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एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब सम्टिजीवन का व्यवहार चलता है तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एकदूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुडे हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है उसे लोगों तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है ।
 
एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब सम्टिजीवन का व्यवहार चलता है तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एकदूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुडे हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है उसे लोगों तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है ।
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यदि भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा ।
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यदि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा ।
    
==== धर्माचार्य किसे कहेंगे ? ====
 
==== धर्माचार्य किसे कहेंगे ? ====
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==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
 
==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।  
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धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।  
    
तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।  
 
तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।  
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सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायिओं की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पडता है।
 
सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायिओं की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पडता है।
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अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना यह बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना यह बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही भारतीय परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।  
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अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना यह बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना यह बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही धार्मिक परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।  
    
दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...  
 
दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...  
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* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
 
* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
 
# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
 
# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये । उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। भारतीय मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।  
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# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये । उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। धार्मिक मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।  
 
# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये...
 
# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये...
 
* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?  
 
* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?  
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तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों ने शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो इसकी योजना करनी चाहिये।
 
तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों ने शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो इसकी योजना करनी चाहिये।
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उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदिने शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । भारतीय शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।
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उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदिने शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । धार्मिक शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।
    
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।
 
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।
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=== भारत के शिक्षाक्षेत्र  की पुनर्रचना ===
 
=== भारत के शिक्षाक्षेत्र  की पुनर्रचना ===
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==== भारत में भारतीय शिक्षा होनी चाहिये ====
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==== भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये ====
यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगों को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
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यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा धार्मिक ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का धार्मिक होना स्वाभाविक ही तो है। फिर धार्मिक होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगों को धार्मिक होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग धार्मिक हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का धार्मिक होना है। भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
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देश के अधिकतम लोगों के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अधार्मिक जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अधार्मिक होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगों की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी
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देश के अधिकतम लोगों के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। धार्मिक और अधार्मिक जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। धार्मिक होने से और अधार्मिक होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगों की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी
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खाने वाले लोगों की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अधार्मिक का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु भारतीय और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
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खाने वाले लोगों की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें धार्मिक और अधार्मिक का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु धार्मिक और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
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==== भारतीय शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
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==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के भारतीय या अधार्मिक होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगों तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक
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देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के धार्मिक या अधार्मिक होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल धार्मिक स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगों तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक
    
लोगों को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
 
लोगों को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
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कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, भारतीय शिक्षा नहीं।  
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कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, धार्मिक शिक्षा नहीं।  
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विगत सौ सवासौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को भारतीय बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का भारतीय और अधार्मिक होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् भारतीय होनी चाहिये ।
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विगत सौ सवासौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को धार्मिक बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का धार्मिक और अधार्मिक होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् धार्मिक होनी चाहिये ।
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परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के भारतीय या अधार्मिक होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ भारतीय ही है।
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परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ धार्मिक ही है।
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अब प्रश्न अच्छी शिक्षा का है, भारतीय शिक्षा का नहीं।
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अब प्रश्न अच्छी शिक्षा का है, धार्मिक शिक्षा का नहीं।
    
==== वैश्विक शिक्षा के हिमायती ====
 
==== वैश्विक शिक्षा के हिमायती ====
देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब भारतीय अधार्मिक का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें भारतीय नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये।
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देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें धार्मिक नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये।
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इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और भारतीय नागरिक अपने बच्चों को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' भारतीय हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)।
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इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और धार्मिक नागरिक अपने बच्चों को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' धार्मिक हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)।
    
