Brihadaranyaka Upanishad (बृहदारण्यक उपनिषद्)

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search

बृहदारण्यकोपनिषद् अपने नाम से ही सूचित करती है कि यह उपनिषद् एक बडी (बृहद् = बडी लंबी) उपनिषद् है। यह उपनिषद् शुक्लयजुर्वेद के अन्तर्गत सुप्रसिद्ध शतपथ ब्राह्मण का ही एक भाग है। शतपथब्राह्मण की दो वाचनाएँ हैं। एक काण्वशाखीय वाचना और दूसरी माध्यन्दिन शाखीय वाचना है। काण्वशाखा की वाचना के सत्रह काण्ड हैं और माध्यन्दिन शाखा के केवल चौदह हैं। शतपथब्राह्मण की सत्रह काण्डोंवाली काण्वशाखीय वाचना के तीन से आठ अध्याय- कुल छः अध्याय ही यह बृहदारण्यक उपनिषद् है और शतपथब्राह्मण की चौदह काण्ड वाली माध्यन्दिन शाखा वाली वाचना के चार से नौ काण्ड (कुल छः काण्ड) ही यह बृहदारण्यक उपनिषद् है।

परिचय

यह शतपथ ब्राह्मण के १४ वें कांड का अन्तिम भाग है। यह शुक्ल यजुर्वेद से संबद्ध है। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् तीनों में इसकी चर्चा होती है। बृहदारण्यक उपनिषद् में छः अध्याय हैं। अध्यायों को खण्डों या ब्राह्मणों में विभाजित किया गया है। और उन खण्डों या ब्राह्मणों को भी कण्डिकाओं में विभाजित किया गया है कण्डिकाओं की समानता मन्त्रों से की जा सकती है। इस उपनिषद् में ऐसी ४३५ कण्डिकाएँ हैं, ४७ ब्राह्मण या खण्ड हैं और छः अध्याय हैं। यह आकार में ही विशालकाय नहीं है, अपितु तत्त्वज्ञान में भी अग्रगण्य है। इसके विवेचन गंभीर, उदात्त और प्रामाणिक हैं। यह अध्यात्म-शिक्षा से ओतप्रोत है।

बृहदारण्यक उपनिषद् - शान्ति पाठ

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥[1]

भाषार्थ - वह (परमात्मा) पूर्ण है, और यह (कार्य ब्रह्म - जगत्) भी पूर्ण ही है। क्योंकि पूर्ण में से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। तथा (प्रलयकाल में) पूर्ण का अर्थात् कार्यब्रह्मरूप जगत् का पूर्णत्व लेकर केवल परब्रह्म (कारण ब्रह्म) ही शेष रहता है। ओम् त्रिविध तापों की शान्ति हो। अध्ययन प्रारम्भ करते समय शान्ति पाठ सभी प्रकार की शान्ति करने वाला है।

बृहदारण्यक उपनिषद् - वर्ण्य विषय

इस उपनिषद् के विभागीकरण का एक दूसरा भी प्रकार है। पहले दो अध्यायों वाले एक विभाग को मधुकाण्ड कहा गया है। बीच के दो अध्यायों (३ और ४ अध्यायों) को मुनिकाण्ड कहा जाता है। मुनिकाण्ड को याज्ञवल्क्य काण्ड भी कहते हैं। अन्तिम दो अध्यायों को (५ और ६ को) खिलकाण्ड कहा गया है। ये तीन काण्ड क्रमशः उपदेश, उपपत्ति और उपासना के तीन विषयों का विश्लेषण करते हैं। इन तीनों काण्डों में मुनिकाण्ड अथवा याज्ञवल्क्यकाण्ड अत्यंत महत्त्व का है। उसमें इस उपनिषद् की कण्डिकाओं में से आधी संख्या में कण्डिकाएँ शामिल हो जाती हैं। ऋषि याज्ञवल्क्य इस काण्ड के प्रधान वक्ता है। इन्होंने इसमें आत्मा का (ब्रह्म का) तत्त्वज्ञान बडी ही ओजस्विता से निरूपित किया है। और ब्रह्म या आत्मा सम्बन्धी अनेकानेक आनुषंगिक विषयों पर भी अपने उपदेशों में उनका सूक्ष्म निरूपण किया है। किसी भी युग के विश्व के महान् चिन्तकों में मुनि याज्ञवल्क्य को सहज ही उच्च आसन प्राप्त है।[2] बृहदारण्यक उपनिषद् के अध्यायों में वर्णित विषय इस प्रकार हैं -[3]

