Difference between revisions of "Bhojana Vidhi - Scientific Aspects (भोजन विधि का वैज्ञानिक अंश )"

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भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त विधिसे भोजन करने पर आयु,  तेज, उत्साह, पुष्टि, तुष्टि एवं सुख प्राप्त होता है। आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।
  
==== भोजन के आयुर्वेदीय अंश ====
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== परिचय ==
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मनुष्य का शरीर आहार से संभव है और शरीर द्वारा ही सभी क्रियाऐं संभव हैं। अतः आहार का सम्यक् विचार करके इसे ग्रहण करना चाहिये। सनातन धर्ममें आचार-विचार, आहार तथा व्यवहार इन चार वस्तुओं पर निर्भर है। इनमें आहारकी तो मुख्यता ही है क्योंकि प्रसिद्ध है- <blockquote>जैसा खावे अन्न, वैसा होवे तन और मन।</blockquote>अर्थात् जैसा आहार होगा वैसे मन और बुध्दि होंगे। जैसे मन और बुद्धि होंगे वैसे विचार होंगे। जैसे विचार होंगे वैसे ही आचरण होंगे। जैसे आचरण होंगे वैसा ही दूसरोंसे व्यवहार होगा। यदि व्यवहार-शुद्धि है तो कोई अशान्ति या अव्यवस्था नहीं हो पाती। इन्हीं हेतुओं के कारण से ही सनातनधर्ममें भोजन का संबंध धर्मके साथ स्थापित किया गया है-<blockquote>अन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति।(मनु ५/४)</blockquote>अन्न दोषके कारण ही मानसिक एवं शारीरिक अनारोग्य  प्राप्ति होती है।
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== भोजन विधि ==
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=== भोग निवेदन ===
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परिवार में या जहाँ कहीं भी भोजन बनकर तैयार हो वहं पर उसे थाली में या किसी अन्य पात्र में निकाल कर देवता को भोग लगाया जाता है। प्रायः सामूहिक भोजन के अवसर पर भी पाचक बने हुये भोजन का स्वल्प अंश अग्नि में अवश्य छोडते हैं। साथ ही वह प्रार्थना करते हैं कि उसके द्वारा बनाया हुआ भोजन पुष्टिकारक हो। सनातन संस्कृतिमें आज भी भोग लगाने की प्रथा चली आ रही है।<blockquote>अस्माकंनित्यमस्त्वेतदिति।</blockquote>यह अन्न मुञ्चे नित्य प्राप्त हो। इस प्रकार नैवेद्य के साथमें ईश्वर से प्रार्थना की जाती है।
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=== भोजन पात्र विचार ===
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कांस्यपात्र मे भोजन करने से काम शक्ति की वृद्धि होती है। अतः यति, ब्रह्मचारी, विधवा, साधक, तपस्वी को कांस्य में भोजन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ को भी कांस्य पात्र में हमेशा अकेले भोजन करना चाहिए, अन्यथा तांबेका पात्र एक का दोष दूसरे में शीघ्र प्रेषित करता है।
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स्वर्ण, चांदी, ताम्बा का पात्र, शुक्ति (सितु), शंख, संगमरमर, पत्थर, स्फटिक आदि का पात्र यदि चटक जाये, फूट जाये या उसमें दरार पड़ जाये तो उसका दोष नहीं होता है-<blockquote>सौवर्णं राजतं ताम्रंपात्रं शुक्तिजशंखजे। अश्मजं स्फाटिकं चैव न भेदाद् दोषमर्हति॥(व्यासः)</blockquote>स्वर्ण पात्र, रजत (चाँदी) पात्र, ताम्रपात्र, कमल पत्र तथा पलाश पत्र पर भोजन करना चाहिए-<blockquote>सौवर्णे राजते ताम्रे पद्मपत्रपलाशयोः। भाजने भोजन चैव त्रिरात्रफलमश्नुते॥(पैठीनसिः)</blockquote>गृहस्थ को ताम्रपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। ताम्रपात्र में दूध, दही, तक्र (मठा) शीघ्र खराब होता है।
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=== भोजनमें दिशा विचार ===
