यह करने वाला परमात्मा है। जिस प्रकार से मकडी अपने शरीर से ही अपने जाल के तंतु निर्माण कर उसी में निवास करती है, उसी तरह से इस परमात्मा ने सृष्टि को अपने में से ही बनाया है और उसी में वास करा रहा है। अतः चराचर सृष्टि के कण कण में परमात्मा है।
जीवन का आधार
जीवन का आधार चेतना है, जड़़ नहीं। ठहराव या जड़़ता तो जीवन का अंत हैं। जड़़ से चेतन बनते आज तक नहीं देखा गया। डार्विन का विकासवाद और मिलर की जीवनिर्माण की परिकल्पना के प्रकाश में किये गए ग्लास ट्यूब जैसे प्रयोगों का तो आधार ही मिथ्या होने से उसके निष्कर्ष भी विपरीत हैं। ग्लास ट्यूब प्रयोग में पक्के हवाबंद कांच की नली में मीथेन और फफूंद की प्रक्रिया से जीव निर्माण हुआ ऐसा देखा गया। इससे अनुमान लगाया गया कि जब वह नली पक्की हवाबंद है तो उसमें जीवात्मा जा नहीं सकता। निष्कर्ष यह निकाला गया कि जड़़ पदार्थों की रासायनिक प्रक्रियाओं से ही जीव पैदा हो जाता है। वास्तव में जिनका ज्ञान केवल पंच महाभूतों तक ही सीमित है उन्हें ऐसा लगना स्वाभाविक है। लेकिन जो यह जानते हैं कि मन, बुद्धि हवा से बहुत सूक्ष्म होते हैं और जीवात्मा तो उनसे भी कहीं सूक्ष्म होता है उनके लिए इस प्रयोग का मिथ्यात्व समझना कठिन नहीं है। एक और भी बात है कि जब लोगोंं ने कांच के अन्दर कुछ होते देखा तो इसका अर्थ है कि प्रकाश की किरणें अन्दर बाहर आ-जा रहीं थीं। याने हवा से सूक्ष्म कोई भी पदार्थ नली के अन्दर भी जा सकता है और बाहर भी आ सकता है। जीवात्मा ऐसे ही नली के अन्दर सहज ही प्रवेश कर सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है[2]-
इंद्रियाणि पराण्याहू इन्द्रियेभ्य परं मन। मनसस्तु परा बुद्धिर्योबुद्धे परस्तस्तु स:॥3-42॥
अर्थ : पंचमहाभूतों के सूक्ष्मरूप जो इन्द्रिय हैं उनसे मन सूक्ष्म है। मनसे बुद्धि और आत्मतत्व याने जीवात्मा तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म होता है।
सृष्टि निर्माण काल
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है[3][4]:
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:। रात्रिं युगसहस्त्रान्तान् ते अहोरात्रविदो जना:॥ 8-17॥
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभावंत्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंजके॥ 8-18 ॥
अर्थ : ब्रह्माजी का एक दिन भी और एक रात भी एक हजार चतुर्युगों की होती है। ब्रह्माजी के दिन के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में से ही चराचर के सभी अस्तित्व उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माजी की रात्रि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में ही विलीन हो जाते हैं। इस एक चक्र के काल को कल्प कहते हैं। आगे हम जानते हैं कि एक चतुर्युग ४३,३२,००० वर्ष का होता है। इसमें समझने की बात इतनी ही है कि सृष्टि का निर्माण एक अति प्राचीन घटना है। ब्रह्माजी के दिन के साथ ही कालगणना आरम्भ होती है और ब्रह्माजी की रात के साथ समाप्त होती है। वर्तमान में २७वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। कलियुग के ५१०० से अधिक वर्ष हो चुके हैं।
सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया
धार्मिक सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं। इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं। हम यहाँ मुख्यत: [[Vedanta_(वेदांतः)|वेदांत]] की मान्यता का विचार करेंगे। वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं। एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड। ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है।
छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। अतः इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।
वेदों में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है[5] [6]:
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्॥ 10-129-1॥
तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ॥ 10-129-3॥
अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। अतः इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है।
सांख्य दर्शन में कहा है[7] [8][9]:
सत्व रजस् तमसां साम्यावस्था प्रकृति:॥ 1-61 ॥
परमात्मा की इच्छा और शक्ति से साम्यावस्था भंग हुई। तरल पदार्थ के कणों याने परमाणुओं में सत्व, रज ओर तम ये अंतर्मुखी थे। परमात्मा की इच्छा और शक्ति से वे बहिर्मुखी हुए।
लघ्वादिधर्मै: साधर्म्य विधर्मी च गुणानाम् ॥ 1-123 ॥
प्रीत्यप्रीतिर्विषादाद्यैर्गुणानामन्यों$न्यम् वैधर्म्यम् ॥ 1-127 ॥
अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे।
श्रीमद्भगवद्गीता वेदों का सार है। अतः गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है[10]:
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ (9-7) ॥
अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४, ५ में कहा है[11] [12]:
भूमिरापो नलो वायु ख़म् मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ 7-4॥
अर्थ : प्रकृति याने सृष्टि का हर अस्तित्व पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचाभूतों के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बना है। आगे कहा है:
अपरेयामितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि में पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥ 7-5॥
अर्थ: यह अष्टधा प्रकृति परमात्मा की अपरा याने अचेतन (चेतना अक्रिय) प्रकृति है। इससे भिन्न दूसरी जिसके द्वारा सारे संसार की धारणा होती है वह परमात्मा की जीवरूप (आत्मा) परा याने चेतन प्रकृति है। आगे और कहा है[13]
