समाज को सुदृढ़ बनायें

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अध्याय ३६

१. सामाजिक करार सिद्धांत को नकार

एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ समरस नहीं होता तब तक समाज बनने की सम्भावना ही नहीं पैदा होती । पश्चिम को इस सूत्र का लेशमात्र बोध नहीं है । पश्चिमी स्वभाव वाला व्यक्ति अकेला रहना चाहता है। अकेले रहने को वह स्वतन्त्रता कहता है। उस स्वतन्त्रता को श्रेष्ठ मूल्य मानता है। उसे अपना अधिकार मानता है। इस स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये वह अपने आसपास एक सुरक्षाचक्र बनाता है। सुरक्षाचक्र को यथासम्भव अभेद्य बनाने का प्रयास करता है। कोई भी उसमें प्रवेश न करे इसकी सावधानी रखता है । स्व-तन्त्र-ता का वह शाब्दिक अर्थ समझता है और अपने ही तन्त्र से वह जीता है। अपने तन्त्र में किसी की दखल वह नहीं चाहता है।

इस स्वतन्त्रता के दो आयाम हैं । एक है असुरक्षा का भाव और दूसरा है अविश्वास का भाव । उसे हमेशा दूसरों से भय रहता है। यदि सावधानी नहीं रखी गई तो कोई भी आकर उसकी स्वतन्त्रता का नाश करेगा यह भय उसका नित्य साथी है। कोई मुझे किसी प्रकार का नुकसान नहीं करेगा ऐसा विश्वास वह नहीं कर सकता । सारे सम्बन्धों को वह अविश्वास से ही देखता है । इसका भी कारण है । उसकी वृत्ति स्वार्थी और अन्यायपूर्ण है । वह अपनी स्वतन्त्रता को तो बनाये रखना चाहता है परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश करने की युक्ती प्रयुक्ती है। वह स्वयं तो किसी के अधीन नहीं रहना चाहता परन्तु दूसरों को अपने अधीन बनाना चाहता है। इस कारण से उसे हमेशा भय और अविश्वास भी नित्य साथ रखने ही पड़ते हैं । उसे ये इतने स्वाभाविक लगते हैं कि उनके कारण से अनेक मानसिक बिमारियाँ पैदा होती हैं इसकी भी उसे चिन्ता नहीं होती। उन्हें भी वह अनिवार्य अनिष्ट समझकर स्वीकार करता है। विषुववृत्त पर तापमान अधिक होना जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भय, अविश्वास और उनसे जनित मनोवैज्ञानिक समस्याओं का होना है।

पृथ्वी के गोल पर वह अकेला तो नहीं रह सकता। यद्यपि उसका स्वप्न तो सारी पृथ्वी पर अकेले ही स्वामित्व स्थापित कर उपभोग करना रहता है। परन्तु पृथ्वी पर असंख्य मनुष्य रहते हैं । मनुष्य के अलावा शेष सारी प्रकृति का तो वह स्वघोषित स्वामी है ही, परन्तु मनुष्यों के साथ वह ऐसी घोषणा नहीं कर सकता क्योंकि दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही चाहते हैं। प्रत्येक मनुष्य मन में एकाधिकार की आकांक्षा रखता है परन्तु प्रकट रूप में उसे सबके साथ समायोजन करना पडता है। इस समायोजन के लिये उसने जो व्यवस्था बनाई है उसे उसने 'सामाजिक करार' की संज्ञा दी है। अपने सुख और हित को सुरक्षित रखते हुए, रखने के लिये दूसरों से जितना मिलता है उतना लेना, दसरों से अधिकतम प्राप्त कर लेने के लिये यदि कुछ देना पडता है तो देना इस प्रकार का आशय और स्वरूप है।

सामाजिक करार का यह सिद्धान्त सामाजिक जीवन में विसंवाद पैदा करनेवाला है। यह सिद्धान्त स्वार्थ और स्वकेन्द्री व्यवस्था को मान्यता देता है. । स्पर्धा और संघर्ष को अनिवार्य बनाता है, युद्ध को स्वाभाविक सिद्ध करता है और दुःख, शोक, अस्वास्थ्य को नियन्त्रित कर नाश की ओर गति करता है। अपने आपको बचाकर रखने की मनुष्य की वृत्ति समरसता, परिवार भावना, सेवा आदि को पनपने ही नहीं देती । इन तत्त्वों के बिना समाज की समृद्धि और संस्कृति सम्भव ही नहीं है।