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अपनी जानकारी में हमेशा पूर्वमुख बैठकर भोजन करने का प्रयास करना चाहिए। पूर्व दिशा देव दिशा होती है-<blockquote>प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत शुचिः पीठमधिष्ठितः॥ (देवलः)</blockquote>पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर भोजन करना चाहिए-<blockquote>प्राडमुखोदङ्मुखो वापि न चैवान्यमना नरः॥(विष्णुपुराणम् , ३/१९१/८०)</blockquote>दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से माता की आयु क्षरित होती है। पश्चिम मुख भोजन करने से रोग बढ़ता है।
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=== भोजन संख्या ===
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अहोरात्र (दिन-रात) में मात्र दो बार ही भोजन करना चाहिए। दिन और रात्रि में मात्र दो बार भोजन करने वाला उपवास करने का पुण्य प्राप्त करता है- <blockquote>नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः॥ (महा.अनु. १६२/४०)</blockquote>चौबीस घण्टे में दो बार भोजन करना नियमित जीवनचर्या का महत्वपूर्ण अंग है।<ref name=":0" /><blockquote>द्वौ भोजनकालौ सायं प्रातश्च। ततोऽन्यस्मिन्काले न भुञ्जीत॥ (मेधातिधिः)</blockquote>चौबीस घण्टे में एक बार भोजन करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। दो बार भोजन करना मानवी प्रवृत्ति होती हे। तीसरी बार जो भोजन किया जाता है वह भूत-प्रेतादि को प्राप्त होता है। चौथी बार का भोजन राक्षसों को प्राप्त होता है-
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देवानामेकभुक्तं तु द्विभुक्तं स्यान्नरस्य च। त्रिभुक्तं॒प्रेतदैत्यस्य चतुर्थं कौणपस्य च॥(पद्मपुराणम्,५१/१२९)
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=== भोजनमें मौनका विज्ञान ===
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भोजनमें मौन रहने का रहस्य है कि- भोजन करते हुये लार हमारे मुखमें उत्पन्न होती है, उससे भोजन की परिपचनक्रिया सम्पन्न होती है। उस समय यदि बातचीत हो जाये तो वह लार भोजनके लिये पर्याप्त मात्रामेंन बन सकेगी। क्योंकि उसका कुछ उपयोग बोलने में भी होगा। इससे मुखके सूखने पर बीच-बीचमें पानी पीना पडेगा, जिससे वातदोष की उत्पत्ति हो सकती है। अर्थात् मन सदा एक इन्द्रिय के साथ होता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ उसे बलात् जोडनेमें कई हानियाँ तथा भोजनकी अनपच हो सकती है।<ref name=":0" />
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भोजन करते समय अत्यन्त शांत और मौन रहना चाहिए। शीत्कार, हूँकार, खांसने का शब्द नहीं करना चाहिए।<blockquote>मौनेनान्नं तु भोजयेत् - (ब्रह्मपुराण)</blockquote>
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स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। हवन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। स्नान के समय बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। हवन के समय बोलने से शोभा (कान्ति) का ह्रास होता है और भोजन करते समय बोलने से आयु का ह्रास होता है-<blockquote>स्नास्यते वरुणः शक्तिं जुह्वतोऽग्निर्हरेत् श्रियम्। भुञ्जतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनव्रतं चरेत् ॥(व्यासः)</blockquote>
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== भोजन विधि में शुद्धि का महत्व ==
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==== अन्न शुद्धि ====
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समय पर जो भोजन उपलब्ध हो उसे संतुष्ट चित्त होकर खाना चाहिए। अन्न (भोजन) की कभी भी निंदा नहीं करनी चाहिए-<blockquote>अनिन्दन् भक्षयेन्नित्यं वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।</blockquote>निंदा करके खाया हुआ अन्न कभी भी बल और आरोग्य नहीं देता है।
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==== द्रव्य शुद्धि ====
