Ayana (अयन)

From Dharmawiki
Revision as of 23:59, 11 December 2023 by AnuragV (talk | contribs) (सुधार जारि)
Jump to navigation Jump to search

काल गणना में वर्ष से छोटी एवं मास से बड़ी एक इकाई है अयन। वर्ष में दो अयन होते हैं - उत्तरायण एवं दक्षिणायन, ये इसके दो भेद हैं। इनकी अवधि 6 - 6 मास होती है। इससे हमें ऋतुओं का पता लगाने में सहायता मिलती है। साथ में ही सूर्य की सापेक्ष गति के बारे में भी हम इससे जान सकते हैं एवं अयन का दिन मान से भी सीधा संबंध होता है। वर्तमान में अयन संबंधी सायन एवं निरयन ये दो गणनायें प्रचलित हैं। जो कि प्रसिद्ध खगोलज्ञ वराहमिहिर जी के समय में अयानांश संस्कार की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उस समय सायन एवं निरयन गणना समान थी। हम प्रस्तुत लेख में अधोलिखित विषयों को देखेंगे -

अयन क्या है ?

अयानांश क्या कहलाता है ?

कालगणना में अयन का महत्व क्या है ?

सायन और निरयण गणनाओं में क्या अंतर है ?

परिचय

कालगणना में अयन का विशेष महत्व है। अयन वर्ष और मास के बीच की काल की एक ईकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की काल गणना की गई है। वर्ष और मास के बीच की अयन काल की एक इकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की कालगणना की गई है।

सूर्य तथा पृथ्वी की गतियों के बारे में भू -भ्रमण सिद्धांत इस लेख को देखें -

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कई स्थानों पर अयन शब्द आया है। शतपथ ब्राह्मण में अयन के संबंध में विवरण मिलता है –

वसंतो ग्रीष्मो वर्षाः। ते देवा ऋतवः शरद्धेमंतः शिशिरस्ते पितरो.....स (सूर्यः) यत्रोदगावर्तते। देवेषु तर्हि भवति यत्र दक्षिणा वर्तते पितृषु तर्हि भवति॥ (श० ब्रा० २,१,३)[1]

अर्थात – शिशिर ऋतु से ग्रीष्म ऋतु पर्यंत उत्तरायण और वर्षा ऋतु से हेमंत ऋतु पर्यंत दक्षिणायन होता था।  

  • विज्ञान अनुसार कोई भी अयनांश प्रामाणिक नही है क्योकि नक्षत्र समूह निरंतर बदलता रहता है।
  • सायन मे कोई परिवर्तन नही होता क्योकि सम्पात का प्रारम्भ हमेशा 21 मार्च से होता है।
  • प्राचीन भारतीय खगोल वेत्ता दो प्रकार के योगो का उपयोग किया करते थे। वे सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के योग (जोड़) को बहुत महत्व देते थे। सा. सू. + सा. च. के अंश 180 को व्यतिपात तथा 360 को वैघृति मानते थे। इनकी गणना विशेष योगों में किया करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सायन सिद्धांत को मान्यता थी।

ज्योतिष सम्बन्धी सायन एवं निरयण ऐसा विषय है कि इसको जानाने में अनभिज्ञो की भी अभिरुचि है। सायन या निरयण गणना से कार्य किया जाय ? इस पर मतैक्यता नहीं है।

  • कुछ विद्वज्जन ग्रह जनित प्राकृतिक उपद्रव, ग्रहों का परिवर्तन का निर्णय एवं ग्रह और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बन्धों की गणना सायन से करते है।
  • कुछ विद्वान - मनुष्य (जातक) के भाग्याभाग्य, परिणाम का निर्णय, निरयण नक्षत्रों में ग्रहों का प्रवेश और भौगोलिक स्थान इनका निर्णय दोनों के तारतम्य अर्थात - निरयण गणना से करते है, और इसे जातक पद्धति कहते है।

परिभाषा

सायन = स + अयन यानि अयन सहित या चलायमान भचक्र (Tropical/ Movable Zodiac) एक सायन वर्ष 365.2422 दिन का होता है। (365 दिन, 5 घण्टा, 48 मिनट एवं 45 सेकेण्ड)।[2]

निरयण =  नि + अयन यानि अयन रहित या स्थिर भचक्र (Sidereal / Fixed Zodiac) एक निरयण वर्ष 365. 2563 दिन का होता है। (365 दिन, 6 घण्टा, 9 मिनट, 9.76 सेकेण्ड)।

