Abhivadana and Namaskara (अभिवादन और नमस्कार)

From Dharmawiki
Revision as of 16:24, 6 September 2021 by AnuragV (talk | contribs) (AnuragV moved page Abhivadana (अभिवादन) to Abhivadana and Namaskara (अभिवादन और नमस्कार): editing title)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

अभिवादन भारतीय सनातन शिष्टाचारका एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। जिसने प्रणाम करनेका व्रत ले लिया समझना चाहिये कि उसमें नम्रता, विनयशीलता एवं श्रद्धाका भाव स्वतः प्रविष्ट हो गया। इसीलिये सनातन संस्कृतिमें अभिवादन को उत्तम संस्कारका जनक कहा गया है। प्रायः सभी देशों और सभी वर्ग के लोगों में एक दूसरे का सम्मान सत्कार अभिवादन करने की प्रथा अभी तक प्रचलित है। अभिवादन करने का स्वरूप, अभिवादन के नाम अन्यान्य भाषाओं में अलग अलग हो सकते हैं किन्तु सभी इसको समान रूप से स्वीकर करते हैं। परन्तु इसकी अनुष्ठान पद्धति(क्रिया शैली)एक दूसरे से बहुत भिन्न देखी जाती है। शास्त्रों के अनुसार सनातन धर्म में अभिवादन का स्वरूप, विधि, एवं लाभ का क्या हैं उनका वर्णन किया जा रहा है।

परिचय

शास्त्रपरम्परा के अनुसार सम्यक् रूप से जो कर्म किया जाता है, वह संस्कार कहलाता है। अभिवादन का संस्कार सदाचार शिष्टाचार का मुख्य अंग है। इससे न केवल लौकिक लाभ ही होता है अपितु आध्यात्मिक लाभ भी निहित है। सामान्यरूपसे अभिवादन दो रूपोंमें व्यक्त होता है। छोटा अपनेसे बड़ेको प्रणाम करता है और समान आयुवाले व्यक्ति एक-दूसरेको नमस्कार करते हैं। छोटे और बड़ेका निर्णय सनातनीय संस्कृतिमें त्यागके अनुसार होता है। जो जितना त्यागी है वह उतना ही महान् है। शुकदेवजीके त्यागके कारण उनके पिता व्यासजीने ही उन्हें अभ्युत्थान दिया और प्रणाम किया। त्यागके अनन्तर विद्या और उसके पश्चात् वर्णका विचार किया जाता है। अवस्थाका विचार तो प्रायः अपने ही वर्णमें होता है।[1]शब्दकल्पद्रुम में अभिवादन की परिभाषा की गई है-

अभिमुखीकरणाय वादनं (नामोच्चारण पूर्वक नमस्कारः)अभिवादनम्॥(श०कल्प०)[2]

नाम उच्चारण पूर्वक जो नमस्कारात्मक क्रिया की जाती है उसे अभिवादन कहगे हैं। जैसाकि पाणिनि जी के धातु पाठ में पठित वदि अभिवादन स्तुत्योः धातु कि व्याख्या में सिद्धान्त कौमुदी की बालमनोरमा टीका में कहा गया है-

अभिवादन आशीर्वाद , तत्कारणभूतो व्यापार प्रणामादिरभिवादनम् ।।(सि०कौ०बालमनो०)[3]

आशीर्वाद के कारण भूत जो व्यापार प्रणाम (नमस्कार, चरणवन्दन ) आदि क्रिया वह अभिवादन कहलाती है।महर्षि मनु महाराज जी कहते हैं-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥(मनु स्मृ०)[4]

अर्थ- जो वृद्धजनों, गुरुजनों तथा माता-पिताको नित्य प्रणाम करता है और उनकी सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, यश और बलकी वृद्धि होती है।इसी बातकी पुष्टि स्कन्दपुराणसे होती है-