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द्रव्यभी भोजन विधि के गुणों को प्रभावित करता है। अनीति, अनाचार, चोरी, तस्करी, गबन तथा लूटसे प्राप्त धन पापसे ग्रसित होनेके कारण भोजन को उच्छिष्ट बना देता है। ऐसे धनसे तैयार किया गया भोजन तामसी गुणोंको उत्पन्नकर भोजन ग्रहण करने वाले के तन और मनको दुष्प्रभावित कर देता है। यह दुष्प्रभाव भोजन ग्रहण करने वाले के आचार-व्यवहार, चालचलन, चिन्तन-मनन और कर्ममें स्पष्ट दिखायी पडता है।
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महाभारतमें भीष्मपितामहजी का चरित्र इसका प्रबल प्रमाण है। अतः मेहनत और ईमानदारीसे अर्जित द्रव्यसे तैयार भोजन ही सात्त्विक और आरोग्यप्रद होता है।
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==== काल शुद्धि ====
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कालशुद्धिसे तात्पर्य उस समय-कालसे है, जिसमें भोजन ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद हो। स्वस्थ लोगों को प्रातः एवं सायं दो बार पूर्ण आहार ग्रहण करना चाहिये, इसके मध्य भोजन नहीं करना चाहिये। यह विधि अग्निहोत्र के समान है- <blockquote>सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतिबोधितम् । नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्र समो विधिः॥</blockquote>प्रातःकाल और सायं- दोनों भोजनोंके बीच कम-से-कम दो याम या प्रहर(एक याम या प्रहर तीन घण्टेका होता है)- का अन्तर रहे। इससे अन्नरसका परिपाक भलीभाँति होता है। इससे अधिक विलम्ब करने पर पूर्व संचित बलका क्षय होता है।<blockquote>याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत् । याममध्ये रसोत्पत्तिर्यामयुग्माद्बलक्षयः॥</blockquote>आचार्य वाग्भट् जी के अनुसार भोजन करनेका उचित अवसर वह है, जब व्यक्ति मल मूत्र त्यागके उपरान्त अपनेको हलका महसूस करे, ठीकसे डकार आ जाय, भूख लग जाय और भोजनके प्रति रुचि जाग्रत् हो जाय। इस प्रकार से भोजन विधि में कालशुद्धि का होना भी आवश्यक माना गया है।
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==== भाव शुद्धि ====
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क्रियाशुद्धि से तात्पर्य वे सभी कर्तव्य या क्रियाएँ हैं, जो आहारके लिये द्रव्योंके चयन, पाकसंस्कार और ग्रहण करने हेतु व्यक्तिद्वारा सम्पन्न की जाती है।
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==== क्षेत्र शुद्धि ====
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== एकान्तस्थानमें भोजन की आवश्यकता ==
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विवाह के दिन पति-पत्नी एक साथ एक पात्र मेँ भोजन करते हेँ। इससे अभेद की स्थिति उत्पन्न होती है। अतः पत्नी के साथ भोजन करना पाप कर्म नहीं हे, पर यह नित्यकर्म भी नहीं है। यह रतिकर्म या अनुराग कर्म में गिना जाता है।
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== भोजन उपरान्त की क्रियाऐं ==
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भुक्त्वा शतपदं गच्छेत् , कोरुक् ३?(बीमार कौन नहीं होता?) वामशायी, शतपदगामी सोरुक्३। (बाईं करवट सोने वाला, और भोजन के बाद सौ कदम चलनेवाला कभी बीमार नहीं होता)।
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उपर्युक्त इन वचनों के अनुसार धीरे-धीरे सौ कदम चलना चाहिये। इससे यथायोग्य रक्तसंचलन होनेसे भोजनकी परिपाक-क्रियामें सहायता मिलती है। तेज चलनेसे भी रक्तसंचलनकी गति बढ जाने से भोजन जल्दी भस्म हो जाता है जिससे बहुत हानि होती है। यदि भोजन करके एकदम बैठ जाने से पेट बडा होने की संभावना एवं शयन करने से पाकक्रिया न हो सकने से अजीर्ण हो जाता है।<ref>धर्मशास्त्र का इतिहास,उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,डॉ०पाण्डुरंग वामन काणे,१९९२(पृ०३३४)।</ref>
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== भोजन के आयुर्वेदीय अंश ==
 
