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धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती।
 
धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती।
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वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
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वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
    
मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगोंं के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
 
मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगोंं के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।

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