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:।सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तंयदेभि:स्यात्त्रिभिर्गु गुणे:॥ 18-40 ॥
अर्थ : पृथ्वी पर, आकाश में या देवों में इसी तरह अन्यत्र कहीं भी ऐसा कोई भी पदार्थ या प्राणी नहीं है जिसमें प्रकृति से बने सत्व, रज और तम न हों।
इसे उपर्युक्त 7-4 से मिलकर देखने से यह समझ में आता है कि बुद्धि का गुण सत्व, मन का गुण राजसी और अहंकार का गुण तम है।
ब्रह्मसूत्र में भिन्न भिन्न जीवजातियों के निर्माण के सन्दर्भ में कहा है[14]:
योने: शरीरम्॥ ३-१-२७ ॥
अर्थ: योनि से शरीर बनता है। अर्थात् जीव का शरीर स्त्री के उत्पत्ति स्थान (योनि) के अनुसार बनता है। अन्य जीव के पुरूष कण (स्पर्म) के अनुसार नहीं। किसी भिन्न जाति के जीव के पुरूष कण अन्य जाति की स्त्री की योनि में जाने से जीव निर्माण नहीं होता। भिन्न या विपरीत योनि शुक्र को ग्रहण नहीं करती।
भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम
जड़़ के बिना चेतन या जीव जी नहीं सकता। अतः पहले जड़़ फिर चेतन। इसमें सभी एकमत हैं। जीवन के निर्माण के क्रम का अनुमान हम अवतार कल्पना से लगा सकते हैं। चेतन में भी सब से पहले निम्न चेतना के जीव निर्माण हुए। इसीलिये मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार से लेकर बुद्धावतार तक अवतारों में सृष्टि के निर्माण और विकास का क्रम ही समझ में आता है।
चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे ।
एक और बात यह है कि जीव जगत में भी आज जो पशू, पक्षी, प्राणि आदि जिस रूप में हैं उसी रूप में परमात्मा ने उन्हें अपने में से ही उत्पन्न किया। यह प्रक्रिया (कुल १४ में से) सातवें मन्वंतर तक चली। पूर्व में श्रीमद्भगवद्गीता के ७ वें अध्याय के श्लोक ६ में हमने जाना है कि सभी अस्तित्व याने सभी भूतमात्र का निर्माण इन्हीं परमात्मा की परा याने चेतन और अपरा याने अचेतन प्रकृति से ही हुआ है। परमात्मा ने ही इन अस्तित्वों को बनाया है। आज जो जीव जिस स्वरूप में दिखाई देते हैं उन को परमात्मा ने वैसा ही निर्माण किया है।
इस विषय में कहा है[15]:
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥ १४-४ ॥
अर्थ : हे अर्जुन ! भिन्न भिन्न प्रकार की जातियों में जितने भी शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सब का गर्भ धारण करनेवाली प्रकृति है और बीज स्थापना करनेवाला पिता मैं हूँ।
जड़़ और जीव याने चेतन
सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। अतः यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह जड़़ है। जड़़ से मतलब है की वह अक्रिय है। जब तक कोई चेतन इसमें परिवर्तन न करे इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे एक पत्थर जहाँ रखा हुआ है वहीं पडा रहेगा। जब कोई चेतन तत्व उसे हिलाएगा तब ही वह हिलेगा। इसी प्रकार से जो चेतन तत्व है वह अष्टधा प्रकृति के बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता। चेतन तत्व यह अष्टधा प्रकृति के साथ संयोग करने के लिए नियोजित परमात्मा का एक अंश ही है।
श्रीमद्भगवद्गीता में में कहा है[16]:
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:॥ 15-7 ॥
जड़ की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है[17]:
व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ 2-2-4 ॥
अर्थ : जड़ पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले।
इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
जड़़ और चेतन में चेतना के स्तर का अंतर है और इस स्तर के कारण आने वाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रियता का। सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव। मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टी जैसे पदार्थों में सबसे कम होता है। सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धि की शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है।
जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के टुकड़े पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाई थी (इसे fatigue कहते हैं) । जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं ।
चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं। वे हैं[18]:
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति॥ 1-1-10 ॥
अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना।
मानव और मानव समाज का निर्माण
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है[19]
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक॥3-10॥
अर्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो।
यह है समाज निर्माण की धार्मिक मान्यता। वर्तमान व्यक्ति- केंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टि में है।
आगे कहा है[20]:
देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व:। परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥3-11॥
अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टि करो। और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें। इसा प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक दूसरे की परस्पर उन्नति करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की धार्मिक दृष्टि। वर्तमान पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने की सामर्थ्य इस दृष्टि में है। परम कल्याण का ही अर्थ मोक्ष की प्राप्ति है।
