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यह कर्तव्य है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षा वल्ली ग्यारहवां अनुवाक</ref>:  
 
यह कर्तव्य है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षा वल्ली ग्यारहवां अनुवाक</ref>:  
 
# सत्यं वद - सत्य भाषण करो। यद्भूतहितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम{{Citation needed}} - यह है पूर्णपुरूष कृष्ण का सत्य के बारे मे मत। इसी का अर्थ है चराचर के साथ एकात्मता बनाओ और चराचर के हित की बात कहो। अर्थात् सत्य कहो।  
 
# सत्यं वद - सत्य भाषण करो। यद्भूतहितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम{{Citation needed}} - यह है पूर्णपुरूष कृष्ण का सत्य के बारे मे मत। इसी का अर्थ है चराचर के साथ एकात्मता बनाओ और चराचर के हित की बात कहो। अर्थात् सत्य कहो।  
# धर्मं चर - धर्म के अनुसार जियो। अर्थात् कामनाओं को और उन कामनाओं की पूर्ति के लिये कि ये गये प्रयासों को आर्थात् काम और अर्थ पुरूषार्थ इन दोनों को धर्मानुकूल रखते हुवे जीवनयापन करो।  
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# धर्मं चर - धर्म के अनुसार जियो। अर्थात् कामनाओं को और उन कामनाओं की पूर्ति के लिये कि ये गये प्रयासों को आर्थात् काम और अर्थ पुरूषार्थ इन दोनों को धर्मानुकूल रखते हुए जीवनयापन करो।  
 
# स्वाध्यायान्मा प्रमद: - स्वाध्याय करते रहो। जो ज्ञान प्रात किया है उसे अपने चिंतन, मनन और अनुभवों के आधारपर और तेजस्वी बनाकर वृद्धिगत करते रहो।  
 
# स्वाध्यायान्मा प्रमद: - स्वाध्याय करते रहो। जो ज्ञान प्रात किया है उसे अपने चिंतन, मनन और अनुभवों के आधारपर और तेजस्वी बनाकर वृद्धिगत करते रहो।  
 
# आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुंमा व्यवच्छेत्सी: - आचार्य के लिये आवश्यक धन लाकर अपनी स्त्री के साथ सन्तान परम्परा को आगे बढायें।  
 
# आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुंमा व्यवच्छेत्सी: - आचार्य के लिये आवश्यक धन लाकर अपनी स्त्री के साथ सन्तान परम्परा को आगे बढायें।  
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# यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना।  
 
# यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना।  
 
# नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्।  - धर्माचरणी एैसे जो हमारे आचार्य है, उनका ही तुम अनुकरण करो। अन्यों का नही।  
 
# नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्।  - धर्माचरणी एैसे जो हमारे आचार्य है, उनका ही तुम अनुकरण करो। अन्यों का नही।  
# श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम् - यथासंभव दान देते रहो। श्रद्धा से दो। अश्रद्धा से ना दो। अपने एैश्वर्य के अनुसार दान दो। मै इससे अधिक दान नही दे सकता एैसी लज्जा के साथ दान दो। मै दान लेनेवाले पर कोई उपकार नही कर रहा। उलटे दान लेनेवाला मुझ से दान लेकर मुझे उपकृत कर रहा है इस भाव से दान दो। और मै दान से उस का पूरा क्लेष दूर करने में असमर्थ हूं एैसी लज्जा की भावना मन मे रखकर दान दो। इतना कम दान दिया इसलिये लोग मुझे गालियाí देंगे इस डर से अधिक देने का प्रयास करो। लेकिन दान दो। मित्रता के नाते भी हमेशा दान देते रहो।  
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# श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम् - यथासंभव दान देते रहो। श्रद्धा से दो। अश्रद्धा से ना दो। अपने एैश्वर्य के अनुसार दान दो। मै इससे अधिक दान नही दे सकता ऐसी लज्जा के साथ दान दो। मै दान लेनेवाले पर कोई उपकार नही कर रहा। उलटे दान लेनेवाला मुझ से दान लेकर मुझे उपकृत कर रहा है इस भाव से दान दो। और मै दान से उस का पूरा क्लेष दूर करने में असमर्थ हूं ऐसी लज्जा की भावना मन मे रखकर दान दो। इतना कम दान दिया इसलिये लोग मुझे गालियाí देंगे इस डर से अधिक देने का प्रयास करो। लेकिन दान दो। मित्रता के नाते भी हमेशा दान देते रहो।  
 
# जब अपने कर्म की करणीयता या अकरणीयता के विषय में तुझे संदेह निर्माण हो जाये तब समाज मे जो विचारशील, अपने कर्म में मग्न, स्वेच्छा से कर्मपरायण, सरल बुद्धिवाला धर्माचरणी ब्रााह्मण जैसा, उस परिस्थिति में व्यवहार करेगा वैसा ही तू भी व्यवहार कर। इसी प्रकार से जिनपर संशययुक्त दोषों के आरोप है उनके साथ भी उपरोक्त श्रेष्ठ ब्रााह्मण जैसा व्यवहार करते हों, वैसा ही उनसे तू भी व्यवहार कर।  
 
# जब अपने कर्म की करणीयता या अकरणीयता के विषय में तुझे संदेह निर्माण हो जाये तब समाज मे जो विचारशील, अपने कर्म में मग्न, स्वेच्छा से कर्मपरायण, सरल बुद्धिवाला धर्माचरणी ब्रााह्मण जैसा, उस परिस्थिति में व्यवहार करेगा वैसा ही तू भी व्यवहार कर। इसी प्रकार से जिनपर संशययुक्त दोषों के आरोप है उनके साथ भी उपरोक्त श्रेष्ठ ब्रााह्मण जैसा व्यवहार करते हों, वैसा ही उनसे तू भी व्यवहार कर।  
 
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
 
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
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## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना  
 
## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना  
 
### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना।  
 
### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना।  
### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है। वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी। आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गॅवाते हुवे किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें एैसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। एैसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कमसे कम एैसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनिया भर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा।  
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### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है। वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी। आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गँवाते हुए किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें ऐसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कम से कम ऐसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनिया भर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा।  
5.1.3 जहाॅ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटिपर संदर्भहीन हो गई है एैसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना।
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### जहाँ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटी पर संदर्भहीन हो गई है ऐसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना।  
5.1.4 शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने भारतीय चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुवे पुनर्गठित करना।  
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### शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने भारतीय चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुए पुनर्गठित करना।  
5.1.5 शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है। इन्हें शुद्ध भारतीयता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना।
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### शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है। इन्हें शुद्ध भारतीयता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना।  
5.2  श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें।
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## श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें।  
5.3  अतिथि, अभ्यागत, भिखारी, भिक्षा माॅगनेवाले आदी। सन्मान के साथ यथासंभव उनकी मनोकामना को पूर्ण करने का प्रयास करना।
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## अतिथि, अभ्यागत, भिखारी, भिक्षा माँगने वाले आदी। सम्मान के साथ यथासंभव उनकी मनोकामना को पूर्ण करने का प्रयास करना।  
5.4  समाज हित का कोई उपयुक्त व्यावसायिक काम।  
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## समाज हित का कोई उपयुक्त व्यावसायिक काम।  
5.5  समाजसेवा के नि:स्वार्थ उपक्रम चलानेवालों के योगक्षेम की व्यवस्था करना।  
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## समाजसेवा के नि:स्वार्थ उपक्रम चलानेवालों के योगक्षेम की व्यवस्था करना।  
6. राष्ट्र या देश के प्रति दायित्व: राष्ट्र की प्रमुख और महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित रहें इस हेतु तन, मन और धन से पहल और सहयोग करना।  अखण्ड जागरूक रहना। ये व्यवस्थाएं निम्न है। 
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# राष्ट्र या देश के प्रति दायित्व: राष्ट्र की प्रमुख और महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित रहें इस हेतु तन, मन और धन से पहल और सहयोग करना।  अखण्ड जागरूक रहना। ये व्यवस्थाएं निम्न है:
6.1 योग्य धर्म व्यवस्था
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## योग्य धर्म व्यवस्था  
6.2 योग्य शिक्षा व्यवस्था
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## योग्य शिक्षा व्यवस्था  
6.3 योग्य शासक/शासन व्यवस्था
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## योग्य शासक/शासन व्यवस्था  
7. चराचर के प्रति दायित्व
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# चराचर के प्रति दायित्व: मानव को प्राप्त विशेष शक्तियों के कारण मानव प्रकृति का विनाश करने की क्षमता रखता है। अन्य किसी भी जीव में प्रकृति को बिगाडने की क्षमता नही है। अपने सुख के लिये प्रकृति को बिगाडने की बुद्धि तो अन्य किसी भी जीव में लेशमात्र भी नही है। मानव की इसी क्षमता के कारण मानवपर प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ जाती है। इसीलिये प्राचीन काल से भारतीय समाज ने अपने विभिन्न रीति रिवाजों में संस्कारों -उत्सवों में, दैनंदिन व्यवहार में प्रकृति के संतुलन और शुद्धता को बनाये रखने की सहज रचना की थी। इन में से काफी कुछ परंपराएं आज भी कर्मकांड के रूप में जीवित है। ये यदि केवल कर्मकांड बनी रहीं तो अगली पीढीतक नष्ट हो जाने का डर है। अत: इन प्रथा परंपराओं को बुद्धियुक्त प्रस्तुति के साथ समाज में पुन: प्रस्थापित करना होगा। प्रदूषण का बढता परिमाण देखते हुए और भी कई प्रकार के बुद्धियुक्त कर्मकांडों को समाजजीवन का अनिवार्य अंग बनाना होगा। प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप जीवनशैली का स्वीकार करना होगा। प्रकृति की अनुकूलता और अनुरूपता के लिये निम्न सात बातें महत्वपूर्ण है:
मानव को प्राप्त विशेष शक्तियों के कारण मानव प्रकृति का विनाश करने की क्षमता रखता है। अन्य किसी भी जीव में प्रकृति को बिगाडने की क्षमता नही है। अपने सुख के लिये प्रकृति को बिगाडने की बुद्धि तो अन्य किसी भी जीव में लेशमात्र भी नही है। मानव की इसी क्षमता के कारण मानवपर प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ जाती है। इसीलिये प्राचीन काल से भारतीय समाज ने अपने विभिन्न रीति रिवाजों में संस्कारों -उत्सवों में, दैनंदिन व्यवहार में प्रकृति के संतुलन और शुद्धता को बनाये रखने की सहज रचना की थी। इन में से काफी कुछ परंपराएं आज भी कर्मकांड के रूप में जीवित है। ये यदि केवल कर्मकांड बनी रहीं तो अगली पीढीतक नष्ट हो जाने का डर है। अत: इन प्रथा परंपराओं को बुद्धियुक्त प्र्स्तुति के साथ समाज में पुन: प्रस्थापित करना होगा। प्रदूषण का बढता परिमाण देखते हुवे और भी कई प्रकार के बुद्धियुक्त कर्मकांडों को समाजजीवन का अनिवार्य अंग बनाना होगा।  
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#* चक्रीयता
प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप जीवनशैली का स्वीकार करना होगा। प्रकृति की अनुकूलता और अनुरूपता के लिये निम्न सात बातें महत्वपूर्ण है।
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#* परस्परावलंबन  
- चक्रीयता     - परस्परावलंबन   - विकेंद्रितता     - मर्यादा       - परस्पर आदान-प्रदान    
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#* विकेंद्रितता
- विघटनशीलता - प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना  
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#* मर्यादा
यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है।  
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#* परस्पर आदान-प्रदान  
8. समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व  
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#* विघटनशीलता  
भारतीय विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा।  
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#* प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना: यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है।  
वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ?
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# समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व: भारतीय विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा।
गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके एैसी व्यवस्था भी करनी होगी।
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# वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ?गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी। जो जहाँ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा।  
जो जहाॅ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा।  
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# घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुआ है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओं पर बल देना होगा:
घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुवा है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओंपर बल देना होगा  
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## अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था  
1. अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था
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## गृहशास्त्र की सटीक प्रस्तुति, प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था शिक्षा क्षेत्र की भूमिका :  किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी। समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुए आगे बढना होगा। बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा। पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा। बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा।  
2. गृहशास्त्र की सटीक प्रस्तुति, प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था
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शिक्षा क्षेत्र की भूमिका :  किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी। समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुवे आगे बढना होगा। बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा। पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा। बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा।
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=== वानप्रस्थ ===
वानप्रस्थ
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वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है। आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थ की कल्पना यह मानव के क्रमिक समग्र विकास से जोड़कर ही की गई है। ब्रह्मचर्य में मनुष्य अपने विकास की ओर ही प्रमुखता से ध्यान देता है। गृहस्थाश्रम में वह चराचर के हित की जिम्मेदारी का वहन करता है। वानप्रस्थ में अब वह जिम्मेदारियों का अगली पीढी को याने सास है तो बहू को और पुरूष है तो अपने पुत्र को हस्तांतरण करता है। वर्त्तमान में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के प्रचारकों का जीवन देखते हैं। इनका जीवन वास्तव में वानप्रस्थी का जीवन होता है। ये युवावस्था से ही गृहस्थ जीवन के स्थानपर वानप्रस्थी का जीवन जीते हैं। वर्तमान में समाज की आवश्यकता को समझकर इस प्रचारक व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था। वर्तमान में अभारतीय शिक्षा के कारण सामान्य गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए तैयार नहीं है। मरते दम तक गृहस्थ के अधिकार और उपभोगों का त्याग नहीं करता है। यह एक आपद्धर्म है। जब भी वानप्रस्थ जीवन जीनेवाले लोग निर्माण होंगे प्रचारक व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वानप्रस्थी और गृहस्थाश्रमी में निम्न बातों में भिन्नता होती है:
वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है।  
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# गृहस्थ गृहस्वामी होता है। वानप्रस्थी गृहस्वामी नहीं होता। घर में रहकर स्वामित्व छोड़ना कठिन होता है। लेकिन होना तो यही चाहिए।  
आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थ की कल्पना यह मानव के क्रमिक समग्र विकास से जोड़कर ही की गई है। ब्रह्मचर्य में मनुष्य अपने विकास की ओर ही प्रमुखता से ध्यान देता है। गृहस्थाश्रम में वह चराचर के हित की जिम्मेदारी का वहन करता है। वानप्रस्थ में अब वह जिम्मेदारियों का अगली पीढी को याने सास है तो बहू को और पुरूष है तो अपने पुत्र को हस्तांतरण करता है। वर्त्तमान में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के प्रचारकों का जीवन देखते हैं। इनका जीवन वास्तव में वानप्रस्थी का जीवन होता है। ये युवावस्था से ही गृहस्थ जीवन के स्थानपर वानप्रस्थी का जीवन जीते हैं। वर्त्तमान में समाज की आवश्यकता को समझकर इस प्रचारक व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था। वर्त्तमान में अभारतीय शिक्षा के कारण सामान्य गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए तैयार नहीं है। मरते दमतक गृहस्थ के अधिकार और उपभोगों का त्याग नहीं करता है। यह एक आपद्धर्म है। जब भी वानप्रस्थ जीवन जीनेवाले लोग निर्माण होंगे प्रचारक व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।  
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# गृहस्थाश्रम उपभोग के लिए है। वानप्रस्थ में भोग कम करते जाना है। इन्द्रियों का दमन करना है।  
वानप्रस्थी और गृहस्थाश्रमी में निम्न बातों में भिन्नता होती है।
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# आसक्ति रहित बनना। धन की, यश और प्रतिष्ठा की, अधिकारों की आदि आसक्तियों से अलिप्त होना।  
१. गृहस्थ गृहस्वामी होता है। वानप्रस्थी गृहस्वामी नहीं होता। घर में रहकर स्वामित्व छोड़ना कठिन होता है। लेकिन होना तो यही चाहिए।
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# अधिकारों के साथ साथ ही कर्तव्यों से भी मुक्त होना।  
२. गृहस्थाश्रम उपभोग के लिए है। वानप्रस्थ में भोग कम करते जाना है। इन्द्रियों का दमन करना है।
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# इसके अलावा भी कुछ काम वानप्रस्थी के लिए होते हैं:
३. आसक्ति रहित बनना। धन की, यश और प्रतिष्ठा की, अधिकारों की आदि आसक्तियों से अलिप्त होना।
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## अध्ययन, अध्यापन करना ही है। वानप्रस्थाश्रम श्रम के लिए है। आराम के लिए नहीं है।  
४. अधिकारों के साथ साथ ही कर्तव्यों से भी मुक्त होना।
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## अपने अनुभवों का लाभ छोटों को मिले इस हेतु से मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहना। लेकिन मांगे बिना मार्गदर्शन नहीं  करना।  
इसके अलावा भी कुछ काम वानप्रस्थी के लिए होते हैं।
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## गृहस्थ की अधीनता से दुखी नहीं होना। और छोटों की सेवा लेने में बड़प्पन का अनुभव करना।  
१. अध्ययन, अध्यापन करना ही है। वानप्रस्थाश्रम श्रम के लिए है। आराम के लिए नहीं है।
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२. अपने अनुभवों का लाभ छोटों को मिले इस हेतु से मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहना। लेकिन मांगे बिना मार्गदर्शन नहीं  करना।
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=== संन्यास ===
३. गृहस्थ की अधीनता से दुखी नहीं होना। और छोटों की सेवा लेने में बड़प्पन का अनुभव करना।
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श्रीमद्भागवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भागवद्गीता १८-२</ref><blockquote>काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।</blockquote><blockquote>अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है।। 18-2।। </blockquote>नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम:
संन्यास
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# भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का निर्वाह करना।
श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय १८-२ में कहा है – काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:। अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है। नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम
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# एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है।
१. भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का इन्र्वाह करना।
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# अविरत भवगवान का नामस्मरण।
२. एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है।
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# ज्ञान का प्रसार करना।
३. अविरत भवगवान का नामस्मरण।
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# समाज कल्याण की चिता करना।
४. ज्ञान का प्रसार करना।  
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# करतल भिक्षा, तरुतल वास। संग्रह के लिए झोली या बर्तन की आसक्ति न हो।
५. समाज कल्याण की चिता करना।  
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# ओंकार साधना करना। सर्वभूतों के प्रति आत्मभाव रखना।
६. करतल भिक्षा, तरुतल वास। संग्रह के लिए झोली या बर्तन की आसक्ति न हो।
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# अच्छी तरह से देखकर कदम रखना। कोई जीव कुचला न जाए। वस्त्र से छानकर जल पीना। जिससे जीवहत्या न हो। सत्य वाणी का उच्चारण करना।
७. ओंकार साधना करना। सर्वभूतों के प्रति आत्मभाव रखना।
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८. अच्छी तरह से देखकर कदम रखना। कोई जीव कुचला न जाए। वस्त्र से छानकर जल पीना। जिससे जीवहत्या न हो। सत्य वाणी का उच्चारण करना।  
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=== श्रेष्ठ भारतीय कुटुंब ===
श्रेष्ठ भारतीय कुटुंब  
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घर में कमसे कम तीन पीढीयों के लोग सुख चैन से रहते हों। दो तीन बहुएँ अपने पुत्र पुत्रियों सहित रहती हों। ५-७ पुत्र पौत्रियाँ घर का गोकुल बनाते हों, वानाप्रस्थीद्वारा गृहस्थ को सभी अधिकारों का अंतरण किया गया हो, गृहस्थ अपने पिता से भी अधिक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित हो और उसका गर्व पिता पुत्र दोनों को हो, सहजता से ही संस्कारमय वातावरण हो, बड़ों का आदर और सेवा होती हो, छोटों के लिए आदर्श उपस्थित हों, वानप्रस्थी संयमित उपभोग का वस्तुपाठ अपने आचरण से सिखाते हों, सबके व्यवहार में कुटुंब भावना ओतप्रोत हो। यह सब है एक अच्छे भारतीय संयुक्त कुटुंब का स्वरूप।
घर में कमसे कम तीन पीढीयों के लोग सुख चैन से रहते हों। दो तीन बहुएँ अपने पुत्र पुत्रियों सहित रहती हों। ५-७ पुत्र पौत्रियाँ घर का गोकुल बनाते हों, वानाप्रस्थीद्वारा गृहस्थ को सभी अधिकारों का अंतरण किया गया हो, गृहस्थ अपने पिता से भी अधिक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित हो और उसका गर्व पिता पुत्र दोनों को हो, सहजता से ही संस्कारमय वातावरण हो, बड़ों का आदर और सेवा होती हो, छोटों के लिए आदर्श उपस्थित हों, वानप्रस्थी संयमित उपभोग का वस्तुपाठ अपने आचरण से सिखाते हों, सबके व्यवहार में कुटुंब भावना ओतप्रोत हो। यह सब है एक अच्छे भारतीय संयुक्त कुटुंब का स्वरूप।  
      
वाचनीय साहित्य  
 
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