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== आश्रम की व्याख्या ==
 
== आश्रम की व्याख्या ==
आश्रम की व्याख्या इस प्रकार दी गयी है{{Citation needed}} : <blockquote>आश्रम्यती अस्मिन् अनेन वा इति आश्रम:</blockquote><blockquote>अर्थ है – जिस व्यवस्था में हर अवस्था में जीवन की लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतत श्रम करने होते हैं।</blockquote>मानव की बढ़ती घटती क्षमताओं और उसके क्षमता विकास की और क्षमताओं के घटने की प्रकृति की रचना को आयु की अवस्थाओं के साथ समायोजित करने के लिए ही आश्रम व्यवस्था निर्माण की गयी। मानवेतर प्राणियों को जीवन का कोई लक्ष्य होणा चाहिए इसकी समझ नहीं होती। इसलिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन का नियोजन मानवेतर प्राणियों के लिए न तो संभव है और न ही आवश्यक। लेकिन मानव एक बुद्धिशील जीव है। वह सामाजिक जीव भी है। इसलिए वह अपने लक्ष्य की याने सुख से परमसुखातक के लक्ष्यों की प्राप्त के लिए व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। आयु की प्रत्येक अवस्था को ठीक से समझकर जीवन की अनिश्चितताओं को दूर कर मानव जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन यापन के लिए श्रम करने के उपरांत भी अवकाश प्राप्त हो, इस हेतु से आश्रम व्यवस्था की रचना की गयी है।
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आश्रम की व्याख्या इस प्रकार दी गयी है{{Citation needed}} : <blockquote>आश्रम्यती अस्मिन् अनेन वा इति आश्रम:</blockquote><blockquote>अर्थ है – जिस व्यवस्था में हर अवस्था में जीवन की लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतत श्रम करने होते हैं।</blockquote>मानव की बढ़ती घटती क्षमताओं और उसके क्षमता विकास की और क्षमताओं के घटने की प्रकृति की रचना को आयु की अवस्थाओं के साथ समायोजित करने के लिए ही आश्रम व्यवस्था निर्माण की गयी। मानवेतर प्राणियों को जीवन का कोई लक्ष्य होणा चाहिए इसकी समझ नहीं होती। अतः लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन का नियोजन मानवेतर प्राणियों के लिए न तो संभव है और न ही आवश्यक। लेकिन मानव एक बुद्धिशील जीव है। वह सामाजिक जीव भी है। अतः वह अपने लक्ष्य की याने सुख से परमसुखातक के लक्ष्यों की प्राप्त के लिए व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। आयु की प्रत्येक अवस्था को ठीक से समझकर जीवन की अनिश्चितताओं को दूर कर मानव जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन यापन के लिए श्रम करने के उपरांत भी अवकाश प्राप्त हो, इस हेतु से आश्रम व्यवस्था की रचना की गयी है।
    
आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है।
 
आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है।
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=== वानप्रस्थ ===
 
=== वानप्रस्थ ===
वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है। आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थ की कल्पना यह मानव के क्रमिक समग्र विकास से जोड़कर ही की गई है। ब्रह्मचर्य में मनुष्य अपने विकास की ओर ही प्रमुखता से ध्यान देता है। गृहस्थाश्रम में वह चराचर के हित की जिम्मेदारी का वहन करता है। वानप्रस्थ में अब वह जिम्मेदारियों का अगली पीढी को याने सास है तो बहू को और पुरूष है तो अपने पुत्र को हस्तांतरण करता है। वर्त्तमान में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के प्रचारकों का जीवन देखते हैं। इनका जीवन वास्तव में वानप्रस्थी का जीवन होता है। ये युवावस्था से ही गृहस्थ जीवन के स्थानपर वानप्रस्थी का जीवन जीते हैं। वर्तमान में समाज की आवश्यकता को समझकर इस प्रचारक व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था। वर्तमान में अधार्मिक (अधार्मिक) शिक्षा के कारण सामान्य गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए तैयार नहीं है। मरते दम तक गृहस्थ के अधिकार और उपभोगों का त्याग नहीं करता है। यह एक आपद्धर्म है। जब भी वानप्रस्थ जीवन जीनेवाले लोग निर्माण होंगे प्रचारक व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वानप्रस्थी और गृहस्थाश्रमी में निम्न बातों में भिन्नता होती है:  
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वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। अतः परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है। आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थ की कल्पना यह मानव के क्रमिक समग्र विकास से जोड़कर ही की गई है। ब्रह्मचर्य में मनुष्य अपने विकास की ओर ही प्रमुखता से ध्यान देता है। गृहस्थाश्रम में वह चराचर के हित की जिम्मेदारी का वहन करता है। वानप्रस्थ में अब वह जिम्मेदारियों का अगली पीढी को याने सास है तो बहू को और पुरूष है तो अपने पुत्र को हस्तांतरण करता है। वर्त्तमान में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के प्रचारकों का जीवन देखते हैं। इनका जीवन वास्तव में वानप्रस्थी का जीवन होता है। ये युवावस्था से ही गृहस्थ जीवन के स्थानपर वानप्रस्थी का जीवन जीते हैं। वर्तमान में समाज की आवश्यकता को समझकर इस प्रचारक व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था। वर्तमान में अधार्मिक (अधार्मिक) शिक्षा के कारण सामान्य गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए तैयार नहीं है। मरते दम तक गृहस्थ के अधिकार और उपभोगों का त्याग नहीं करता है। यह एक आपद्धर्म है। जब भी वानप्रस्थ जीवन जीनेवाले लोग निर्माण होंगे प्रचारक व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वानप्रस्थी और गृहस्थाश्रमी में निम्न बातों में भिन्नता होती है:  
 
# गृहस्थ गृहस्वामी होता है। वानप्रस्थी गृहस्वामी नहीं होता। घर में रहकर स्वामित्व छोड़ना कठिन होता है। लेकिन होना तो यही चाहिए।  
 
# गृहस्थ गृहस्वामी होता है। वानप्रस्थी गृहस्वामी नहीं होता। घर में रहकर स्वामित्व छोड़ना कठिन होता है। लेकिन होना तो यही चाहिए।  
 
# गृहस्थाश्रम उपभोग के लिए है। वानप्रस्थ में भोग कम करते जाना है। इन्द्रियों का दमन करना है।  
 
# गृहस्थाश्रम उपभोग के लिए है। वानप्रस्थ में भोग कम करते जाना है। इन्द्रियों का दमन करना है।  
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श्रीमद्भागवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भागवद्गीता १८-२</ref><blockquote>काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।</blockquote><blockquote>अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है।। 18-2।। </blockquote>नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम:
 
श्रीमद्भागवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भागवद्गीता १८-२</ref><blockquote>काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।</blockquote><blockquote>अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है।। 18-2।। </blockquote>नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम:
 
# भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का निर्वाह करना।
 
# भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का निर्वाह करना।
# एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है।
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# एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे अतः अतन करते रहना आवश्यक है।
 
# अविरत भवगवान का नामस्मरण।
 
# अविरत भवगवान का नामस्मरण।
 
# ज्ञान का प्रसार करना।
 
# ज्ञान का प्रसार करना।

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