अभिवादनशीलस्य वृद्धसेवारतस्य च। आयुर्यशोबलं बुद्धिर्वर्धतेऽहरहोऽधिकम्॥

अर्थात् वृद्धजनोंकी सेवामें रत अभिवादनपरायण जनोंके आयु, यश, बल और बुद्धिकी दिनोंदिन वृद्धि होती रहती है।

अभिवादन का महत्व

अभिवादन सनातनीय संस्कृति का मौलिक संस्कार है। प्रायः अन्यान्य धर्मों में अभिवादन को केवल परम्परागत शिष्टाचार मात्र माना गया है। परन्तु सनातनीय धर्मग्रन्थों में धर्मानुष्ठान स्वीकार किया गया है। विश्वगुरु धर्मप्राण देश भारत अध्यात्म चेतना,संस्कृति और सदाचार का सदासे केन्द्र रहा है। सनातनीय संस्कृति में अभिवादन,प्रणाम,आज्ञापालन का बहुत महत्व है। अभिवादन अपने से श्रेष्ठजनों के प्रति श्रद्धा आत्मीयता का प्रतीक है। हमारी संस्कृति में मानवातिरिक्त जड़ जंगम तथा जीव भी आदर(सम्मान) के पात्र हैं। वृक्ष, नदियॉं, सरोवर आदि की भी देवताओं की तरह ही पूजा हैं एवं (अभिवादन) नमन किया जाता है।प्रकृति, घर, परिवार के साथ-साथ समाज के सभी वृद्धों, ज्ञानवृद्धों, वयोवृद्ध आदियों को भी समाज कुलपरम्परा के अनुसार अभिवादन किया जाता है।वृद्धजनोंको नमस्कारसे प्रभुको नमस्कार हो जाता है। मूलतः अभिवादन स्थूल शरीर का न होकर अन्तरात्माओं में विद्यमान प्रभु का किया जाता है।शास्त्रों में तो प्रातः काल उठकर सर्वप्रथम माता, पिता, गुरुजनों तथा अपने से बडों को प्रणाम करना नित्यविधि में निहित किया गया है।

उत्थायमातापितरौ पूर्वमेवाभिवादयेत् । आचार्यश्च ततो नित्यमभिवाद्यो विजानता॥(आचारेन्दु पृ०२२)[5]

वास्तविक संस्कार की प्रतिष्ठा माता, पिता, गुरुजन, एवं अपने से श्रेष्ठजनों की आज्ञा-पालन, कृतज्ञता-ज्ञापनपूर्वक सेवा आदि से ही होती है। जैसा कि इसी आदर्श को श्री रामचन्द्र जी ने करके दिखाया-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥

आयसु मागि करहिं पुर काजा । देखि चरित हरषइ मन राजा॥(रा०च०मा० १।२०५।७-८)[6]

अर्थ- श्रीरघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरुको मस्तक नवाते(अभिवादन करते) हैं और आज्ञा लेकर नगरका काम करते हैं। उनका चरित्र देख-देखकर राजा मनमें बड़े हर्षित होते हैं।

सनातनीय संस्कृति में अभिवादन संस्कार को परस्पर प्रेम, सौहार्द, आदरभाव, एवं विनय का मूल कहा गया है। यदि अभिवादन कर्ता के अन्दर श्रद्धा, आस्था और अर्पण भाव होगा तो उसको अभिवादन का आशाजनक फल अवश्य प्राप्त होगा।

अभिवादन के भेद एवं निषेध

अभिवादन की रीति आधुनिक नहीं अपितु मूलतः शास्त्रोक्त है। सनातनीय परम्परा में अभिवादन के कई भेद हैं। देवताओं के सम्मुख वा अपने से श्रेष्ठ को साष्टांग प्रणाम, अपनी वय तुल्य व्यक्ति को हस्तबद्ध करके नमन, अपने से छोटे व्यक्ति को आशीर्वादात्मक नमन आदि भेद हैं। गुरुजनोंके वचनोंपर विश्वास करना तथा उनकी आज्ञाका पालन करना भी अभिवादन और विनम्रताका ही रूप है। ऐसा करने से गुरुजन प्रसन्न होते हैं। यदि कोई महापुरुष मनसे नहीं चाहते कि कोई उनके चरणस्पर्श करे या प्रणाम करे तो नहीं करना चाहिये। क्योंकि उनकी प्रसन्नता उनकी आज्ञापालनमें है और अपने से श्रेष्ठ की आज्ञापालन में स्वयं का ही लाभ निहित होता है। आधुनिक काल(वर्तमान समय) में एक हाथ से, हाथ हिलाकर, मुंह से अथवा हाथ में हाथ लेकर अभिवादन करने की जो प्रक्रियायें प्रारम्भ हुईं हैं। ये सब न तो शास्त्र सम्मत हैं अपितु अवहेलनात्मक ही हैं।अभिवादन के मुख्यतः तीन भेद हैं-

  • कायिक- कर शिर संयोगादि व्यापार रूप क्रिया से संबद्ध कायिक नमस्कार(अभिवादन) कहलाता है। साष्टांग, पञ्चांग आदि इसके अवान्तर भेद हैं।
  • वाचिक- वाणी के द्वारा नमस्कारात्मक शब्दों का प्रयोग करके अभिवादन करना वाचिक नमस्कार(अभिवादन)कहलाता है। वय तुल्य व्यक्ति को वचसा अभिवादन करना चाहिये।
  • मानसिक- मन के द्वारा जो अभिवादन किया जाता है वह मानसिक नमस्कार (अभिवादन) कहलाता है। जिनका सामीप्य सुलभ नहीं है उनके प्रति अपनी श्रद्धा, कृतज्ञता आदिका ज्ञापन उनका स्मरण करके मानसिक रूपसे करना चाहिये। स्नान करते समय, दन्तधावनके समय, शौचादिके समय, तैलाभ्यंगके समय, शव ले जाते समय प्रणाम करनेकी आवश्यकता नहीं। श्मशानमें, कथास्थलमें, देवविग्रहके सम्मुख केवल मानसिक प्रणाम करना चाहिये। यदि स्वयं भी इसी स्थितिमें हो तब भी मानसिक प्रणाम करना चाहिये।

साष्टांग प्रणाम की व्यवस्था हमारे धर्मग्रन्थों में प्राप्त होती हैं। प्रणाम करते समय व्यक्तिको पेटके बल लेटकर भूमिपर अपने दोनों हाथ आगे करना चाहिये। इस क्रममें मस्तक, भ्रूमध्य, नासिका, वक्ष, उरु, पेट, घुटने, करतल तथा पैरोंकी अँगुलियोंके अग्रभागको भूमि से स्पर्श कराना चाहिये। अष्टांग-प्रणामकी अभिक्रियामें जानु, पाद, हाथ, उर, बुद्धि, सिर, वचन और दृष्टिका संयोग होता है जैसा कि कहा गया है-

जानुभ्यां च तथा पद्भ्यां पाणिभ्यामुरसा धिया। शिरसा वचसा दृष्ट्या प्रणामोऽष्टाङ्ग ईरितः॥

अर्थ- जानु, पैर, हाथ, वक्ष, शिर, वाणी, दृष्टि और बुद्धि से किया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहा जाता है। परन्तु ''वसुन्धरा न सहते कामिनीकुचमर्दनम्" सूत्र के अनुसार स्त्री द्वारा साष्टाङ्ग प्रणाम का निषेध है। अतः उन्हें बैठकर ही परपुरुष को स्पर्श न करते हुए प्रणाम करने का आदेश है। तदनन्तर दोनों हाथोंसे प्रणम्यके चरणोंका स्पर्श करके घुटनोंके बल बैठकर उनके चरणोंसे अपने करतलोंका स्पर्श कराना और उनके पादांगुष्ठोंका हाथोंसे स्पर्श करके अपने नेत्रों तथा वक्षसे लगाना चाहिये तथा साथ ही अभिवादनसूचक शब्द भी उच्चारण करना चाहिये। इसका अभिप्राय सन्तुष्टि तथा शक्तिका अपने अन्दर स्थापन करना है।

देवताप्रतिमां दृष्ट्वा यतिं दृष्ट्वा त्रिदण्डिनम्। नमस्कारं न कुर्वीत प्रायश्चित्ती भवेन्नरः॥

देवविग्रहको, आचार्यको, साधुको और अन्य पूज्य सम्मान्य जनोंको, देवालयको या देवप्रतिमाको, संन्यासीको, त्रिदण्डी स्वामीको, साधु-महात्माओंको देखकर जो प्रणाम नहीं करता वह प्रायश्चित्तका भागी होता है। अर्थात् इन्हैं देखकर अवश्य ही अभिवादन करना चाहिये।

दूरस्थं जलमध्यस्थं धावन्तं धनगर्वितम् । क्रोधवन्तं मदोन्मत्तं नमस्कारोऽपि वर्जयेत् ॥

अर्थ-दूरस्थित, जलके बीच, दौड़ते हुए, धनोन्मत्त, क्रोधयुक्त, नशे से पागल व्यक्ति को प्रणाम नहीं करना चाहिए।

समित्पुष्पकुशाग्न्यम्बुमृदन्नाक्षतपाणिकः । जपं होमं च कुर्वाणो नाभिवाद्यो द्विजो भवेत् ॥

अर्थ-अर्थात् पूजाकी तैयारी करते हुए तथा पूजादि नित्यकर्म करते समय ब्राह्मण को प्रणाम करने का निषेध है । निवृत्ति के पश्चात् प्रणाम करना चाहिए। अपने समवर्ण ज्ञाति एवं बान्धवों में ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध द्वारा प्रणाम स्वीकार नहीं करना चाहिए, इससे अपनी हानि होती है । स्त्रियों के लिये साष्टाङ्ग प्रणाम वर्जित है वे बैठकर ही प्रणाम करें-

गुरुपत्नी तु युवती नाभिवाद्येह पादयोः । कुर्वीत वन्दनं भूम्यामसावहमिति चाब्रुवन् ॥

अर्थ-यदि गुरुपत्नी युवावस्था वाली हों तो उनके चरण छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए । मैं अमुक हूँ ऐसा कहते हुए उनके सम्मुख पृथ्वी पर प्रणाम करना चाहिए।

मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूश्चाथ पितृष्वसा । सम्पूज्या गुरुपत्नीव समास्ता गुरुभार्यया ॥ ॥ कूर्मपुराण एवं मनुस्मृति॥

अर्थ-महर्षि मनुमहाराजके अनुसार मौसी, मामी, सास और बुआ ये गुरुपत्नी के समान पूज्य हैं। अतः इनका आदर और अभिवादन होना चाहिये। यहाँ कालिदास भी कहते हैं। प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः अर्थात् पूज्यका असम्मान कल्याणकारी नहीं होता है।

अभिवादन से आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक लाभ

अभिवादन के बलपर दिव्यलाभों को प्राप्त करने के अनेक वृत्तान्त प्राप्त होते हैं। महर्षि मार्कण्डेय के नाम से कौन परिचित नहीं है।भगवान् शङ्करकी कृपासे मृकण्डु मुनिको एक योग्य पुत्र मिला, किंतु वह अल्पायु था। मुनि चिन्तित हुए जब वे पॉंच वर्षके थे तब उनके पिता मृकण्डुको ज्ञात हुआ कि इनकी आयु तो केवल छ: मास ही शेष है। पिता पहले तो चिन्तित हुए किंतु फिर उन्होंने उनका यज्ञोपवीत कर दिया और यही उपदेश दिया कि हे वत्स! तुम जिस किसी द्विजोत्तमको देखना, उसे विनयपूर्वक प्रणाम करना-

यं कञ्चिद् वीक्षसे पुत्र भ्रममाणं द्विजोत्तमम्। तस्यावस्यं त्वया कार्यं विनयादभिवादनम॥

