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मानव को परमात्मा ने अन्य प्राणियों से स्वरयंत्र, मन, बुद्धि जैसी कुछ विशेष नेमतें दीं हैं। प्राणी जीवन अव्यवस्थित होता है। अनिश्चितताओं से भरा होता है। मनुष्य अपनी परमात्मा प्रदत्त क्षमताओं के आधारपर जीवन को व्यवस्थित बनाकर अनिश्चितताओं से मुक्ति पा सकता है। इसी कारण विश्वभर में मानवों ने अपनी अपनी व्यवस्थाएं निर्माण की हैं।  
 
मानव को परमात्मा ने अन्य प्राणियों से स्वरयंत्र, मन, बुद्धि जैसी कुछ विशेष नेमतें दीं हैं। प्राणी जीवन अव्यवस्थित होता है। अनिश्चितताओं से भरा होता है। मनुष्य अपनी परमात्मा प्रदत्त क्षमताओं के आधारपर जीवन को व्यवस्थित बनाकर अनिश्चितताओं से मुक्ति पा सकता है। इसी कारण विश्वभर में मानवों ने अपनी अपनी व्यवस्थाएं निर्माण की हैं।  
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स्त्री पुरूष सहजीवन प्राकृतिक है। इस का अच्छा या कम अच्छा विचार और व्यवस्था तो विश्व के हर समाज ने की थी। लेकिन इनमें धार्मिक (धार्मिक) समाज छोडकर अन्य किसी भी समाज ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया था। जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दोनों व्यवस्थाएँ इतनी श्रेष्ठ और उपयुक्त समझ में आयीं कि इन्हें वर्णाश्रम धर्म कहा गया। वर्ण व्यवस्था का विचार हम पूर्व के अध्याय में कर आये हैं। अब हम आश्रम व्यवस्था का विचार करेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड [[Hindu and Bharatiya (हिन्दू एवं धार्मिक) - अध्याय १|१]], अध्याय १८, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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स्त्री पुरूष सहजीवन प्राकृतिक है। इस का अच्छा या कम अच्छा विचार और व्यवस्था तो विश्व के हर समाज ने की थी। लेकिन इनमें धार्मिक समाज छोडकर अन्य किसी भी समाज ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया था। जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दोनों व्यवस्थाएँ इतनी श्रेष्ठ और उपयुक्त समझ में आयीं कि इन्हें वर्णाश्रम धर्म कहा गया। [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] का विचार हम पूर्व के अध्याय में कर आये हैं। अब हम आश्रम व्यवस्था का विचार करेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड [[Hindu and Bharatiya (हिन्दू एवं धार्मिक) - अध्याय १|१]], अध्याय १८, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== आश्रम की व्याख्या ==
 
== आश्रम की व्याख्या ==
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मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा:।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया:।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत:। गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है। अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है। इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये। निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है। वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता। ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगोंं का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है। जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है। सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है।</blockquote>
 
मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा:।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया:।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत:। गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है। अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है। इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये। निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है। वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता। ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगोंं का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है। जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है। सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है।</blockquote>
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==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- धार्मिक (धार्मिक) साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ====
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==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- धार्मिक साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ====
 
समाज का एक जिम्मेदार घटक होने के नाते वैसे तो हर समाज घटक का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता ही है। ब्रहृचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी इन तोनों वर्गों के और गृहस्थ वर्ग के कुछ दायित्व तो समान ही होंगे। क्षमता और दायित्व का समीकरण रखने से काम सुचारू रूप से चलता है यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसलिये क्षमतावान गृहस्थाश्रमी का दायित्व भी अन्यों से कई बातों मे कहीं अधिक और विलक्षण होता है।   
 
