Adhikamasa and Kshyamasa(अधिकमास एवं क्षयमास)

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भारतिय कालगणना में मास का अधिक महत्त्व है। कालमान के अनुसार चान्द्रमान के आधार ही मास की गणना ज्योतिषशास्त्र में बताई गई है। ग्रहसाधन के प्रसंग में अधिकमास और क्षयमास का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। भारतीय कालगणना के अन्तर्गत सौर एवं चान्द्र दोनों प्रकार के मानों को स्वीकार किया गया है क्योंकि दोनों का व्यवहार भी किया गया है। यही प्रमुख कारण है कि अधिकमास एवं क्षयमास उत्पन्न होते हैं तथा उनका साधन भी शास्त्रों में किया गया है। केवल सिद्धान्त ग्रन्थों में ही नहीं परन्तु फलित एवं मुहूर्त ग्रन्थों में भी अधिकमास एवं क्षयमास का उल्लेख किया गया है।

परिचय

मास संबंधी ज्ञान के विषय में अधिकमास का ज्ञान परम आवश्यक है क्योंकि धार्मिक एवं ज्योतिषीय दोनों की दृष्टि से अधिकमास का आनयन एवं विचार महत्त्वपूर्ण है। शुभ एवं अशुभ कार्यों में अधिकमास एवं क्षयमास दोनों का विचार-विमर्श शास्त्रों में गंभीरता पूर्वक किया है।

व्यवहारमें सौर और चान्द्रमासों की गणना प्रचलित है। जिसके साथ सावन दिनों का सम्बन्ध जुटा रहता है सूर्य के एक राशिभोग को सौरमास और ३० तिथ्यात्मक दो अमान्त कालाभ्यन्तर वर्तमान काल को चान्द्रमास कहते हैं।एक सौरमास को सावन दिन से मापा जाय तो जितने सावन दिन होंगे उससे कम सावन दिन १ चान्द्रमास में होते हैं अर्थात् चान्द्रमास की अपेक्षा सौरमास बडा होता है। चान्द्रमास से सौरमास जितना अधिक होता है उसी को अधिशेष कहते हैं।

मध्यम मान से एक सौरमास ३० सावनदिन, २६ घटी एवं १५ पल का होता है और चान्द्रमास २९दिन, ३४ घटी एवं २० पल का होता है। दोनों का अन्तर (३०।२६।१५)-(२९।३४।२०)=०।५१।५५ सावनदिनादि १ सौरमास में होता है। यही अधिशेष प्रतिमास बढते हुये अनुपात से-

१सौरमास + २९ दि०३४।२०/आन्तर शेष= ३०+२९ दिन ३४/ घ० २०/०।५१।५५= ३२ १/३ आसन्न मास में १ चान्द्रमास पड जाता है। वही अधिमास कहा जाता है। जब अधिशेष १चान्द्रमास बराबर होता है तो उस चान्द्रमास में सूर्य संक्रान्ति नहीं होती है। अर्थात् वह चान्द्रमास सूर्य संक्रान्ति से विहीन होता है, उसी को अधिमास या मलमास अथवा पुरुषोत्तममास कहते हैं।

परिभाषा

सिद्धान्तशिरोमणि के आधार पर अधिकमास एवं क्षयमास का लक्षण इस प्रकार है-

असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्यात् द्विसंक्रान्ति क्षयाख्यः कदाचित्।क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात्॥ (सिद्धा०शिरो०)

सिद्धान्तशिरोमणि नामक ग्रन्थ में श्री भास्कराचार्यजी ने कहा है कि जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है तो उस मास की अधिकमास संज्ञा होती है। एवं जिस मास में अर्थात् चान्द्रमास में दो संक्रान्ति हो उस चान्द्रमास को क्षयमास कहते हैं। क्षयमास प्रायः कार्तिकादि तीन मास में होता है। तथा जिस वर्ष में क्षय मास होता है उस वर्ष में दो अधिक मास १ तीन मास के पूर्व तथा १ बाद में होता है।

मस्ये परिमियते इत मासः।(शब्दक०)[1]

अर्थ-काल प्रमाण ही मास है।

अधिकमास की उपपत्ति

सैद्धानितिक दृष्टि के आधार पर जब भी दो अमान्त के मध्य में संक्रान्ति का अभाव हो जाये तो उसे अधिमास की संज्ञा दी जाती है।

मेषादिस्थे सवितरि यो यो मासः प्रपूर्यते चान्द्रः। चैत्राद्यः स विज्ञेयः पूर्तिर्द्वित्वे धिमासो न्यः॥

अर्थात् मेषादि राशियों पर गमन करता हुआ सूर्य जब-जब चान्द्रमासों की पूर्ति करता है उस मासों को क्रम से चैत्रादि मास की संज्ञा दी गई है। जिसमें संक्रान्ति की पूर्ति नहीं होती है उसे अधिकमास कहते हैं।

गणितीय उपपत्ति

क्षयमास की उपपत्ति

गणितीय उपपत्ति

अधिकमास एवं क्षयमास में त्याग योग्य कर्म

श्रीगर्गाचार्य जी के मत से अधिकमास में त्याज्य कर्म-

अग्न्याधानं प्रतिष्ठां च यज्ञो दानव्रतानि च। वेदव्रतवृषोत्सर्ग चूडाकरणमेखलाः॥गमनं देवतीर्थानां विवाहमभिषेचनम् । यानं च गृहकर्माणि मलमासे विवर्जयेत्॥(गर्ग सं०)

श्रीगर्गाचार्य जी का कहना है कि अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रतादि, वेदव्रत वृषोत्सर्ग, चूडाकर्म, व्रतबन्ध, देवतीर्थों में गमन, विवाह, अभिषेक, यान और घर के काम अर्थात् गृहारम्भादि कार्य अधिक मास में नहीं करना चाहिये। मनुस्मृति के आधार पर कर्त्तव्य-

तीर्थश्राद्धं दर्शश्राद्धं प्रेतश्राद्धं सपिण्डनम् । चन्द्रसूर्यग्रहे स्नानं मलमासे विधीयते॥(मनु स्मृ०)

मनुस्मृतिमें कहा गया है कि तीर्थश्राद्ध, दर्शश्राद्ध, प्रेतश्राद्ध, सपिण्डीकरण, चन्द्रसूर्यग्रहणीय स्नान अधिकमास में भी करना चाहिये।

उद्धरण

  1. शब्दकल्पद्रुम पृ०३/७१८।