Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "शायद" to "संभवतः"
Line 43: Line 43:  
# पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो। अर्थात् उनकी सेवा करते  रहो।  
 
# पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो। अर्थात् उनकी सेवा करते  रहो।  
 
# आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो। आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो। जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले।  
 
# आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो। आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो। जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले।  
# अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है। किन्तु उसे अतिथि नही कहते। अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला अतिथि। ऐसे अतिथि के कारण शायद हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी। फिर भी एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें। आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे।  
+
# अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है। किन्तु उसे अतिथि नही कहते। अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला अतिथि। ऐसे अतिथि के कारण संभवतः हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी। तथापि एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें। आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे।  
 
# यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। -  केवल अनिंद्य कर्म ही करें। जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें। अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें।  
 
# यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। -  केवल अनिंद्य कर्म ही करें। जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें। अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें।  
 
# यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना।  
 
# यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना।  
Line 51: Line 51:  
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
 
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
   −
उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चोंं का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।   
+
उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चोंं का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें संभवतः वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।   
    
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे।  
 
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे।  
Line 103: Line 103:  
#* प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना: यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है।  
 
#* प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना: यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है।  
 
# समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व: धार्मिक  विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा।   
 
# समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व: धार्मिक  विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा।   
# वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ?गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी। जो जहाँ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा।  
+
# वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ?गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी। जो जहाँ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। तथापि प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा।  
 
# घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुआ है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओं पर बल देना होगा:
 
# घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुआ है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओं पर बल देना होगा:
 
## अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था  
 
## अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था  
Line 120: Line 120:     
=== संन्यास ===
 
=== संन्यास ===
श्रीमद्भागवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भागवद्गीता १८-२</ref><blockquote>काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।</blockquote><blockquote>अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है।। 18-2।। </blockquote>नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम:
+
श्रीमद्भागवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भागवद्गीता १८-२</ref><blockquote>काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।</blockquote><blockquote>अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है।। 18-2।। </blockquote>नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी तथापि शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम:
 
# भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का निर्वाह करना।
 
# भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का निर्वाह करना।
 
# एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे अतः अतन करते रहना आवश्यक है।
 
# एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे अतः अतन करते रहना आवश्यक है।
Line 142: Line 142:  
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 +
[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

Navigation menu