समाज का एक जिम्मेदार घटक होने के नाते वैसे तो हर समाज घटक का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता ही है। ब्रहृचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी इन तोनों वर्गों के और गृहस्थ वर्ग के कुछ दायित्व तो समान ही होंगे। क्षमता और दायित्व का समीकरण रखने से काम सुचारू रूप से चलता है यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसलिये क्षमतावान गृहस्थाश्रमी का दायित्व भी अन्यों से कई बातों मे कहीं अधिक और विलक्षण होता है।   
 
तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गृहस्थ के दायित्वों का संदर्भ आता है। गुरूगृह में विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद जब शिष्य गृहस्थाश्रम मे प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता है तब गुरू उसे गृहस्थ के नाते उस के कर्तव्यों की याद दिलाते है।  
 
तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गृहस्थ के दायित्वों का संदर्भ आता है। गुरूगृह में विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद जब शिष्य गृहस्थाश्रम मे प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता है तब गुरू उसे गृहस्थ के नाते उस के कर्तव्यों की याद दिलाते है।  
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अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
 
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये।  
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उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चों का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।   
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उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चोंं का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।   
    
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे।  
 
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे।  
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## परस्पर पूरकता का व्यवहार  
 
## परस्पर पूरकता का व्यवहार  
 
## सुख/दुख में साथ  
 
## सुख/दुख में साथ  
# अपने बच्चों के प्रति दायित्व  
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# अपने बच्चोंं के प्रति दायित्व  
 
## श्रेष्ठ संतति का निर्माण: जो समाज श्रेष्ठ आनुवांशिकता को संजोता है अर्थात् संकर नही होने देता या संकर अल्पतम रखता है और साथ ही में एैसे आनुवंशजों को श्रेष्ठ संस्कार पाने की सुनिश्चिती करता है वह समाज केवल श्रेष्ठ ( सुखी, सबल, समाधानी और समृद्ध ) ही नही बनता, चिरंतन भी बन जाता है।  
 
## श्रेष्ठ संतति का निर्माण: जो समाज श्रेष्ठ आनुवांशिकता को संजोता है अर्थात् संकर नही होने देता या संकर अल्पतम रखता है और साथ ही में एैसे आनुवंशजों को श्रेष्ठ संस्कार पाने की सुनिश्चिती करता है वह समाज केवल श्रेष्ठ ( सुखी, सबल, समाधानी और समृद्ध ) ही नही बनता, चिरंतन भी बन जाता है।  
### श्रेष्ठ, दैवी गुणसंपदायुक्त बच्चों को जन्म देना  
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### श्रेष्ठ, दैवी गुणसंपदायुक्त बच्चोंं को जन्म देना  
### अपने बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित बनाकर एक श्रेष्ठ समाज-घटक बनाना  
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### अपने बच्चोंं को सुसंस्कारित और सुशिक्षित बनाकर एक श्रेष्ठ समाज-घटक बनाना  
 
#### घर का वातावरण, परस्पर व्यवहार, आत्मीयता आदी के आधारपर सुसंस्कारित  बनाना।  
 
#### घर का वातावरण, परस्पर व्यवहार, आत्मीयता आदी के आधारपर सुसंस्कारित  बनाना।  
 
#### योग्य विद्याकेंद्र से जोडकर बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को समाज के हित में  ढालना।  
 
#### योग्य विद्याकेंद्र से जोडकर बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को समाज के हित में  ढालना।  
## कुलधर्म, कुलाचार, कुल-परंपरा, कुल-व्यवसाय का बच्चों को संक्रमण  
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## कुलधर्म, कुलाचार, कुल-परंपरा, कुल-व्यवसाय का बच्चोंं को संक्रमण  
 
## सुरक्षा  
 
## सुरक्षा  
 
## सामाजिक प्रतिष्ठा/नाम  
 
## सामाजिक प्रतिष्ठा/नाम  
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## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना  
 
## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना  
 
### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना।  
 
### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना।  
### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है। वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी। आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गँवाते हुए किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें ऐसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कम से कम ऐसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनिया भर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा।  
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### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] भी यही कहता है। [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] से जुडी थी। आज भी क्या हम [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]] के लाभ न गँवाते हुए किंतु [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के लाभ मिलते रहें ऐसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कम से कम ऐसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनिया भर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा।  
 
### जहाँ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटी पर संदर्भहीन हो गई है ऐसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना।  
 
### जहाँ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटी पर संदर्भहीन हो गई है ऐसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना।  
### शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने धार्मिक (धार्मिक) चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुए पुनर्गठित करना।  
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### शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने धार्मिक चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुए पुनर्गठित करना।  
 
### शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है। इन्हें शुद्ध धार्मिकता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना।  
 
### शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है। इन्हें शुद्ध धार्मिकता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना।  
 
## श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें।  
 
## श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें।  
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## योग्य शिक्षा व्यवस्था  
 
## योग्य शिक्षा व्यवस्था  
 
## योग्य शासक/शासन व्यवस्था  
 
## योग्य शासक/शासन व्यवस्था  
# चराचर के प्रति दायित्व: मानव को प्राप्त विशेष शक्तियों के कारण मानव प्रकृति का विनाश करने की क्षमता रखता है। अन्य किसी भी जीव में प्रकृति को बिगाडने की क्षमता नही है। अपने सुख के लिये प्रकृति को बिगाडने की बुद्धि तो अन्य किसी भी जीव में लेशमात्र भी नही है। मानव की इसी क्षमता के कारण मानवपर प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ जाती है। इसीलिये प्राचीन काल से धार्मिक (धार्मिक) समाज ने अपने विभिन्न रीति रिवाजों में संस्कारों -उत्सवों में, दैनंदिन व्यवहार में प्रकृति के संतुलन और शुद्धता को बनाये रखने की सहज रचना की थी। इन में से काफी कुछ परंपराएं आज भी कर्मकांड के रूप में जीवित है। ये यदि केवल कर्मकांड बनी रहीं तो अगली पीढीतक नष्ट हो जाने का डर है। अत: इन प्रथा परंपराओं को बुद्धियुक्त प्रस्तुति के साथ समाज में पुन: प्रस्थापित करना होगा। प्रदूषण का बढता परिमाण देखते हुए और भी कई प्रकार के बुद्धियुक्त कर्मकांडों को समाजजीवन का अनिवार्य अंग बनाना होगा। प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप जीवनशैली का स्वीकार करना होगा। प्रकृति की अनुकूलता और अनुरूपता के लिये निम्न सात बातें महत्वपूर्ण है:
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# चराचर के प्रति दायित्व: मानव को प्राप्त विशेष शक्तियों के कारण मानव प्रकृति का विनाश करने की क्षमता रखता है। अन्य किसी भी जीव में प्रकृति को बिगाड़ने की क्षमता नही है। अपने सुख के लिये प्रकृति को बिगाड़ने की बुद्धि तो अन्य किसी भी जीव में लेशमात्र भी नही है। मानव की इसी क्षमता के कारण मानवपर प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ जाती है। इसीलिये प्राचीन काल से धार्मिक समाज ने अपने विभिन्न रीति रिवाजों में संस्कारों -उत्सवों में, दैनंदिन व्यवहार में प्रकृति के संतुलन और शुद्धता को बनाये रखने की सहज रचना की थी। इन में से काफी कुछ परंपराएं आज भी कर्मकांड के रूप में जीवित है। ये यदि केवल कर्मकांड बनी रहीं तो अगली पीढीतक नष्ट हो जाने का डर है। अत: इन प्रथा परंपराओं को बुद्धियुक्त प्रस्तुति के साथ समाज में पुन: प्रस्थापित करना होगा। प्रदूषण का बढता परिमाण देखते हुए और भी कई प्रकार के बुद्धियुक्त कर्मकांडों को समाजजीवन का अनिवार्य अंग बनाना होगा। प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप जीवनशैली का स्वीकार करना होगा। प्रकृति की अनुकूलता और अनुरूपता के लिये निम्न सात बातें महत्वपूर्ण है:
 