(मित भुक हित भुक ऋत भुक)
 
(मित भुक हित भुक ऋत भुक)
  
 
पथ्यम्
 
पथ्यम्
  
==== योगासन और भोजन ====
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=== पैर धोकर भोजन करना ===
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भोजन करने के पूर्व शास्त्रानुसार पैरों को धुल लेना चाहिये। पैर धोनेसे बुद्धि की पवित्रता, दरिद्रता का विनाश और परिश्रम जनित दुख का निवारण होता है तथा यह आयु को हितकर भी है। जैसाकि पैर धोने के विषयमें मनुजी लिखते हैं-<blockquote>आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥(मनु० ४/७३)</blockquote>अर्थात् गीले पैर से भोजन करना चाहिये, गीले पैर से सोना नहीं चाहिये।
  
 
==== अनारोग्य अवस्था में भोजन विधि ====
 
==== अनारोग्य अवस्था में भोजन विधि ====
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आधुनिक भोजन विधान
  
==== आधुनिक भोजन विधान ====
 
 
स्वल्पाहार,आहार,पूर्णाहर
 
स्वल्पाहार,आहार,पूर्णाहर
  
==== उपवास के वैज्ञानिक अंश ====
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उपवास के वैज्ञानिक अंश
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योगासन और भोजन
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== स्वभोजन का त्याग न करना ==
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यदि अपने घर में भोजन बन कर तैयार हो और बाहर का कोई व्यक्ति आकर निमन्रण दे या भोजन करने का दबाव बनाये तो भी स्वपाक का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वपाक का त्याग करके परपाक का ग्रहण करता है वह अश्व, शूकर या कुत्ते की योनि में उत्पन्न होता है-<blockquote>स्वपाके वर्तमाने यः परपाकं निषेवते। सोऽश्वत्वं शूकरत्वं च गर्दभत्वं च गच्छति।।</blockquote>दूसरे के घर का सामान्यतः भोजन नहीं करना चाहिए। व्रत रखकर कभी भी दूसरे के घर पारण नहीं करना चाहिए। अन्यथा व्रत का पुण्य अन्नदाता को प्राप्त हो जाता है।<ref name=":0">डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० १६२।</ref>
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==== श्रद्धापूर्वक दिया भोजन स्वीकार करना ====
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जो व्यक्ति जिस प्रवृत्ति का होता है उसका अन्न वैसा ही फल देता है। अतः सोच विचार कर दूसरों के घर का भोजन करना चाहिए-<blockquote>दुष्कृतं हि मनुष्यस्य अन्नमाश्रित्य तिष्ठति। यो यस्यान्नमिहाश्नाति स तस्याश्नाति किल्विषम् ॥(वीरमित्रोदयः)</blockquote>अपने गुरु और पूज्य भी यदि सत्कार रहित, उपेक्षाभाव से भोजन करायें तो नहीं करना चाहिए-<blockquote>गुरोरपि न भोक्तव्यमन्नं सत्कारवर्जितम् ॥(वीरमित्रोदयः)</blockquote>श्रद्धापूर्वक दिया हुआ अन्न खाना चाहिए- चाहे वह चोर का ही अन्न क्यों न हो-<blockquote>श्रदधानस्य भोक्तव्यं चौरस्यापि विशेषतः॥(वीरमित्रोदयः)</blockquote>
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==== बाहर भोजन कब लें? ====
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विपत्ति में, प्रवास काल में और सादर निमन्त्रण प्राप्त होने पर विचार पूर्वक निर्णय लेकर ही बाहर भोजन करना चाहिए। अनावश्यक ही दुकान से, घूम कर बेचने वालों से खाद्य पदार्थं खरीद कर नहीं खाना चाहिए।
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परान्न (दूसरो का अन्न) खाने वाला अपना तप खाता है। निरंतर दूसरों के घर भोजन करने वाला उस घर के पाप कृत्यों का भागी बनता है। भगवान् श्रीकृष्ण को राजा दुर्योधन ने भोजन पर बुलाया, पर उन्होने भोजन पर आने से मना कर दिया। भगवान् श्रीकृष्णने दुर्योधन के घर भोजन न करने का जो कारण बतलाया वह इस प्रकार है-<blockquote>सप्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद् भोज्यानि वा पुनः। न च सप्रीयसे राजन्! न चैवापद् गता वयम् ॥(उद्योगपर्व ९१/२५)</blockquote>किसी अन्य व्यक्ति के घर भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता हे, संप्रीति होने पर या विपत्ति में फंसे होने पर। हे राजन् ! हमारी आपकी संप्रीति नहीं है। न तो मैं किसी विपत्ति में हूँ।<ref>सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।</ref>
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== उद्धरण॥ References ==

Latest revision as of 15:27, 28 February 2023

भारतीय संस्कृतिमें प्रत्येक दैनिक कर्म विधि-विधानसे पूर्ण किया जाता है। भोजन ग्रहण करने हेतु भी शास्त्रों में भोजनविधि का वर्णन किया गया है। शास्त्रोक्त विधिसे भोजन करने पर आयु, तेज, उत्साह, पुष्टि, तुष्टि एवं सुख प्राप्त होता है। आजकल सहभोज (बफेपार्टी) आदि जो भी प्रचलित हैं वह शास्त्रीय भोजन पद्धति का अनुसरण नहीं करती है। जिसमें स्पर्शदोष, दृष्टिदोष, भोजनस्थल की पवित्रता आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता है। जिसके फलस्वरूप अजीर्ण आदि शरीरमें बहुविधरोग होने लगते हैं।

परिचय

मनुष्य का शरीर आहार से संभव है और शरीर द्वारा ही सभी क्रियाऐं संभव हैं। अतः आहार का सम्यक् विचार करके इसे ग्रहण करना चाहिये। सनातन धर्ममें आचार-विचार, आहार तथा व्यवहार इन चार वस्तुओं पर निर्भर है। इनमें आहारकी तो मुख्यता ही है क्योंकि प्रसिद्ध है-

जैसा खावे अन्न, वैसा होवे तन और मन।

अर्थात् जैसा आहार होगा वैसे मन और बुध्दि होंगे। जैसे मन और बुद्धि होंगे वैसे विचार होंगे। जैसे विचार होंगे वैसे ही आचरण होंगे। जैसे आचरण होंगे वैसा ही दूसरोंसे व्यवहार होगा। यदि व्यवहार-शुद्धि है तो कोई अशान्ति या अव्यवस्था नहीं हो पाती। इन्हीं हेतुओं के कारण से ही सनातनधर्ममें भोजन का संबंध धर्मके साथ स्थापित किया गया है-

अन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति।(मनु ५/४)

अन्न दोषके कारण ही मानसिक एवं शारीरिक अनारोग्य प्राप्ति होती है।

भोजन विधि

भोग निवेदन

परिवार में या जहाँ कहीं भी भोजन बनकर तैयार हो वहं पर उसे थाली में या किसी अन्य पात्र में निकाल कर देवता को भोग लगाया जाता है। प्रायः सामूहिक भोजन के अवसर पर भी पाचक बने हुये भोजन का स्वल्प अंश अग्नि में अवश्य छोडते हैं। साथ ही वह प्रार्थना करते हैं कि उसके द्वारा बनाया हुआ भोजन पुष्टिकारक हो। सनातन संस्कृतिमें आज भी भोग लगाने की प्रथा चली आ रही है।

अस्माकंनित्यमस्त्वेतदिति।

यह अन्न मुञ्चे नित्य प्राप्त हो। इस प्रकार नैवेद्य के साथमें ईश्वर से प्रार्थना की जाती है।

भोजन पात्र विचार

कांस्यपात्र मे भोजन करने से काम शक्ति की वृद्धि होती है। अतः यति, ब्रह्मचारी, विधवा, साधक, तपस्वी को कांस्य में भोजन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ को भी कांस्य पात्र में हमेशा अकेले भोजन करना चाहिए, अन्यथा तांबेका पात्र एक का दोष दूसरे में शीघ्र प्रेषित करता है।

स्वर्ण, चांदी, ताम्बा का पात्र, शुक्ति (सितु), शंख, संगमरमर, पत्थर, स्फटिक आदि का पात्र यदि चटक जाये, फूट जाये या उसमें दरार पड़ जाये तो उसका दोष नहीं होता है-

सौवर्णं राजतं ताम्रंपात्रं शुक्तिजशंखजे। अश्मजं स्फाटिकं चैव न भेदाद् दोषमर्हति॥(व्यासः)

स्वर्ण पात्र, रजत (चाँदी) पात्र, ताम्रपात्र, कमल पत्र तथा पलाश पत्र पर भोजन करना चाहिए-

सौवर्णे राजते ताम्रे पद्मपत्रपलाशयोः। भाजने भोजन चैव त्रिरात्रफलमश्नुते॥(पैठीनसिः)

गृहस्थ को ताम्रपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। ताम्रपात्र में दूध, दही, तक्र (मठा) शीघ्र खराब होता है।

भोजनमें दिशा विचार

अपनी जानकारी में हमेशा पूर्वमुख बैठकर भोजन करने का प्रयास करना चाहिए। पूर्व दिशा देव दिशा होती है-

प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत शुचिः पीठमधिष्ठितः॥ (देवलः)

पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर भोजन करना चाहिए-

प्राडमुखोदङ्मुखो वापि न चैवान्यमना नरः॥(विष्णुपुराणम् , ३/१९१/८०)

दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से माता की आयु क्षरित होती है। पश्चिम मुख भोजन करने से रोग बढ़ता है।

भोजन संख्या

अहोरात्र (दिन-रात) में मात्र दो बार ही भोजन करना चाहिए। दिन और रात्रि में मात्र दो बार भोजन करने वाला उपवास करने का पुण्य प्राप्त करता है-

नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः॥ (महा.अनु. १६२/४०)

चौबीस घण्टे में दो बार भोजन करना नियमित जीवनचर्या का महत्वपूर्ण अंग है।[1]

द्वौ भोजनकालौ सायं प्रातश्च। ततोऽन्यस्मिन्काले न भुञ्जीत॥ (मेधातिधिः)

चौबीस घण्टे में एक बार भोजन करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। दो बार भोजन करना मानवी प्रवृत्ति होती हे। तीसरी बार जो भोजन किया जाता है वह भूत-प्रेतादि को प्राप्त होता है। चौथी बार का भोजन राक्षसों को प्राप्त होता है-

देवानामेकभुक्तं तु द्विभुक्तं स्यान्नरस्य च। त्रिभुक्तं॒प्रेतदैत्यस्य चतुर्थं कौणपस्य च॥(पद्मपुराणम्,५१/१२९)

भोजनमें मौनका विज्ञान

भोजनमें मौन रहने का रहस्य है कि- भोजन करते हुये लार हमारे मुखमें उत्पन्न होती है, उससे भोजन की परिपचनक्रिया सम्पन्न होती है। उस समय यदि बातचीत हो जाये तो वह लार भोजनके लिये पर्याप्त मात्रामेंन बन सकेगी। क्योंकि उसका कुछ उपयोग बोलने में भी होगा। इससे मुखके सूखने पर बीच-बीचमें पानी पीना पडेगा, जिससे वातदोष की उत्पत्ति हो सकती है। अर्थात् मन सदा एक इन्द्रिय के साथ होता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ उसे बलात् जोडनेमें कई हानियाँ तथा भोजनकी अनपच हो सकती है।[1]

भोजन करते समय अत्यन्त शांत और मौन रहना चाहिए। शीत्कार, हूँकार, खांसने का शब्द नहीं करना चाहिए।

मौनेनान्नं तु भोजयेत् - (ब्रह्मपुराण)

स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। हवन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। स्नान के समय बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। हवन के समय बोलने से शोभा (कान्ति) का ह्रास होता है और भोजन करते समय बोलने से आयु का ह्रास होता है-

स्नास्यते वरुणः शक्तिं जुह्वतोऽग्निर्हरेत् श्रियम्। भुञ्जतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनव्रतं चरेत् ॥(व्यासः)

भोजन विधि में शुद्धि का महत्व

अन्न शुद्धि

समय पर जो भोजन उपलब्ध हो उसे संतुष्ट चित्त होकर खाना चाहिए। अन्न (भोजन) की कभी भी निंदा नहीं करनी चाहिए-

अनिन्दन् भक्षयेन्नित्यं वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।

निंदा करके खाया हुआ अन्न कभी भी बल और आरोग्य नहीं देता है।

द्रव्य शुद्धि

द्रव्यभी भोजन विधि के गुणों को प्रभावित करता है। अनीति, अनाचार, चोरी, तस्करी, गबन तथा लूटसे प्राप्त धन पापसे ग्रसित होनेके कारण भोजन को उच्छिष्ट बना देता है। ऐसे धनसे तैयार किया गया भोजन तामसी गुणोंको उत्पन्नकर भोजन ग्रहण करने वाले के तन और मनको दुष्प्रभावित कर देता है। यह दुष्प्रभाव भोजन ग्रहण करने वाले के आचार-व्यवहार, चालचलन, चिन्तन-मनन और कर्ममें स्पष्ट दिखायी पडता है।

महाभारतमें भीष्मपितामहजी का चरित्र इसका प्रबल प्रमाण है। अतः मेहनत और ईमानदारीसे अर्जित द्रव्यसे तैयार भोजन ही सात्त्विक और आरोग्यप्रद होता है।

काल शुद्धि

कालशुद्धिसे तात्पर्य उस समय-कालसे है, जिसमें भोजन ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद हो। स्वस्थ लोगों को प्रातः एवं सायं दो बार पूर्ण आहार ग्रहण करना चाहिये, इसके मध्य भोजन नहीं करना चाहिये। यह विधि अग्निहोत्र के समान है-

सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतिबोधितम् । नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्र समो विधिः॥

प्रातःकाल और सायं- दोनों भोजनोंके बीच कम-से-कम दो याम या प्रहर(एक याम या प्रहर तीन घण्टेका होता है)- का अन्तर रहे। इससे अन्नरसका परिपाक भलीभाँति होता है। इससे अधिक विलम्ब करने पर पूर्व संचित बलका क्षय होता है।

याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंघयेत् । याममध्ये रसोत्पत्तिर्यामयुग्माद्बलक्षयः॥

आचार्य वाग्भट् जी के अनुसार भोजन करनेका उचित अवसर वह है, जब व्यक्ति मल मूत्र त्यागके उपरान्त अपनेको हलका महसूस करे, ठीकसे डकार आ जाय, भूख लग जाय और भोजनके प्रति रुचि जाग्रत् हो जाय। इस प्रकार से भोजन विधि में कालशुद्धि का होना भी आवश्यक माना गया है।

भाव शुद्धि

क्रियाशुद्धि से तात्पर्य वे सभी कर्तव्य या क्रियाएँ हैं, जो आहारके लिये द्रव्योंके चयन, पाकसंस्कार और ग्रहण करने हेतु व्यक्तिद्वारा सम्पन्न की जाती है।

क्षेत्र शुद्धि

एकान्तस्थानमें भोजन की आवश्यकता

विवाह के दिन पति-पत्नी एक साथ एक पात्र मेँ भोजन करते हेँ। इससे अभेद की स्थिति उत्पन्न होती है। अतः पत्नी के साथ भोजन करना पाप कर्म नहीं हे, पर यह नित्यकर्म भी नहीं है। यह रतिकर्म या अनुराग कर्म में गिना जाता है।

भोजन उपरान्त की क्रियाऐं

भुक्त्वा शतपदं गच्छेत् , कोरुक् ३?(बीमार कौन नहीं होता?) वामशायी, शतपदगामी सोरुक्३। (बाईं करवट सोने वाला, और भोजन के बाद सौ कदम चलनेवाला कभी बीमार नहीं होता)।

उपर्युक्त इन वचनों के अनुसार धीरे-धीरे सौ कदम चलना चाहिये। इससे यथायोग्य रक्तसंचलन होनेसे भोजनकी परिपाक-क्रियामें सहायता मिलती है। तेज चलनेसे भी रक्तसंचलनकी गति बढ जाने से भोजन जल्दी भस्म हो जाता है जिससे बहुत हानि होती है। यदि भोजन करके एकदम बैठ जाने से पेट बडा होने की संभावना एवं शयन करने से पाकक्रिया न हो सकने से अजीर्ण हो जाता है।[2]

भोजन के आयुर्वेदीय अंश

(मित भुक हित भुक ऋत भुक)