वर्तमान में जल, हवा और जमीन के प्रदूषण के निवारण की बात होती है। वास्तव में यह टुकड़ों में विचार करने की यूरो अमेरिकी दृष्टि है। इसे धार्मिक याने समग्रता की दृष्टि से देखने से समस्या का निराकरण हो जाता है। अष्टधा प्रकृति में से वर्तमान में केवल ३ महाभूतों के प्रदूषण का विचार किया जा रहा है। यह विचार अधूरा है। इसमें अग्नि और आकाश इन दो शेष पंचमहाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार इन के प्रदूषण का विचार नहीं हो रहा। वास्तव में समस्या तो मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण की है। मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण का निवारण तो धार्मिक शिक्षा से ही संभव है। इनका प्रदूषण दूर होते ही सभी प्रकारके प्रदूषणों से मुक्ति मिल जाएगी।
सृष्टि निर्माण की अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यताएँ
यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टों द्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धि-युक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है। अतः अभी हम केवल वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे।
सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं। पहला है जड़़ सृष्टि का निर्माण, दूसरा है प्रथम जीव का निर्माण, तीसरा है इस प्रथम जीव अमीबा से प्राणियों में सबसे अधिक विकसित मानव का निर्माण। इन तीनों से सम्बंधित साईन्टिस्टों की मान्यताएँ असिद्ध हैं। इन्हें आज भी पश्चिम के ही कई वैज्ञानिक परिकल्पना या हायपोथेसिस ही मानते हैं, सिद्धांत नहीं मानते। विकासवाद की प्रस्तुति को ‘डार्विन की थियरी’ ही माना जाता है, सिद्धांत नहीं।
प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है। सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंत तक सिद्ध किया जा सकता है। साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता है कि एक विशाल अंडा था। उसमें विस्फोट हुआ। और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया। आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए। सृष्टि निर्माण की कल्पना में इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं। अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी। वह क्यों नहीं हुई?
हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है। सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से जड़़ में से ही एक कोशीय जीव अमीबा का निर्माण हुआ। इस प्रकार से मात्र रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण अब तक कोई साईंटिस्ट निर्माण नहीं कर पाया है। जीव की सहायता के बिना कोई जीव अब तक निर्माण नहीं किया जा सका है। अमीबा से ही मछली, बन्दर आदि क्रम से विकास होते होते वर्तमान का मानव निर्माण हुआ है। लेकिन आज तक ऐसा एक भी बन्दर नहीं पाया गया है जिसका स्वर यंत्र कहीं दूर दूर तक भी मानव के स्वरयंत्र जितना विकसित होगा या जिसकी बुद्धि मानव की बुद्धि जितनी विकासशील हो। मानव में बुद्धि का विकास तो एक ही जन्म में हो जाता है। कई प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अवसर न मिलने से बालक निर्बुद्ध ही रह जाता है। संभवतः बन्दर की बुद्धि जितनी भी उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती। प्रत्येक जीव में अनिवार्यता से उपस्थित जीवात्मा तथा परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने की हठधर्मी के कारण ही साईंटिस्ट अधूरी और अयुक्तिसंगत ऐसी सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को त्याग नहीं सकते। इसीलिये वे डार्विन की या मिलर की परिकल्पनाओं को ही सिद्धांत कहने को विवश हैं।
प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक
परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है। इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं। वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं। लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है। मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है।
इन सभी घटकों में महत्त्व की बात यह है कि प्रत्येक घटक अंग है और तुरंत नीचे का घटक उसका अंगी है। केवल परमात्मा अंग भी है और अपना अंगी भी है। इसका अधिक अध्ययन हम अन्गांगी सम्बन्ध इस अध्याय में करेंगे।
इसका चित्र रूप आगे देखें।
References
- ↑ जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय २, लेखक - दिलीप केलकर
- ↑ 2.0 2.1 श्रीमद्भगवद्गीता, 16-23
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 8-17
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 8-18
- ↑ ऋग्वेद 10-129-1
- ↑ ऋग्वेद 10-129-3
- ↑ सांख्य 1-61
- ↑ सांख्य 1-123
- ↑ सांख्य 1-127
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 9-7
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 7-4
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 7-5
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 18-40
- ↑ ब्रह्मसूत्र 3-1-27
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 14-4
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 15-7
- ↑ ब्रह्मसूत्र 2-2-4
- ↑ न्याय दर्शन 1-1-10
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 3-10
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 3-11
अन्य स्रोत:
१. श्रीमद्भगवद्गीता
२. सृष्टि रचना : लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
३. न्याय दर्शन – गौतम ऋषि
४. ब्रह्मसूत्र – महर्षि व्यास
५. सांख्य दर्शन – कपिल मुनि
६. ऋग्वेद
७. Modern Physics and Vedant लेखक स्वामी जितात्मानंद, प्रकाशक धार्मिक विद्या भवन
८. जोपासना घटकत्वाची, लेखक दिलीप कुलकर्णी, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली
९. विज्ञान और विज्ञान, लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली