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[[Bharatiya Kala Vidya (भारतीय कला विद्या)]]
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[[Bharatiya Kala Vidya (भारतीय कला विद्या)]]  
    
कला प्राचीन भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण अंग हुआ करता था। मानव जीवन को सुन्दर एवं परिष्कृत बनाने में कला का विशेष योगदान है।  इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला भी कहा जाता है।
 
कला प्राचीन भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण अंग हुआ करता था। मानव जीवन को सुन्दर एवं परिष्कृत बनाने में कला का विशेष योगदान है।  इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला भी कहा जाता है।
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* शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
 
* शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
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इनमें से कुछ ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
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इनमें से कुछ ग्रंथों में वर्णित कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
    
{| class="wikitable"
 
{| class="wikitable"
|+चौंसठ कलाऍं॥ Chatusshashti Kala (64 Arts)
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|+कलाऍं ॥ Kala (Arts)
 
!क्र.सं.
 
!क्र.सं.
 
!ललितविस्तर <ref>आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३१/३३।</ref>
 
!ललितविस्तर <ref>आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड,संस्कृतवाङ्मय में कलाशास्त्र, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० ३१/३३।</ref>
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विद्याओं के साथ ही इन कलाओं का अध्ययन भी भारतीय सुबुद्ध नागरिक क्योंकि कला जीवन जीने की कला है तथा प्रेममय दाम्पत्य जीवन, सुखी परिवार और सुन्दर समाज की आधार शिला है। संस्कृत वाङ्ममय में निबद्ध कलाऐं पुरातन भारतीय जीवन, सभ्यता, संस्कृति धर्म और दर्शन को समझने तथा वर्तमान जीवन शैली को सँवारने की दृष्टि देती है।
 
विद्याओं के साथ ही इन कलाओं का अध्ययन भी भारतीय सुबुद्ध नागरिक क्योंकि कला जीवन जीने की कला है तथा प्रेममय दाम्पत्य जीवन, सुखी परिवार और सुन्दर समाज की आधार शिला है। संस्कृत वाङ्ममय में निबद्ध कलाऐं पुरातन भारतीय जीवन, सभ्यता, संस्कृति धर्म और दर्शन को समझने तथा वर्तमान जीवन शैली को सँवारने की दृष्टि देती है।
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== कलाओं का संक्षिप्त परिचय ==
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[[Introduction to Bharatiya Kalas - Part 1 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)]] and [[Introduction to Bharatiya Kalas - Part 2 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)]]
 
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=== गीतम् ॥ Geeta ===
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संस्कृत  वाङ्ममय में ' गीत, वाद्य, तथा नृत्य इन तीनों की त्रयी को संगीत कहा गया है।<blockquote>गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते।(संगीत रत्नाकर१/२१)</blockquote>संगीत में वाद्य गीत का अनुगामी है और नृत्य वाद्य का। अतः गीत ही प्रधान एवं प्रथम है।<blockquote>नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवर्ति च। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते॥ (संगीत रत्नाकर १/२५)</blockquote>गीत नादब्रह्म की साधना है, फलतः पुरुषार्थ चतुष्टय की साधक है-<blockquote>धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैकसाधनम् ।(संगीत रत्नाकर १/३०)</blockquote>आचार्य शार्गदेवके अनुसार मनोरंजक स्वरसमुदाय की संज्ञा गीत है-<blockquote>रञ्जकः स्वरसन्दर्भो गीतमित्यभिधीयते।((संगीत रत्नाकर ४/१)</blockquote>संगीतकला के उद्भावक ब्रह्मा अथवा आदिदेव भगवान् शिव हैं। उनके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख इन पाँच मुखों से क्रमशः भैरव, हिण्डोल, मेघ, दीपक और श्रीराग उद्भूत हुये हैं। नन्दिकेश्वर, नारद, स्वाति, भरत, तुम्बरु आदि संगीत के आद्य आचार्य हैं। गायन कला का स्रोत वेदों में सामवेद और उपवेदों में गान्धर्ववेद है। बृहदारण्यक उपनिषद् में <nowiki>'''</nowiki>साम<nowiki>''</nowiki> शब्द की अत्यन्त सुन्दर निरुक्ति है-<blockquote>सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वम् ॥</blockquote>'सा' का अर्थ है- 'ऋक्' और 'अम्' का अर्थ है-गान्धार आदि स्वर ऋक् से सम्बद्ध स्वरबद्ध गायन ही साम है।ऋग्वेद में भी सामगान का बहुशः उल्लेख हुआ है।
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सामगान के चार प्रकार हैं
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# वेयगान या (ग्राम) गेय गान
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# आरण्य गान
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# ऊहगान
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# ऊह्यगान