पथ्यम्

पैर धोकर भोजन करना

भोजन करने के पूर्व शास्त्रानुसार पैरों को धुल लेना चाहिये। पैर धोनेसे बुद्धि की पवित्रता, दरिद्रता का विनाश और परिश्रम जनित दुख का निवारण होता है तथा यह आयु को हितकर भी है। जैसाकि पैर धोने के विषयमें मनुजी लिखते हैं-

आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥(मनु० ४/७३)

अर्थात् गीले पैर से भोजन करना चाहिये, गीले पैर से सोना नहीं चाहिये।

अनारोग्य अवस्था में भोजन विधि

आधुनिक भोजन विधान

स्वल्पाहार,आहार,पूर्णाहर

उपवास के वैज्ञानिक अंश

योगासन और भोजन

स्वभोजन का त्याग न करना

यदि अपने घर में भोजन बन कर तैयार हो और बाहर का कोई व्यक्ति आकर निमन्रण दे या भोजन करने का दबाव बनाये तो भी स्वपाक का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वपाक का त्याग करके परपाक का ग्रहण करता है वह अश्व, शूकर या कुत्ते की योनि में उत्पन्न होता है-

स्वपाके वर्तमाने यः परपाकं निषेवते। सोऽश्वत्वं शूकरत्वं च गर्दभत्वं च गच्छति।।

दूसरे के घर का सामान्यतः भोजन नहीं करना चाहिए। व्रत रखकर कभी भी दूसरे के घर पारण नहीं करना चाहिए। अन्यथा व्रत का पुण्य अन्नदाता को प्राप्त हो जाता है।[1]

श्रद्धापूर्वक दिया भोजन स्वीकार करना

जो व्यक्ति जिस प्रवृत्ति का होता है उसका अन्न वैसा ही फल देता है। अतः सोच विचार कर दूसरों के घर का भोजन करना चाहिए-

दुष्कृतं हि मनुष्यस्य अन्नमाश्रित्य तिष्ठति। यो यस्यान्नमिहाश्नाति स तस्याश्नाति किल्विषम् ॥(वीरमित्रोदयः)

अपने गुरु और पूज्य भी यदि सत्कार रहित, उपेक्षाभाव से भोजन करायें तो नहीं करना चाहिए-

गुरोरपि न भोक्तव्यमन्नं सत्कारवर्जितम् ॥(वीरमित्रोदयः)

श्रद्धापूर्वक दिया हुआ अन्न खाना चाहिए- चाहे वह चोर का ही अन्न क्यों न हो-

श्रदधानस्य भोक्तव्यं चौरस्यापि विशेषतः॥(वीरमित्रोदयः)

बाहर भोजन कब लें?

विपत्ति में, प्रवास काल में और सादर निमन्त्रण प्राप्त होने पर विचार पूर्वक निर्णय लेकर ही बाहर भोजन करना चाहिए। अनावश्यक ही दुकान से, घूम कर बेचने वालों से खाद्य पदार्थं खरीद कर नहीं खाना चाहिए।

परान्न (दूसरो का अन्न) खाने वाला अपना तप खाता है। निरंतर दूसरों के घर भोजन करने वाला उस घर के पाप कृत्यों का भागी बनता है। भगवान् श्रीकृष्ण को राजा दुर्योधन ने भोजन पर बुलाया, पर उन्होने भोजन पर आने से मना कर दिया। भगवान् श्रीकृष्णने दुर्योधन के घर भोजन न करने का जो कारण बतलाया वह इस प्रकार है-

सप्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद् भोज्यानि वा पुनः। न च सप्रीयसे राजन्! न चैवापद् गता वयम् ॥(उद्योगपर्व ९१/२५)

किसी अन्य व्यक्ति के घर भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता हे, संप्रीति होने पर या विपत्ति में फंसे होने पर। हे राजन् ! हमारी आपकी संप्रीति नहीं है। न तो मैं किसी विपत्ति में हूँ।[3]

उद्धरण॥ References

  1. 1.0 1.1 1.2 डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० १६२।
  2. धर्मशास्त्र का इतिहास,उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,डॉ०पाण्डुरंग वामन काणे,१९९२(पृ०३३४)।
  3. सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।