Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 2 (आदिपर्वणि अध्यायः २)"

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श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2
 
श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2
 
  
 
  त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः।
 
  त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः।
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  तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16
 
  तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16
 
  यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।
 
  यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।
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  ऋषयः ऊचुः
 
  ऋषयः ऊचुः
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  यथा[यां वः] कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः।
 
  यथा[यां वः] कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः।
 
  एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-28
 
  एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-28
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  अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु।
 
  अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु।
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  इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा।
 
  इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा।
 
  स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्॥ 1-2-40
 
  स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्॥ 1-2-40
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तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः।
 
 
 
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च॥ 1-2-41
 
 
 
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।
 
 
 
पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः॥ 1-2-42
 
 
 
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।
 
 
 
ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 1-2-43
 
 
 
दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।
 
 
 
ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः॥ 1-2-44
 
 
 
ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते।
 
 
 
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्॥ 1-2-45
 
 
 
विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च।
 
 
 
अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः॥ 1-2-46
 
 
 
सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेयं[या] हरणहारिकम्[का]
 
 
 
ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्॥ 1-2-47
 
 
 
सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्।
 
 
 
जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा॥ 1-2-48
 
 
 
पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते।
 
 
 
ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः॥ 1-2-49
 
 
 
द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम्।
 
 
 
तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च॥ 1-2-50
 
 
 
अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 
 
 
ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्॥ 1-2-51
 
 
 
इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 
 
 
नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्॥ 1-2-52
 
 
 
तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।
 
 
 
जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्॥ 1-2-53
 
 
 
निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।
 
 
 
मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-54
 
 
 
संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः।
 
 
 
घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः॥ 1-2-55
 
 
 
मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्यापि विचिन्तनम्।
 
 
 
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च।
 
 
 
द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्॥ 1-2-56
 
 
 
पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याः चैवमद्भुतम्।
 
 
 
रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्॥ 1-2-57
 
 
 
कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते।
 
 
 
आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्॥ 1-2-58
 
 
 
पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्।
 
 
 
कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः॥ 1-2-59
 
 
 
अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्।
 
 
 
उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्॥ 1-2-60
 
 
 
ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 
 
 
प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया॥ 1-2-61
 
 
 
पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्।
 
 
 
यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च॥ 1-2-62
 
 
 
मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च।
 
 
 
सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च॥ 1-2-63
 
 
 
जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्।
 
 
 
सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्॥ 1-2-64
 
 
 
उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च।
 
 
 
(ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः।)
 
 
 
मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यं समभिचिन्तयन्।
 
 
 
कीर्त्यते चाप्युपाख्यानं सैनापत्येऽभिषेचनम्।
 
 
 
श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्।
 
 
 
निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-65
 
 
 
रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
 
 
 
उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्॥ 1-2-66
 
 
 
अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 
 
 
भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते॥ 1-2-67
 
 
 
जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
 
 
 
भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्॥ 1-2-68
 
 
 
दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महानृषिः।
 
 
 
पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः।
 
 
 
द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः॥ 1-2-69
 
 
 
अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते।
 
 
 
जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः॥ 1-2-70
 
 
 
ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं रो[लो]महर्षणम्।
 
 
 
मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-71
 
 
 
कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्।
 
 
 
ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्॥ 1-2-72
 
 
 
सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्।
 
 
 
अत ऊर्ध्वं तु बीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते॥ 1-2-73
 
 
 
ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्।
 
 
 
जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्॥ 1-2-74
 
 
 
श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदै[दे]हिकम्।
 
 
 
चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः॥ 1-2-75
 
 
 
आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः।
 
 
 
प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्॥ 1-2-76
 
 
 
शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्।
 
 
 
आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्॥ 1-2-77
 
 
 
शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्।
 
 
 
प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया॥ 1-2-78
 
 
 
ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्।
 
 
 
स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः॥ 1-2-79
 
 
 
ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्।
 
 
 
अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम्॥ 1-2-80
 
 
 
पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च।
 
 
 
नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते॥ 1-2-81
 
 
 
मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्।
 
 
 
महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः॥ 1-2-82
 
 
 
हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्।
 
 
 
विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा॥ 1-2-83
 
 
 
भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्।
 
 
 
एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना॥ 1-2-84
 
 
 
यथावत्सूतपुत्रेण रौ[लौ]महर्षणिना ततः।
 
 
 
उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु॥ 1-2-85
 
 
 
समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः।
 
 
 
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्॥ 1-2-86
 
 
 
सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोः वधः।
 
 
 
तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः॥ 1-2-87
 
 
 
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।
 
 
 
विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च॥ 1-2-88
 
 
 
वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।
 
 
 
हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च॥ 1-2-89
 
 
 
मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते।
 
 
 
पौष्ये पर्वणि महात्म्यमुद[त्त]ङ्कस्योपवर्णितम्॥ 1-2-90
 
 
 
पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।
 
 
 
श्लोकाग्रं च सहस्रं च पञ्चाशच्छतमेव च।
 
 
 
अध्यायानां तथाष्टौ वा आदितोऽस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 
 
 
आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः॥ 1-2-91
 
 
 
क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।
 
 
 
यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च॥ 1-2-92
 
 
 
कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम्।
 
 
 
श्लोकाग्रं च सहस्रं च त्रिशतं चोत्तरं तथा।
 
 
 
श्लोकाश्च चतुराशीतिः पर्वण्यस्मिंस्तथैव च।
 
 
 
अध्यायानां ततः प्रोक्तं चत्वारिंशन्महर्षिणा।
 
 
 
विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि॥ 1-2-93
 
 
 
अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च।
 
 
 
अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्॥ 1-2-94
 
 
 
दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्।
 
 
 
नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्॥ 1-2-95
 
 
 
अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः।
 
 
 
महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः॥ 1-2-96
 
 
 
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्।
 
 
 
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्॥ 1-2-97
 
 
 
वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्।
 
 
 
शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि॥ 1-2-98
 
 
 
तेजोंऽशानां च सम्पातोभीष्मस्याप्यत्र सम्भवः।
 
 
 
राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः॥ 1-2-99
 
 
 
प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च।
 
 
 
हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः॥ 1-2-100
 
 
 
विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम्।
 
 
 
धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा॥ 1-2-101
 
 
 
कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।
 
 
 
धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः॥ 1-2-102
 
 
 
वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च।
 
 
 
कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-103
 
 
 
हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः।
 
 
 
विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया॥ 1-2-104
 
 
 
विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया।
 
 
 
निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि॥ 1-2-105
 
 
 
पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्।
 
 
 
पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्॥ 1-2-106
 
 
 
तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्।
 
 
 
घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता॥ 1-2-107
 
 
 
महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः।
 
 
 
तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने॥ 1-2-108
 
 
 
अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः।
 
 
 
बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः॥ 1-2-109
 
 
 
सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।
 
 
 
ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः॥ 1-2-110
 
 
 
द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया।
 
 
 
पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः॥ 1-2-111
 
 
 
अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा।
 
 
 
सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे॥ 1-2-112
 
 
 
तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्।
 
 
 
भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ॥ 1-2-113
 
 
 
पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः।
 
 
 
द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्॥ 1-2-114
 
 
 
भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्।
 
 
 
शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे॥ 1-2-115
 
 
 
दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्।
 
 
 
शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान्रामकृष्णौ महामती॥ 1-2-116
 
 
 
जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि।
 
 
 
पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च॥ 1-2-117
 
 
 
पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते।
 
 
 
द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः॥ 1-2-118
 
 
 
क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
 
 
 
विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च॥ 1-2-119
 
 
 
खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धशास[सर्ज]नम्।
 
 
 
नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया॥ 1-2-120
 
 
 
सुन्दोपसुन्दयोः तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्।
 
 
 
अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्॥ 1-2-121
 
 
 
अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्।
 
 
 
मोक्षियित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः॥ 1-2-122
 
 
 
समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह।
 
 
 
पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः॥ 1-2-123
 
 
 
पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च।
 
 
 
तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः॥ 1-2-124
 
 
 
शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः।
 
 
 
प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः॥ 1-2-125
 
 
 
द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।
 
 
 
वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना॥ 1-2-126
 
 
 
गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।
 
 
 
अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः॥ 1-2-127
 
 
 
द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।
 
 
 
विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु॥ 1-2-128
 
 
 
सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्।
 
 
 
भयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्॥ 1-2-129
 
 
 
महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्यां तनयसम्भवः।
 
 
 
इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम्॥ 1-2-130
 
 
 
अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।
 
 
 
सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा॥ 1-2-131
 
 
 
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च।
 
 
 
श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना॥ 1-2-132
 
 
 
द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते।
 
 
 
सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्॥ 1-2-133
 
 
 
लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः।
 
 
 
राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा॥ 1-2-134
 
 
 
गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्।
 
 
 
तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः॥ 1-2-135
 
 
 
राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ।
 
 
 
राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा॥ 1-2-136
 
 
 
यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च।
 
 
 
दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले॥ 1-2-137
 
 
 
यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।
 
 
 
यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्॥ 1-2-138
 
 
 
यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्।
 
 
 
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्॥ 1-2-139
 
 
 
तारयामास तांस्तीर्णान्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः।
 
 
 
पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्॥ 1-2-140
 
 
 
जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः।
 
 
 
एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना॥ 1-2-141
 
 
 
अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया।
 
 
 
श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च॥ 1-2-142
 
 
 
श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः।
 
 
 
अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्॥ 1-2-143
 
 
 
वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
 
 
 
पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-144
 
 
 
अत्रौ[न्नौ]षधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना।
 
 
 
द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः॥ 1-2-145
 
 
 
धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः।
 
 
 
मैत्रेयशापोत्सर्गश्च विदुरस्य प्रवासनम्।
 
 
 
हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्॥ 1-2-146
 
 
 
त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।
 
 
 
पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्॥ 1-2-147
 
 
 
कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
 
 
 
वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-148
 
 
 
तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्।
 
 
 
निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च॥ 1-2-149
 
 
 
मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्।
 
 
 
शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-150
 
 
 
किम्मी[र्मी]रस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।
 
 
 
पाण्डवानां च सर्वेषां सहाख्यानं तथैव च।
 
 
 
पाञ्चालागमनं चैव द्रोपद्याश्चाश्रुमोक्षणम्।
 
 
 
वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः॥ 1-2-151
 
 
 
श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्।
 
 
 
क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना॥ 1-2-152
 
 
 
परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ।
 
 
 
आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्॥ 1-2-153
 
 
 
तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा।
 
 
 
सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्॥ 1-2-154
 
 
 
नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।
 
 
 
प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः॥ 1-2-155
 
 
 
धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह।
 
 
 
संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः॥ 1-2-156
 
 
 
समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा।
 
 
 
प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा॥ 1-2-157
 
 
 
गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।
 
 
 
अस्त्रहेतोविवासश्च पार्थस्यामिततेजसः॥ 1-2-158
 
 
 
महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह।
 
 
 
दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च॥ 1-2-159
 
 
 
महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः।
 
 
 
यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी॥ 1-2-160
 
 
 
दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः।
 
 
 
युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम्॥ 1-2-161
 
 
 
नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्।
 
 
 
दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा॥ 1-2-162
 
 
 
तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।
 
 
 
रो[लो]मशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति॥ 1-2-163
 
 
 
वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्।
 
 
 
स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता रो[लो]मशेनार्जुनस्य वै॥ 1-2-164
 
 
 
संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।
 
 
 
तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्॥ 1-2-165
 
 
 
पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।
 
 
 
तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-166
 
 
 
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
 
 
 
तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता॥ 1-2-167
 
 
 
आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्।
 
 
 
लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा॥ 1-2-168
 
 
 
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनन्तरम्।
 
 
 
इन्द्रोऽग्निर्यत्र धर्मश्च अजिज्ञासन्शिबिं नृपम्।
 
 
 
ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
 
 
 
ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
 
 
 
जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः॥ 1-2-169
 
 
 
कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते।
 
 
 
तीर्थयात्रा तथैवात्र पाण्डवानां महात्मनाम्।
 
 
 
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
 
 
 
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रोपद्या गन्धमादने।
 
 
 
यत्र मन्दारपुष्पार्थं नलिनीं तामधर्षयत्।
 
 
 
यत्रास्य सुमहद्युद्धं अभवद्राक्षसैः सह।
 
 
 
यक्षैश्चापि महावीर्यैः मणिमत्प्रमुखैस्तथा।
 
 
 
प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः॥ 1-2-170
 
 
 
सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः।
 
 
 
शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीति[थि]नौ॥ 1-2-171
 
 
 
ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः।
 
 
 
मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम्॥ 1-2-172
 
 
 
जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।
 
 
 
पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः।
 
 
 
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-173
 
 
 
इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थं शिबिं नृपम्।
 
 
 
अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना॥ 1-2-174
 
 
 
अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्।
 
 
 
नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च॥ 1-2-175
 
 
 
पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना।
 
 
 
विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः॥ 1-2-176
 
 
 
अजासुरस्य चात्रैव वयः समुपवर्ण्यते।
 
 
 
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना।
 
 
 
निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः।
 
 
 
समागमश्च पार्थस्य भ्रातृभिर्गन्धमादने।
 
 
 
घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र युद्धं किरीटिनः
 
 
 
यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः।
 
 
 
गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे॥ 1-2-177
 
 
 
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने।
 
 
 
व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्॥ 1-2-178
 
 
 
कदलीष[ख]ण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्।
 
 
 
यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनीं तामधर्षयत्॥ 1-2-179
 
 
 
यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह।
 
 
 
यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा॥ 1-2-180
 
 
 
(जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्।
 
 
 
वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्॥
 
 
 
आर्ष्टिषेण आश्रमे चैषां गमनं वास एव च।
 
 
 
प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः॥
 
 
 
कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः।
 
 
 
युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह॥
 
 
 
समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च।)
 
 
 
समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह।
 
 
 
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना॥ 1-2-181
 
 
 
निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुर वासिभिः।
 
 
 
निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः॥ 1-2-182
 
 
 
पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः।
 
 
 
वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता॥ 1-2-183
 
 
 
अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ।
 
 
 
पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-2-184
 
 
 
अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्।
 
 
 
भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा॥ 1-2-185
 
 
 
भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने।
 
 
 
अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः॥ 1-2-186
 
 
 
काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्।
 
 
 
तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्पुरुषर्षभान्॥ 1-2-187
 
 
 
वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्।
 
 
 
मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः॥ 1-2-188
 
 
 
पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा।
 
 
 
संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः॥ 1-2-189
 
 
 
मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्।
 
 
 
मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते॥ 1-2-190
 
 
 
ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च।
 
 
 
पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्॥ 1-2-191
 
 
 
द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया।
 
 
 
पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः॥ 1-2-192
 
 
 
घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः।
 
 
 
ह्रियमाणस्तुमन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटीना॥ 1-2-193
 
 
 
धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम्।
 
 
 
काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते॥ 1-2-194
 
 
 
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।
 
 
 
दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-195
 
 
 
जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्।
 
 
 
यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे॥ 1-2-196
 
 
 
चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः।
 
 
 
रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्॥ 1-2-197
 
 
 
यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि।
 
 
 
सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-198
 
 
 
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
 
 
 
यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽदादेकवीर[तुष्टोऽसावदादेक]वधाय च॥ 1-2-199
 
 
 
आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्।
 
 
 
जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्॥ 1-2-200
 
 
 
एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्।
 
 
 
अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते॥ 1-2-201
 
 
 
एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः।
 
 
 
एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट्शतानि च॥ 1-2-202
 
 
 
चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 
 
 
अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्॥ 1-2-203
 
 
 
विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्।
 
 
 
दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत॥ 1-2-204
 
 
 
यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते।
 
 
 
पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः॥ 1-2-205
 
 
 
दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्।
 
 
 
पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-206
 
 
 
चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम्।
 
 
 
न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-207
 
 
 
गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः।
 
 
 
यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासीद्रो[ल्लो]महर्षणम्॥ 1-2-208
 
 
 
ह्रियमाणश्चि यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः।
 
 
 
गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः॥ 1-2-209
 
 
 
अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्।
 
 
 
समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि॥ 1-2-210
 
 
 
प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना।
 
 
 
विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः॥ 1-2-211
 
 
 
अभिमन्युं समुद्दिस्य सौभद्रमरिघातिनम्।
 
 
 
चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्॥ 1-2-212
 
 
 
अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा।
 
 
 
सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु॥ 1-2-213
 
 
 
श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।
 
 
 
उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा॥ 1-2-214
 
 
 
उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्।
 
 
 
उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया॥ 1-2-215
 
 
 
दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ।
 
 
 
साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति॥ 1-2-216
 
 
 
इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः।
 
 
 
अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ॥ 1-2-217
 
 
 
अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्।
 
 
 
वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः॥ 1-2-218
 
 
 
अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनञ्जयः।
 
 
 
मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-219
 
 
 
उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः।
 
 
 
वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम॥ 1-2-220
 
 
 
शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्।
 
 
 
शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः॥ 1-2-221
 
 
 
पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति।
 
 
 
वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः॥ 1-2-222
 
 
 
तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः।
 
 
 
संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-223
 
 
 
यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।
 
 
 
श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्॥ 1-2-224
 
 
 
प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।
 
 
 
विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च॥ 1-2-225
 
 
 
श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
 
 
 
तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्॥ 1-2-226
 
 
 
मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।
 
 
 
प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः॥ 1-2-227
 
 
 
ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च।
 
 
 
यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन्महामतिः॥ 1-2-228
 
 
 
स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्।
 
 
 
प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै॥ 1-2-229
 
 
 
शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्।
 
 
 
दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-230
 
 
 
वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः।
 
 
 
महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै॥ 1-2-231
 
 
 
विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्।
 
 
 
कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्॥ 1-2-232
 
 
 
योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्।
 
 
 
रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः।
 
 
 
उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः॥ 1-2-233
 
 
 
आगम्य हास्तिनापुरादुपप्लव्यमरिन्दमः।
 
 
 
पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः॥ 1-2-234
 
 
 
ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्।
 
 
 
सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः॥ 1-2-235
 
 
 
ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः।
 
 
 
नगराद्धास्तिनपुराद्बलसंख्यानमेव च॥ 1-2-236
 
 
 
यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
 
 
 
श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः॥ 1-2-237
 
 
 
रथातिरथसंख्यानमम्बोबाख्यानमेव च।
 
 
 
एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते॥ 1-2-238
 
 
 
उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम्।
 
 
 
अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा॥ 1-2-239
 
 
 
श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।
 
 
 
श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना॥ 1-2-240
 
 
 
व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।
 
 
 
अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते॥ 1-2-241
 
 
 
जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।
 
 
 
यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्॥ 1-2-242
 
 
 
यत्र युद्धमभूद्घोरं दशाहानि सुदारुणम्।
 
 
 
कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः॥ 1-2-243
 
 
 
मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः।
 
 
 
समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः॥ 1-2-244
 
 
 
रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः।
 
 
 
प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः॥ 1-2-245
 
 
 
वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः।
 
 
 
गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 1-2-246
 
 
 
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः।
 
 
 
विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्॥ 1-2-247
 
 
 
शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह।
 
 
 
षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्॥ 1-2-248
 
 
 
अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे।
 
 
 
पञ्चश्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च॥ 1-2-249
 
 
 
श्लोकश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः।
 
 
 
व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि॥ 1-2-250
 
 
 
द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते।
 
 
 
सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्॥ 1-2-251
 
 
 
दूर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।
 
 
 
ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-252
 
 
 
यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्।
 
 
 
भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि॥ 1-2-253
 
 
 
सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।
 
 
 
यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः॥ 1-2-254
 
 
 
जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्।
 
 
 
हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे॥ 1-2-255
 
 
 
अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।
 
 
 
यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः॥ 1-2-256
 
 
 
अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया।
 
 
 
प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि॥ 1-2-257
 
 
 
संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे।
 
 
 
(संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्॥
 
 
 
किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्।
 
 
 
धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः॥
 
 
 
नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।)
 
 
 
अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्॥ 1-2-258
 
 
 
सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।
 
 
 
घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि॥ 1-2-259
 
 
 
अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते।
 
 
 
अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः॥ 1-2-260
 
 
 
आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्।
 
 
 
व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः॥ 1-2-261
 
 
 
सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्।
 
 
 
यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः॥ 1-2-262
 
 
 
द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः।
 
 
 
अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः॥ 1-2-263
 
 
 
अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च।
 
 
 
श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-264
 
 
 
पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि।
 
 
 
अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्॥ 1-2-265
 
 
 
सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः।
 
 
 
आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम्॥ 1-2-266
 
 
 
प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः।
 
 
 
हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्॥ 1-2-267
 
 
 
वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना।
 
 
 
दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा॥ 1-2-268
 
 
 
द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।
 
 
 
संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्॥ 1-2-269
 
 
 
अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः।
 
 
 
यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि॥ 1-2-270
 
 
 
प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च।
 
 
 
भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे॥ 1-2-271
 
 
 
द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः।
 
 
 
अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः॥ 1-2-272
 
 
 
एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि।
 
 
 
चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च॥ 1-2-273
 
 
 
चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 
 
 
अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्॥ 1-2-274
 
 
 
हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्।
 
 
 
यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥ 1-2-275
 
 
 
वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः।
 
 
 
विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते॥ 1-2-276
 
 
 
शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः।
 
 
 
शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे॥ 1-2-277
 
 
 
सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः।
 
 
 
ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः॥ 1-2-278
 
 
 
प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः।
 
 
 
क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः।
 
 
 
ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः॥ 1-2-279
 
 
 
भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह।
 
 
 
समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्॥ 1-2-280
 
 
 
सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता।
 
 
 
गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-281
 
 
 
दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे।
 
 
 
ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया॥ 1-2-282
 
 
 
नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्।
 
 
 
एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः॥ 1-2-283
 
 
 
संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते।
 
 
 
त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा॥ 1-2-284
 
 
 
मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता।
 
 
 
अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्॥ 1-2-285
 
 
 
भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्।
 
 
 
अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः॥ 1-2-286
 
 
 
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्।
 
 
 
समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि॥ 1-2-287
 
 
 
प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः।
 
 
 
अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-288
 
 
 
पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनम्।
 
 
 
यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः॥ 1-2-289
 
 
 
सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्।
 
 
 
न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः॥ 1-2-290
 
 
 
ततः काकान्बहून्रात्रौदृष्ट्वोलूकेनहिंसितान्।
 
 
 
द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्॥ 1-2-291
 
 
 
पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे।
 
 
 
गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दशं तत्र राक्षसम्॥ 1-2-292
 
 
 
घोरूपमपश्यत्स दिवमावृत्य धिष्ठितम्।
 
 
 
तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च॥ 1-2-293
 
 
 
द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः।
 
 
 
प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-294
 
 
 
पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
 
 
 
कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्॥ 1-2-295
 
 
 
यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्।
 
 
 
सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः॥ 1-2-296
 
 
 
पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः।
 
 
 
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः॥ 1-2-297
 
 
 
द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता।
 
 
 
कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तॄनुपाविशत्॥ 1-2-298
 
 
 
द्रौपदीवचनात्यत्र भीमो भीमपराक्रमः।
 
 
 
प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्॥ 1-2-299
 
 
 
अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्।
 
 
 
भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः॥ 1-2-300
 
 
 
अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत्।
 
 
 
मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः॥ 1-2-301
 
 
 
यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः।
 
 
 
द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा॥ 1-2-302
 
 
 
द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः।
 
 
 
मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्॥ 1-2-303
 
 
 
पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः।
 
 
 
एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्॥ 1-2-304
 
 
 
अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना।
 
 
 
श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-305
 
 
 
श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना।
 
 
 
सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा॥ 1-2-306
 
 
 
अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्।
 
 
 
पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः॥ 1-2-307
 
 
 
कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्।
 
 
 
भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्ज ह॥ 1-2-308
 
 
 
तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
 
 
 
संसारगहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः॥ 1-2-309
 
 
 
विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्।
 
 
 
धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा॥ 1-2-310
 
 
 
सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्।
 
 
 
विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः॥ 1-2-311
 
 
 
क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः।
 
 
 
यत्र तान्क्षत्रियान्शूरान्संग्रामेष्वनिवर्तिनः॥ 1-2-312
 
 
 
पुत्रान्भ्रातॄन्पितृंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे।
 
 
 
पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता॥ 1-2-313
 
 
 
गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया।
 
 
 
यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः॥ 1-2-314
 
 
 
राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।
 
 
 
तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके॥ 1-2-315
 
 
 
गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः।
 
 
 
सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा॥ 1-2-316
 
 
 
एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्।
 
 
 
प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्॥ 1-2-317
 
 
 
सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 
 
 
श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता॥ 1-2-318
 
 
 
संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता।
 
 
 
अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्॥ 1-2-319
 
 
 
यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
 
 
 
घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्सम्बन्धिमातुलान्॥ 1-2-320
 
 
 
शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः।
 
 
 
राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञात[न]बुभुत्सुभिः॥ 1-2-321
 
 
 
आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः।
 
 
 
यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्॥ 1-2-322
 
 
 
मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः।
 
 
 
द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्॥ 1-2-323
 
 
 
अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्।
 
 
 
त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः॥ 1-2-324
 
 
 
चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च।
 
 
 
सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया॥ 1-2-325
 
 
 
अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्।
 
 
 
यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्॥ 1-2-326
 
 
 
भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः।
 
 
 
व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः॥ 1-2-327
 
 
 
विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः।
 
 
 
तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः॥ 1-2-328
 
 
 
आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः।
 
 
 
महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च॥ 1-2-329
 
 
 
रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्।
 
 
 
एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्॥ 1-2-330
 
 
 
भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता।
 
 
 
एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्॥ 1-2-331
 
 
 
अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु।
 
 
 
श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-332
 
 
 
ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्।
 
 
 
तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-333
 
 
 
सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः।
 
 
 
दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः॥ 1-2-334
 
 
 
चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः।
 
 
 
तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः॥ 1-2-335
 
 
 
चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः।
 
 
 
संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः॥ 1-2-336
 
 
 
अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च।
 
 
 
इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्॥ 1-2-337
 
 
 
अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः।
 
 
 
त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च॥ 1-2-338
 
 
 
विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
 
 
 
ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्॥ 1-2-339
 
 
 
यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः।
 
 
 
धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह॥ 1-2-340
 
 
 
यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा।
 
 
 
पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता॥ 1-2-341
 
 
 
यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्।
 
 
 
लोकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्॥ 1-2-342
 
 
 
ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्।
 
 
 
त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः॥ 1-2-343
 
 
 
यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः।
 
 
 
संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी॥ 1-2-344
 
 
 
ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।
 
 
 
नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्॥ 1-2-345
 
 
 
एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्।
 
 
 
द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया॥ 1-2-346
 
 
 
सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च।
 
 
 
षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-347
 
 
 
अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्।
 
 
 
यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शसहा[हता] युधि॥ 1-2-348
 
 
 
ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः।
 
 
 
आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः॥ 1-2-349
 
 
 
एरकारूपिभिर्वर्ज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्।
 
 
 
यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ।
 
 
 
नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्॥ 1-2-350
 
 
 
यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्।
 
 
 
दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः॥ 1-2-351
 
 
 
स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः।
 
 
 
ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्॥ 1-2-352
 
 
 
शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः।
 
 
 
संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः॥ 1-2-353
 
 
 
स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्।
 
 
 
ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्॥ 1-2-354
 
 
 
सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्।
 
 
 
नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रबावाणामनित्यताम्॥ 1-2-355
 
 
 
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः।
 
 
 
धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्॥ 1-2-356
 
 
 
इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्।
 
 
 
अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्॥ 1-2-357
 
 
 
श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
 
 
 
महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्॥ 1-2-358
 
 
 
यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।
 
 
 
द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः॥ 1-2-359
 
 
 
यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्।
 
 
 
यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने॥ 1-2-360
 
 
 
ददौ सम्पूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।
 
 
 
यत्र भ्रातॄन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः॥ 1-2-361
 
 
 
दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्।
 
 
 
एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्॥ 1-2-362
 
 
 
यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्।
 
 
 
विंशतिश्च तता श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-363
 
 
 
स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्।
 
 
 
प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्॥ 1-2-364
 
 
 
आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना।
 
 
 
तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः॥ 1-2-365
 
 
 
श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः।
 
 
 
स्वर्गं प्राप्तः स च तथा यातनां विपुलां भृशम्॥ 1-2-366
 
 
 
देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्।
 
 
 
शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणा गिरः॥ 1-2-367
 
 
 
निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्।
 
 
 
अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः॥ 1-2-368
 
 
 
आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्।
 
 
 
स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्॥ 1-2-269
 
 
 
मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह।
 
 
 
एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता॥ 1-2-370
 
 
 
अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन्महात्मना।
 
 
 
श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः॥ 1-2-371
 
 
 
नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा।
 
 
 
अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः॥ 1-2-372
 
 
 
खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्।
 
 
 
दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च॥ 1-2-373
 
 
 
खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा।
 
 
 
एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः॥ 1-2-374
 
 
 
अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।
 
 
 
तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375
 
 
 
यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।
 
 
 
न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376
 
 
 
अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।
 
 
 
कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना॥ 1-2-377
 
 
 
श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते।
 
 
 
पुंस्कोकिलगिरं[रुतं] श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव॥ 1-2-378
 
 
 
इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः।
 
 
 
पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः॥ 1-2-379
 
 
 
अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः।
 
 
 
अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः॥ 1-2-380
 
 
 
क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः।
 
 
 
इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः॥ 1-2-381
 
 
 
अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।
 
 
 
आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-382
 
 
 
इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते।
 
 
 
उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-383
 
 
 
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।
 
 
 
साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384
 
 
 
धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
 
 
 
अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385
 
 
 
द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
 
 
 
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386
 
 
 
यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।
 
  
महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387
 
  
यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।
+
तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः।
 +
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च॥ 1-2-41
 +
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।
 +
पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः॥ 1-2-42
 +
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।
 +
ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 1-2-43
 +
दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।
 +
ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः॥ 1-2-44
 +
ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते।
 +
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्॥ 1-2-45
 +
विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च।
 +
अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः॥ 1-2-46
 +
सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेयं[या] हरणहारिकम्[का]।
 +
ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्॥ 1-2-47
 +
सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्।
 +
जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा॥ 1-2-48
 +
पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते।
 +
ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः॥ 1-2-49
 +
द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम्।
 +
तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च॥ 1-2-50
 +
अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 +
ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्॥ 1-2-51
 +
इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 +
नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्॥ 1-2-52
 +
तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।
 +
जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्॥ 1-2-53
 +
निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।
 +
मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-54
 +
संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः।
 +
घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः॥ 1-2-55
 +
मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्यापि विचिन्तनम्।
 +
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च।
 +
द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्॥ 1-2-56
 +
पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याः चैवमद्भुतम्।
 +
रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्॥ 1-2-57
 +
कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते।
 +
आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्॥ 1-2-58
 +
पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्।
 +
कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः॥ 1-2-59
 +
अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्।
 +
उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्॥ 1-2-60
 +
ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 +
प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया॥ 1-2-61
 +
पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्।
 +
यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च॥ 1-2-62
 +
मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च।
 +
सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च॥ 1-2-63
 +
जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्।
 +
सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्॥ 1-2-64
 +
उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च।
 +
(ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः।)
 +
मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यं समभिचिन्तयन्।
 +
कीर्त्यते चाप्युपाख्यानं सैनापत्येऽभिषेचनम्।
 +
श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्।
 +
निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-65
 +
रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
 +
उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्॥ 1-2-66
 +
अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।
 +
भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते॥ 1-2-67
 +
जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
 +
भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्॥ 1-2-68
 +
दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महानृषिः।
 +
पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः।
 +
द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः॥ 1-2-69
 +
अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते।
 +
जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः॥ 1-2-70
 +
ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं रो[लो]महर्षणम्।
 +
मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-71
 +
कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्।
 +
ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्॥ 1-2-72
 +
सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्।
 +
अत ऊर्ध्वं तु बीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते॥ 1-2-73
 +
ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्।
 +
जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्॥ 1-2-74
 +
श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदै[दे]हिकम्।
 +
चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः॥ 1-2-75
 +
आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः।
 +
प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्॥ 1-2-76
 +
शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्।
 +
आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्॥ 1-2-77
 +
शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्।
 +
प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया॥ 1-2-78
 +
ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्।
 +
स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः॥ 1-2-79
 +
ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्।
 +
अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम्॥ 1-2-80
 +
पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च।
 +
नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते॥ 1-2-81
 +
मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्।
 +
महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः॥ 1-2-82
 +
हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्।
 +
विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा॥ 1-2-83
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महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388
 
  
यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे बहुश्रुताय।
+
भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्।
 +
एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना॥ 1-2-84
 +
यथावत्सूतपुत्रेण रौ[लौ]महर्षणिना ततः।
 +
उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु॥ 1-2-85
 +
समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः।
 +
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्॥ 1-2-86
 +
सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोः वधः।
 +
तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः॥ 1-2-87
 +
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।
 +
विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च॥ 1-2-88
 +
वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।
 +
हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च॥ 1-2-89
 +
मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते।
 +
पौष्ये पर्वणि महात्म्यमुद[त्त]ङ्कस्योपवर्णितम्॥ 1-2-90
 +
पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।
 +
श्लोकाग्रं सहस्रं च पञ्चाशच्छतमेव च।
 +
अध्यायानां तथाष्टौ वा आदितोऽस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 +
आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः॥ 1-2-91
 +
क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।
 +
यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च॥ 1-2-92
 +
कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम्।
 +
श्लोकाग्रं च सहस्रं च त्रिशतं चोत्तरं तथा।
 +
श्लोकाश्च चतुराशीतिः पर्वण्यस्मिंस्तथैव च।
 +
अध्यायानां ततः प्रोक्तं चत्वारिंशन्महर्षिणा।
 +
विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि॥ 1-2-93
 +
अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च।
 +
अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्॥ 1-2-94
 +
दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्।
 +
नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्॥ 1-2-95
 +
अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः।
 +
महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः॥ 1-2-96
 +
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्।
 +
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्॥ 1-2-97
 +
वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्।
 +
शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि॥ 1-2-98
 +
तेजोंऽशानां च सम्पातोभीष्मस्याप्यत्र सम्भवः।
 +
राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः॥ 1-2-99
 +
प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च।
 +
हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः॥ 1-2-100
 +
विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम्।
 +
धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा॥ 1-2-101
 +
कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।
 +
धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः॥ 1-2-102
 +
वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च।
 +
कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-103
 +
हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः।
 +
विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया॥ 1-2-104
 +
विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया।
 +
निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि॥ 1-2-105
 +
पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्।
 +
पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्॥ 1-2-106
 +
तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्।
 +
घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता॥ 1-2-107
 +
महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः।
 +
तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने॥ 1-2-108
 +
अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः।
 +
बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः॥ 1-2-109
 +
सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।
 +
ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः॥ 1-2-110
 +
द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया।
 +
पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः॥ 1-2-111
 +
अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा।
 +
सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे॥ 1-2-112
 +
तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्।
 +
भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ॥ 1-2-113
 +
पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः।
 +
द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्॥ 1-2-114
 +
भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्।
 +
शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे॥ 1-2-115
 +
दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्।
 +
शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान्रामकृष्णौ महामती॥ 1-2-116
 +
जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि।
 +
पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च॥ 1-2-117
 +
पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते।
 +
द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः॥ 1-2-118
 +
क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
 +
विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च॥ 1-2-119
 +
खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धशास[सर्ज]नम्।
 +
नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया॥ 1-2-120
 +
सुन्दोपसुन्दयोः तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्।
 +
अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्॥ 1-2-121
 +
अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्।
 +
मोक्षियित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः॥ 1-2-122
 +
समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह।
 +
पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः॥ 1-2-123
 +
पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च।
 +
तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः॥ 1-2-124
 +
शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः।
 +
प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः॥ 1-2-125
 +
द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।
 +
वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना॥ 1-2-126
 +
गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।
 +
अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः॥ 1-2-127
 +
द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।
 +
विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु॥ 1-2-128
 +
सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्।
 +
भयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्॥ 1-2-129
 +
महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्यां तनयसम्भवः।
 +
इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम्॥ 1-2-130
 +
अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।
 +
सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा॥ 1-2-131
 +
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च।
 +
श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना॥ 1-2-132
 +
द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते।
 +
सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्॥ 1-2-133
 +
लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः।
 +
राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा॥ 1-2-134
 +
गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्।
 +
तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः॥ 1-2-135
 +
राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ।
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राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा॥ 1-2-136
 +
यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च।
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दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले॥ 1-2-137
 +
यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।
 +
यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्॥ 1-2-138
 +
यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्।
 +
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्॥ 1-2-139
 +
तारयामास तांस्तीर्णान्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः।
 +
पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्॥ 1-2-140
 +
जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः।
 +
एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना॥ 1-2-141
 +
अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया।
 +
श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च॥ 1-2-142
 +
श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः।
 +
अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्॥ 1-2-143
 +
वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
 +
पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-144
 +
अत्रौ[न्नौ]षधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना।
 +
द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः॥ 1-2-145
 +
धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः।
 +
मैत्रेयशापोत्सर्गश्च विदुरस्य प्रवासनम्।
 +
हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्॥ 1-2-146
 +
त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।
 +
पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्॥ 1-2-147
 +
कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
 +
वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-148
 +
तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्।
 +
निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च॥ 1-2-149
 +
मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्।
 +
शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-150
 +
किम्मी[र्मी]रस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।
 +
पाण्डवानां च सर्वेषां सहाख्यानं तथैव च।
 +
पाञ्चालागमनं चैव द्रोपद्याश्चाश्रुमोक्षणम्।
 +
वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः॥ 1-2-151
 +
श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्।
 +
क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना॥ 1-2-152
 +
परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ।
 +
आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्॥ 1-2-153
 +
तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा।
 +
सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्॥ 1-2-154
 +
नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।
 +
प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः॥ 1-2-155
 +
धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह।
 +
संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः॥ 1-2-156
 +
समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा।
 +
प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा॥ 1-2-157
 +
गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।
 +
अस्त्रहेतोविवासश्च पार्थस्यामिततेजसः॥ 1-2-158
 +
महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह।
 +
दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च॥ 1-2-159
 +
महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः।
 +
यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी॥ 1-2-160
 +
दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः।
 +
युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम्॥ 1-2-161
 +
नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्।
 +
दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा॥ 1-2-162
 +
तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।
 +
रो[लो]मशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति॥ 1-2-163
 +
वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्।
 +
स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता रो[लो]मशेनार्जुनस्य वै॥ 1-2-164
 +
संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।
 +
तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्॥ 1-2-165
 +
पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।
 +
तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-166
 +
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
 +
तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता॥ 1-2-167
 +
आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्।
 +
लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा॥ 1-2-168
 +
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनन्तरम्।
 +
इन्द्रोऽग्निर्यत्र धर्मश्च अजिज्ञासन्शिबिं नृपम्।
 +
ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
 +
ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
 +
जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः॥ 1-2-169
 +
कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते।
 +
तीर्थयात्रा तथैवात्र पाण्डवानां महात्मनाम्।
 +
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
 +
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रोपद्या गन्धमादने।
 +
यत्र मन्दारपुष्पार्थं नलिनीं तामधर्षयत्।
 +
यत्रास्य सुमहद्युद्धं अभवद्राक्षसैः सह।
 +
यक्षैश्चापि महावीर्यैः मणिमत्प्रमुखैस्तथा।
 +
प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः॥ 1-2-170
 +
सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः।
 +
शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीति[थि]नौ॥ 1-2-171
 +
ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः।
 +
मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम्॥ 1-2-172
 +
जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।
 +
पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः।
 +
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-173
 +
इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थं शिबिं नृपम्।
 +
अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना॥ 1-2-174
 +
अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्।
 +
नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च॥ 1-2-175
 +
पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना।
 +
विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः॥ 1-2-176
 +
अजासुरस्य चात्रैव वयः समुपवर्ण्यते।
 +
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना।
 +
निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः।
 +
समागमश्च पार्थस्य भ्रातृभिर्गन्धमादने।
 +
घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र युद्धं किरीटिनः
 +
यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः।
 +
गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे॥ 1-2-177
 +
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने।
 +
व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्॥ 1-2-178
 +
कदलीष[ख]ण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्।
 +
यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनीं तामधर्षयत्॥ 1-2-179
 +
यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह।
 +
यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा॥ 1-2-180
 +
जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्।
 +
वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्॥
 +
आर्ष्टिषेण आश्रमे चैषां गमनं वास एव च।
 +
प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः॥
 +
कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः।
 +
युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह॥
 +
समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च।)
 +
समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह।
 +
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना॥ 1-2-181
 +
निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुर वासिभिः।
 +
निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः॥ 1-2-182
 +
पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः।
 +
वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता॥ 1-2-183
 +
अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ।
 +
पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-2-184
 +
अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्।
 +
भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा॥ 1-2-185
 +
भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने।
 +
अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः॥ 1-2-186
 +
काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्।
 +
तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्पुरुषर्षभान्॥ 1-2-187
 +
वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्।
 +
मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः॥ 1-2-188
 +
पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा।
 +
संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः॥ 1-2-189
 +
मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्।
 +
मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते॥ 1-2-190
 +
ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च।
 +
पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्॥ 1-2-191
 +
द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया।
 +
पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः॥ 1-2-192
 +
घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः।
 +
ह्रियमाणस्तुमन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटीना॥ 1-2-193
 +
धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम्।
 +
काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते॥ 1-2-194
 +
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।
 +
दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-195
 +
जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्।
 +
यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे॥ 1-2-196
 +
चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः।
 +
रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्॥ 1-2-197
 +
यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि।
 +
सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-198
 +
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
 +
यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽदादेकवीर[तुष्टोऽसावदादेक]वधाय च॥ 1-2-199
 +
आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्।
 +
जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्॥ 1-2-200
 +
एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्।
 +
अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते॥ 1-2-201
 +
एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः।
 +
एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट्शतानि च॥ 1-2-202
 +
चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 +
अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्॥ 1-2-203
 +
विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्।
 +
दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत॥ 1-2-204
 +
यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते।
 +
पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः॥ 1-2-205
 +
दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्।
 +
पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-206
 +
चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम्।
 +
न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-207
 +
गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः।
 +
यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासीद्रो[ल्लो]महर्षणम्॥ 1-2-208
 +
ह्रियमाणश्चि यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः।
 +
गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः॥ 1-2-209
 +
अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्।
 +
समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि॥ 1-2-210
 +
प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना।
 +
विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः॥ 1-2-211
 +
अभिमन्युं समुद्दिस्य सौभद्रमरिघातिनम्।
 +
चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्॥ 1-2-212
 +
अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा।
 +
सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु॥ 1-2-213
 +
श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।
 +
उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा॥ 1-2-214
 +
उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्।
 +
उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया॥ 1-2-215
 +
दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ।
 +
साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति॥ 1-2-216
 +
इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः।
 +
अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ॥ 1-2-217
 +
अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्।
 +
वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः॥ 1-2-218
 +
अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनञ्जयः।
 +
मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-219
 +
उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः।
 +
वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम॥ 1-2-220
 +
शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्।
 +
शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः॥ 1-2-221
 +
पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति।
 +
वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः॥ 1-2-222
 +
तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः।
 +
संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-223
 +
यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।
 +
श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्॥ 1-2-224
 +
प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।
 +
विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च॥ 1-2-225
 +
श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
 +
तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्॥ 1-2-226
 +
मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।
 +
प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः॥ 1-2-227
 +
ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च।
 +
यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन्महामतिः॥ 1-2-228
 +
स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्।
 +
प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै॥ 1-2-229
 +
शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्।
 +
दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-230
 +
वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः।
 +
महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै॥ 1-2-231
 +
विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्।
 +
कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्॥ 1-2-232
 +
योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्।
 +
रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः।
 +
उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः॥ 1-2-233
 +
आगम्य हास्तिनापुरादुपप्लव्यमरिन्दमः।
 +
पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः॥ 1-2-234
 +
ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्।
 +
सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः॥ 1-2-235
 +
ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः।
 +
नगराद्धास्तिनपुराद्बलसंख्यानमेव च॥ 1-2-236
 +
यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
 +
श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः॥ 1-2-237
 +
रथातिरथसंख्यानमम्बोबाख्यानमेव च।
 +
एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते॥ 1-2-238
 +
उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम्।
 +
अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा॥ 1-2-239
 +
श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।
 +
श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना॥ 1-2-240
 +
व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।
 +
अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते॥ 1-2-241
 +
जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।
 +
यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्॥ 1-2-242
 +
यत्र युद्धमभूद्घोरं दशाहानि सुदारुणम्।
 +
कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः॥ 1-2-243
 +
मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः।
 +
समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः॥ 1-2-244
 +
रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः।
 +
प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः॥ 1-2-245
 +
वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः।
 +
गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 1-2-246
 +
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः।
 +
विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्॥ 1-2-247
 +
शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह।
 +
षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्॥ 1-2-248
 +
अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे।
 +
पञ्चश्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च॥ 1-2-249
 +
श्लोकश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः।
 +
व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि॥ 1-2-250
 +
द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते।
 +
सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्॥ 1-2-251
 +
दूर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।
 +
ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-252
 +
यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्।
 +
भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि॥ 1-2-253
 +
सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।
 +
यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः॥ 1-2-254
 +
जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्।
 +
हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे॥ 1-2-255
 +
अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।
 +
यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः॥ 1-2-256
 +
अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया।
 +
प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि॥ 1-2-257
 +
संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे।
 +
(संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्॥
 +
किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्।
 +
धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः॥
 +
नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।)
 +
अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्॥ 1-2-258
 +
सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।
 +
घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि॥ 1-2-259
 +
अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते।
 +
अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः॥ 1-2-260
 +
आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्।
 +
व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः॥ 1-2-261
 +
सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्।
 +
यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः॥ 1-2-262
 +
द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः।
 +
अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः॥ 1-2-263
 +
अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च।
 +
श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-264
 +
पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि।
 +
अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्॥ 1-2-265
 +
सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः।
 +
आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम्॥ 1-2-266
 +
प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः।
 +
हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्॥ 1-2-267
 +
वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना।
 +
दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा॥ 1-2-268
 +
द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।
 +
संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्॥ 1-2-269
 +
अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः।
 +
यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि॥ 1-2-270
 +
प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च।
 +
भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे॥ 1-2-271
 +
द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः।
 +
अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः॥ 1-2-272
 +
एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि।
 +
चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च॥ 1-2-273
 +
चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 +
अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्॥ 1-2-274
 +
हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्।
 +
यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥ 1-2-275
 +
वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः।
 +
विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते॥ 1-2-276
 +
शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः।
 +
शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे॥ 1-2-277
 +
सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः।
 +
ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः॥ 1-2-278
 +
प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः।
 +
क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः।
 +
ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः॥ 1-2-279
 +
भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह।
 +
समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्॥ 1-2-280
 +
सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता।
 +
गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-281
 +
दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे।
 +
ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया॥ 1-2-282
 +
नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्।
 +
एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः॥ 1-2-283
 +
संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते।
 +
त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा॥ 1-2-284
 +
मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता।
 +
अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्॥ 1-2-285
 +
भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्।
 +
अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः॥ 1-2-286
 +
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्।
 +
समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि॥ 1-2-287
 +
प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः।
 +
अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-288
 +
पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनम्।
 +
यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः॥ 1-2-289
 +
सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्।
 +
न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः॥ 1-2-290
 +
ततः काकान्बहून्रात्रौदृष्ट्वोलूकेनहिंसितान्।
 +
द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्॥ 1-2-291
 +
पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे।
 +
गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दशं तत्र राक्षसम्॥ 1-2-292
 +
घोरूपमपश्यत्स दिवमावृत्य धिष्ठितम्।
 +
तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च॥ 1-2-293
 +
द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः।
 +
प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-294
 +
पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
 +
कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्॥ 1-2-295
 +
यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्।
 +
सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः॥ 1-2-296
 +
पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः।
 +
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः॥ 1-2-297
 +
द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता।
 +
कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तॄनुपाविशत्॥ 1-2-298
 +
द्रौपदीवचनात्यत्र भीमो भीमपराक्रमः।
 +
प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्॥ 1-2-299
 +
अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्।
 +
भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः॥ 1-2-300
 +
अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत्।
 +
मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः॥ 1-2-301
 +
यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः।
 +
द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा॥ 1-2-302
 +
द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः।
 +
मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्॥ 1-2-303
 +
पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः।
 +
एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्॥ 1-2-304
 +
अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना।
 +
श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-305
 +
श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना।
 +
सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा॥ 1-2-306
 +
अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्।
 +
पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः॥ 1-2-307
 +
कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्।
 +
भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्ज ह॥ 1-2-308
 +
तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
 +
संसारगहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः॥ 1-2-309
 +
विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्।
 +
धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा॥ 1-2-310
 +
सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्।
 +
विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः॥ 1-2-311
 +
क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः।
 +
यत्र तान्क्षत्रियान्शूरान्संग्रामेष्वनिवर्तिनः॥ 1-2-312
 +
पुत्रान्भ्रातॄन्पितृंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे।
 +
पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता॥ 1-2-313
 +
गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया।
 +
यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः॥ 1-2-314
 +
राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।
 +
तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके॥ 1-2-315
 +
गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः।
 +
सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा॥ 1-2-316
 +
एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्।
 +
प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्॥ 1-2-317
 +
सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
 +
श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता॥ 1-2-318
 +
संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता।
 +
अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्॥ 1-2-319
 +
यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
 +
घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्सम्बन्धिमातुलान्॥ 1-2-320
 +
शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः।
 +
राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञात[न]बुभुत्सुभिः॥ 1-2-321
 +
आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः।
 +
यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्॥ 1-2-322
 +
मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः।
 +
द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्॥ 1-2-323
 +
अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्।
 +
त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः॥ 1-2-324
 +
चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च।
 +
सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया॥ 1-2-325
 +
अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्।
 +
यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्॥ 1-2-326
 +
भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः।
 +
व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः॥ 1-2-327
 +
विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः।
 +
तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः॥ 1-2-328
 +
आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः।
 +
महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च॥ 1-2-329
 +
रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्।
 +
एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्॥ 1-2-330
 +
भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता।
 +
एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्॥ 1-2-331
 +
अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु।
 +
श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-332
 +
ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्।
 +
तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-333
 +
सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः।
 +
दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः॥ 1-2-334
 +
चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः।
 +
तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः॥ 1-2-335
 +
चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः।
 +
संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः॥ 1-2-336
 +
अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च।
 +
इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्॥ 1-2-337
 +
अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः।
 +
त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च॥ 1-2-338
 +
विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
 +
ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्॥ 1-2-339
 +
यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः।
 +
धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह॥ 1-2-340
 +
यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा।
 +
पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता॥ 1-2-341
 +
यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्।
 +
लोकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्॥ 1-2-342
 +
ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्।
 +
त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः॥ 1-2-343
 +
यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः।
 +
संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी॥ 1-2-344
 +
ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।
 +
नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्॥ 1-2-345
 +
एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्।
 +
द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया॥ 1-2-346
 +
सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च।
 +
षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-347
 +
अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्।
 +
यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शसहा[हता] युधि॥ 1-2-348
 +
ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः।
 +
आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः॥ 1-2-349
 +
एरकारूपिभिर्वर्ज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्।
 +
यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ।
 +
नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्॥ 1-2-350
 +
यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्।
 +
दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः॥ 1-2-351
 +
स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः।
 +
ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्॥ 1-2-352
 +
शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः।
 +
संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः॥ 1-2-353
 +
स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्।
 +
ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्॥ 1-2-354
 +
सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्।
 +
नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रबावाणामनित्यताम्॥ 1-2-355
 +
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः।
 +
धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्॥ 1-2-356
 +
इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्।
 +
अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्॥ 1-2-357
 +
श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
 +
महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्॥ 1-2-358
 +
यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।
 +
द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः॥ 1-2-359
 +
यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्।
 +
यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने॥ 1-2-360
 +
ददौ सम्पूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।
 +
यत्र भ्रातॄन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः॥ 1-2-361
 +
दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्।
 +
एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्॥ 1-2-362
 +
यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्।
 +
विंशतिश्च तता श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-363
 +
स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्।
 +
प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्॥ 1-2-364
 +
आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना।
 +
तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः॥ 1-2-365
 +
श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः।
 +
स्वर्गं प्राप्तः स च तथा यातनां विपुलां भृशम्॥ 1-2-366
 +
देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्।
 +
शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणा गिरः॥ 1-2-367
 +
निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्।
 +
अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः॥ 1-2-368
 +
आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्।
 +
स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्॥ 1-2-269
 +
मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह।
 +
एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता॥ 1-2-370
 +
अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन्महात्मना।
 +
श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः॥ 1-2-371
 +
नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा।
 +
अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः॥ 1-2-372
 +
खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्।
 +
दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च॥ 1-2-373
 +
खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा।
 +
एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः॥ 1-2-374
 +
अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।
 +
तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375
 +
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पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389
 
  
आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण।
+
यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।
 +
न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376
 +
अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।
 +
कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना॥ 1-2-377
 +
श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते।
 +
पुंस्कोकिलगिरं[रुतं] श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव॥ 1-2-378
 +
इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः।
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पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः॥ 1-2-379
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अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः।
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अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः॥ 1-2-380
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क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः।
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इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः॥ 1-2-381
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अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।
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आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-382
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इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते।
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उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-383
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अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।
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साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384
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धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
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अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385
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द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
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यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386
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यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।
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महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387
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यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।
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महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388
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श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390
 
  
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥
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यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय।
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पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389
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आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण।
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श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390
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इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥
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Latest revision as of 01:19, 23 July 2019

ऋषय ऊचुः

श[स]मन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन।

एतत्सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम्॥ 1-2-1

सौतिरुवाच

शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः।

श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2

त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः।
असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः॥ 1-2-3
स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः।
श[स]मन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान्ह्रदान्॥ 1-2-4
स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः।
पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्॥ 1-2-5
अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्।
राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव॥ 1-2-6
अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो।
वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते॥ 1-2-7
राम उवाच
यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि।
यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया॥ 1-2-8
अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः।
ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः॥ 1-2-9
एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्।
तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह॥ 1-2-10
तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्।
श[स]मन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्॥ 1-2-11
येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते।
तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः॥ 1-2-12
अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्।
श[स]मन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-13
तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते।
अष्टादश समाजग्मुः अक्षौहिण्यो युयुत्सया॥ 1-2-14
समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः।
एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः॥ 1-2-15
पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः।
तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16
यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।
significance of Kurukshetra story of Kurukshetra story Kurukshetra कुरुक्षेत्र का महत्व कुरुक्षेत्र की कथा कुरुक्षेत्र नाम कैसे पड़ा कुरुक्षेत्र नाम कैसे पड़ा समन्तपन्चक नाम की कथा नामसमन्तपन्चक कुरुक्षेत्र कथा महत्त्व
ऋषयः ऊचुः
अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन॥ 1-2-17
एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम्।
अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्॥ 1-2-18
यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव।
सौतिरुवाच
एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः॥ 1-2-19
त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः॥ 1-2-20
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते।
त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः॥ 1-2-21
स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः।
चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्वस्त्वनीकीनी॥ 1-2-22
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः।
अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः॥ 1-2-23
संख्या गणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः।
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः॥ 1-2-24
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्।
ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु॥ 1-2-25
नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः।
पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च॥ 1-2-26
दशोत्तराणि षट्प्राहुर्यथावदिह संख्यया।
एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वविदो जनाः॥ 1-2-27
यथा[यां वः] कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः।
एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-28
Akshauhani description  Akshauhanidescription  army unit description  army unit सेना का माप अक्षोहिणी का वर्णन अक्षोहिणी माप  वर्णन
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः॥ 1-2-29
कौरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा।
अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्॥ 1-2-30
अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम्।
अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः॥ 1-2-31
शल्यःअर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम्।
दुर्योधनस्य भीमस्य दिनार्धमभवत्तयोः॥ 1-2-32
तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः।
प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्यौधिष्ठिरं बलम्॥ 1-2-33
यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्।
जनमेजयस्य तत्सत्रे व्यासशिष्येण धीमता॥ 1-2-34
कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्यं महीक्षिताम्।
पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम्॥ 1-2-35
विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम्।
प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः॥ 1-2-36
आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्।
इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्॥ 1-2-37
अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।
आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-38
तदेतद्भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते।
उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-39
इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा।
स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्॥ 1-2-40
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तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः।
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च॥ 1-2-41
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।
पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः॥ 1-2-42
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।
ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 1-2-43
दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।
ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः॥ 1-2-44
ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते।
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्॥ 1-2-45
विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च।
अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः॥ 1-2-46
सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेयं[या] हरणहारिकम्[का]।
ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्॥ 1-2-47
सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्।
जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा॥ 1-2-48
पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते।
ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः॥ 1-2-49
द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम्।
तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च॥ 1-2-50
अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्॥ 1-2-51
इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्॥ 1-2-52
तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।
जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्॥ 1-2-53
निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।
मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-54
संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः।
घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः॥ 1-2-55
मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्यापि विचिन्तनम्।
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च।
द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्॥ 1-2-56
पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याः चैवमद्भुतम्।
रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्॥ 1-2-57
कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते।
आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्॥ 1-2-58
पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्।
कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः॥ 1-2-59
अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्।
उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्॥ 1-2-60
ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्।
प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया॥ 1-2-61
पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्।
यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च॥ 1-2-62
मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च।
सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च॥ 1-2-63
जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्।
सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्॥ 1-2-64
उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च।
(ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः।)
मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यं समभिचिन्तयन्।
कीर्त्यते चाप्युपाख्यानं सैनापत्येऽभिषेचनम्।
श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्।
निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-65
रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्॥ 1-2-66
अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।
भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते॥ 1-2-67
जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्।
भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्॥ 1-2-68
दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महानृषिः।
पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः।
द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः॥ 1-2-69
अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते।
जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः॥ 1-2-70
ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं रो[लो]महर्षणम्।
मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते॥ 1-2-71
कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्।
ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्॥ 1-2-72
सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्।
अत ऊर्ध्वं तु बीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते॥ 1-2-73
ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्।
जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्॥ 1-2-74
श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदै[दे]हिकम्।
चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः॥ 1-2-75
आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः।
प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्॥ 1-2-76
शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्।
आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्॥ 1-2-77
शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्।
प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया॥ 1-2-78
ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्।
स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः॥ 1-2-79
ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्।
अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम्॥ 1-2-80
पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च।
नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते॥ 1-2-81
मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्।
महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः॥ 1-2-82
हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्।
विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा॥ 1-2-83
importance of mahabharata  index 
chapters  parv  sections
महाभारत पर्वो  संग्रह   सूची


भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्।
एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना॥ 1-2-84
यथावत्सूतपुत्रेण रौ[लौ]महर्षणिना ततः।
उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु॥ 1-2-85
समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः।
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्॥ 1-2-86
सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोः वधः।
तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः॥ 1-2-87
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।
विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च॥ 1-2-88
वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।
हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च॥ 1-2-89
मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते।
पौष्ये पर्वणि महात्म्यमुद[त्त]ङ्कस्योपवर्णितम्॥ 1-2-90
पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।
श्लोकाग्रं च सहस्रं च पञ्चाशच्छतमेव च।
अध्यायानां तथाष्टौ वा आदितोऽस्मिन्प्रकीर्तिताः।
आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः॥ 1-2-91
क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।
यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च॥ 1-2-92
कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम्।
श्लोकाग्रं च सहस्रं च त्रिशतं चोत्तरं तथा।
श्लोकाश्च चतुराशीतिः पर्वण्यस्मिंस्तथैव च।
अध्यायानां ततः प्रोक्तं चत्वारिंशन्महर्षिणा।
विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि॥ 1-2-93
अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च।
अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्॥ 1-2-94
दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्।
नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्॥ 1-2-95
अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः।
महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः॥ 1-2-96
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्।
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्॥ 1-2-97
वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्।
शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि॥ 1-2-98
तेजोंऽशानां च सम्पातोभीष्मस्याप्यत्र सम्भवः।
राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः॥ 1-2-99
प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च।
हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः॥ 1-2-100
विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम्।
धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा॥ 1-2-101
कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।
धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः॥ 1-2-102
वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च।
कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-103
हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः।
विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया॥ 1-2-104
विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया।
निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि॥ 1-2-105
पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्।
पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्॥ 1-2-106
तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्।
घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता॥ 1-2-107
महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः।
तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने॥ 1-2-108
अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः।
बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः॥ 1-2-109
सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।
ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः॥ 1-2-110
द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया।
पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः॥ 1-2-111
अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा।
सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे॥ 1-2-112
तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्।
भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ॥ 1-2-113
पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः।
द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्॥ 1-2-114
भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्।
शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे॥ 1-2-115
दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्।
शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान्रामकृष्णौ महामती॥ 1-2-116
जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि।
पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च॥ 1-2-117
पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते।
द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः॥ 1-2-118
क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च॥ 1-2-119
खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धशास[सर्ज]नम्।
नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया॥ 1-2-120
सुन्दोपसुन्दयोः तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्।
अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्॥ 1-2-121
अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्।
मोक्षियित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः॥ 1-2-122
समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह।
पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः॥ 1-2-123
पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च।
तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः॥ 1-2-124
शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः।
प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः॥ 1-2-125
द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।
वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना॥ 1-2-126
गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।
अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः॥ 1-2-127
द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।
विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु॥ 1-2-128
सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्।
भयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्॥ 1-2-129
महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्यां तनयसम्भवः।
इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम्॥ 1-2-130
अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।
सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा॥ 1-2-131
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च।
श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना॥ 1-2-132
द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते।
सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्॥ 1-2-133
लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः।
राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा॥ 1-2-134
गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्।
तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः॥ 1-2-135
राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ।
राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा॥ 1-2-136
यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च।
दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले॥ 1-2-137
यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।
यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्॥ 1-2-138
यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्॥ 1-2-139
तारयामास तांस्तीर्णान्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः।
पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्॥ 1-2-140
जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः।
एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना॥ 1-2-141
अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया।
श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च॥ 1-2-142
श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः।
अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्॥ 1-2-143
वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-144
अत्रौ[न्नौ]षधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना।
द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः॥ 1-2-145
धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः।
मैत्रेयशापोत्सर्गश्च विदुरस्य प्रवासनम्।
हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्॥ 1-2-146
त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।
पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्॥ 1-2-147
कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-148
तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्।
निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च॥ 1-2-149
मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्।
शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-150 
किम्मी[र्मी]रस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।
पाण्डवानां च सर्वेषां सहाख्यानं तथैव च।
पाञ्चालागमनं चैव द्रोपद्याश्चाश्रुमोक्षणम्।
वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः॥ 1-2-151
श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्।
क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना॥ 1-2-152
परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ।
आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्॥ 1-2-153
तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा।
सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्॥ 1-2-154
नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।
प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः॥ 1-2-155
धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह।
संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः॥ 1-2-156
समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा।
प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा॥ 1-2-157
गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।
अस्त्रहेतोविवासश्च पार्थस्यामिततेजसः॥ 1-2-158
महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह।
दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च॥ 1-2-159
महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः।
यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी॥ 1-2-160
दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः।
युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम्॥ 1-2-161
नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्।
दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा॥ 1-2-162
तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।
रो[लो]मशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति॥ 1-2-163
वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्।
स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता रो[लो]मशेनार्जुनस्य वै॥ 1-2-164
संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।
तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्॥ 1-2-165
पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।
तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-166
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता॥ 1-2-167
आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्।
लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा॥ 1-2-168
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनन्तरम्।
इन्द्रोऽग्निर्यत्र धर्मश्च अजिज्ञासन्शिबिं नृपम्।
ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।
जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः॥ 1-2-169
कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते।
तीर्थयात्रा तथैवात्र पाण्डवानां महात्मनाम्।
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रोपद्या गन्धमादने।
यत्र मन्दारपुष्पार्थं नलिनीं तामधर्षयत्।
यत्रास्य सुमहद्युद्धं अभवद्राक्षसैः सह।
यक्षैश्चापि महावीर्यैः मणिमत्प्रमुखैस्तथा।
प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः॥ 1-2-170
सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः।
शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीति[थि]नौ॥ 1-2-171
ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः।
मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम्॥ 1-2-172
जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।
पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः।
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-173
इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थं शिबिं नृपम्।
अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना॥ 1-2-174
अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्।
नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च॥ 1-2-175
पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना।
विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः॥ 1-2-176
अजासुरस्य चात्रैव वयः समुपवर्ण्यते।
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना।
निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः।
समागमश्च पार्थस्य भ्रातृभिर्गन्धमादने।
घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र युद्धं किरीटिनः
यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः।
गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे॥ 1-2-177
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने।
व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्॥ 1-2-178
कदलीष[ख]ण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्।
यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनीं तामधर्षयत्॥ 1-2-179
यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह।
यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा॥ 1-2-180
जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्।
वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्॥
आर्ष्टिषेण आश्रमे चैषां गमनं वास एव च।
प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः॥
कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः।
युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह॥
समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च।)
समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह।
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना॥ 1-2-181
निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुर वासिभिः।
निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः॥ 1-2-182
पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः।
वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता॥ 1-2-183
अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ।
पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा॥ 1-2-184
अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्।
भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा॥ 1-2-185
भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने।
अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः॥ 1-2-186
काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्।
तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्पुरुषर्षभान्॥ 1-2-187
वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्।
मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः॥ 1-2-188
पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा।
संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः॥ 1-2-189
मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्।
मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते॥ 1-2-190
ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च।
पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्॥ 1-2-191
द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया।
पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः॥ 1-2-192
घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः।
ह्रियमाणस्तुमन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटीना॥ 1-2-193
धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम्।
काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते॥ 1-2-194
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।
दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-195
जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्।
यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे॥ 1-2-196
चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः।
रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्॥ 1-2-197
यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि।
सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-198
कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्।
यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽदादेकवीर[तुष्टोऽसावदादेक]वधाय च॥ 1-2-199
आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्।
जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्॥ 1-2-200
एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्।
अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते॥ 1-2-201
एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः।
एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट्शतानि च॥ 1-2-202
चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्॥ 1-2-203
विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्।
दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत॥ 1-2-204
यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते।
पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः॥ 1-2-205
दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्।
पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च॥ 1-2-206
चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम्।
न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्॥ 1-2-207
गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः।
यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासीद्रो[ल्लो]महर्षणम्॥ 1-2-208
ह्रियमाणश्चि यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः।
गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः॥ 1-2-209
अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्।
समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि॥ 1-2-210
प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना।
विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः॥ 1-2-211
अभिमन्युं समुद्दिस्य सौभद्रमरिघातिनम्।
चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्॥ 1-2-212
अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा।
सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु॥ 1-2-213
श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।
उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा॥ 1-2-214
उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्।
उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया॥ 1-2-215
दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ।
साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति॥ 1-2-216
इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः।
अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ॥ 1-2-217
अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्।
वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः॥ 1-2-218
अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनञ्जयः।
मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-219
उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः।
वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम॥ 1-2-220
शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्।
शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः॥ 1-2-221
पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति।
वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः॥ 1-2-222
तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः।
संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति॥ 1-2-223
यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।
श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्॥ 1-2-224
प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।
विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च॥ 1-2-225
श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्॥ 1-2-226
मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।
प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः॥ 1-2-227
ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च।
यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन्महामतिः॥ 1-2-228
स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्।
प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै॥ 1-2-229
शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्।
दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-230
वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः।
महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै॥ 1-2-231
विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्।
कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्॥ 1-2-232
योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्।
रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः।
उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः॥ 1-2-233
आगम्य हास्तिनापुरादुपप्लव्यमरिन्दमः।
पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः॥ 1-2-234
ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्।
सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः॥ 1-2-235
ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः।
नगराद्धास्तिनपुराद्बलसंख्यानमेव च॥ 1-2-236
यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।
श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः॥ 1-2-237
रथातिरथसंख्यानमम्बोबाख्यानमेव च।
एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते॥ 1-2-238
उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम्।
अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा॥ 1-2-239
श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।
श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना॥ 1-2-240
व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।
अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते॥ 1-2-241
जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।
यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्॥ 1-2-242
यत्र युद्धमभूद्घोरं दशाहानि सुदारुणम्।
कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः॥ 1-2-243
मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः।
समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः॥ 1-2-244
रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः।
प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः॥ 1-2-245
वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः।
गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 1-2-246
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः।
विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्॥ 1-2-247
शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह।
षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्॥ 1-2-248
अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे।
पञ्चश्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च॥ 1-2-249
श्लोकश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः।
व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि॥ 1-2-250
द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते।
सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्॥ 1-2-251
दूर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।
ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः॥ 1-2-252
यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्।
भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि॥ 1-2-253
सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।
यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः॥ 1-2-254
जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्।
हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे॥ 1-2-255
अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।
यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः॥ 1-2-256
अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया।
प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि॥ 1-2-257
संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे।
(संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्॥
किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्।
धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः॥
नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।)
अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्॥ 1-2-258
सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।
घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि॥ 1-2-259
अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते।
अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः॥ 1-2-260
आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्।
व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः॥ 1-2-261
सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्।
यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः॥ 1-2-262
द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः।
अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः॥ 1-2-263
अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च।
श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-264
पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि।
अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्॥ 1-2-265
सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः।
आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम्॥ 1-2-266
प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः।
हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्॥ 1-2-267
वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना।
दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा॥ 1-2-268
द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।
संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्॥ 1-2-269
अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः।
यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि॥ 1-2-270
प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च।
भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे॥ 1-2-271
द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः।
अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः॥ 1-2-272
एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि।
चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च॥ 1-2-273
चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्॥ 1-2-274
हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्।
यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥ 1-2-275
वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः।
विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते॥ 1-2-276
शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः।
शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे॥ 1-2-277
सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः।
ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः॥ 1-2-278
प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः।
क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः।
ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः॥ 1-2-279
भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह।
समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्॥ 1-2-280
सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता।
गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्॥ 1-2-281
दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे।
ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया॥ 1-2-282
नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्।
एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः॥ 1-2-283
संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते।
त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा॥ 1-2-284
मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता।
अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्॥ 1-2-285
भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्।
अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः॥ 1-2-286
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्।
समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि॥ 1-2-287
प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः।
अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-288
पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनम्।
यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः॥ 1-2-289
सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्।
न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः॥ 1-2-290
ततः काकान्बहून्रात्रौदृष्ट्वोलूकेनहिंसितान्।
द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्॥ 1-2-291
पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे।
गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दशं तत्र राक्षसम्॥ 1-2-292
घोरूपमपश्यत्स दिवमावृत्य धिष्ठितम्।
तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च॥ 1-2-293
द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः।
प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्॥ 1-2-294
पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्॥ 1-2-295
यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्।
सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः॥ 1-2-296
पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः।
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः॥ 1-2-297
द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता।
कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तॄनुपाविशत्॥ 1-2-298
द्रौपदीवचनात्यत्र भीमो भीमपराक्रमः।
प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्॥ 1-2-299
अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्।
भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः॥ 1-2-300
अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत्।
मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः॥ 1-2-301
यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः।
द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा॥ 1-2-302
द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः।
मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्॥ 1-2-303
पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः।
एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्॥ 1-2-304
अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना।
श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-305
श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना।
सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा॥ 1-2-306
अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्।
पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः॥ 1-2-307
कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्।
भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्ज ह॥ 1-2-308
तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
संसारगहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः॥ 1-2-309
विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्।
धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा॥ 1-2-310
सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्।
विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः॥ 1-2-311
क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः।
यत्र तान्क्षत्रियान्शूरान्संग्रामेष्वनिवर्तिनः॥ 1-2-312
पुत्रान्भ्रातॄन्पितृंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे।
पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता॥ 1-2-313
गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया।
यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः॥ 1-2-314
राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।
तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके॥ 1-2-315
गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः।
सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा॥ 1-2-316
एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्।
प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्॥ 1-2-317
सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।
श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता॥ 1-2-318
संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता।
अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्॥ 1-2-319
यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्सम्बन्धिमातुलान्॥ 1-2-320
शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः।
राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञात[न]बुभुत्सुभिः॥ 1-2-321
आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः।
यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्॥ 1-2-322
मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः।
द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्॥ 1-2-323
अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्।
त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः॥ 1-2-324
चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च।
सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया॥ 1-2-325
अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्।
यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्॥ 1-2-326
भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः।
व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः॥ 1-2-327
विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः।
तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः॥ 1-2-328
आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः।
महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च॥ 1-2-329
रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्।
एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्॥ 1-2-330
भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता।
एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्॥ 1-2-331
अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु।
श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया॥ 1-2-332
ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्।
तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्॥ 1-2-333
सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः।
दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः॥ 1-2-334
चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः।
तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः॥ 1-2-335
चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः।
संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः॥ 1-2-336
अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च।
इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्॥ 1-2-337
अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः।
त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च॥ 1-2-338
विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्॥ 1-2-339
यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः।
धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह॥ 1-2-340
यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा।
पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता॥ 1-2-341
यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्।
लोकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्॥ 1-2-342
ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्।
त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः॥ 1-2-343
यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः।
संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी॥ 1-2-344
ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।
नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्॥ 1-2-345
एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्।
द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया॥ 1-2-346
सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च।
षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-347
अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्।
यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शसहा[हता] युधि॥ 1-2-348
ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः।
आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः॥ 1-2-349
एरकारूपिभिर्वर्ज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्।
यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ।
नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्॥ 1-2-350
यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्।
दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः॥ 1-2-351
स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः।
ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्॥ 1-2-352
शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः।
संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः॥ 1-2-353
स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्।
ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्॥ 1-2-354
सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्।
नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रबावाणामनित्यताम्॥ 1-2-355
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः।
धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्॥ 1-2-356
इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्।
अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्॥ 1-2-357
श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।
महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्॥ 1-2-358
यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।
द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः॥ 1-2-359
यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्।
यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने॥ 1-2-360
ददौ सम्पूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।
यत्र भ्रातॄन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः॥ 1-2-361
दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्।
एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्॥ 1-2-362
यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्।
विंशतिश्च तता श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥ 1-2-363
स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्।
प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्॥ 1-2-364
आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना।
तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः॥ 1-2-365
श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः।
स्वर्गं प्राप्तः स च तथा यातनां विपुलां भृशम्॥ 1-2-366
देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्।
शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणा गिरः॥ 1-2-367
निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्।
अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः॥ 1-2-368
आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्।
स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्॥ 1-2-269
मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह।
एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता॥ 1-2-370
अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन्महात्मना।
श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः॥ 1-2-371
नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा।
अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः॥ 1-2-372
खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्।
दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च॥ 1-2-373 
खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा।
एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः॥ 1-2-374
अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।
तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375
महाभारत  Ugrashrava  Summary
 Description  18  parvas
summary sections
उग्रश्वा अठारह Mahabharata
वर्णन संक्षेप महाभारत संक्षेपमें
१८ पर्व
उग्रश्वाने अठारह महाभारतके पर्वका वर्णन 


यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।
न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376
अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।
कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना॥ 1-2-377
श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते।
पुंस्कोकिलगिरं[रुतं] श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव॥ 1-2-378
इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः।
पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः॥ 1-2-379
अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः।
अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः॥ 1-2-380
क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः।
इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः॥ 1-2-381
अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।
आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्॥ 1-2-382
इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते।
उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः॥ 1-2-383
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।
साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384
धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385
द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386
यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।
महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387
यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।
महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388
महाभारत  महत्व  महाभारतका महत्त्व 
Importance of Mahabharata 
Importance  Mahabharata 


यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय।
पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389
आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण।
श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥
Importance Mahabharata  second chapter 
Importance  पर्वसंग्रहपर्वका महत्व 
 द्वितीयोध्यायका महत्व   द्वितीयोध्याय
महत्व  पर्वसंग्रहपर्व