  • आकाश मध्य में एक कल्पित रेखा जिसे आकाशीय विषुव वृत्त या नाड़ी वृत्त CELESTIAL EQUATOR कहते है।
  • सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नही घूमता है। वह हमेशा क्रांति वृत्त ECLIPTIC पर घूमता है।
  • दोनो वृत्त 23.30 अंश का कोण बनाते हुए दो स्थानो पर एक दूसरे को काटते है, इन्हे ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते है।
  • क्रांति वृत्त के उत्तर दक्षिण एक  9-9 अंश का कल्पित पट्टा है जिसे ही भचक्र कहते है।

प्राच्य एवं पाश्चात्य अयन प्रणाली

भारतीय ज्योतिर्विदों का नक्षत्र ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था। यजुर्वेद में २७ नक्षत्रों को गन्धर्वों की संज्ञा दी गई है। अथर्ववेद में २८ नक्षत्र बताए गए हैं। उस समय प्रथम नक्षत्र कृत्तिका था क्योंकि बसन्त सम्पात (Vernal Equniox) कृत्तिका नक्षत्र में होता था। सम्पूर्ण आकाश को सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) के सहारे पश्चिम से पूर्व २८ या २७ विभागों में बांटा गया था।

वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से माना जाता था। क्योंकि उस समय मकर संक्रान्ति (उत्तरायन) प्रारम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से होता था। महाभारत काल में भीष्म पितामह इसी उत्तरायन की प्रतीक्षा में शर-शैया पर पडे रहे थे। उत्तरायन आरम्भ होने पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।[2]

अयनांश ॥ AYNAMSHA

अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलना, चलना , अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल शास्त्र में इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन (PRECESSION) एक घूर्णन पिंड के घूर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण (बदलाव) है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे, वहां से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है।

आधुनिक खगोलविज्ञान के अनुसार यह सायन भचक्र और निरयण भचक्र का अंतर है। इसी प्रकार आधुनिक खगोल के अनुसार सायन सौर वर्ष निरयण या नाक्षत्र वर्ष से लगभग 20 मिनिट (365 d 6 h 9 min 9.76 s -  365 d 5 h, 48 min 45 s = 20 मिनिट 23. 24 सेकण्ड) अधिक है।

सम्पात बिन्दु 01 (चित्र मे हरा बिंदु) व 02 (चित्र मे लाल बिंदु) को वसंत और शरद सम्पात कहते है। ये सम्पात बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है।  इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION OF EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र लगभग 26000 वर्ष में पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने में 72 वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति 50"15'" प्रति वर्ष है।

प्रथम नक्षत्र

नक्षत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य अलग-अलग नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। जैसे -

सामान्यतया जिस नक्षत्र में बसन्त सम्पात होता है उसी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानकर नक्षत्रों की गणना की जाती है। कभी-कभी शरद सम्पात (Autumnal Equinox) से अथवा मकर संक्रांति (उत्तरायन प्रारंभ) से भी नक्षत्रों की गणना की जाती रही है। प्राचीन काल से अब तक संपात बिंदुओं (Equinoctical Points) की नक्षत्रीय स्थिति बदलती रही है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ।

अयन चलन और नक्षत्र

पृथ्वी की काल्पनिक धुरी लगभग २३ १/२ अंश झुकी हुई है। इस झुकाव के कारण सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) पृथ्वी के साथ २३ १/२ अंश का झुकाव बनाए रखता है। अर्थात् क्रान्तिपथ तिर्यक् (Oblique) है। क्रांतिवृत्त विषुवत् रेखा (Equator) को दो बिंदुओं पर काटता है। इनमें से एक बिंदु अश्विनी का प्रथम बिंदु तथा दूसरा इससे ठीक 180 अंश दूर चित्रा नक्षत्र का मध्य बिंदु है। अश्विनी के प्रथम बिंदु से ही भचक्र में कोणात्मक गणना की जाती है।

आदर्श स्थिति के अनुसार अश्विनी के प्रथम बिन्दु से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इस बिन्दु से ठीक १८० अंश दूर चित्रा के मध्य बिन्दु से सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इन दोनों बिन्दुओं के मध्य ९०-९० अंशों की दूरी पर ऐसे दो बिन्दु हैं जहां से सूर्य क्रमशः दक्षिणायन व उत्तरायन होता है।

अश्विनी के प्रथम बिन्दु (० अंश) से ९० अंश आगे पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण (वर्तमान में आर्द्रा के प्रथम चरण) में सूर्य के प्रवेश होते ही सूर्य दक्षिणायन होना प्रारम्भ कर देता है।

इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है।

सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन

पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है।

धुरी के झुकाव में लगातार कमी होने के कारण सूर्यपथ की विषुवत रेखा से तिर्यकता (Obliquity) कम होती जा रही है। फलस्वरूप सूर्यपथ द्वारा विषुवत् रेखा को काटे जाने वाले सांपातिक बिंदु विपरीत दिशा में खिसक रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। सांपातिक बिन्दुओं के विपरीत दिशा में खिसकाव को 'संपात का पिछडना' (Precession of Equinox) कहते हैं।

यह पिछड़ाव 26000 वर्षों में सूर्यपथ का एक चक्कर लगाता है। किसी भी समय मूल सांपातिक बिंदु से पिछड़े हुए सांपातिक बिंदु तक का कोण अयनांश (Angle of Precession) कहलाता है।

सायन भचक्र (tropical / movable zodiac)

इसमे मेष का प्रथम बिन्दु वसंत सम्पात होता है। इसकी गति वक्र 50.3" प्रति वर्ष है। यह गति पृथ्वी के भूमध्य रेखा उन्नत भाग पर सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण के कारण है।  सूर्य की वार्षिक गति के साथ प्रतिवर्ष यह सम्पात बिंदु विपरीत दिशा मे मंद गति से घूमता है। इसमे किसी भी आकाशीय पिंड की वसंत सम्पात बिंदु से गणना का देशांश सायन देशांश कहलाता है। इसमे 12 राशियो (प्रत्येक 30 अंश) का प्रारम्भ वसंत सम्पात से होता है, परन्तु क्रांति वृत्त पर विस्तार हमेशा निरयण प्रणाली (प्रत्येक 30 अंश) जैसा नही रहता है। इस प्रणाली मे समयानुसार तारा समूह का एक राशि मे बदलाव होता रहता है।

निरयण भचक्र (SIDEREAL / FIXED ZODIAC)

इसमें मेष का प्रथम बिन्दु हमेशा नक्षत्र यानि चित्रा से 180 अंश के कोण पर स्थायी रहता है। क्रांति वृत्त पर इस स्थयी बिंदु से नापे गये देशांश को निरयण देशांश कहते है। यह स्थायी भचक्र 12 राशि व 27 नक्षत्र मे समान रूप से विभाजित है, इनमें वही तारा समूह हमेशा रहता है।

अयन सिद्धान्त

वेदांग ज्योतिष के अयन पद्धति में आचार्य लगध ने अयनारम्भ स्थान धनिष्ठा नक्षत्र को माना है।

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्।[3]

इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध ''इदानीमयने आह'' प्रकार से कह रहे हैं -

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)[3]

अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध ''इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह'' इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं -

घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥(वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)[3]

अर्थ - सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है।

वेदांग ज्योतिषीय अयन प्रणाली

अयन संबंधी विचारधारा का दिग्दर्शन वेदांग ज्योतिष के ऋग् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष में विशेष रूप से होता है। ऋक् ज्योतिष के अनुसार जब चन्द्रमा और सूर्य एक साथ स्थित होकर धनिष्ठा नक्षत्र में होते हैं तब नए युग के उत्तरायण का प्रारंभ होता है। जैसा कि उत्तरायण के प्रारंभ के विषय में बता दिया गया था कि धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा उत्तर की ओर मुडते हैं जबकि आश्लेषा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा दक्षिण कीओर मुडते हैं।जहाँ तक उत्तरायण एवं दक्षिणायन का प्रारंभ किस मास में होता है तो ऋक् ज्योतिष में आचार्य लगध ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सूर्य का उत्तरायण माघ मास में तथा तथा दक्षिणायन श्रावण मास में होता है।[4]

सारांश

याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के ३/४ तथा दक्षिणायन १/४ में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति ७÷४ या २३°–२० होती है।

उद्धरण

  1. शतपथब्राह्मणम्/काण्डम् २/अध्यायः १/ब्राह्मण ३।
  2. 2.0 2.1 रघुनन्दन प्रसाद गौड, नाक्षत्र ज्योतिष, मनोज पॉकेट बुक्स (पृ० ११)।
  3. 3.0 3.1 3.2 टी०एस० कुप्पन्ना शास्त्री, वेदांग ज्योतिष (अनुवाद सहित), सन् 1985, इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी (पृ० २४)।
  4. Sunayna Bhati, Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan, year 2012, University of Delhi ( page -108).