अध्याय 1 - यज्ञिय अश्व के रूप में परम पुरुष का वर्णन, मृत्यु का विकराल रूप, जगत् की उत्पत्ति, प्राण की श्रेष्ठता का वर्णन।

अध्याय 2 - अभिमानी गार्ग्य और काशिराज अजातशत्रु का संवाद। ब्रह्म के दो रूप - मूर्त और अमूर्त, याज्ञवल्क्य का अपनी दोनों पत्नियों - कात्यायनी और मैत्रेयी, में संपत्ति का विभाजन, मैत्रेयी का संपत्ति लेने से अस्वीकार करना और याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या का उपदेश प्राप्त करना।

अध्याय 3 - जनक की सभा में याज्ञवल्क्य का अपने प्रतिपक्षियों को हराना, गार्गी और याज्ञवल्क्य के प्रश्नोत्तर।

अध्याय 4 - याज्ञवल्क्य का जनक को ब्रह्मविद्या का उपदेश, इसमें पुनः याज्ञवल्क्य का संपत्ति-विभाजन का वर्णन, मैत्रेयी को ब्रह्मविद्या का उपदेश।

अध्याय 5 - प्रजापति का देव मनुष्य और असुरों को द द द का उपदेश। ब्रह्म के विभिन्न रूपों का वर्णन, प्राण ही वेदरूप हैं, गायत्री के विभिन्न रूप।

अध्याय 6 - प्राण की श्रेष्ठता, ऋषि प्रवाहण जैबलि और श्वेतकेतु का दार्शनिक संवाद, पञ्चाग्नि-मीमांसा। उपनिषदीय ऋषियों की वंश-परंपरा का विस्तृत वर्णन।

मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद

बृहदारण्यक उपनिषद् में प्रतिपादित याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी संवाद इस उपनिषद् के द्वितीय अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में उपलब्ध चौदह मन्त्रों के रूप में संगृहीत है। महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ हैं - मैत्रेयी और कात्यायनी। महर्षि अब गृहस्थ आश्रम से विरत होकर संन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं लेकिन उसके पूर्व अपनी दोनों पत्नियों के बीच जो भी उनके पास है उसे बांट देना चाहते हैं। इस प्रसंग के साथ इस उपनिषद् का प्रारंभ होता है -[4]

मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरे हमस्मात्स्थानादस्मि हन्त ते नया कात्यायन्यान्तं करवाणीति॥१॥

इस संवाद के माध्यम से गुरु के द्वारा शिष्य के प्रति ब्रह्मविद्या का विधान करना इसका मुख्य उद्देश्य है। जिसका एक अंग सन्यास भी है।

बृहदारण्यक उपनिषद् एवं विद्याएँ

साधना के अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग के रूप में बृहदारण्यक उपनिषद् में कुछ विद्याएँ (उपासनाएँ) दी गई हैं। जो मनुष्य यज्ञयागादि में ही डूबा रहता है, या वैदिक यज्ञों में ही रममाण होता है, उसे कभी-न-कभी धीरे-धीरे चिन्तन या मनोमन्थन की ओर जाना ही पडता है। बृहदारण्यक उपनिषद् में ऐसी विद्याओं की संख्या चार हैं - अन्तरादित्यविद्या, पंचाग्निविद्या, प्राणाग्निहोत्रविद्या और उद्गीथविद्या।

ये सभी विद्याएँ रहस्यमय हैं और प्राचीन काल में ये गुप्त रूप से सिखाई जाती थीं। वे गोपनीय ही रहती थीं। उनका अनुष्ठान करने के लिए विशिष्ट अधिकार की आवश्यकता समझी जाती थी।[2][2]

बृहदारण्यक के विशिष्ट सन्दर्भ

इस उपनिषद् के छह अध्यायों में दो-दो अध्यायों के तीन काण्ड हैं, जिनको क्रमशः मधुकाण्ड, याज्ञवल्क्यकाण्ड और खिलकाण्ड कहा जाता है -[5]

  1. मधुकाण्ड - प्रथम एवं द्वितीय अध्याय
  2. याज्ञवल्क्य काण्ड - तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय
  3. खिलकाण्ड - पंचम एवं षष्ठ अध्याय
  • द द द - देवता मनुष्य और असुर तीनों पिता प्रजापति के पास पहुँचे कि हमें कुछ ज्ञानोपदेश दें। प्रजापति ने तीन बाद द द द कहा। देवों ने इसका अर्थ लिया 'दाम्यत' दम अर्थात् इन्द्रिय-संयम करो। मनुष्यों ने अर्थ लिया 'दत्त' दान करो। असुरों ने अर्थ लिया 'दयध्वम्' दया करो, दया का भाव हृदय में लावो। इस प्रकार तीनों ने क्रमशः दम, दान और दया की शिक्षा प्राप्त की। (बृ० ५,२, १ से ३)
  • आत्मा द्रष्टव्य - याज्ञवल्क्य ऋषि ने मैत्रेयी को उपदेश दिया कि आत्मा का ही दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान करना चाहिए। आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान से संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो.....आत्मनि दृष्टे श्रुते मते विज्ञाते इदं सर्वं विदितम्। (४, ५, ६)
  • याज्ञवल्क्य - मैत्रेयी संवाद - सम्पत्ति-विभाजन के समय मैत्रेयी ने कहा - मुझे भौतिक संपत्ति नहीं चाहिए। सारी संपत्ति भी मिल जाए तो मैं अमर नहीं हो सकूँगी। धन से अमरत्व नहीं मिलेगा, अतः मुझे ब्रह्मज्ञान दीजिए। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन। (४,५,३)
  • आत्मा के लिए सभी कार्य - पति-प्रेम, स्त्री-प्रेम, धन-प्रेम, पुत्र-प्रेम आदि सारे प्रेम आत्मा की (अपनी) प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं, वस्तु के लिए नहीं। अतः मूल तत्त्व आत्मा को जानना चाहिए। आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति०। (४,५,६)
  • मूल तत्त्व को पकडो - शब्द को नहीं पकड सकते हैं, परन्तु दुन्दुभि को पकडने से शब्द पकड में आ जाएगा। इसीलिए मूल कारण आत्मा को पकडो। उसको पकडने से सब कुछ पकड में आ जायेगा। दुन्दुभेर्ग्रहणेन......शब्दो गृहीतः। (४, ५, ८)
  • असतो मा सद् गमयः - इस उपनिषद् के सर्वोत्तम उपदेशों में से यह एक है। हे परमात्मन्! हमें असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से बचाकर अमरत्व की ओर ले चलो, अर्थात् हम असत्य से सत्य की ओर, अधंकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरत्व की ओर चलें। (१, ३, २८) असतो मा सद् गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा मृतं गमय।
  • ब्रह्म एक है, मन से ही दृश्य - ब्रह्म एक है। अनेक मानना अज्ञान है। वह मन से ही देखा जा सकता है। मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन। (४, ४, १९)
  • कर्मफल अवश्यंभावी - पुण्य और पाप का फल अवश्य मिलता है। पुण्य से पुण्य और पाप से पाप मिलता है। जैसा करेंगे, वैसा फल मिलेगा। यथाकारी यथाचारी तथा भवति। पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति। पापः पापेन। (४,४, ५)
  • मन वाणी और प्राण - मन वाणी और प्राण ये तीन ही सार हैं। प्राण जीवन है। वाणी भावप्रकाशन का एकमात्र साधन है और मन जीवन का नियन्ता है। आत्मनि पुरुषः, एतमेवाहं ब्रह्मोपासे। (२,१,१३)
  • आत्मा में ब्रह्म का निवास - जीवात्मा में परमात्मा (ब्रह्म) का निवास है। उसी ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए।

सारांश

बृहदारण्यक उपनिषद् के सार-विषय इस प्रकार हैं -

  • अश्वमेध यज्ञ का महत्व तथा जगत् की उत्पत्ति
  • प्राण (जीवन) का अर्थ
  • प्राण शक्ति का महत्व
  • सद्गुण की विषय-वस्तु
  • परब्रह्म की महानता
  • सत्योपलब्धि के लिए दिशा तथा परब्रह्म

उपनिषद् का प्रारंभ अश्वमेध यज्ञ के वर्णन से होता है तथा अश्व की उपमा वैश्विक सत्ता के रूप में दी गयी है। जिसके प्रत्येक अंग को वैश्विक सत्ता से सम्बन्धित करके ध्यान करना चाहिये। अश्व से प्रारंभ करके यह जगत् की सृष्टि प्रक्रिया का विवरण देती है। आरम्भ में कुछ भी नहीं था। शून्य से सृष्टि का प्रारंभ हुआ। प्राण, आत्मा है तथा सबसे बलशाली है।

उद्धरण

  1. बृहदारण्यकोपनिषद्
  2. 2.0 2.1 2.2 आचार्य केशवलाल वि० शास्त्री, उपनिषत्सञ्चयनम् , सन् २०१५, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली (पृ० २६५)।
  3. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी (पृ० १८३)।
  4. बृहदारण्यक उपनिषद्,भूमिका, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ६)।
  5. आचार्य बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेदखण्ड, सन् १९९९, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० ५०२)।