#* चक्रीयता   
 
#* चक्रीयता   
 
#* परस्परावलंबन  
 
#* परस्परावलंबन  
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#* विघटनशीलता  
 
#* विघटनशीलता  
 
#* प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना: यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है।  
 
#* प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना: यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है।  
# समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व: धार्मिक (धार्मिक) विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा।   
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# समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व: धार्मिक विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा।   
 
# वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ?गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी। जो जहाँ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा।  
 
# वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ?गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी। जो जहाँ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा।  
 
# घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुआ है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओं पर बल देना होगा:
 
# घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुआ है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओं पर बल देना होगा:
 
## अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था  
 
## अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था  
## गृहशास्त्र की सटीक प्रस्तुति, प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था शिक्षा क्षेत्र की भूमिका :  किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी। समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुए आगे बढना होगा। बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा। पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा। बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा।  
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## गृहशास्त्र की सटीक प्रस्तुति, प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था शिक्षा क्षेत्र की भूमिका :  किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी। समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चोंं को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुए आगे बढना होगा। बच्चोंं को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा। पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा। बच्चोंं की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा।  
    
=== वानप्रस्थ ===
 
=== वानप्रस्थ ===
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# अच्छी तरह से देखकर कदम रखना। कोई जीव कुचला न जाए। वस्त्र से छानकर जल पीना। जिससे जीवहत्या न हो। सत्य वाणी का उच्चारण करना।
 
# अच्छी तरह से देखकर कदम रखना। कोई जीव कुचला न जाए। वस्त्र से छानकर जल पीना। जिससे जीवहत्या न हो। सत्य वाणी का उच्चारण करना।
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=== श्रेष्ठ धार्मिक (धार्मिक) कुटुंब ===
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=== श्रेष्ठ धार्मिक कुटुंब ===
घर में कमसे कम तीन पीढीयों के लोग सुख चैन से रहते हों। दो तीन बहुएँ अपने पुत्र पुत्रियों सहित रहती हों। ५-७ पुत्र पौत्रियाँ घर का गोकुल बनाते हों, वानाप्रस्थीद्वारा गृहस्थ को सभी अधिकारों का अंतरण किया गया हो, गृहस्थ अपने पिता से भी अधिक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित हो और उसका गर्व पिता पुत्र दोनों को हो, सहजता से ही संस्कारमय वातावरण हो, बड़ों का आदर और सेवा होती हो, छोटों के लिए आदर्श उपस्थित हों, वानप्रस्थी संयमित उपभोग का वस्तुपाठ अपने आचरण से सिखाते हों, सबके व्यवहार में कुटुंब भावना ओतप्रोत हो। यह सब है एक अच्छे धार्मिक (धार्मिक) संयुक्त कुटुंब का स्वरूप।
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घर में कमसे कम तीन पीढीयों के लोग सुख चैन से रहते हों। दो तीन बहुएँ अपने पुत्र पुत्रियों सहित रहती हों। ५-७ पुत्र पौत्रियाँ घर का गोकुल बनाते हों, वानाप्रस्थीद्वारा गृहस्थ को सभी अधिकारों का अंतरण किया गया हो, गृहस्थ अपने पिता से भी अधिक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित हो और उसका गर्व पिता पुत्र दोनों को हो, सहजता से ही संस्कारमय वातावरण हो, बड़ों का आदर और सेवा होती हो, छोटों के लिए आदर्श उपस्थित हों, वानप्रस्थी संयमित उपभोग का वस्तुपाठ अपने आचरण से सिखाते हों, सबके व्यवहार में कुटुंब भावना ओतप्रोत हो। यह सब है एक अच्छे धार्मिक संयुक्त कुटुंब का स्वरूप।
    
==References==
 
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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