बालक मार्कण्डेय आज्ञाकारी तो थे ही, उन्होंने पिताद्वारा प्रदत्त अभिवादनव्रतको अपना लिया, उनका अभिवादनका संस्कार दृढ़ हो गया। ऐसे ही एक दिन जब सप्तर्षि वहाँसे गुजर रहे थे तो बालक मार्कण्डेयने नित्यकी भाँति उन्हें विनयसे प्रणाम किया और दीर्घायुर्भव, दीर्घायुर्भव का आशीर्वाद उन्हैं प्राप्त हो गया और बालक मार्कण्डेय दीर्घायु हो गये तथा कल्प-कल्पान्तकी आयु उन्हें प्राप्त हो गयी और सप्तचिरञ्जीवियों के साथ अष्टम उनकी भी गणना होने लगी।(कल्याण संस्का०अं० पृ०३१७)[7]

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः । कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥

सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम् । जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥(आचारेंदु पृ०२२)[8]

अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान्, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुराम-इन सातों चिरञ्जीवियोंके साथ मृकण्डुके पुत्र मार्कण्डेयजी आठवें चिरञ्जीवी हुये। जो इनका स्मरण करता है वह अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त करके शताधिक पूर्णायु प्राप्त करता है। प्रणामके (अभिवादन) अभाव में भी शास्त्रों में बहुत उदाहरण देखने को मिलते हैं जैसे -

महाराज दिलीप बहुत समयतक नि:सन्तान ही रहे तो चिन्तित मनसे अपने कुलगुरु वसिष्ठजीके पास गये। प्रणामाभिवादनके पश्चात् वसिष्ठजीने अपनी दिव्य दृष्टिसे देखकर बताया-तुम एक बार स्वर्गसे लौट रहे थे तो मार्गमें कामधेनुके मिलनेपर तुमने उसे प्रणाम नहीं किया। कामधेनुने इस कारण तुम्हें निःसन्तान होनेका शाप दे दिया कि तुमको मेरी सन्तानकी आराधना-सेवाके बिना निःसन्तान ही रहना पड़ेगा। अतः कामधेनुकी पुत्री नन्दिनी जो मेरे आश्रममें है। तुम उसकी सेवा करो तो तुम्हें यशस्वी पुत्रकी प्राप्ति होगी। राजाने निष्ठासे गोसेवाकी साथ ही रानी सुदक्षिणाने भी प्रातः-सायं गौका पूजन-वन्दन किया और सेवा की, जिसके प्रभावसे उन्हें पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई। प्रणाम, अभिवादन तथा सेवाके अभावमें गुरु और पितृजनोंके अभिशापसे सन्तान, सौभाग्य और ऐश्वर्यका अभाव हो जाता है। इस अभावकी पूर्ति भी उन्हें प्रसन्न करनेसे ही होती है।

वैज्ञानिक लाभ

उद्धरण

  1. श्री राकेशकुमार शर्मा, (२००५),प्रणाम-निवेदन-एक जीवन्त संस्कार, कल्याण(संस्कार अंक), गोरखपुर:गीताप्रेस(पृ० ३१४)।
  2. शब्दकल्पद्रुमः
  3. सिद्धान्त कौमुदी, भ्वादिप्रकरण,बालमनोरमा टीका,(७-१-५८)।
  4. मनु स्मृतिअध्याय २, श्लोक १२१।
  5. आपटे,हरिनारायण (१९०९) आचारेन्दुः, पूना:आनन्दाश्रममुद्रणालय (पृ०२२)।
  6. रामचरितमानस बालकाण्ड, दोहा २०५, चौपाई ७/८।
  7. श्री श्यामनारायण शास्त्री जी, (२००५), अनुपालनीय संस्कार-अभिवादन, कल्याण(संस्कार अंक), गोरखपुर:गीताप्रेस(पृ० ३१७)।
  8. आपटे,हरिनारायण (१९०९) आचारेन्दुः, पूना:आनन्दाश्रममुद्रणालय (पृ०२२)।