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नारदीय शिक्षा के अनुसार साम के स्वरमण्डल में-७ स्वर, ३ग्राम, २१ मूर्च्छ्नायें तथा ४९ तान हैं।
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गीत कला के दो भेद हैं- गान्धर्व और गान।
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# गान्धर्व-सनातनकाल से प्रचलित, गन्धर्वों द्वारा प्रयुक्त, श्रेयस् का हेतु गीत सम्प्रदन्य <nowiki>''</nowiki>गान्धर्व" कहा जाता है। इसे ही भरतादि आचार्यों द्वारा प्रयुक्त मार्ग संगीत कहते हैं। भगवान् विरिञ्चि द्वारा इसका मार्गण या खोज होने के कारण इसे मार्ग कहा गया है।
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# गान - लोकगायकों द्वारा रचित देशी रागादि से युक्त लोकरंजक गीत गान कहा जाता है। इसी की संज्ञा देशी गीत है।
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=== वाद्यम् ॥ Vadya ===
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कामसूत्र की 64 कलाओं में द्वितीय कला है वाद्यम् अर्थात् वादन-कला। गीत, नृत्य और नाट्य की पूर्णता वाद्य से मानी गई है। अतः संगीत के अन्तर्गत वाद्य का विशेष महत्त्व है।
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संगीत के स्वरों की उत्पत्ति सर्वप्रथम मानव की शरीररूपी वीणा पर हुई, तत्पश्चात् दारवी (लकड़ी की) वीणा पर। तदन्तर ये स्वर पुष्कर एवं घन वाद्यों में संक्रान्त हुये हैं। नारदीयशिक्षा के अनुसार वाद्य पाँच प्रकार के हैं। प्रथम ईश्वरनिर्मित मानव कण्ठ नैसर्गिक वाद्य है, अन्य चार मनुष्यनिर्मित हैं। मानवनिर्मित वाद्य चार प्रकार के हैं -<blockquote>ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम् ॥</blockquote>(1) तत (2) अवनद्ध (3) घन तथा (4) सुषिर वाद्य। वीणा आदि तन्त्री - वाद्य तत वाद्य कहे जाते हैं। मृदङ्ग, मर्दल, दुन्दुभि आदि पुष्करवाद्य अवनद्ध (चमड़े की डोरियों से बँधे हुये) वाद्य हैं। ताल, घण्टा, मंजीरा आदि की संज्ञा घनवाद्य है। वंशी, तूर्य, शंख, शृड्ग आदि सुषिर (छिद्रयुक्त) वाद्य हैं।
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इन चतुर्विध वाद्यों की उत्पत्ति, प्रकार, वाद्यवादनपद्धति, उत्तम वादक के गुण, वाद्यवादन के अवसर एवं फल का वर्णन भरत के नाट्यशास्त्र में विस्तार से हुआ है। वादनकला के सन्दर्भ ऋग्वेद से ही प्राप्त होने लगते हैं। यहाँ वीणा के लिये 'वाण' शब्द का प्रयोग हुआ है। हिरण्यकेशी सूक्त में 'आघाटी' शब्द का प्रयोग वाद्यवृन्द के लिये हुआ है।
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रामायण के साथ किया लव-कुश तन्त्री-लय द्वारा रामकथा का गायन गया है उत्सव, पुत्रजन्म, विवाह, नृप-मंगल (राज्याभिषेक, दिग्विजय), नाट्यप्रयोग आदि वाद्यकला के प्रयोग के अवसर हैं। ऋतु के अनुकूल वाद्ययोजना भी भारत का वैशिष्ट्य है। वर्षा में घनगर्जन के समान गम्भीर मृदङ्ग की थाप तो ग्रीष्म में शीतल वंशी की सुरीली तान, सब कुछ प्रकृति के छन्द मिलाते हुये हैं।
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=== नृत्यम् ॥ Nrtya ===
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नृत्यम् मानव की अन्तश्चेतना में निहित आनन्दोपासना की चिरन्तन प्रवृत्ति नृत्यकला को जन्म देती है। ‘नृत्य' संगीत का अंग भी है और एक स्वतन्त्र कला भी। सृष्टि का प्रारम्भ इस ‘नर्तन’ से ही हुआ है।<blockquote>अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपातयत।</blockquote>सुसंरब्ध, निष्पन्द अवस्था में विद्यमान सृष्टि के उपादानों में स्पन्दन एवं तीव्र विक्षोभ ही सृष्टि का आरम्भ है अतः नर्तन मूल प्रवृत्ति के रूप में प्राणिजगत् में सर्वत्र देखा जाता है। '‘हम दीर्घजीवी होकर नृत्य और आनन्द के लिये अभ्युदय की ओर अग्रसर हों<nowiki>''</nowiki> यह कामना विश्व के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में सुस्पष्ट है। ‘नृत्य’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘नृत्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है नर्तन या अङ्गविक्षेप। यह नर्तन दो प्रकार से हो सकता है-
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# केवल ताल और लय के आधार पर नर्तन, इसे ही नृत्त, देशी अथवा लोकनृत्य कहा जाता है।
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# रस और भाव के अभिनय से युक्त नर्तन को नृत्य कहा जाता है।  है। भावाश्रय नृत्य में भावाभिव्यञ्जना प्रमुख होती है। अतः नन्दिकेश्वर ने नृत्य की परिभाषा इस प्रकार दी है-रसभावव्यंजनादियुक्तं नृत्यमितीर्यते। नर्तक द्वारा गीत और वाद्य के साथ करणों और अंगहारों का प्रदर्शन करते हुये; रस एवं भाव की कलात्मक अभिव्यक्ति नृत्य कही जाती है।
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भरतमुनि के अनुसार नृत्य के आद्य आचार्य भगवान् शिव हैं। दक्ष के यज्ञध्वंस के पश्चात् भगवान् शिव द्वारा रेचक, अङ्गहार, पिण्डीबन्ध आदि के साथ नृत्य की शिक्षा तण्डु मुनि को दी गई। तण्डु द्वारा गीत और वाद्य के साथ इसका नाट्य में प्रयोग किया गया। तण्डु द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसकी संज्ञा ताण्डव है। ताण्डव उद्धत नृत्य है । नृत्य में मधुर भावों के निवेश के लिये पार्वती ने <nowiki>''लास्य नृत्य''</nowiki> की उद्भावना की ।