==== अधार्मिकता का आधार ====
 
==== अधार्मिकता का आधार ====
तो फिर यह भारतीय अधार्मिक का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के भारतीयकरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है और उसे भारतीय बनाना चाहिये ।
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तो फिर यह धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के धार्मिककरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है और उसे धार्मिक बनाना चाहिये ।
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भारतीय और अधार्मिक किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो भारतीय नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या भारतीय शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या भारतीय शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा भारतीय होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना भारतीय शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना भारतीय शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगों तक ही शिक्षा को सीमित कर देना भारतीय शिक्षा है ? यदि यही भारतीय शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही भारतीय शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं।
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धार्मिक और अधार्मिक किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो धार्मिक नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या धार्मिक शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या धार्मिक शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा धार्मिक होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगों तक ही शिक्षा को सीमित कर देना धार्मिक शिक्षा है ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं।
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इस प्रकार शिक्षा के भारतीय होने की और उसे भारतीय बनाने की बात जल्दी लोगों की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगों का दायित्व है कि प्रथम तो लोगों के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें ।
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इस प्रकार शिक्षा के धार्मिक होने की और उसे धार्मिक बनाने की बात जल्दी लोगों की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगों का दायित्व है कि प्रथम तो लोगों के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें ।
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==== शिक्षा भारतीय कब होगी ? ====
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==== शिक्षा धार्मिक कब होगी ? ====
शिक्षा भारतीय है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा 'भातीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप' ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
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शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा 'भातीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप' ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
    
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...  
 
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...  
* भारतीय शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये भारतीय नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह भारतीय नहीं है।  
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* धार्मिक शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये धार्मिक नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह धार्मिक नहीं है।  
* भारतीय शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।  
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* धार्मिक शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।  
* भारतीय शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा भारतीय होने की कोई निश्चिति नहीं है।  
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* धार्मिक शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा धार्मिक होने की कोई निश्चिति नहीं है।  
* भारतीय शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती । आज भी अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद, षडदर्शन, भगवद्गीता आदि पढाते हैं, पूजापाठ भी पढाते हैं, परन्तु वह शिक्षा भारतीय नहीं है।
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* धार्मिक शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती । आज भी अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद, षडदर्शन, भगवद्गीता आदि पढाते हैं, पूजापाठ भी पढाते हैं, परन्तु वह शिक्षा धार्मिक नहीं है।
ऐसे अनेक पहलू हैं जो भारतीय शिक्षा के अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को भारतीय नहीं बनाते।
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ऐसे अनेक पहलू हैं जो धार्मिक शिक्षा के अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को धार्मिक नहीं बनाते।
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जिस शिक्षा की आत्मा भारतीय है वही शिक्षा भारतीय है। जिसकी आत्मा भारतीय है और जिसकी नहीं है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं, आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश का स्वभाव होती है। भारत के लिये जो स्वाभाविक है वही भारतीय है। भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह भारतीय शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अधार्मिक ।
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जिस शिक्षा की आत्मा धार्मिक है वही शिक्षा धार्मिक है। जिसकी आत्मा धार्मिक है और जिसकी नहीं है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं, आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश का स्वभाव होती है। भारत के लिये जो स्वाभाविक है वही धार्मिक है। भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह धार्मिक शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अधार्मिक ।
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==== भारतीय शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
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==== धार्मिक शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
 
शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं...  
 
शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं...  
 
# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।  
 
# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।  
 
# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
 
# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
 
# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।  
 
# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।  
# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।  
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# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता धार्मिक स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।  
 
* जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।  
 
* जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।  
 
* शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
 
* शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
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* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं। श
 
* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं। श
 
* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
 
* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
* भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोडा नहीं गया है।  
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* धार्मिक शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोडा नहीं गया है।  
 
* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
 
* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
भारतीय शिक्षा की यह आत्मा है। भारतीय शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
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धार्मिक शिक्षा की यह आत्मा है। धार्मिक शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
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आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' भारतीय होने पर भी स्वभाव से भारतीय नहीं है।
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आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' धार्मिक होने पर भी स्वभाव से धार्मिक नहीं है।
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शिक्षा ऊपर बताये गये हैं ऐसे अर्थों में भारतीय होनी चाहिये कि नहीं ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
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शिक्षा ऊपर बताये गये हैं ऐसे अर्थों में धार्मिक होनी चाहिये कि नहीं ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
    
==== आज के जमाने में यह नहीं चलेगा ====
 
==== आज के जमाने में यह नहीं चलेगा ====
एक ओर तो आज भी भारतीय अन्तर्मन में इन सारी बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि यह सब ऐसा ही होना चाहिये । परन्तु व्यावहारिक धरातल पर तो यह सब रम्य स्वप्न जैसा ही लगता है। एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है, आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता।
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एक ओर तो आज भी धार्मिक अन्तर्मन में इन सारी बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि यह सब ऐसा ही होना चाहिये । परन्तु व्यावहारिक धरातल पर तो यह सब रम्य स्वप्न जैसा ही लगता है। एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है, आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता।
    
आज पैसे का बोलबाला है। कोई मुफ्त में पढायेगा नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।
 
आज पैसे का बोलबाला है। कोई मुफ्त में पढायेगा नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।
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भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।
 
भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।
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अतः भारतीयता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये ।
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अतः धार्मिकता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये ।
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इस प्रकार भारतीयता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।
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इस प्रकार धार्मिकता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।
    
==== पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है । ====
 
==== पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है । ====
जो लोग कहते हैं कि यहां बताया गया है वही भारतीय शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं। कठिन तो हैं ही। आज के सारे वातावरण से सब इतने सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है।
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जो लोग कहते हैं कि यहां बताया गया है वही धार्मिक शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं। कठिन तो हैं ही। आज के सारे वातावरण से सब इतने सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है।
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अतः भारतीय शिक्षा का क्या करना इसकी चर्चा शुरू करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये।  
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अतः धार्मिक शिक्षा का क्या करना इसकी चर्चा शुरू करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये।  
# भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा भारतीय होना अनिवार्य है।  
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# भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा धार्मिक होना अनिवार्य है।  
 
# भारत को भारत रहना ही है। भारत भारत रहे यह विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है।  
 
# भारत को भारत रहना ही है। भारत भारत रहे यह विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है।  
# भारत में शिक्षा भारतीय होना कठिन अवश्य है असम्भव नहीं क्योंकि वह भारत के लिये स्वाभाविक है।  
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# भारत में शिक्षा धार्मिक होना कठिन अवश्य है असम्भव नहीं क्योंकि वह भारत के लिये स्वाभाविक है।  
 
# कठिन बात को व्यावहारिक बनाने हेतु पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। यह पुरुषार्थ शिक्षकों के नेतृत्व में, धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में, सरकार के सहयोग से प्रजा का होगा, सरकार का नहीं ।
 
# कठिन बात को व्यावहारिक बनाने हेतु पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। यह पुरुषार्थ शिक्षकों के नेतृत्व में, धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में, सरकार के सहयोग से प्रजा का होगा, सरकार का नहीं ।
 
इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं। इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी।  
 
इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं। इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी।  
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==== भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना के आयाम इस प्रकार हैं... ====
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==== धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना के आयाम इस प्रकार हैं... ====
 
# शैक्षिक पुनर्रचना  
 
# शैक्षिक पुनर्रचना  
 
# आर्थिक पुनर्रचना
 
# आर्थिक पुनर्रचना
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इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।
 
इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।
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यह पाठ्यक्रम आज भारतीय नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
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यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
    
(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें शुरु करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगों को काम मिल सकता है।
 
(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें शुरु करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगों को काम मिल सकता है।
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सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । भारतीय समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये।
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सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये।
    
देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में
 
देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में
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==== अध्ययन और अनुसन्धान ====
 
==== अध्ययन और अनुसन्धान ====
भारतीय ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता ? पतंजली मुनिने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह भारतीय मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है ? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं ? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं ? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।
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धार्मिक ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता ? पतंजली मुनिने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह धार्मिक मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है ? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं ? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं ? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।
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भारतीय ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये ।
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धार्मिक ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये ।
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आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका भारतीय पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस _प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है।
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आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका धार्मिक पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस _प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है।
    
देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।
 
देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।
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उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
 
उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
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२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। भारतीय ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
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२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
    
३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम  
 
३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम  
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विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।
 
विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।
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साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ भारतीय विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन तथा विश्व की वर्तमान स्थिति, उसके संकट, समस्याओं तथा उनके भारतीय हल आदि विषयों का समावेश करने वाला अध्ययन भी इन विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र बनना आवश्यक है।
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साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ धार्मिक विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन तथा विश्व की वर्तमान स्थिति, उसके संकट, समस्याओं तथा उनके धार्मिक हल आदि विषयों का समावेश करने वाला अध्ययन भी इन विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र बनना आवश्यक है।
    
इन विश्वविद्यालयों की गोष्ठियाँ, अनुसन्धान की पत्रिका तथा मुखपत्रों का प्रकाशन होना तो सहज है।
 
इन विश्वविद्यालयों की गोष्ठियाँ, अनुसन्धान की पत्रिका तथा मुखपत्रों का प्रकाशन होना तो सहज है।
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भारत में पूर्व में भी विद्यापीठों ने इसी प्रकार काम किया है और भारत के ज्ञान को विश्व में ले जाने में वे यशस्वी हुए हैं। विश्व ने ज्ञान का प्रकाश उन्हीं विश्वविद्यालयों से पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना का प्रथम चरण है। समाज द्वारा पोषित और समर्पित ये विश्वविद्यालय अन्य सभी आयामों के लिये मार्गदर्शक होंगे।
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भारत में पूर्व में भी विद्यापीठों ने इसी प्रकार काम किया है और भारत के ज्ञान को विश्व में ले जाने में वे यशस्वी हुए हैं। विश्व ने ज्ञान का प्रकाश उन्हीं विश्वविद्यालयों से पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का प्रथम चरण है। समाज द्वारा पोषित और समर्पित ये विश्वविद्यालय अन्य सभी आयामों के लिये मार्गदर्शक होंगे।
    
==== आर्थिक पुनर्रचना ====
 
==== आर्थिक पुनर्रचना ====
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वर्तमान विश्वस्थिति को देखते हुए आर्थिक पक्ष की ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि विश्व आज अर्थसंकट से ग्रस्त हो गया है। इसका मूल कारण पश्चिमी देशों की जीवन व्यवस्था अर्थनिष्ठ है । उपभोग प्रधान जीवनशैली होने के कारण उन्हें अर्थ की आवश्यकता अधिक होती है और अर्थप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ होने के कारण अर्थप्राप्ति के प्रयासों को कोई बन्धन नहीं है। कोई मर्यादा नहीं है। भारत अपने स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं है, धर्मनिष्ठ है। चार पुरुषार्थों में अर्थ भी एक पुरुषार्थ है और सभी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूर्ण किया जा सके ऐसा अर्थसम्पादन सबको करना चाहिये ऐसा आदेश सभी गृहस्थाश्रमियों को दिया जाता है। ऐसा आदेश धर्म ही देता है । परन्तु मनुष्य के अर्थ पुरुषार्थ को ओर उपभोग को धर्म की मर्यादा में बाँधा गया है। परिणाम स्वरूप सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्यक् रूप से होती है।
 
वर्तमान विश्वस्थिति को देखते हुए आर्थिक पक्ष की ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि विश्व आज अर्थसंकट से ग्रस्त हो गया है। इसका मूल कारण पश्चिमी देशों की जीवन व्यवस्था अर्थनिष्ठ है । उपभोग प्रधान जीवनशैली होने के कारण उन्हें अर्थ की आवश्यकता अधिक होती है और अर्थप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ होने के कारण अर्थप्राप्ति के प्रयासों को कोई बन्धन नहीं है। कोई मर्यादा नहीं है। भारत अपने स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं है, धर्मनिष्ठ है। चार पुरुषार्थों में अर्थ भी एक पुरुषार्थ है और सभी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूर्ण किया जा सके ऐसा अर्थसम्पादन सबको करना चाहिये ऐसा आदेश सभी गृहस्थाश्रमियों को दिया जाता है। ऐसा आदेश धर्म ही देता है । परन्तु मनुष्य के अर्थ पुरुषार्थ को ओर उपभोग को धर्म की मर्यादा में बाँधा गया है। परिणाम स्वरूप सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्यक् रूप से होती है।
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परन्तु आज भारत, पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हो गया है। हम जब कहते हैं कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है
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परन्तु आज भारत, पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हो गया है। हम जब कहते हैं कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है
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तब वह कथन सम्पूर्ण जीवन को लागू होता है। भारत में आज सम्पूर्ण जीवनव्यवस्था ही भारतीय नहीं रही। पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव जीवनव्यापी हुआ है। अतः धर्मनिष्ठ भारत आज अर्थनिष्ठ बन गया है। हम पैसे को सर्वस्व मानते हैं, एक मात्र प्राप्त करने लायक वस्तु मानते हैं, येन केन प्रकारेण उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, अर्थ के ही सन्दर्भ में सभी बातों का मूल्यांकन करते हैं। अर्थ, धर्म, ज्ञान, संस्कार, सद्गुण, भावना, राजनीति, परिवार व्यवस्था, शिक्षा आदि का नियन्त्रक बन गया है।
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तब वह कथन सम्पूर्ण जीवन को लागू होता है। भारत में आज सम्पूर्ण जीवनव्यवस्था ही धार्मिक नहीं रही। पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव जीवनव्यापी हुआ है। अतः धर्मनिष्ठ भारत आज अर्थनिष्ठ बन गया है। हम पैसे को सर्वस्व मानते हैं, एक मात्र प्राप्त करने लायक वस्तु मानते हैं, येन केन प्रकारेण उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, अर्थ के ही सन्दर्भ में सभी बातों का मूल्यांकन करते हैं। अर्थ, धर्म, ज्ञान, संस्कार, सद्गुण, भावना, राजनीति, परिवार व्यवस्था, शिक्षा आदि का नियन्त्रक बन गया है।
    
इसके कारण अनेक संकट निर्माण हुए हैं । सर्वाधिक संकट तो स्वयं अर्थक्षेत्र का ही है। इस प्रकार इनकी सूची बना सकते हैं...  
 
इसके कारण अनेक संकट निर्माण हुए हैं । सर्वाधिक संकट तो स्वयं अर्थक्षेत्र का ही है। इस प्रकार इनकी सूची बना सकते हैं...  
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# देशविदेशों के शिक्षाक्षेत्र के साथ सम्पर्क में रहना, उनसे संवाद स्थापित करना, वहाँ जाना और उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित करना कुलपति परिषद का काम है।  
 
# देशविदेशों के शिक्षाक्षेत्र के साथ सम्पर्क में रहना, उनसे संवाद स्थापित करना, वहाँ जाना और उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित करना कुलपति परिषद का काम है।  
 
# देश के ज्ञान का रक्षण, वर्धन, परिष्करण करना, अगली पीढी को हस्तान्तरित करना, जीवन की और जगत की समस्याओं का ज्ञानात्मक समाधान करना, राज्य और समाज के कल्याण हेतु नित्य चिन्तन करना, मार्गदर्शन करने हेतु सदैव सिद्ध रहना, नित्य ज्ञानसाधक और विद्यावृत्ती रहना, ज्ञान के प्रति एकानिष्ठ रहना, ज्ञान का अनादर नहीं होने देना, अज्ञानी को प्रश्रय नहीं देना, सत्ता या धन के समक्ष नहीं झुकना, इनके स्वार्थों के साथ समझौते नहीं करना, राज्य की ओर से पुरस्कार या अर्थसहयोग की अपेक्षा नहीं करना, सम्मान और खुशामद का अन्तर समझना विद्यापीठों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।  
 
