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==== मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व ====
 
==== मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व ====
मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा:।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया:।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत:। गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है। अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है। इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये। निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है। वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता। ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगों का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है। जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है। सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है।</blockquote>
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मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा:।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया:।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत:। गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है। अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है। इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये। निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है। वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता। ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगोंं का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है। जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है। सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है।</blockquote>
    
==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- धार्मिक (धार्मिक) साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ====
 
==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- धार्मिक (धार्मिक) साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ====

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