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नाट्यदर्पण में नृत्य चार अड्ग कहे गये हैं-गीत, अभिनय, भाव एवं ताल यशोधर ने इनमें करणों और अङ्गहारों का योग कर इनकी संख्या छः बताई है। लौकिक संस्कृत साहित्य में संगीतकला का सबसे सुन्दर उदाहरण मालविका द्वारा प्रस्तुत छलिक नृत्य (मा. ग्नि. 218) है। अप्सरायें नृत्यकला में विशेष निपुण कही गई हैं।
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=== आलेख्यम् ॥ Alekhya ===
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संस्कृत वाङ्मय में चित्रकला के लिये लेख्य या आलेख्य पद का तथा चित्रांकन के लिये ‘लिखितम्', 'लिखितानि', 'आलिखन्ती' आदि पदों का बहुल प्रयोग हुआ है। लिखू धातु का प्रयोग चित्रकला में रेखा (लेखा) के महत्त्व को स्पष्ट करता है। रेखाओं में चित्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित होता है, जिस प्रकार रीतियों में काव्य। 'लेखा' से ही चित्र के अंगप्रत्यङ्ग का लावण्य उन्मीलित होता है। 'चित्र' शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अलोकसामान्य या विस्मयजनक के लिये किया जाता है। ब्राह्मी और मानसी सृष्टि के असंख्य रूपों और भावों को वर्णों और रेखाओं के माध्यम से प्रत्यक्ष कराता हुआ चित्र, विस्मयजनक आनन्द की सृष्टि के कारण 'चित्र' कहा जाता है। चित्रकला रूपात्मक ललितकलाओं में सर्वोपरि है। इसे सभी शिल्पों में प्रमुख शरीर में मुख के समान माना गया है-<blockquote>चित्रं हि सर्वशिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम् ।</blockquote>चित्रकला इहलौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रयोजनों को सिद्ध करती है। अतः विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है-<blockquote>कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम् ।</blockquote>चित्रसूत्र के अनुसार नारायण मुनि ने लोकहित की कामना से देवाङ्गनाओं के अहंकार को समाप्त करने के लिये अपने ऊरु पर सहकाररस से एक सुन्दर स्त्री का चित्र बनाया जिससे उर्वशी नामक अप्सरा का जन्म हुआ। सर्वलक्षणसमन्वित वह प्रथम चित्र था जिसकी शिक्षा एक कला के रूप में नारायण मुनि द्वारा विश्वकर्मा को दी गई।
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शास्त्रीय ग्रंथों में आलेख्य कला से सम्बद्ध निम्न विषयों का वर्णन हुआ है- (1) चित्र का महत्त्व, उद्देश्य एवं उत्पत्ति (2) चित्र के प्रकार एवं विषय, (3) भूमिबन्ध एवं लेप्य कर्म (4) अण्डक प्रमाण एवं मान (5) ऋज्वायतादि स्थानलक्षण (5) चित्र के गुण-दोष (6) रसदृष्टि (7) चित्रद्रव्य-वर्तिका, लेखनी, वर्ण आदि (8) चित्र के षडग । यशोधर के अनुसार चित्र के ये छह अंग हैं<blockquote>रूपभेदाः प्रमाणानि लावण्यं भावयोजनम् । सादृश्यं वर्णिकाभङ्ग इति चित्रं षडङ्गकम् ।।</blockquote>चित्र के कई प्रकार हैं-पटचित्र, पट्टचित्र एवं भित्तिचित्र, विद्धचित्र, अविद्धचित्र, रसचित्र एवं धूलिचित्र आदि ।
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जो तरङ्ग, अग्निशिखा, धूम, ध्वजा और स्वरलहरी को वायु की गति के साथ उठता-गिरता, काँपता और लहराता हुआ दिखा पाता है, जो सोये हुये को चेतनायुक्त, मृत को चेतनारहित तथा निम्नोन्नत विभागपूर्वक चित्ररचना में समर्थ है वही श्रेष्ठ चित्रकार है। चित्र के संबंध में दर्शकों की अभिरुचियाँ भिन्न होती हैं। आचार्य रेखाओं के समीक्षक और प्रशंसक होते हैं, तो समालोचक वर्तना के । स्त्रियाँ चित्र के अलंकरण से आकर्षित होती हैं तो सामान्य जन वर्णों की चमक-दमक से । चित्रकला के सुन्दर उदाहरण रामायण, महाभारत, मालविकाग्निमित्र, अभिज्ञानशाकुन्तल, उत्तररामचरित, कादम्बरी, नैषध आदि काव्यग्रंथों में देखे जा सकते हैं ।
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=== विशेषकच्छेद्यम् ॥ Visheshakacchedya ===
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कस्तूरी, अगुरु, चन्दन आदि से तिलकरचना एवं बिन्दी आदि रचना के लिये छेद्य (खाके) बनाने की कला विशेषकच्छेद्य कही जाती है। प्राचीन भारत में तिलक रचना के लिये भूर्ज, तमाल, स्वर्णादि पत्रों को विभिन्न आकृतियों में काटकर खाके बनाये जाते थे। अथवा उन पत्राकृतियों को ही चिपका लिया जाता था। अतः इस कला को पत्रच्छेद्य भी कहा गया है।
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विशेषक का अर्थ है- तिलक। विलासिनियों को अति प्रिय होने के कारण; विशेष आदर की अभिव्यक्ति के लिये इसे विशेषक नाम दिया गया है। माघ भी कहते हैं-<blockquote>स्निग्धांजनश्यामरुचिः सुवृत्तो वध्वाः । विशेषको वा विशिशेष यस्याः श्रियम् ॥</blockquote>अमरकोश के अनुसार विशेषक के तीन पर्य्याय हैं-तमालपत्र, तिलक एवं चित्रक। तिलकरचना के दो नाम हैं-पत्रलेखा एवं पत्रांगुलि संस्कृत साहित्य में पत्रलता, पत्रप्रपंच, पत्ररचना, पत्रप्रबन्ध, पत्रभङ्ग, पत्रविशेषक, पत्रभक्ति, भक्तिच्छेद, विच्छिति आदि पद इस कला के लिये प्रयुक्त हुये हैं। पत्रलता की आकृतियाँ बारीक तूलिका या लेखनी से ललाट, कपोल, चिबुक, वक्षः स्थल, बाहु आदि पर लिखी जाती थीं। शुक्ल अगुरु या चन्दन के लेप से त्वचा को गौर बनाकर उस पर कृष्ण अगुरु के गाढ़े घोल अथवा कुंकुम रस से पत्ररचना की जाती थी - <blockquote>कालागुरुदत्तपत्रभक्तिर्भुवश्चन्दनकल्पितेव ॥</blockquote>पत्रलेख से स्त्रीशरीर की शोभा उसी प्रकार खिल उठती थी जैसे चक्रवाक मिथुनों से अङ्कित सैकत तट वाली गंगा की शोभा शोभायमान होती है।<blockquote>विन्यस्तशुक्लागुरु चक्रुरङ्गं गोरोचनापत्रविभक्तमस्याः। सा चक्रवाकाङ्कितसैकतायास्त्रिस्रोतसः कान्तिमतीत्य तस्थौ ।।</blockquote>पत्ररचना में कटावदार पत्राकृतियों के साथ अन्य आकृतियाँ भी बनाई जाती थीं यथा-परस्परसंसक्त चक्रवाकमिथुन, उड़ते हुये हंस, गुँथे हुये मत्स्य एवं मकरसमूह ' भक्तिरचना भूति, श्री और मंगल के लिये की जाती थी। यह निसर्ग के सुन्दर चित्रों को सुगंधित वर्णों से स्वयं अपने शरीर पर सजा लेने की कला थी। यह आधुनिक <nowiki>''</nowiki>टेटू<nowiki>''</nowiki> रचना का उत्कृष्ट स्वास्थ्यकर स्वरूप है।
