Difference between revisions of "Ancient Indian Mathematics (धार्मिक गणित-शास्त्र)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m (Text replacement - "विज्ञान" to "[[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]")
m
Line 1: Line 1:
{{StubArticle}}<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।</blockquote><blockquote>तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥४॥<ref>Sudhakara Dvivedin (1908), [https://ia601600.us.archive.org/5/items/in.ernet.dli.2015.486672/2015.486672.yajush-Jyotish.pdf Yajusha Jyotisha]</ref></blockquote>भारत देश ज्ञान-[[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] की परम्परा में मूर्धन्य रहा है, यह इस प्राचीन श्लोक से प्रस्तावित हुआ दिखता है। धार्मिक मूल विचारधारा वेद, शास्त्र, पुराण एवं इतिहास में रही है । हमारे वेद अत्यन्त प्राचीन काल से संरक्षित हुए अर्वाचीन काल तक उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देशक बने हुए हैं। उपर्युक्त श्लोक में 'गणितं मूर्धनि । स्थितम्' यह दर्शता है कि, सर्वत्र उपयुक्तता होने के कारण ही कोई भी पदार्थ सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकता है। तस्मात् गणित की सभी क्षेत्रों में सहायता एवं उपयुक्तता सिद्ध होती है।
+
{{StubArticle}}<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।</blockquote><blockquote>तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥४॥<ref>Sudhakara Dvivedin (1908), [https://ia601600.us.archive.org/5/items/in.ernet.dli.2015.486672/2015.486672.yajush-Jyotish.pdf Yajusha Jyotisha]</ref></blockquote>भारत देश ज्ञान- <nowiki>[[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)| विज्ञान]]</nowiki> की परम्परा में मूर्धन्य रहा है, यह इस प्राचीन श्लोक से प्रस्तावित हुआ दिखता है। धार्मिक मूल विचारधारा वेद, शास्त्र, पुराण एवं इतिहास में रही है । हमारे वेद अत्यन्त प्राचीन काल से संरक्षित हुए अर्वाचीन काल तक उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देशक बने हुए हैं। उपर्युक्त श्लोक में 'गणितं मूर्धनि । स्थितम्' यह दर्शता है कि, सर्वत्र उपयुक्तता होने के कारण ही कोई भी पदार्थ सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकता है। तस्मात् गणित की सभी क्षेत्रों में सहायता एवं उपयुक्तता सिद्ध होती है।
  
 
हमारी धार्मिक गणित-शास्त्र की परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। शास्त्र के रूप में 'गणित' का प्राचीनतम प्रयोग लगध ऋषि द्वारा उक्त 'वेदाङ्ग ज्योतिष' नामक ग्रन्थ में माना जाता है। परन्तु इससे भी पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने जो अष्टादश अधीत विद्याओं की सूची प्रस्तुत की है, उसमें ज्योतिष के लिए 'नक्षत्र विद्या' तथा गणित के लिए 'राशि विद्या' नाम प्रदान किया है। वेदों में निर्देशित विभिन्न प्रकारों की यज्ञवेदियों के निर्माण हेतु ’रज्जु’द्वारा निर्मित रेखागणित तथा ’शुल्व सूत्र’ जैसे ग्रन्थों की रचना प्रसिद्ध थी।
 
हमारी धार्मिक गणित-शास्त्र की परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। शास्त्र के रूप में 'गणित' का प्राचीनतम प्रयोग लगध ऋषि द्वारा उक्त 'वेदाङ्ग ज्योतिष' नामक ग्रन्थ में माना जाता है। परन्तु इससे भी पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने जो अष्टादश अधीत विद्याओं की सूची प्रस्तुत की है, उसमें ज्योतिष के लिए 'नक्षत्र विद्या' तथा गणित के लिए 'राशि विद्या' नाम प्रदान किया है। वेदों में निर्देशित विभिन्न प्रकारों की यज्ञवेदियों के निर्माण हेतु ’रज्जु’द्वारा निर्मित रेखागणित तथा ’शुल्व सूत्र’ जैसे ग्रन्थों की रचना प्रसिद्ध थी।

Revision as of 20:52, 16 January 2021

StubArticle.png
This is a short stub article. Needs Expansion.

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।

तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥४॥[1]

भारत देश ज्ञान- [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)| विज्ञान]] की परम्परा में मूर्धन्य रहा है, यह इस प्राचीन श्लोक से प्रस्तावित हुआ दिखता है। धार्मिक मूल विचारधारा वेद, शास्त्र, पुराण एवं इतिहास में रही है । हमारे वेद अत्यन्त प्राचीन काल से संरक्षित हुए अर्वाचीन काल तक उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देशक बने हुए हैं। उपर्युक्त श्लोक में 'गणितं मूर्धनि । स्थितम्' यह दर्शता है कि, सर्वत्र उपयुक्तता होने के कारण ही कोई भी पदार्थ सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकता है। तस्मात् गणित की सभी क्षेत्रों में सहायता एवं उपयुक्तता सिद्ध होती है।

हमारी धार्मिक गणित-शास्त्र की परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। शास्त्र के रूप में 'गणित' का प्राचीनतम प्रयोग लगध ऋषि द्वारा उक्त 'वेदाङ्ग ज्योतिष' नामक ग्रन्थ में माना जाता है। परन्तु इससे भी पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने जो अष्टादश अधीत विद्याओं की सूची प्रस्तुत की है, उसमें ज्योतिष के लिए 'नक्षत्र विद्या' तथा गणित के लिए 'राशि विद्या' नाम प्रदान किया है। वेदों में निर्देशित विभिन्न प्रकारों की यज्ञवेदियों के निर्माण हेतु ’रज्जु’द्वारा निर्मित रेखागणित तथा ’शुल्व सूत्र’ जैसे ग्रन्थों की रचना प्रसिद्ध थी।

इसी परम्परा को आगे बढ़ाते शीर्ष पद पर पहुँचाने के लिए आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कराचार्य, महावीर, नारायण पण्डित, श्रीपति, नीलकण्ठ सोमयाजि, बापूदेव शास्त्रि, श्रीनिवास रामानुजन् इत्यादि अनेक विद्वानों ने अथक् परिश्रमों से अपना योगदान समर्पित किया है।

धार्मिक दर्शन ग्रन्थों से प्रेरित हमारे पूर्वाचार्यों ने गणित-शास्त्र के लेखन में भी प्रमेय विषयों पर अधिक ध्यान दिया है। इन आचार्यों की लेखन-शैली से यह प्रतीत होता है।

References

  1. Sudhakara Dvivedin (1908), Yajusha Jyotisha