# देश के ज्ञान का रक्षण, वर्धन, परिष्करण करना, अगली पीढी को हस्तान्तरित करना, जीवन की और जगत की समस्याओं का ज्ञानात्मक समाधान करना, राज्य और समाज के कल्याण हेतु नित्य चिन्तन करना, मार्गदर्शन करने हेतु सदैव सिद्ध रहना, नित्य ज्ञानसाधक और विद्यावृत्ती रहना, ज्ञान के प्रति एकानिष्ठ रहना, ज्ञान का अनादर नहीं होने देना, अज्ञानी को प्रश्रय नहीं देना, सत्ता या धन के समक्ष नहीं झुकना, इनके स्वार्थों के साथ समझौते नहीं करना, राज्य की ओर से पुरस्कार या अर्थसहयोग की अपेक्षा नहीं करना, सम्मान और खुशामद का अन्तर समझना विद्यापीठों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।  
# सर्व स्तरों पर विद्यासंस्था के मुखिया को धर्मसंस्था के मुखिया के साथ समयायोजन करना आवश्यक है। धर्म और शिक्षा एक ही सिस्के के दो पक्ष हैं। शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । शिक्षा के बिना धर्म का प्रसार नहीं होगा, धर्म के बिना शिक्षा का आधार नहीं बनेगा। दोनों परस्परपूरक हैं। अतः दोनों का एकदूसरे के साथ मेल होना आवश्यक है। शिक्षक को धर्मतत्त्व अवगत होना चाहिये, धर्माचार्य को शिक्षक की कला का ज्ञान होना चाहिये । दोनों यदि एक ही हैं तब तो अच्छा ही है परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से दोनों भिन्न रहेंगे। शिक्षक और धर्माचार्य में कौन बडा है ऐसा यदि कोई पूछता है तो निश्चित ही धर्माचार्य बडा है, अधिक सम्माननीय है। एक ही साथ यदि राष्ट्रपति, कुलाधिपति और धर्माधिपति उपस्थित हों तो सर्वोच्च स्थान धर्माधिपति को, दूसरा स्थान कुलाधिपति को और तीसरा राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिये । भारतीय समाज की यही व्यवस्था रही है, युगों से रही है। भारत के लिये यही स्वाभाविक व्यवस्था है।
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# सर्व स्तरों पर विद्यासंस्था के मुखिया को धर्मसंस्था के मुखिया के साथ समयायोजन करना आवश्यक है। धर्म और शिक्षा एक ही सिस्के के दो पक्ष हैं। शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । शिक्षा के बिना धर्म का प्रसार नहीं होगा, धर्म के बिना शिक्षा का आधार नहीं बनेगा। दोनों परस्परपूरक हैं। अतः दोनों का एकदूसरे के साथ मेल होना आवश्यक है। शिक्षक को धर्मतत्त्व अवगत होना चाहिये, धर्माचार्य को शिक्षक की कला का ज्ञान होना चाहिये । दोनों यदि एक ही हैं तब तो अच्छा ही है परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से दोनों भिन्न रहेंगे। शिक्षक और धर्माचार्य में कौन बडा है ऐसा यदि कोई पूछता है तो निश्चित ही धर्माचार्य बडा है, अधिक सम्माननीय है। एक ही साथ यदि राष्ट्रपति, कुलाधिपति और धर्माधिपति उपस्थित हों तो सर्वोच्च स्थान धर्माधिपति को, दूसरा स्थान कुलाधिपति को और तीसरा राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिये । धार्मिक समाज की यही व्यवस्था रही है, युगों से रही है। भारत के लिये यही स्वाभाविक व्यवस्था है।
    
==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
 
==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है....
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धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है....
 
# गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।  
 
# गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।  
 
# इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।  
 
# इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।  
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 
[[Category:Education Series]]
 
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[[Category:भारतीय शिक्षा : भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]

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