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=== तण्डुलकुसुमयलिविकाराः ॥ Tandula kusumayalivikara ===
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अक्षत (अखण्डित चावल) और पुष्पों को पूजा के लिये सजाना भी एक कला है अक्षतों को अनेक वर्गों में रंगकर देवमदिरों या गृहभूमि पर सुन्दर आकृति की रचना तथा बहुवर्णी पुष्पों के संयोजन से पुष्पोपहार की रचना, प्राचीन भारत की एक ललित कला रही है। जिसे आचार्य वात्स्यायन ने कहा है- ‘तण्डुलकुसमबलिविकाराः’ द्वारा निष्पन्न ‘बलि’ धातु से 'इन्’ प्रत्यय शब्द का अर्थ है-पूजा के दानार्थक बल् लिये भक्तिपूर्वक दिया गया उपहार या नैवेद्य। मेघदूत की विरहिणी यक्षिणी पति के माङ्गल्य के लिये प्रायः पुष्पबलि देती हुई दिखाई पड़ती है। राजभवनों की मणिमय भूमि (फर्श) पर चम्पकदलों के उपहार स्वर्णदीप के समान प्रतीत होते हैं कांचनदीपायमानं चम्पकदलोपहारैः किया प्रातःकाल और संध्याकाल इस ललितकला से था-'अहो विविधसुगन्धिकुसुमोपहारचित्रलिखितभूमिभागस्य' मानी गई थी। यह रंगोली के रूप एक मनोहारी कला जाता को।
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श्रीसम्पन्न ......भवनद्वारस्य सश्रीकता।
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यह एक मनोहारी कला मानी गई थी यह रंगोली के रूप में विकसित हुई है।
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=== पुष्पास्तरणम् ॥ Pushpaastarana ===
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पुष्पास्तरणम् (पुष्पसज्जा) का देश है। षड् ऋतुओं ने भारत पुष्पों की विविधता सुगन्ध के ऋतुपुष्पों से इस भारतभूमि का शृंगार किया है। निसर्ग की इस मनोरम पुष्प समृद्धि को, कला के कोमलतम उपादान को, मानव ने गृहवाटिकाओं एवं उद्यानों में संजोया तथा पुष्पास्तरण की सुकुमार कला के रूप में जीवन्त किया है। यशोधरा के अनुसार-नानावर्णो बाँधकर वासगृह, उपस्थान-मण्डप आदि की कलात्मक सज्जा के पुष्पों को गूंथकर या सज्जा पुष्प-आधारों या पात्रों पुष्पास्तरण कही जाती है। पुष्प-समृद्धि के उस युग में यह में ही नहीं की अपितु गृहभूमि, उपवनवेदिका, राजमार्ग आदि पर पुष्पों को बिछाकर की जाती थी; अतः इसकी संज्ञा पुष्पास्तरण थी। पुष्पशयन की रचना भी इसी कला का एक अंग थी।
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श्रीराम के अभिषेक के अवसर पर पुरवासियों द्वारा सम्पूर्ण राजपथ को कमलों और उत्पलों से सजाया गया था-<blockquote>सिक्तराजपथां कृत्स्नां प्रकीर्णकमलोत्पलाम्।</blockquote>लाल या गुलाबी  कमलों और नील उत्पलों का संयोजन नयनाभिराम होता था।
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कालिदास के अनुसार, हर्थों में सजाये गये पुष्पों की गंध दूर से ही पथिकों के मार्गश्रम को हर लेती थी। था। वात्स्यायन ने पुष्पसज्जा को गृहिणी का आवश्यक दैनिक कर्तव्य माना है। उस युग में जीवन का कोई भी उत्सव पुष्पसज्जा के बिना पूर्ण नहीं होता था। पुष्पसज्जा की कला का आज भी व्यापक उपयोग है।
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=== दशनवसनाङ्गरागाः ॥ Dashana vasananga raga ===
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जीवन को सुन्दर रंगों से सजाने का शिल्प था दशनवसनागराग, अर्थात् दाँत, वस्त्र और शरीर के अंगों को रंगने की कला। रञ्ज धातु से भाव अथवा करण अर्थ में घञ् प्रत्यय लगकर निष्पन्न 'राग' शब्द रंजन क्षमता को व्यक्त करता है। इस रंजनक्षमता के कारण ही सभ्यता के उषःकाल से मानव-मन रंगों के प्रति आकर्षित होता आया है।
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(१) '''दशनराग-'''प्राचीन भारत में विलासिनी स्त्रियाँ सामने के कुछ दाँतों को रँगती थीं। आचार्य भरत ने नेपथ्यविधि के अन्तर्गत इस कला का उल्लेख किया है। संस्कृत साहित्य में इसके अन्य सन्दर्भ अन्वेषणीय हैं।
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(ii) '''वसनराग'''-उज्ज्वल रंगों से वस्त्रों को रंगकर पहनने की कला है। संस्कृत साहित्य में नाना रंगों-कुसुम्भराग -अरुण, तरुण अर्कराग, बाल अरुण-बभ्रु पाटल, कुसुम्भ- बभ्रु लाक्षालोहित, रक्त, नील, मेचक, शुकपिच्छनील, अलिनील, शुकोदरश्याम, हरिद्रापिञ्जर आदि नाना रंगोंवाले वस्त्रों का वर्णन हुआ है। विलासिनी स्त्रियाँ वसन्त ऋतु में कुङ्कुमराग-पिंजर अंशुकों का प्रयोग करती थीं तो हेमन्त में सराग कौशेयक का । रक्त वर्ण के प्रति अंगनाओं की अभिरुचि अधिक थी- तनूनि लाक्षारसरञ्जितानि धत्ते जनः काममदालसाङ्गः। इस कला में निपुण रंजकों का वर्ग तो था ही, घर की कन्यायें, वधुयें और प्रौढ़ायें भी इस कला में निपुण होती थीं। हर्षचरित में विभिन्न प्रकार की बाँधनू की रंगाई और वस्त्रों पर फूल-पत्तों की छपाई के कार्य में निपुण स्त्रियों का वर्णन हुआ है । वस्त्र रंगने की इस 'डाइंग' कला का आज भी विस्तृत कारोबार है ।
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(iii) '''अंगराग-''' शरीर के सौंदर्य की वृद्धि के लिये अंगराग का उपयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता रहा है। साहित्य में अंगराग के दो गुणों का बहुशः वर्णन हुआ है। प्रथम-लाल रंग, द्वितीय- मनोरम गंध। अंगराग से ललाट, मुख, कपोल एवं वक्षः स्थल को रंजित किया जाता था। अधरराग और चरणराग की कला भी संस्कृत कवियों का वर्ण्य विषय बनी है। आचार्य भरत ने 'अधर-संस्कार' को अधरों का 'विभूषक' माना है। रतिसर्वस्व अधरों में अति माधुर्य, उच्छूनता एवं लालिमा की सृष्टि के लिये निपुण हाथों से रंग भरकर, अधरों की रेखाओं को जब कुछ अधिक गाढ़े रंग से स्पष्ट कर दिया जाता था, तब उनकी छवि अपूर्व लावण्य से भर उठती थी।
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चरण-राग के लिये लाक्षारस या अलक्तक का प्रयोग होता था। इसका सर्वाधिक मनोरम वर्णन मालविकाग्निमित्र में हुआ है। नैसर्गिक रूप से अरुण चरणों पर अलक्तक की मसृण शोभा वैसी ही होती थी जैसी कमलकोश पर बाल-अरुण की कोमल धूप वस्तुतः 'दशन-वसन-अंगरागाः' वस्त्रों के साथ ही शरीर के विभिन्न अंगों की उज्ज्वल रंग से रंगने एवं उसके माध्यम से जीवन में रागसृष्टि की कला थी।
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=== मणिभूमिकाकर्म॥  ===
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अपने भासुर वर्ण और स्थायी चमक के कारण मणियाँ प्राचीन काल से ही मानव को लुब्ध करती रही हैं। अंधकार में भी आलोक बिखेरने वाली दमकती हुई मणियों को आभूषणों में तो गूँथा गया ही है, राजभवनों और प्रासादों के भूमिनिर्माण के कार्य में भी इनका उपयोग हुआ है। प्राचीन भारत में बहुवर्णी मणियों से कलात्मक डिज़ाइनों में भवन के फर्श की रचना एक शिल्प या कला के रूप में मान्य रही है जिसे वात्स्यायन ने मणि-भूमिका कर्म कहा है। संस्कृत साहित्य में राज-प्रासादों के वर्णनप्रसंग में `मणि-भूमि या मणि-कुट्टिम का बहुलता से वर्णन हुआ है।
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इस ऋतु, अवसर और स्थान के अनुकूल मणि-भूमि की रचना में ही कला थी। ग्रीष्म में श्वेत स्फटिक मणि की योजना होती थी जिसे मलयज रस से धोकर और अधिक शीतल बना लिया जाता था। आकाश की नील शोभा की सृष्टि के लिये इन्द्रनीलमणि का प्रयोग होता था तो उपवनों की हरीतिका के मध्य मरकतमणि से भूमिरचना की जाती थी ऋतु द्वारा ‘मणिभूमिका-कर्म’ द्वारा रत्नगर्भा भूमि को रत्नों से सजाने की कला गृह-प्राङ्गण और उपवन की भूमि पर मणियों से रचे गये पुष्पचित्र और इन्द्र धनुष हजारों वर्ष बाद भी म्लान नहीं हुये हैं।
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=== शयनरचनम् ॥ Shayana rachana ===
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शयन-रचन शय्या की विरचना (विशेष रचना) की कला है जिसमें शयन सुख का आनन्द भी समाहित है। शय्या पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन का मर्मस्थान है। व्यक्ति की आयु, वैभव, आवश्यकता, ऋतु, प्रसंग आदि के अनुरूप विविध प्रकार की सुन्दर, सुखद, सुकोमल, कमनीय शय्यायों की रचना एक ऐसी जीवनोपयोगिनी कला है जिसमें सौन्दर्यबोध और कौशल दोनों ही निहित है।
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प्रसंगानुकूल शय्या के लिये उपयुक्त स्थान एवं सामग्री का चयन, शय्या की कल्पना, साज-सज्जा एवं अलंकरण आदि का बहुल वर्णन संस्कृत साहित्य में हुआ है। नानाप्रकार की पत्र-पुष्प शय्यायें, यथा-तमालपत्रास्तरण, नवपत्लवसंस्तर, प्रवालशय्या, हेमपल्लवविभङ्गसंस्तर, नलिनीदलशयन, कमलकुमुदकुवलयशयन, कदलीतलप, सुश्लक्ष्म, उपधान, धवल, उत्तरच्छद, हंसधवलशयनतल आदि शयन-रचन की विविधता को सूचित करते हैं।
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शय्या की सार्थकता पति-पत्नी के मथुरमिलन में थी। इसका लक्ष्य था-स्वस्थ, सुन्दर सर्जन अर्थात् प्रजनन। <nowiki>''</nowiki>प्रजायै शयनम<nowiki>''</nowiki> ही शयनरचना का सार था जिसे वैदिक मन्त्र भी कहते हैं-आरोह तल्पं सुमनस्यमानेह प्रजा जनय पत्ये अस्मै॥
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=== उदकवाद्यम् ॥ Udakavadya ===
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रघुवंश महाकाव्य में महाराज कुश की कलानिपुण अन्तःपुरिकाओं को सरयू नदी में इस कला का आनन्द लेते हुये वर्णित किया गया है। इस वारि-मृदंग ध्वनि का अभिनन्दन तटवर्ती मयूर अपनी केका ध्वनि से करते हैं। वस्तुतः जलप्रवाह में स्वयं ही एक नाद और छन्द होता है। जल के इस नाद को राग और लय में बाँध लेना ही मानवीय कौशल है जिसे प्राचीन भारत की नागरिकाओं ने जलक्रीड़ा के माध्यम से अधिगत किया था।
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(ii) उदकघात-‘उदकघात’ का अर्थ है-जल से आघात; अर्थात् मनोरंजन के लिये एक दूसरे पर जल के छींटे मारना। यह दो प्रकार से संभव है- हाथ से अथवा यन्त्र (पिचकारी) से। जलक्रीड़ा में सच्चा विनोद या मनोरंजन इसी क्रिया से होता है। मोती के समान स्थूल जलकणों से जब प्रहार किया जाता है, तब विलासिनियों को अपने टूटते हुये मुक्ताहारों का भी बोध नहीं रहता। जल से मोती की लड़ियों या चाँद की कतारों का बनना तभी संभव है जब निरन्तर एक लय में पानी उछाला जाये और यही इस विनोद का कलात्मक पक्ष है।
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इस कला का दूसरा रूप है- पिचकारी से जलाघात। महाकवि माघ के अनुसार इस कलात्मक विनोद के साधन हैं- स्वर्णरचित चमकते हुये शृंग, कस्तूरी-कुङ्कुमादि सुगन्धित द्रव्य, कुसुम्भी रंग के वस्त्र, मादक मदिरा और प्रिय का सान्निध्य। वर्तमान होली या फाग के रूप में यह कला आज भी जीवित है।
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=== उदकघातः ॥ Udakaghata ===
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=== चित्रायोगाः ॥ Chitrayoga ===
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मणि, मन्त्र, औषधियों के विचित्र प्रयोगों की विद्या या इनकी शक्ति से असंभव को भी संभव बना लेने की कला 'चित्रयोग' कही गई है। इस कला का बीज ऋग्वेद में एवं विकसित स्वरूप अथर्ववेद में प्राप्त होता है । ऋग्वेद में यज्ञों में प्रयुक्त हवि से असपत्न (शत्रुहीन) होने की कामना की गई है
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अभीवर्तेन हविषा येनेन्द्रो अभिवावृते । तेनास्मान् ब्रह्मणस्पते ऽभि राष्ट्राय वर्तय ।। येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद्युम्न्युत्तमः । इदं तदक्रि देवा असपत्नः किलाभुवम् ।। *
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रघुवंश 16/62 2. अनवरतकरास्फालन-स्फुरत्फेनबिन्दुचन्द्रकितम् (कादम्बरी पृ. 182) शिशुपालवध 8/30 ऋग्वेद 10/174/1,4
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अथर्ववेद में 'जगिड' मणि को कृत्या-नाशिनी, आरोग्यदायिनी और आयुष्यवर्धिनी कहा गया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के औपनिषदिक अधिकरण में ऐसे अनेक अद्भुत योगों, भैषज्य और मन्त्र प्रयोगों का वर्णन है, जिनसे रूपपरिवर्तन, महीनों तक भूख न लगना, श्वेतीकरण, कुष्ठयोग, शरीर पर बिना पीड़ा के आग जला लेना, अंगारों के ऊपर चलना, मुँह से आग छोड़ना, जल में आग जलाना, घन अंधकार में भी वस्तुओं को देख पाना, अदृश्य हो जाना, पानी पर चलना आदि अद्भुत क्रियाओं को किया जा सकता है। 'प्रस्वापन' मंत्र की शक्ति से सभी को सुला देना, बन्द दरवाजे को खोल देना, आदि विस्मयजनक यौगिक क्रियायों का वर्णन भी हुआ है। कामसूत्र के औपनिषदिक अधिकरण में 'चित्रयोग' नामक प्रकरण में भी ऐसे अद्भुत प्रयोगों का निरूपण हुआ है।
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=== माल्यग्रथनविकल्पाः ॥ Malyagrathana vikalpa ===
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संस्कृत साहित्य में 'माल्य' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है, पुष्प के अर्थ में तथा पुष्पों से रचित माला' के अर्थ में । अतः 'माल्यग्रथनविकल्प' से अभिप्राय-पुष्पों को सुन्दर कलात्मक ढंग से गूंथकर या बाँधकर माला, करधनी, कर्णाभूषण, शिरोभूषण आदि बनाने की कला है। सभ्यता के प्रथम चरण में जब सामान्य जन ने स्वर्णादि धातुओं का प्रयोग नहीं सीखा था; तब माल्य ही मानव के प्रथम प्रसाधन बने । प्राचीन भारत में माल्य देवता और मनुष्य दोनों के ही नेपथ्यविधान का अनिवार्य अंग था। वैदिक उल्लेखों से लेकर अद्यतन युग तक, संपूर्ण संस्कृत साहित्य में शायद ही कोई ऐसी कृति हो जिसमें माल्य का उल्लेख न हुआ हो।
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ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों को 'पुष्करसृज' कमलपुष्पों की माला धारण करने वाला कहा गया है। रामायण में कमलों की माला को धारण करती हुई वनवासिनी सीता की उपमा पद्मिनी से दी गई है।
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संस्कृत साहित्य में नाना प्रकार की मालाओं का वर्णन हुआ है-कदम्ब, नवकेसर और केतकी की सिर पर धारण की जाने वाली मालायें, बकुलमाला, वेणीस्रक्, वनमाला, वक्षःस्थल को सुशोभित करने वाले पुष्पहार, कण्ठ से वक्षःस्थल तक लटकती हुई 'प्रालम्ब' मालायें, कण्ठमालिका, आजानुलम्बी वैकक्षक (बाँये कन्धे से दाहिनी ओर एवं दाहिने
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कंधे से बाँई ओर जाती हुई मध्य में स्वस्तिकाकार) मालायें, पैरों का स्पर्श करती हुई आप्रपदीन माला, कौतुकमालिका, वन्दनमाला आदि ।
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इसी प्रकार केसरदामकांची, विलासमेखला, शिरीषकुसुमस्तबक-कर्णपूर आदि पुष्पाभरणों
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का सौन्दर्य भी देखा जा सकता है।
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भरतमुनि के अनुसार संरचना की दृष्टि से माल्य पाँच प्रकार के होते हैं वेष्टिम, संघात्य, ग्रन्थिमत् एवं प्रलम्बित
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‘माल्यग्रथन' एक सुन्दर हस्तशिल्प था जिसमें अन्य कलाओं की भाँति ही विदग्धता की अपेक्षा रहती थी। माल्यग्रथन की अनेक व्यक्तिगत शैलियाँ थीं। कुन्दमाला नाटक इसका सुन्दर उदाहरण है। माल्यग्रथनविकल्प जीवन के शृंगार की कला है। यह प्रेम की ऐसी मूक भाषा है, जिसे मानव ने कोमल पुष्पों के बहुवर्णी वैविध्य के माध्यम से मुखर किया है। शेखरकापीडयोजनम्
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=== केशशेखरापीडयोजनम् ॥ Keshashekharapeeda yojana ===
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‘शेखरक' और 'आपीड' सिर पर धारण किये जाने वाले दो पुष्परचित अलंकार हैं? यह कला माल्यग्रथन का ही अङ्ग है तथापि सुन्दर ढंग से इसकी योजना में भी एक प्रकार की कलात्मकता है। अतः वात्स्यायन ने इसे एक स्वतन्त्र कला माना है। यशोधर के अनुसार शेखर और आपीड में सूक्ष्म भेद है। शेखर शिखास्थान में अवलम्बन्यास से पहना जाता है तथा इसकी रचना शिखराकार होती है। आपीड मालाकार गूँथा जाता है तथा सिर को घेरते हुये काष्ठिका (पिन) आदि की सहायता से पहना जाता है। कालिदास के युग में मौलिमाला या मौलिक् का ही प्रयोग हुआ है। बाणभट्ट के युग में इसने शेखर का रूप ले लिया। शूद्रक के मस्तक को आमोदित मालती-कुसुम-शेखर
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अलंकृत करते हैं तो राजकुमार चन्द्रापीड की पहचान ही चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल शेखर से होती है
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वाल्मीकि के अनुसार आपीड दाक्षिणात्यों का विशिष्ट शिरोभूषण था। बाणभट्ट इसके स्थान पर ‘मुण्डमाला” शब्द का प्रयोग करते हैं। वर्तमान समय में शेखरक विवाह के अवसर पर वर द्वारा धारण किये गये सेहरे के रूप में एवं आपीड वधुओं की शिरोमाला के रूप में दिखाई देते हैं।
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=== नेपथ्ययोगाः ॥ Nepathyayoga ===
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वात्स्यायन द्वारा वर्णित चौंसठ कलाओं में से एक महत्त्वपूर्ण कला है- नेपथ्ययोग अर्थात् वेशभूषाधारण करने की कला या प्रसाधनकला। यशोधर के अनुसार देश और काल के अनुरूप वस्त्र, माल्य, आभूषणादि से स्वयं को या दूसरों को, शोभा के लिये मण्डित करने की कला नेपथ्ययोग है।
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नेपथ्य नाट्यशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है, जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-नेता का पथ्य (नेः नेता तस्य पथ्यम्), अर्थात वे साधन जो सामाजिक को रसानुभूति की ओर ले जाने वाले अभिनयव्यापार में सहयोगी होते हैं-नेपथ्य हैं । आचार्य भरत के अनुसार 'आहार्य' अभिनय का नाम ही नेपथ्यविधान है। संस्कृत साहित्य में नेपथ्य शब्द का प्रयोग प्रारम्भ में केवल नटों द्वारा धारण की जाने वाली वेशभूषा, मंचसज्जा आदि के लिये हुआ । आद्य नाट्यकार भास ने इसी अभिप्राय से नेपथ्यपालिनी' शब्द का प्रयोग किया है। बाद में जन-जीवन में स्त्री-पुरुष द्वारा धारण की जाने वाली विशिष्ट वेशभूषा को भी नेपथ्य कहा गया। भरत के पश्चात् नेपथ्यकला का सर्वप्रथम सागोपांग वर्णन कालिदास की कृतियों में हुआ है। नेपथ्ययोग कलात्मक ढंग से सुसज्जित होने की कला थी । स्नान के पश्चात् नेपथ्यविधि प्रारम्भ होती थी। इसके निम्नलिखित मुख्य अंग थे-
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* केशरचना।
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* अनुलेप या अंगराग।
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* पत्रावलीरचना।
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* अलंकारयोग।
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* वस्त्रयोग।
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* माल्यप्रयोग।
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सुरुचिपूर्ण नेपथ्य सुसंस्कृत अभिरुचि, आभिजात्य और समृद्धि का परिचायक था। नेपथ्यकला की कसौटी <nowiki>''वधूनेपथ्य''</nowiki> को माना गया था। इस कला का सम्प्रति ब्यूटीपार्लर द्वारा व्यवसाय के स्वरूप में प्रचलन है।
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=== कर्णपत्रभङ्गाः ॥ Karnapatrabhanga ===
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हाथीदाँत, शंख, आदि से पत्राकृति कर्णाभूषण बनाने की कला कर्णपत्रभंग कही जाती के अनुकरण पर जिस प्रकार कनक-कमल आदि आभूषणों की रचना हुई उसी प्रकार कटावदार तरंगायित पत्रों के अनुकरण पर 'कर्णपत्र' की। भंग का अर्थ है- अंश या टुकड़ा। अतः कर्णपत्रभंग से अभिप्राय है, हाथीदाँत के टुकड़ों से पत्ते के आकार की आभरणरचना जिसकी विशेष संज्ञा 'दन्तपत्र' है। दन्तपत्र को धारण करने के सन्दर्भ अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होते हैं उदाहरण स्वरूप विवाह के अवसर पर पार्वती के मुख को शोभित करने वाला कर्णावसक्त दन्तपत्र दन्तपत्र के प्रति स्त्रियों की अनुरक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चन्द्रापीड से मिलने आई कादम्बरी ने अन्य आभूषणों का प्रयोग किया था।
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=== गन्धयुक्तिः ॥ Gandhayukti ===
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=== भूषणयोजनम् ॥ Bhushanayojana ===
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=== इन्द्रजालम् ॥ Indrajala ===