भारत अपने लिये तो इस सामाजिक करार के सिद्धान्त का स्वीकार नहीं ही करेगा अपितु विश्वकल्याण की दृष्टि से भी उसको छोडना आवश्यक है यह समझाने का प्रयास करेगा।

२. लोकतंत्र पर पुनर्विचार

भारत में आज लोककन्त्र है। अंग्रेजी के शब्द डेमोक्रसी का यह अनुवाद है । परन्तु अन्य अनेक संज्ञाओं के अनुवाद की तरह इस शब्द के अनुवाद ने भी भारी अनर्थ किया है। अंग्रेजी का डेमोक्रसी और भारत का लोकतन्त्र एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न संकल्पनायें हैं।

क्या यह विस्मयकारी नहीं लगता कि सन १९४७ तक - ब्रिटीश भारत से गये तब तक भारत में लोकतन्त्र नहीं था । भारत में ब्रिटीशों का राज्य था तब भी नहीं था। तब भी राज्य तो रानी विक्टोरिया का ही था। आदि काल से भारत में राजाओं का राज्य रहा है। यह अवश्य सत्य है कि गणतन्त्र भी रहे हैं परन्तु आज का लोकतन्त्र भारत की लोकतन्त्र की संकल्पना की घोर विडम्बना है। यह संकल्पना हमने पश्चिम से ली है। आधुनिक काल में इसे श्रेष्ठतम शासनप्रणाली माना जाता है। लोगों का, लोगों के लिये, लोगों द्वारा शासन कहकर लोक का गौरव किया जाता है। सबको समान मानने का यह उत्तम तरीका है।

परन्तु कुछ समझदार व्यक्ति इसे अतार्किक अवश्य कहेगा । व्यक्ति के रूप में सब समान होने पर भी भावात्मक और बौद्धिक दृष्टि से सब समान नहीं होते यह हकीकत है ।

दूसरा, शासन करनेवाले को शस्त्रशास्त्र और शीलसम्पन्न होना चाहिये यह तो कोई भी कहेगा । परन्तु लोकतन्त्र में चुनाव के माध्यम से विधानसभा और संसद के सदस्य, मन्त्री, मुख्यमन्त्री या प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति बनने के लिये इन तीन में से किसी भी बात की आवश्यकता नहीं होती। शील की बात लोग करते अवश्य है परन्तु वह कानून की दृष्टि से अपराधमुक्त होना भर है।

पूरे विश्व में चुनाव पैसे से ही लडे और जीते जाते हैं यह सर्वविदित रहस्य है। इसे नकारने में कोई स्वारस्य नहीं । इस स्थिति में संसद या अन्य कोई भी जनप्रतिनिधियों की सभा अर्थ के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकती। लोकतान्त्रिक शासन यदि अर्थ के प्रभाव में ही रहेगा तो वह अर्थ का ही शासन होगा, लोक का नहीं यह भी स्पष्ट है। अप्रत्यक्ष रूप से अर्थ का शासन प्रजा को दरिद्र बनाने का सीधा उपाय है। वैसे भी अर्थकेन्द्री समाजव्यवस्था में शासन अर्थ का बन्धक ही बन जायेगा यह स्वाभाविक है। लोकतन्त्रात्मक शासन अर्थ का सबसे सरल शिकार है इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं। वास्तव में यह लोकतन्त्र नहीं, लोकतन्त्र के नाम से व्यापारतन्त्र ही है, इससे भी आगे यह बाजारतन्त्र है।

भारत में प्रत्यक्ष शासन राजा का रहा हो तब भी भावात्मक दृष्टि से लोक का महत्त्व अत्यधिक रहा है। 'राजा' शब्द ही 'प्रजानुरंजनात् राजा' - प्रजा का अनुरंजन करता है इसलिये राजा है । 'प्रजा का अनुरंजन' का अर्थ है प्रजा की खुशी के अनुसार जो खुश रहता है वह राजा है। महाभारत में भी कहा गया है कि जो राजा 'मैं प्रजा की रक्षा करूंगा' ऐसा कहकर राज्य ग्रहण करता है परन्तु बाद में प्रजा की रक्षा नहीं करता उसकी पागल कुत्ते की तरह पथ्थर मार मार कर हत्या कर देनी चाहिये।

भारत का शासन का आदर्श 'रामराज्य' है यह भी सर्वविदित है।

परन्तु पश्चिम के प्रभाव ने सम्पूर्ण विश्व में लोकतन्त्र को प्रतिष्ठा प्रदान की है, भले ही इस लोकतन्त्र ने अराजक की स्थिति निर्माण कर दी हो ।

लोकतन्त्र की इस संकल्पना को नकारना और उसके स्थान पर लोकतन्त्र की सही संकल्पना को प्रस्तुत करना भारत का परम कर्तव्य है । चिरन्तन सुख, सबका सुख, श्रेष्ठ सुख आदि कल्पनायें पश्चिम के लिये अत्यन्त दुर्लभ और अकल्प्य हैं ऐसा ही लगता है। पश्चिम के पास चमकदमक है, वैभव है, गुरुताग्रन्थि है, दिखावा है, आधुनिकता है परन्तु सुख, सौमनस्य, सुरक्षा, निश्चिन्तता और शान्ति नहीं है। इस दुर्भाग्य के लिये यह स्वयं जिम्मेदार है।

इसके साथ ही भारत भी जिम्मेदार है । भारत के लिये ये सारी बातें दर्लभ नहीं थीं, नहीं हैं। भारत के पास ज्ञान है, कौशल है और अनुभव है। हजारों वर्षों की भारत की परम्परा है।

अपने इस अनुभव के आधार पर पश्चिम की अपरिपक्व अधूरी और उसके स्वयं के लिये तथा शेष विश्व के लिये संकट निर्माण करनेवाली बातों को हमें नकारना पडेगा। उनका स्वीकार क्यों नहीं हो सकता यह समझना पडेगा और समझाना पड़ेगा।

जैसा कि पूर्व में कहा है भारत ने इस स्थिति का सामना पूर्व इतिहास में अनेक बार किया है । भूभाग के साथ साथ संस्कृति पर होने वाले आक्रमणों को अनेक बार परास्त किया है । धर्म और अधर्म, दैवी और आसुरी सम्पद् के मध्य अनेक बार संघर्ष हुए हैं, और भारत ने सिद्ध किया है कि विजय तो धर्म की और सत्य की ही होती है।

आज का पश्चिम आसुरी सम्पद् का साक्षात् उदाहरण है। अहंकार, बल, आत्मस्तुति, स्वयं की श्रेष्ठता का भाव, औरों के प्रति तुच्छता का भाव, अपरिमित सत्ता और वैभव प्राप्त करने की आकांक्षा, अविचार, सबके ऊपर विजय प्राप्त करने की और श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करने की प्रवृत्ति आसुरी सम्पद् के लक्षण हैं। ऐसी मनोवृत्ति लेकर ही पश्चिम ने पाँचसौ वर्ष पूर्व विश्व की यात्रा शुरू की थी। समस्त पृथ्वी को पादाक्रान्त करते हुए उसने अनेक राष्ट्रों के मूल निवासियों को नष्ट किया उन पर अपना आधिपत्य जमाया, अनेक प्रजाओं को गुलाम बनाया, शोषण और अत्याचार का अपरिमित दौर, चलाया, अनेक राष्ट्रों को यूरोपीय बनाया, अनेक राष्ट्रों को इसाई बनाया और 'साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता' ऐसी गर्वोक्ति को सार्थक भी बनाया।

परन्तु आसुरी सम्पद् सर्वभक्षी होती है। सर्व का भक्षण होने के बाद वह स्वयं भी अपनी ही आसुरी वृत्ति का भक्ष्य बन जाती है यह इतिहास का सत्य है।

पश्चिम आज विनाश के कगार पर खड़ा है । उसने विश्व के लिये संकट खडे किये उन संकटों का दुष्प्रभाव वह स्वयं झेल रहा है। परिस्थिति उसके नियन्त्रण में नहीं रही है।

पश्चिम को इस विनाश से बचाने के लिये भी भारत को ही सिद्ध होना पडेगा । भारत स्वयं भी पश्चिम से त्रस्त और ग्रस्त है परन्तु अपनी और पश्चिम की मुक्ति के लिये भारत को ही प्रयास करने होंगे।

भारत के लिये ये प्रयास सरल तो नहीं हैं। परन्तु विश्व में यदि कोई कर सकता है तो भारत ही है।