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=== कौचुमारयोगाः ॥ Kauchumarayoga ===
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=== हस्तलाघवम् ॥ Hastalaghava ===
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=== चित्रशाकापूपभक्ष्यविकारक्रिया ॥ Chitrashakapupabhakyavikara kriya ===
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=== पानकरसरागासवयोजनम् ॥ Panakarasaragasava yojana ===
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=== सूचीवापकर्म ॥ Suchivapakarma ===
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=== वीणाडमरुकसूत्रक्रीडा ॥ Veena damaruka sutra kreeda ===
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=== प्रहेलिका ॥ Prahelika ===
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=== प्रतिमा* ॥ Pratima ===
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=== दुर्वचकयोगाः ॥ Durvachaka yoga ===
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=== पुस्तकवाचनम् ॥ Pustaka vachana ===
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=== नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  ॥ Natika Akhyayika darshana ===
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=== काव्यसमस्यापूरणम् ॥ Kavya samasya purana ===
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=== पट्टिकावेत्रवाणविकल्पाः ॥ Pattikavetravana vikalpa ===
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=== तर्कूकर्माणि ॥ Tarkukarma ===
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=== तक्षणम् ॥ Takshana ===
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=== वास्तुविद्या ॥ Vastuvidya ===
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=== रूप्यरत्नपरीक्षा  ॥ Roopya ratna pariksha ===
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=== धातुवादः  ॥ Dhatuvada ===
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=== मणिरागज्ञानम्  ॥ Maniraga jnana ===
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=== आकरज्ञानम् ॥ Akara jnana ===
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=== वृक्षायुर्वेदयोगाः ॥ Vrkshayurveda yoga ===
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=== मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः ॥ Mesha kukkutalavaka yuddhavidhi ===
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=== शुकसारिकाप्रलापनम्  ॥ Shuka sarika pralapana ===
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=== उत्सादनम्  ॥ Utsadana ===
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=== केशमार्जनकौशलम्  ॥ Keshamarjana kaushala ===
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=== अक्षरमुष्टिकाकथनम् ॥ Aksharamushtika kathana ===
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=== म्लेच्छितकविकल्पाः॥ Mlecchitaka vikalpa ===
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=== देशभाषाज्ञानम्  ॥ Deshabhasha jnana ===
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=== पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञानम् ॥ Pushpashakatika nimitta jnana ===
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=== यन्त्रमातृका ॥ Yantramatrka ===
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=== धारणमातृका ॥ Dharanamatrka ===
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=== सम्पाट्यम् ॥ Sampatya ===
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=== मानसीकाव्यक्रिया ॥ Manasikavya kriya ===
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=== क्रियाविकल्पाः ॥ Kriyavikalpa ===
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=== छलितकयोगाः ॥ Chalitayoga ===
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=== अभिधानकोषच्छन्दोज्ञानम् ॥ Abhidhanakosh chanda jnana ===
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=== वस्त्रगोपनानि ॥ Vastragopana ===
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=== द्यूतविशेषः ॥ Dyutavishesha ===
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=== आकर्षणक्रीडा ॥ Akarshana kreeda ===
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=== बालकक्रीडनकानि ॥ Balaka kreedanaka ===
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=== वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vainaayiki vidya jnana ===
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=== वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ॥ Vaijayiki vidya jnana ===
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=== वैतालिकीनां विद्यानां ज्ञानम्  ॥ Vaitaliki vidya jnana ===
      
== निष्कर्ष॥ Discussion ==
 
== निष्कर्ष॥ Discussion ==

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