इस कार्य में यशस्वी होने के लिये

१. भारत को अपने में स्थित होना पडेगा अर्थात् भारत को भारत बनना पड़ेगा।

२. भारत को समर्थ बनना होगा।

३. भारत को ज्ञानवान बनना होगा। यह सब कैसे होगा इसका विचार हम आगे कर रहे है।

३. कुटुंब व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण

  1. भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।
  2. पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
  3. परन्तु पश्चिम के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण भारत में विवाह को करार के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई है। अब कानून में, सरकारी व्यवस्था में, सार्वजनिक व्यवस्थाओं में विवाह को करार ही माना जाता है। समाजव्यवस्था में अब परिवार को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई माना जाता है। अतः पति और पत्नी की भी स्वतन्त्र व्यक्ति के नाते ही पहचान बनती है। भारत में पति की पत्नी से और पत्नी की पति से स्वतन्त्र पहचान नहीं होती वे एक ही माने जाते हैं, परन्तु अब वे स्वतन्त्र हो गये हैं।
  4. कुटुम्ब व्यवस्था की इस केन्द्रवर्ती रचना को पुनः प्रस्थापित करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके सांस्कृतिक संकेत महत्त्वपूर्ण है। भारत के एकात्म दर्शन की व्यावहारिक व्यवस्था स्त्री और पुरुष के पतिपत्नी के रूप में एकात्म सम्बन्ध में हुई है। इस पर आघात हुआ है। केन्द्र से ही च्युत हो जाने पर सारी व्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी इसमें कोई आश्चर्य नहीं । सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को ठीक करने हेतु विवाह व्यवस्था ठीक करने की आवश्यकता है।
  5. विवाह के सम्बन्ध में भारत में अनेक शास्त्रों का विकास हआ है। यह विवाहसंस्था का महत्त्व दर्शाता है । इन शाखों ने दी हुई व्यवस्था के अनुसार आज पुनर्विचार किया जा सकता है।
  6. विवाहसंस्था को ठीक करने हेतु बालक और बालिका को विवाह के योग्य बनाने की शिक्षा दी जाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार से पतिपत्नी का सम्बन्ध, गृहस्थाश्रम, सामाजिक दायित्व आदि की शिक्षा भी दी जाने की आवश्यकता है।
  7. कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।
  8. कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।
  9. कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चों के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।
  10. कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।
  11. प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।
  12. अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।
  13. कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही शुरू होती है । माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।
  14. घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।
  15. पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।
  16. भारत आज अनेक बातों में पश्चिम से आक्रान्त हुआ है। आक्रमण का उसे विस्मरण सा भी हुआ है इसलिये जो आक्रमण के रूप में आया है उसे वह स्वाभाविक मानता है, भले ही वह परेशान करता हो । कुटुम्ब संस्था भी आक्रमण का शिकार बनी हुई है। उसे पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है।
  17. कुटुम्ब के सम्बन्धों में एकदूसरे की सापेक्षता ही होती है। कुटुम्ब में व्यक्ति का व्यक्ति के नाते परिचय नहीं होता, सम्बन्ध के नाते होता है, जैसे कि एक ही व्यक्ति अलग अलग व्यक्तियों के सम्बन्ध में पुत्र, पिता, पौत्र, दादा, नाना, दौहित्र, भाई, देवर, बहनोई, साला, चाचा, मामा, फूफा, भतीजा, भानजा आदि होता है। इन सभी सम्बन्धों के कुछ अधिकार और कुछ कर्तव्य होते है। इन अधिकारों का स्वीकार और कर्तव्यों के पालन से सामाजिकता विकसित होती है।
  18. कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।
  19. कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।
  20. कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।

४. स्वायत समाज की रचना

स्वायत्त समाज भारत की विशिष्ट पहचान है। इसका मूल है स्वतन्त्रता की चाह । स्वतन्त्रता के साथ स्वावलम्बन और जिम्मेदारी के तत्त्व भी जुड़े हुए हैं । जो जिम्मेदार और स्वावलम्बी नहीं वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता।

स्वतन्त्रता की मूल परिभाषा परमात्मा के साथ जुडी है। परमात्मा के विषय में कहा गया है कि वह कर्तुमक अन्यथा कर्तुं समर्थ है अर्थात् करने नहीं करने या अलग पद्धति से करने में समर्थ है अर्थात् उसे रोकने टोकनेवाला कोई नहीं है। स्वतन्त्र का अर्थ है अपना तन्त्र अर्थात् अपनी व्यवस्था । अपनी व्यवस्था से रहना भारतीय व्यक्ति का और भारतीय समाज का लक्षण है।

स्वायत्त का अर्थ है स्वाधीन । स्वाधीन होने का अर्थ है अपने स्वयं के ही अनुसार जीना, अपनी इच्छा सर्वोपरि होना । समर्थ समाज ही स्वायत्त और स्वतन्त्र होता है।

स्वावलम्बी समाजरचना का प्रारम्भ व्यक्ति के स्वावलम्बी होने के साथ होता है । व्यक्ति के स्वावलम्बी होने का सीधा सादा सूत्र है अपना काम खुद करों' । अतः व्यक्ति को स्वयं के लिये आवश्यक सारे काम छोटी आयु से ही सिखाये जाते है। व्यक्ति खानापीना, चलनादौडना, नहानाधोना तो स्वयं करता ही है परन्तु कपडे धोना, बर्तन साफ करना, अपनी वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, अपना वाहन तथा अन्य सामान व्यवस्थित रखना आदि भी स्वयं करता है। अपना जीवननिर्वाह भी स्वयं कर सके इतना कुशल बनना भी सिखाया जाता है। अपने सुखदुःख, आनन्दप्रमोद, चित्तवृत्तियाँ भी स्वंय के अधीन हो यह सिखाया जाता है।

परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ?

इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु फिर भी व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं।

स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है।

स्वायत्त समाज सुसंस्कृत समाज बनने की दिशा में तब आगे बढता है जब केवल अपना नहीं अपितु सबका और अपने से पहले और अपने से अधिक दूसरों का विचार करता है। स्वायत्त समाज में व्यक्ति तो किसी का नौकर नहीं बनता, साथ ही किसी पर भी नौकर बनने की नौबत न आये इसकी चिन्ता करता है । इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में दूसरों का काम छीनकर अपना अर्थार्जन का क्षेत्र विस्तृत करने की अनुमति किसी को भी नहीं होती। अर्थार्जन के क्षेत्र में स्पर्धा असंस्कृत और कम बुद्धिमान समाज का लक्षण है क्योंकि वह असुरक्षा, चिन्ता, मानसिक तनाव, दारिद्य और हिंसा को ही जन्म देती है।

स्वायत्त समाज राज्य के अधीन भी नहीं होता । राज्य समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं और गतिविधियों की सुरक्षा और सहूलियत के लिये होता है।

स्वायत्त समाज परिवार भावना से कार्यरत होता है इसलिये समाज में कोई बेरोजगार और अनाथ नहीं होता । यहाँ बेरोजगारों को भत्ता नहीं मिलता काम मिलता है, अनाथों को राज्याश्रय नहीं मिलता है, कुटुम्ब का आश्रय मिलता है। स्वायत्त समाज में होटेल, बैंक, साहुकारी, छात्रालय, अनाथगृह, अबलाश्रम, वृद्धाश्रम नहीं होते । इनके स्थान पर सदाव्रत, धर्मशाला, मन्दिर आदि होते हैं।

भारत ने अपनी इतनी सुन्दर और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं का त्याग कर दिया है। ब्रिटीशों ने अपने स्वार्थ और अज्ञान के चलते इनका नाश किया और स्वाधीनता के बाद हमने उस नाश की ओर देखने के स्थान पर उनके द्वारा की गई व्यवस्था (?) को ही अपना लिया । अब भारत की स्वायत्त समाज की कल्पना हमें अत्यन्त अपरिचित और अवास्तविक लगती है। स्पर्धा नहीं होनी चाहिये ऐसा कहने वाले की बात ही समझ में नहीं आती। बिना बैंक के, बिना ऋण के व्यवसाय, शिक्षा, अपना मकान हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । व्यापक और मूलगत विचार करने हेतु आवश्यक शान्ति, धैर्य और विशाल बुद्धि का भी अभाव है।

परन्तु भारत को अपनी ये मूल्यवान बातें पुनः प्राप्त करनी ही होंगी । ऐसा नहीं किया तो उसका क्या होगा ? विश्व का क्या होगा ?

५. स्थिर समाज बनाना

शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है।

भारतीय समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे